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भरत चक्रवर्ती प्रर्वितक विद्यासंस्कार!

July 7, 2017विशेष आलेखaadesh

भरत चक्रवर्ती प्रर्वितक विद्यासंस्कार


पाँच म्लेच्छ खण्डों एवं एक आर्यखण्ड को साठ हजार वर्षों में जीत कर भरत ने षट्खंडों का एक छत्र सम्राट् बन सोचा कि मैं परोपकार में किस प्रकार अपनी संपदा का सदुपयोग करूँ ? अनगार, अपरिग्रही, निग्र्रंथ मुनि किसी से धन नहीं लेते अतएव गृहस्थों में जो मनुष्य हैं और अणुव्रतों को धारण करने वाले हैं उनको इच्छित धन तथा सवारी आदिक वाहनों को देकर संतुष्ट करना चाहिये, जिससे समजा व्यवस्था समुन्नत हो और प्रत्येक व्यक्ति धर्म के पालन में दृढ़ चित्त हो और जन्म—मरण के दु:खों से मुक्त हो—मुक्ति पाने में समर्थ हो। इसी तथ्य को ‘‘महापुराण’’ के अड़तीसवें सर्ग के अष्टम पद्य में प्रकट किया गया है—

येऽणुव्रतधरा धीरा धौरेया गृहमेधिनाम्। तर्पणीया हि तेऽस्माभि: इंप्सितैर्वसु वाहनै:।।८।।

अत: भरत चक्रवर्ती ने इस महोत्सव में आने के लिये आदेश प्रसारित कर दिय। नियत दिनांक को नियम समय पर सभी राजा अपने—अपने सदाचारी इष्ट मित्र, परिवार सदस्य, नौकर—चाकर आदि को साथ ले उपस्थित हुए। परीक्षार्थ भरतचक्री ने महोत्सव के मार्ग को हरे—हरे अंकुरों, पुष्पों तथा फलों से सुंदर बनाकर दो भागों में बांट दिया था। जो अणुव्रतधारी नहीं थे वे हरे भरे अंकुरित एवं पुष्पफलमय राह को पार कर उत्सव में पहुँचे परन्तु व्रतधारी अणुव्रती िंहसा के डर से बिना सजे रेतीले मार्ग से उत्सव में पहुँचे। इन व्रतधारियों को भरतचक्री ने द्विज या ब्राह्मण संज्ञा दी और ब्राह्मण जाति या वर्ण की स्थापना की। इसका संकेत ‘महापुराण’ के अड़तीसवें सर्ग के २३वें पद्य में किया है—

अथ ते कृतसन्माना: चक्रिणा व्रतधारिण:। भजन्ति स्म परं दाढर्यं लोकश्चैनानपूजयत्।।२३।।

‘‘भरतचक्री द्वारा सम्मानित व्रतधारी अणुव्रती द्विज—ब्राह्मण व्रतों में पक्के बन गये और अव्रती और अन्य लोगों ने उनको अधिक सन्मान या पूजा का पात्र माना।’’ भरत चक्री ने इन द्विज या ब्राह्मणों को इज्या—देवपूजा के प्रकार १. सदार्चन (मंदिर में प्रतिदिन जिनेन्द्र देव का पूजन), २. चतुर्मुख (महामुकुट बद्ध राजाओं द्वारा महापूजन यज्ञ), ३. कल्पद्रुम (चक्रर्वितयों द्वारा किमिच्छक—मुँहमांगा दान दिया जाने वाला पूजन यज्ञ), ४. आष्टाह्निक (आष्टाह्निका पर्व में पूजन विधान यज्ञ), ५. ऐन्द्रध्वज। (इन्द्रों द्वारा किया जाने वाला महायज्ञ)। इन पाँच पूजनों का तथा २ वार्ता (विशुद्ध आचरण के साथ खेती करना) ३ दत्ति—दयादत्ति, पात्रदत्ति (मुनिसंघ तथा र्आियका संघों को दान) समदत्ति (समान क्रिया, आचार और समानव्रतादि के पालने वालों को श्रद्धा के साथ दान) ४. अन्वयदत्ति (वंश की प्रतिष्ठा के लिए पुत्र को समस्त कुल पद्धति तथा धन के साथ कुटुम्ब को समर्पण करना) तथा स्वाध्याय, संयम और नय साधने का उपदेश दिया। आचार्य पद्मनंदि ने इन्हीं को देवपूजा, गुरुपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये षट्कर्म का नाम दे प्रतिदिन पालने का उपदेश दिया। द्विजों—ब्राह्मणों की व्याख्या करते हुए ‘‘महापुराण’’ में कहा है कि—

