शशिप्रभा–बहन कनक! अन्य ही कोई श्रम करे और उसका लाभ अन्य ही किसी को हो जावे, आज मैंने ऐसी घटना देखी है, जिससे मुझे बड़ा ही आश्चर्य हो रहा है। यह कर्म सिद्धान्त क्या है?
कनकलता-बहन सुनो, मैं एक ऐतिहासिक घटना सुनाती हूँ, पुन: कर्मसिद्धान्त को बताऊँगी। अलंकारपुर का स्वामी खरदूषण था, वह चौदह हजार प्रमाण मनुष्यों का विश्वासप्राप्त सेनापति था। उसकी पत्नी चन्द्रनखा नाम की अतिशय सुन्दरी थी, जो कि रावण की बहन थी, उसके शंबूक और सुन्दर ऐसे दो पुत्र हुए थे। साथ ही वह रावण के संबंध से पृथ्वी पर गौरव को प्राप्त हुआ था।
किसी समय ‘‘सूर्यहास’’ खड्ग को सिद्ध करने की इच्छा से शंबूक ने विधिवत् अनुष्ठान किया। वह वंशस्थल पर्वत पर बाँस की झाड़ी में बैठकर मंत्र जपने लगा। वह निर्मल बुद्धि का धारक जितेन्द्रिय ब्रह्मचर्य को पालन करने वाला एक अन्न खाता था। प्रतिदिन उसकी माता चन्द्रनखा विद्याधरी विद्या के बल से वहाँ आकर भोजन देकर जाती थी। बारह वर्ष व्यतीत हो जाने पर ‘सूर्यहास’ खड्ग सिद्ध हो गया। यह सात दिन ठहर कर ग्रहण करने योग्य होता है, अन्यथा सिद्ध करने वाले को मार डालता है। चन्द्रनखा पुत्रस्नेह से बार-बार वहाँ आती रहती थी, उसने उसी क्षण उत्पन्न हुए, देवाधिष्ठित सूर्यहास खड्ग को देखा, वह प्रसन्न होकर अपने पति खरदूषण से जाकर बोली-हे देव! मेरा पुत्र मेरुपर्वत की प्रदक्षिणा देकर तीन दिन में आ जावेगा। अभी उसका नियम समाप्त नहीं हुआ है।
इधर राम, लक्ष्मण और सीता वन में घूमते हुए वहीं आ पहुँचे थे। उसी दिन लक्ष्मण घूमते हुए वहाँ पहुँच गये। कुछ विशेष सुगंधि से आकृष्ट हुए। वे लक्ष्मण बांस की झाड़ी तक पहुँच गये, सूर्यहास खड्ग की एक हजार देव पूजा कर रहे थे। उसमें स्वाभाविक उत्तम गंध थी, उसका आदि और अन्त नहीं था, उसमें दिव्य गंध लिप्त थी और दिव्य मालाओं से वह अलंकृत थी। वहाँ बाँसों से विस्तृत स्तंभ में देदीप्यमान किरण से सुशोभित दिव्य खड्ग उसे दिखाई दिया। आश्चर्यचकित लक्ष्मण ने नि:शंक हो वह खड्ग ले लिया और उसकी तीक्षणता की परख करने के लिए उसी बांस के बीड़े को काट डाला। उससे शंबूक का वध हो गया। खड्गधारी लक्ष्मण को देखकर वहाँ सब देवताओं ने ‘आप हमारे स्वामी हो’ ऐसा कहकर नमस्कार के साथ उनकी पूजा की। इधर रामचन्द्र ने जटायु से कहा कि आज लक्ष्मण बहुत ही देर कर रहा है, हे भद्र जटायु! उठो और शीघ्र ही आकाश में उड़कर लक्ष्मण की खोज करो। इतने में ही सीता ने अंगुली ऊपर उठाकर कहा कि हे देव! जिनका शरीर केशर से लिप्त है, नाना प्रकार की मालाओं, वस्त्रों और अलंकारों से अलंकृत ये लक्ष्मण आ रहे हैं, इनके हाथ मेें देदीप्यमान एक खड्ग है। लक्ष्मण को वैसा देख रामचन्द्र अपने हर्ष को रोकने में असमर्थ हुए और उठकर लक्ष्मण को आलिंगन करके सब समाचार विदित किया। उस समय राम, लक्ष्मण और सीता नाना प्रकार की कथाएँ करते हुए वहाँ सुख से बैठे हुए थे।
शशिप्रभा – बेचारी शंबूक की माता चन्द्रनखा जब वहाँ आई होगी, तब उसका क्या हाल हुआ होगा?
