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महामृत्युंजय स्तोत्र!

February 18, 2017जिनेन्द्र भक्तिjambudweep

महामृत्युंजय स्तोत्र

 

 

तीन लोक का हर प्राणी जिनके चरणों में झुकता है ।

तीन लोक का अग्रभाग जिनकी पावनता कहता है।।

जन्म मृत्यु से रहित नाथ वे मृत्युञ्जयि कहलाते हैं।

मृत्युञ्जयि प्रभु के वन्दन से जन्म मृत्यु नश जाते हैं।।१।।

जिसने जन्म लिया है जग में मृत्यू उसकी निश्चित है।

इसी जन्ममृत्यू के कारण सारे प्राणी दुक्खित हैं।।

जन्म समान न दुख कोई अरु मरण सदृश नहिं भय जग में।

जान ले यदि संभावित मृत्यू अर्धमृतक नर हों सच में।।२।।

हे प्रभुवर! जिस तरह आपने जन्म मृत्यु का नाश किया।

अविनाशी परमातम पद को पाकर सौख्य अपार लिया।।

उसी तरह का सौख्य निराकुल नाथ! मुझे भी मिल जावे।

देव शास्त्र गुरु की भक्ती का फल सच्चा तब मिल जावे।।३।।

कभी जन्म कुण्डलियाँ अपमृत्यू का भय दिखलाती हैं।

कभी हाथ की रेखाएँ कुछ अल्प आयु दरशाती हैं।।

शारीरिक वेदना कभी जब असहनीय हो जाती है।

रोग ग्रसित मानव की इच्छा मरने की हो जाती है।।४।।

जिनशासन कहता है लेकिन ऐसा नहीं विचार करो।

आत्मघात की इच्छा से मरना न कभी स्वीकार करो।

क्योंकि ऐसा मरण सदा भव-भव में दु:ख प्रदाता है।

नरक पशू योनी में प्राणी अगणित कष्ट उठाता है।।५।।

सुखमय जीवन में भी अपमृत्यु के ग्रह रह सकते है।

हो जाय प्राण घातक हमला तो असमय में मर सकते हैं।।

मोटर गाड़ी या वायुयान की दुर्घटना हो सकती हैं।

भूकम्प बाढ़ बम विस्फोटों से त्राहि-त्राहि मच सकती है।।६।।

ऐसे असमय के मरण देख मानव का मन घबराता है।

मेरा न अकाल मरण होवे यह भाव सहज में आता है।।

हे भव्यात्मन! इसलिए सदा तुम मृत्यंजय स्तोत्र पढ़ो।

मृत्युंजय मंत्र के सवा लाख मंत्रों को जपकर सौख्य भरो।।७।।

ये ह्रां ह्रीं अरु ह्रूं ह्रौं ह्र: बीजाक्षर शक्तीशाली।

पाँचों परमेष्ठी नाममंत्र के साथ बने महिमाशाली।।

अपमृत्यु विनाशक महामृत्युंजय मंत्र इसे जो जपते हैं।

पूर्णायु प्राप्त कर चिरंजीव हो स्वस्थ काय युत बनते हैं।।८।।

जिनशासन के ग्रंथों में भी अपमृत्यु विनाशक मंत्र कहा।

पोदनपुर नृप श्री विजयराज ने मृत्यु विजय का यत्न किया।।

सच्ची रोमांचक कथा प्रभू भक्ती की महिमा कहती है।

नवजीवन वैसे मिला उन्हें व्रत नियम की गरिमा रहती है।।९।।

इकबार निमितज्ञानी ने राजा की अपमृत्यू बतलाई।

नृपसिंहासन पर वज्रपात की भावी घटना समझाई।।

राजा ने सात दिनों तक सारे राजपाट को त्याग दिया।

जिनमंदिर में जा अनुष्ठान कर नियम सल्लेखना धार लिया।।१०।।

नृपसिंहासन पर पत्थर की मूरत मंत्री ने बनवाई।

हुआ निश्चित तिथि पर वज्रपात मूरति पर अशुभ घड़ी आई।।

सिंहासन प्रतिमा चूर हुई राजा का नहीं बिगाड़ हुआ।

टल गया अकाल मरण उनका जिनधर्म का जय जयकार हुआ।।११।।

धर्मानुष्ठान समापन करके राज्य पुन: स्वीकार किया।

इस चमत्कार को देख प्रजा ने धर्म का जय जयकार किया।।

हे भव्यात्मन्! यदि तुमको भी अपमृत्यु की आशंका होवे।

यह मृत्युञ्जय स्तोत्र पठन तुमको नित मंगलमय होवे।।१२।।

अट्ठारह दिन तक स्तोत्र पढ़ो दश-दश माला प्रतिदिन जप लो।

मृत्युंजय यंत्र के सम्मुख माला जप स्तोत्र पाठ कर लो।।

उस यंत्र का कर अभिषेक परम औषधि सम उसको ग्रहण करो।

स्तोत्र पाठ के संग यहाँ लघु मंत्र को भी नौ बार पढ़ो।।१३।।

इक भोज पत्र का यंत्र बना अपने संग उसे सदा रक्खो।

गुरुमाता गणिनी ज्ञानमती जी से सम्पूर्ण विधी समझो।।

अपनी सम्पूर्ण व्यथा गुरु के सम्मुख कहकर मन शान्त करो।

मृत्युंजय मंत्र स्तोत्र आदि पढ़कर निज मन निभ्र्रान्त करो।।१४।।

प्रात: स्तोत्र पाठ करके घर से बाहर यदि निकलोगे।

दुर्घटना संकट आदि सभी से अपनी रक्षा कर लोगे।।

कितनी भी विषम परिस्थिति में कोई निमित्त बन जाएगा।

आयू यदि अपनी शेष रही तो कोई मार न पाएगा।।१५।।

निज जन्मकुण्डली के ग्रह को यह प्राणी बदल भी सकता है।

हाथों की रेखा भी पुरुषार्थ से निराकार कर सकता है।।

जब कर्मों की स्थिति का घटना बढ़ना भी हो सकता है।

तब मृत्युंजय स्तोत्र पाठ से काल न क्यों रुक सकता है।|१६।।

हे नाथ! मरण होवे मेरा तो मरण समाधीपूर्वक हो।

संयमधारी गुरु के समूह म संयम धारणपूर्वक हो।।

दो-तीन या सात-आठ भव में मैं भी शिवपद को प्राप्त करूँ।

मिथ्यात्व असंयम से मिलने वाला भव भ्रमण समाप्त करूँ।।१७।।

श्री गणिनीप्रमुख ज्ञानमती माता की शिष्या चन्दनामती।

मृत्युंजय पद की प्राप्ति हेतु स्तोत्र की यह रचना कर दी।।

जब तक मृत्युंजय पद न मिले मृत्युंजयि प्रभु का ध्यान करूँ।

अरिहन्त-सिद्ध के चरणों में मैं कोटीकोटि प्रणाम करूँ।।१८।।

 

महामृत्युंजय मंत्र

 ॐ ह्रां णमो अरिहंताणं

ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं

ॐ ह्रूँ णमो आइरियाणं

ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं

ॐ ह्र: णमो लोए सव्वसाहूणं

मम सर्वग्रहारिष्टान् निवारय निवारय अपमृत्युं घातय घातय सर्वशान्तिं कुरु कुरु स्वाहा।

(२) ॐ ह्रीं अर्हं झं वं ह्व: प: ह: मम सर्वापमृत्युजयं कुरु कुरु स्वाहा।

Tags: Stotra
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