द्विजातो हि द्विजन्मेष्ट: क्रियातो गर्भतश्च य:। क्रिया मंत्र विहीनस्तु केवलं नामधारक:।।४८।।

तदेषां जातिसंस्कारं दृढयन्निति सोऽधिराट्। स प्रोवाच द्विजन्मेभ्य: क्रियाभेदानशेषत:।।४९।।

ताश्च क्रियास्त्रिधाऽऽम्नाता: श्रावकाध्यायसंग्रहे। सद्दृष्टिभिरनुष्ठेया महोदर्का: शुभावहा।।५०।।

गर्भान्वयक्रियाश्चैव तथा दीक्षान्वयक्रिया:। कत्र्रन्वयक्रियाश्चेति तास्त्रिधैवं बुधैर्मता:।।५१।।

‘‘जो एक बार गर्भ से और दूसरी बार क्रियासंस्कार से जन्म लेता है वह द्विज या ब्राह्मण है किन्तु क्रिया और मंत्र दोनों से हीन द्विज मात्र नाम से द्विज है।।४८।।’’ अत: इन द्विज जाति के जनों के संस्कार को दृढ़ करते हुए निम्न क्रियाओं के समस्त भेद भरत चक्रवर्ती ने कहे।।४९।। ‘‘श्रावकाध्याय संग्रह’’ में द्विजों की वे क्रियायें तीन प्रकार की कही गई हैं। सम्यक्दृष्टि पुरुषों को उन उत्तम फल देने वाली तथा शुभ—कल्याण करने वाली क्रियाओं को पालना चाहिये।।५०।। ‘‘विद्वानों ने १. गर्भान्वय क्रिया २. दीक्षान्वय क्रिया ३. कत्र्रन्वय क्रिया इस प्रकार तीन प्रकार की क्रियायें बताई हैं। ‘‘महापुराण’’ के ३८वें सर्ग में इन तीनों क्रियाओं के भेदों को बताते हुए कहा है—

आधानाद्यास्त्रिपंचाशत् ज्ञेया: गर्भान्वयक्रिया:। चत्वािंरशदथाष्टौ च स्मृता: दीक्षान्वयक्रिया।।५२।।

कत्र्रन्वयक्रियाश्चैव सप्त तज्ज्ञै: समुच्चिता:।। तासां यथाक्रमं नामनिर्देशोऽयमनूद्यते।।५३।।

‘‘आधानादि गर्भान्वय क्रियायें ५३ हैं, दीक्षान्वय क्रियायें ४८ हैं और विद्वानों ने ७ कत्र्रन्वय क्रियायें संग्रहीत की हैं। आगे इन सब के नामों का निर्देश किया जाता है।’’५३।। इस लेख का संबंध केवल विद्यार्थी जीवन से संबद्ध ‘प्रथम गर्भान्वय क्रिया से लेकर १६वीं’’ व्रतावतरण क्रिया’’ तक है। अतएव मैं ‘‘महापुराण’’ के ३८वें सर्ग के दो पद्यों द्वारा उन १६ संस्कारों—क्रियाओं का मात्र उल्लेख कर उन पर विस्तार से प्रकाश डालूँगा।

आधानं प्रीतिसुप्रीती धृतिर्मोद: प्रियोद्भव:। नामकर्मबहिर्याननिषद्या: प्राशनं तथा।।५५।।

व्युष्टिश्च केशवापश्च लिपिसंख्यानसंग्रह:। उपनीतिव्र्रतं चर्या व्रतावतरणं तथा।।५६।।

‘‘१. आधान २. प्रीति ३. सुप्रीति ४. धृति ५. मोद ६. प्रियोद्भव ७. नामकर्म ८. बहिर्यान ९. निषद्या १०. प्राशन ११. व्युष्टि १२. केशवाप १३. लिपिसंख्यान संग्रह १४. उपनीति १५. व्रतचर्या १६. व्रतावतरण।’’ इन १६ क्रियाओं का बचपन से विद्यार्जन तक जीवन पर्यन्त संस्कारों की श्रेष्ठता लाने में अच्छा प्रभाव पड़ता है। इन संस्कारों से भावी संतान का जीवन समुज्वल एवं र्धािमक बनता है। संस्कार भूत, भविष्यत् और वर्तमान की सुखी जीवन की कुंजी है और रामबाण औषधि है। अत: कहा गया है—