कनकप्रभा–बहन सुनो, उसकी भी घटना बड़ी रोमांचकारी है। वह वहाँ आई और बाँसों के उस स्तंभ को कटे हुए देखकर सोचने लगी, अहो! पुत्र ने यह अच्छा नहीं किया, जिस पर बैठकर विद्या सिद्ध की, उस सूर्यहास खड्ग की परीक्षा के लिए उसे ही काट डाला, ऐसा सोचते हुए घूमते-घूमते एक तरफ कुंडलों से युक्त सिर और एक ओर ठूंठ के बीच पड़ा हुआ पुत्र का धड़ देखा, उसी क्षण वह दु:ख के वेग को न सह सकने से मूच्र्छित हो गई। सचेत होने पर हाहाकार से धरती कूट-कूट कर विलाप करने लगी। मेरा पुत्र बारह वर्ष और चार दिन तक यहाँ रहा, हाय देव! इसके आगे तूने तीन दिन सहन नहीं किये। इस प्रकार पुत्र के सिर को गोद में रखकर विलापन करते-करते जिसके नेत्र मूँगा के समान लाल हो गये थे, ऐसी उस चन्द्रनखा ने पुत्र का चुम्बन किया। कुछ क्षण बाद वह शोक छोड़कर उठी और क्रोध से इधर-उधर घूमने लगी।
उसी समय उसने दोनों तरुण-राम लक्ष्मण को देखा। तत्क्षण ही उसका शोक और क्रोध पलायमान हो गया और उसके स्थान पर राम ने अपना अधिकार जमा लिया। उसके मन में तरंगें उठने लगीं कि मैं इन दोनों में से अपने इच्छुक पुरुष को वरूँगी। ऐसा विचार कर वह कन्या भाव को प्राप्त हुई, वह हाथ की अंगुलियाँ चटखाती हुई भयभीत मुद्रा में पुन्नाग वृक्ष के नीचे बैठकर रोने लगी। अत्यन्त दीन शब्दों से रुदन करती हुई और वन की धूलि से धूसरित उस कन्या को देखकर सीता का हृदय दया से द्रवीभूत हो गया। वह उठकर उसके पास जाकर प्रेम से शरीर पर हाथ फैरने लगी। ‘डरो मत’ यह कहकर उसके हाथ पकड़कर अपने पति के पास ले आई। उस समय वह कुछ-कुछ लज्जित हो रही थी और मलिन वस्त्र धारण किये हुए थी। सीता उसे सान्त्वना दे रही थी।
शशिप्रभा-बहन फिर क्या हुआ?
कनकप्रभा–उस समय राम ने पूछा-हे कन्ये! जंगली जानवरों से भरे हुए वन में अत्यन्त दु:खी तू कौन है? तब वह कन्या बोली कि हे पुरुषोत्तम! मूच्र्छा आने पर मेरी माता मर गई और उनके शोक में पिता भी मर गये। पूर्वोपार्जित पाप के कारण बंधुजनों से रहित हो परम वैराग्य को धारण करती हुई इस दण्डक वन में मैं आई हूँ। पाप के माहात्म्य को तो देखो जो कि इस भयंकर वन में भी दुष्ट जीव मुझे नहीं खा जाते हैं। कुछ पाप कर्म के क्षय से ही आज आप जैसे सज्जनों का दर्शन हुआ है अत: सुन्दर! जब तक मैं प्राण नहीं छोड़ती हूँ, तब तक आप ही मुझे चाहो और मुझ दु:खिनी पर दया करो। जो न्याय से संगत साध्वी हैं, ऐसी कन्या को भला कौन नहीं चाहेगा?
उस समय राम-लक्ष्मण उसके लज्जाशून्य वचन सुनकर परस्पर में एक दूसरे को देखते हुए चुप रह गये। समस्त शास्त्रों के ज्ञानरूपी जल से धुला हुआ उनका मन उचित और अनुचित कार्यों में कुशल था। तब दु:ख भरी श्वांस छोड़कर उसने कहा कि मैं जाती हॅूं, तब राम ने उत्तर दिया कि जैसी तुम्हारी इच्छा हो, वैसा ही करो। उसके जाते ही उसकी अकुलीनता को देखकर राम, लक्ष्मण, सीता के साथ आश्चर्यचकित हो हंसने लगे। इधर शोक से व्याकुल हुई वह चन्द्रनखा मन मारकर व्रुद्ध हो उड़कर शीघ्र ही अपने घर चली गई। इसके बाद उसने वहाँ जाकर अपने पति के पास पुत्र मरण की घटना सुनाई और कहा कि वहाँ पर स्थित दो पुरुषों ने मेरा शीलहरण करना चाहा था, सो मैं बड़ी मुश्किल से अपनी रक्षा करके यहाँ आई हूँ, ऐसा मायाजाल फैलाया। उसी समय खरदूषण के युद्ध में रावण द्वारा सीता का हरण हुआ है, यह सारी घटना पद्मपुराण से देखना।
शशिप्रभा–वास्तव में आज आपकी कथा से मुझे यह शिक्षा मिली है कि एक के फल को अन्य भी प्राप्त कर लेता है।
कनकप्रभा–नहीं बहन, ऐसी बात नहीं है, अब कर्म सिद्धान्त को समझो। पूर्वजन्म में जिसने पुण्य किया है, उसे इसी प्रकार से बिना श्रम के ही अनेक लाभ हुआ करते हैं, उसमें अन्य तो निमित्त बन जाते हैं और जिसने पूर्व जन्म में पापों का संचय किया है, उसके हाथ में आई हुई ऐसी-ऐसी वस्तुएँ भी नष्ट हो जाती हैं, या दूसरे ही उसके मालिक बनकर उसका उपभोग करते हैं। इसलिए पुण्य-पाप के सिद्धान्त को समझकर सदैव पुण्य का ही संचय करना चाहिए। देखो! भाग्य के चमत्कार को। जो कि लक्ष्मण को बिना प्रयत्न के ही सूर्यहासखड्ग प्राप्त हो गया और शंबूक के पूर्व पाप के उदय से उसी से उसका घात हो गया।
शशिप्रभा–अच्छा बहन! आपने बहुत ही बढ़िया बात बताई है। अब मैं कर्मसिद्धान्त पर पूर्णतया विश्वास रखूँगी। इस भावना से किसी पर दोषारोपण करने का प्रसंग नहीं आयेगा और तब किसी से शत्रुता भी नहीं होगी।