सुखं वाञ्छन्ति सर्वेऽपि जीवा दु:खं न जातुचित्। तस्मात् सुखैषिणो जीवा संस्कारायाभिसंमता:।।

‘‘पू. क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी’’ ने ‘‘जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश’’ के पृष्ठ १४९ पर संस्कारों के महत्त्व के विषय में निम्न प्रकार डंके की चोट लिखा है— ‘‘व्यक्ति के जीवन की संपूर्ण शुभ और अशुभ वृत्ति उनके संस्कारों के अधीन है। जिनमें से कुछ पूर्वभव से अपने साथ लाता है और कुछ इसी भव में संगति व शिक्षा आदि के प्रभाव से उत्पन्न करता है। इसीलिये गर्भ में आने के पूर्व से ही बालक में विशुद्ध संस्कार उत्पन्न करने के लिये विधान बताया गया है। गर्भावतरण से लेकर निर्वाण पर्यन्त यथावसर जिनेन्द्र पूजन व मंत्र विधान सहित ५३ क्रियाओं का विधान है, जिनसे बालक के संस्कार उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हुए एक दिन वह निर्वाण का भाजन बन जाता है।’’ खदान से निकले हीरे जवाहरातों को संस्कारों द्वारा निर्मल और चमकीला बनाया जाता है तभी उनका निखार होता है और कीमत बढ़ जाती है। ‘‘भक्तामर स्तोत्र’’ में कहा गया है—

ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकांश नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु।

तेज: स्फुरमणिषु याति यथा महत्त्वं नैवं तु काच शकले किरणाकुलेऽपि।।२०।।

‘‘हे जिनेन्द्र देव ! अनन्त पर्यायात्मक ज्ञान जैसा आप में शोभायमान होता है वैसा ज्ञान हरिहरादि नायक देवों में नहीं शोभा पाता जिस प्रकार संस्कारित चमकीलें मणियों में तेज गौरव को पाता है। उस प्रकार चमकते कांच के टुकड़ों में तेज शोभा नहीं देता।।२०।। इसीलिये जिनेन्द्रदेव त्रिलोकी सर्वज्ञ कहे जाते हैं। बालक बिना संस्कारों के उच्च आचरणों द्वारा निर्मल, सुखी जीवन एवं समाजोपयोगी बनने के साथ मोक्ष के परमानन्द के पात्र नहीं बन सकते। संस्कारों की महिमा धवला, मूलाचार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, सर्वार्थसिद्धि, द्रव्य संग्रह आदि ग्रंथों में गाई गई है। प्रथम आधान क्रिया का उद्देश्य षट्कर्मों के पालन के साथ सुयोग्य सुपुत्र या सुपुत्री के लिए भौतिक भोगाभिलाष निरपेक्ष पति—पत्नी संसर्ग से है। पर वर्तमान भौतिकवादी युग में पति—पत्नी दोनों विपरीत दिशा में चल रहे हैं। अत: सुयोग्य और र्धािमक संतान का लक्ष्य पूरा होना कठिन हो गया है। प्रथम ‘‘आधान क्रिया’’ के विषय में ‘‘महापुराण’’ में कहा गया है—

आधानं नाम गर्भादौ संस्कार मंत्रपूर्वक:। पत्नीमृतुमतीं स्नातां पुरस्कृत्यार्हदिज्यया।।७०।।

‘‘श्रावक के षट्कर्मों में प्रथम देवपूजा—अर्हंत देव की पूजाकर मंत्राराधनापूर्वक गर्भ में रहने के पूर्व ऋतुमती के स्नान के पश्चात् अपनी पत्नी के साथ सहवास करे।।७०।।

सन्तानार्थमृतावेव कामसेवां मिथो भजेत्। शक्तिकालव्यपेक्षोऽयं क्रमोऽशक्तेष्वतोऽन्यथा।।१३४।।

‘‘ऋतुकाल में रजोदर्शन से छठी रात्रि में ही संतान की कामना से पति—पत्नी को सहवास करना चाहिए। यह क्रम केवल शक्तिशाली पुरुषों की अपेक्षा रखता है। जो शक्तिहीन हैं उन्हें

यथाशक्ति ब्रह्मचर्य पालते हुए सहवास करना चाहिए।।१३४।।

सन्तानार्थ सहवास की बात ‘‘जैनेन्द्रसिद्धान्त कोष’’ में चौथे स्नान के बाद लिखी है। यह प्रचलित परंपरा के अनुसार है ऐसा मैं मानता हूँ जबकि पं. शिवजी राम पाठक ने ‘‘जैन संस्कार विधि’’ पृष्ठ ४७ पर छठे स्नान के बाद रात्रि में सहवास की बात संतान कामना की भावना से लिखी है। उच्च भावनाओं से सन्तानार्थ सहवास वंशपरंपरा तथा र्धािमक परंपरा चलाने के लिये अनिवार्य है। आ. समन्तभद्र ने ‘‘रत्नकरण्डक श्रावकाचार’’ में लिखा है—

स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान र्गिवताशय:। सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मों र्धािमवैर्वना।।२६।।

‘‘अभिमान से जो चारों संघों के सदस्यों का गर्व से चूर हो उनका अपमान करता है वह आत्मीय धर्म का अपमान करता है क्योंकि र्धािमक समाज के चारों संघों के सदस्यों के बिना या र्धािमक मानवों के बिना धर्म नहीं चल सकता या नहीं पल सकता या पाला जा सकता।।’’३०।। आचार्य समन्तभद्र ने यह भी कहा है—

गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान्। अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोही मोहिनो मुने:।।३३।

‘‘निर्मोह या मोहनीय कर्म रहित गृहस्थ मोक्षमार्ग में स्थित है किन्तु मोही मुनि मोक्षमार्ग में स्थित नहीं है अत: मोही मुनि से निर्मोह गृहस्थ श्रेष्ठ है।’’ भगवान् महावीर के चारों संघों को चलाने वाला या उनका भार वहन करने वाला निर्मोही गृहस्थ है। र्धािमक गृहस्थों के बिना समाज व्यवस्था या संघ व्यवस्था या राज्य और राष्ट्र व्यवस्था तथा विश्व व्यवस्था चरमरा जायेगी। पं. शिवजी राम पाठक प्रतिष्ठाचार्य ने ‘‘जैन संस्कारविधि’’ के पृष्ठ ५१ पर लिखा है—

स्वगृहे प्राक् शिर: कृर्यात् श्वासुरे दक्षिणामुख:। प्रत्यङ्मुख: प्रवासे च न कदाचिदुदङ्मुख।।१।।

पादौ प्रक्षालयेत् पूर्व पश्चात् शय्यां समाचरेत्। मृदुशय्यां स्थित: शेते रिक्तशय्यां परित्यजेत्।।२।।

‘‘अपने घर में पूर्व की ओर सिरहाना करके सोवें, ससुराल में दक्षिण की ओर सिरहाना करके और प्रवास में पश्चिम की ओर सिरहाना करके सोवें। उत्तर की ओर सिरहाना करके ना सोवें। सोने के पहले अपने पैरों को अच्छी तरह धोवें। शय्या कोमल हो कठोर नहीं हो।।’’ सहवास महीने में तीन या चार बार से अधिक नहीं हो तो अच्छी संतान होगी ऐसा आयुर्वेदादि ग्रंथों में भी लिखा है। दूसरी प्रीति क्रिया है जो गर्भाधान होने पर तीसरे महीने में होती है और भगवान् जिनेन्द्र की पूजा आदि से उसका संबंध है। दम्पत्ति युगल को धर्माराधना में यथाशक्ति समय लगाना चाहिये। सुयोग्य संतान की प्राप्ति या सुखमय संसार पुण्य के फलों के अन्तर्गत गिना जाता है। तीसरी सुप्रीति क्रिया है जो गर्भाधान के पाँचवें महीने में शुभ मुहूर्त में मंदिर में भगवान जिनेन्द्र की पूजा आदि के साथ की जाती है। चौथी धृति क्रिया जो गर्भाधान के सातवें महीने में शुभ मुहूर्त में भगवान् जिनेन्द्र पूजन आदि के साथ संपन्न होती है। आज भी सादों के नाम से समाज में यह क्रिया प्रचलित है। सभी क्रियायें र्धािमक भावनाओं से भरी हैं जिनका संबंध सुयोग्य र्धािमक संतान की प्राप्ति से जुड़ा है। पाँचवी मोह क्रिया गर्भाधान के आठवें महीने में होती है। इसमें शुभ मुहूर्त में जिनेन्द्र पूजन के साथ अन्य क्रियायें होती हैं। इसे कुछ समाजों में ‘‘आठवां पूजना’’ नाम दिया गया है। बाधाएं हों तो यह क्रिया आठवें या नवमे माह में की जा सकती है। छठवीं क्रिया प्रियोद्भव क्रिया या ‘‘जातकर्म संस्कार क्रिया’’ है। जिसमें संतान होने के पश्चात् जिनेन्द्र, यन्त्र पूजन तथा हवन आदि क्रियायें की जाती हैं। यदि लड़की पैदा हुई तो क्रियाओं के मंत्र नहीं बोलकर केवल द्रव्यमात्र से ही पूजनादि करना चाहिये ऐसा श्री पं. पाठकजी ने लिखा है। इन क्रियाओं का वर्णन उपासकाध्ययनांग में है। सातवीं क्रिया ‘‘नामकरण’’ क्रिया है। इसे ‘‘नामसंस्कार’’ क्रिया भी कहते हैं। पं. शिवजी राम पाठक ने लिखा है—

द्बादशे षोडशे विंशे द्वािंत्रशे दिवसेऽपि वा। नामकर्म स्वजातीनां कर्तव्यं पूर्वमार्गत:।।

‘‘जन्म से बारहवें, सोलहवें, बीसवें अथवा बत्तीसवें दिन में शुद्ध शुभ मुहूर्त में अपने बच्चे या बच्ची का वंश परंपरा के अनुसार ‘‘नामकरण संस्कार’’ करना चाहिए। इस क्रिया में पूजन, यंत्रपूजन आदि मंगल क्रियायें की जाती हैं। ‘‘घटपत्र विधि’’ से भगवान् जिनेन्द्र देव के १००८ नामों में से इच्छानुसार कागज के टुकड़ों पर लिख गोलियाँ बनाकर घड़े में डालकर किसी अबोध बालक से गोली निकलवाकर मंत्र पूर्वक ‘‘नामकरण’’ किया जाता है। वर्तमान में तो मनमाना घर का नाम रखा जाने लगा है और जन्मकुंडली के अनुसार राशिनाम प्रचलित होने लगा है। ‘‘जैनेन्द्र सिद्धांत कोष’’ में १२वें दिन नाम संस्कार करने का उल्लेख है। आठवीं ‘‘बहिर्यान’’ क्रिया है। जन्म से १ माह १५ दिन बाद किसी शुभ मुहूर्त में माता—पिता बालक को स्नानादि करा नये वस्त्र पहनाकर यंत्र पूजन हवनादि के पश्चात् बालक को मंदिर गाजे बाजे के साथ गृहस्थाचार्य के साथ ले जावें तथा आवश्यक क्रियायें कराकर घर लावें। ‘‘जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष’’ में जन्म से ३ या चार माह पश्चात् इस क्रिया के करने का विधान किया है। नवम ‘‘निषद्या’’ क्रिया है जो तीसरे चौथे महीने के बाद किसी शुभ दिन में मंत्रपूर्वक बालक या बालिका को झूले में बिठाकर झुलाते हैं। किसी शुभ दिन में नाक और कान छिदवाते हैं। यंत्र पूजन और हवनादि क्रियायें की जाती हैं। दसवीं ‘‘अन्नप्राशन’’ क्रिया है जिसे सातवें या नौवें महीने में शुभ मुहूर्त में यंत्र पूजन हवनादि के साथ किया जाता है। बालक को माता—पिता गोद में बिठाकर पूर्व दिशा में मुख करते हैं और बालक का दक्षिण दिशा में मुख कर घृत मिश्री खीर खिलाते हैं। ग्यारहवीं व्युष्टि क्रिया या ‘वर्षवर्धन संस्कार’’ किया जाता है। यह क्रिया दसवें, ग्यारहवें या बारहवें महीने में जब बालक चलने योग्य हो जाता है तब की जाती है। इसमें शुभ दिन शुभ मुहूर्त में जिनेन्द्र पूजन हवनादि के पश्चात् पिता बालक को उत्तरमुख करके अपने हाथों से दोनों भुजायें पकड़कर मंत्रोच्चार पूर्वक बालक का दाहिना पाँव आगे को पूर्वोन्मुख गमन करना सिखाता है। इसे वर्षगाँठ भी कहते हैं। वर्तमान में आंग्ल पद्धति से केक काटने के साथ तथा मोमबत्तियाँ वर्षों के अनुसार प्रज्वलित करके तथा बुझा करके की जाती है। केक काट कर खिलाते हैं तथा प्रीतिभोज दिया जाता है। इस प्रीतिभोज में सब अपने अपने हाथों से उठाकर खाते जाते हैं। अब खान पान की शुद्धता जाती रही। सब जूते—चप्पल पहिन कर खाते हैं। इसे ‘बपे सिस्टम’ कहा जाता है जो समाज में प्रचलित हो गया है। यह कलियुग की बलिहारी देन है। बारहवीं ‘‘चौलक्रिया’’ या ‘‘केशवाप’’ क्रिया कहलाती है। इसे दूसरे वर्ष से पंचम वर्ष के भीतर किसी भी वर्ष के शुभ दिन और शुभ मुहूर्त में किया जा सकता है परन्तु यह क्रिया निम्न श्लोकों में दिये गये आदेशों को ध्यान में रखकर करना चाहिये। यंत्र पुजन हवनादि होना चाहिए।

चूलाकर्म शिशोर्मातरि र्गिभण्यां यदि वा भवेत्। गर्भस्य वा विपत्ति: स्याद् विपत्तिर्वा शिशोरपि।।१।।

शिशोर्मातरि र्गिभण्यां चूलाकर्म न कारयेत्। गते तु पंचम वर्षे दोषयेन्नहि र्गिभणी।।२।।

बालक की माता के गर्भवती होने पर यह क्रिया करने पर गर्भ के बालक और गर्भवती पर विपत्ति आ सकती है। अतएव बालक की माता के गर्भवती होने पर यह चूलाकर्म क्रिया नहीं करनी चाहिये। यदि पांचवें वर्ष बाद यह क्रिया हो तो माता के गर्भवती होने पर भी कोई दोष नहीं है। ‘‘जैनसंस्कारविधि’’ पृष्ठ ६३—६४। नापित के द्वारा माता सहित बालक के पूर्व दिशा या उत्तर दिशा में मुख करके बैठने पर छुरे से मुंडन मंत्र पूर्वक कराया जाता है। बालक के बालों को गीले आटे में लपेटकर जलाशय पहुँचाते हैं। शान्ति विसर्जन पूर्वक तथा वस्त्राभूषण पहिनाकर बालक की चोटी के स्थान पर केशर से साथिया बना मुनिराज या मंदिर के दर्शन कराते हैं। अन्त में दान भोजनादि के साथ क्रिया संपन्न की जाती है। तेरहवीं ‘‘लिपिसंख्यान’’ क्रिया है जो पांचवें वर्ष के अंत में सूर्य के उत्तरायण होने पर की जाती है। इस क्रिया के लिए बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार अत्यन्त शुभ माने गये हैं, रविवार और सोमवार मध्यम दिन है परन्तु शनिवार और मंगलवार निकृष्ट दिन माने गये हैं। इस क्रिया में अनध्याय, प्रदोषकाल, चतुर्थी, षष्ठी, नवमी और चतुर्दशी तिथि हेय हैं। इस क्रिया को घर में या विद्यालय में बालक को स्नान करा पवित्र वस्त्राभूषण पहिना यंत्र पूजन हवनादि के साथ करना चाहिये। उपाध्याय बालक से शुद्ध केशर से काठ की सुन्दर चिकनी पट्टी पर ‘‘ऊँ’’ लिखवाता है और ‘‘ऊँ नम: सिद्धेभ्य:’’ लिखवाकर उच्चारण कराता है। बालक के हाथों में पुस्तक और पट्टी देते हैं। बालक गृहस्थाचार्य, उपाध्याय, माता—पिता आदि गुरुजनों को प्रणाम कर, चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेता है। अंत में विद्यागुरु और गृहस्थाचार्य का द्रव्य वस्त्रादि से सम्मान कर विद्यादान के साथ शांतिविजर्सन किया जाता है। चौदहवीं उपनयन क्रिया या यज्ञोपवीत क्रिया है जो ‘उपनीति’ क्रिया नाम से भी कही गई है। यह क्रिया बालक के आठवें वर्ष में प्रवेश करने के बाद २४वें वर्ष तक की जा सकती है। ‘‘आदिपुराण’’ में इस क्रिया के लिये आठवाँ वर्ष ही उपयुक्त माना गया है क्योंकि इस वर्ष तक बालक अत्यन्त आज्ञाकारी होता है और र्धािमक भावनाओं का आगे विकास होने पर अवसर सुलभ होता है। शुभ दिन शुभ मुहूर्त और मुनिसंघ आदि के नगर में विराजमान होने पर यंत्रपूजन हवनादि के साथ यह क्रिया होनी चाहिये। गृहस्थाचार्य विधिपूर्वक इस क्रिया को कराते हैं और श्रावकाचार पालन करने एवं विवाह होने तक ब्रह्मचर्य व्रत पालने की प्रतिज्ञा कराते हैं। अन्य आवश्यक ज्ञान भी दिया जाता है। इस प्रकार बालक ब्रह्मचर्य के साथ जैन श्रावकाचार धारण कर उत्कृष्ट ज्ञान की आराधना करने में विद्याभ्यास में मन को लीन रखता है। पंद्रहवीं ‘‘व्रताचरण’’ क्रिया है इसे ‘‘व्रतचर्या’’ क्रिया भी कहते हैं। ‘उपनयन’ क्रिया के बाद इस क्रिया का पालन करने वाला ब्रह्मचारी कमर में रत्नत्रय के चिह्नस्वरूप तीन लड़वानी मुंज की रस्सी कमर में पहिनता है जो वर्तमान में कटिडोर बनकर रह गया है। सादी धोती और दुपट्टा पहिनता है और यज्ञोपवीत धारण करता है। की गई प्रतिज्ञाओं का पालन दृढ़ता से करता है। पृथ्वी पर या चटाई पर सोता है। हरी दातौन नहीं करता, पान खाना, अंजन लगाना, उबटन लगाना, पलंग पर सोना आदि ब्रह्मचर्य बाधक बातों का त्याग करता है। सोलहवीं ‘‘व्रतावतरण’’ क्रिया है। यह विद्यार्थी जीवन तक की अंतिम क्रिया है। पूर्णतया अभ्यास कर यह ब्रह्मचारी बालक विद्यार्थी जीवन के चिह्न सावन महीने में और श्रवण नक्षत्रादि सहित शुभ मुहूर्त में त्याग देता है। यन्त्र पूजन, हवन आदि कर गृहस्थाचार्य को मौंजी खोलकर दे देता है तथा गृहस्थों के पहिनने के योग्य वस्त्रादि धारण करने का पात्र बनता हैं ‘‘विद्यालंकार’’ के अन्तर्गत इन सोलह क्रियाओं को ‘‘सोलह संस्कार’’ भी कहते हैं। इनका विद्याध्ययन काल तक विशेष रूप से महत्त्व है। परन्तु जैन समाज में इन संस्कारों की उपेक्षा होती गई अतएव आज का विद्यार्थी मात्र परिवार के संस्कारों के अधीन रह गया है। समाज के संस्कारों का बंधन टूट गया है। इन क्रियाओं में से किसी भी क्रिया का आज पालन नहीं होता है। अत: बालक और बालिकायें पथभ्रष्ट हो गये हैं। इन संस्कारों का यदि ध्यान रखा जावे तो समाज अनेक समस्याओं से बच सकता है। आज समाज में संपूर्ण शिक्षा सरकारी हो गई है। शिक्षा जगत् का संबंध र्धािमक संस्कारों से नहीं के बराबर हो गया है। विद्यार्थी को सहशिक्षा देने वाली संस्थाओं में पढ़ना पड़ता है। आज के वातावरण में कलियुग की झलक मिलने लगी है। अतएव दूषित विद्यालय, दुराचरण, रैिंगग, बलात्कार, अनमेल विवाह, दहेजप्रथा, एड्स, हृदयरोग, कैंसर आदि भयानक रोगों के घर बनते जा रहे हैं। अतएव समाज को इस विद्यासंस्कारों के विषय में ध्यान देना जरूरी हो गया है। शिक्षा के क्षेत्र में बालक—बालिकाओं की शिक्षा के लिए गुरुकुल प्रणाली पर विशेष ध्यान देना चाहिए। ‘‘इत्यलम् ’’
प्रो. हीरालाल पांडे
७, लखेरापुरा, भोपाल (मध्यप्रदेश)
अनेकांत जनवरी—मार्च २०११ पे. नं. ७३ से ८०
Tags: Anekant Patrika
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