तर्ज-अरे! हट जा रे ताऊ……….
सुनो! वीर कथा सब ध्यान से,
महावीर की कथा निराली है।
अपने पिछले भवों को संवारा, तब मिला तीर्थंकर पद प्यारा।
सुनो पुरुरवा भील ही वीर बना,
महावीर की कथा निराली है।।१।।
जंगल में इक बार भील वह, घूम रहा था धनुष बाण ले।
देखा दूर से इक मुनिराज को,
महावीर की कथा निराली है।। सुनो वीर कथा.।।२।।
भील ने धनुष पे बाण चढ़ाया, मुनिवर पे था चलाना चाहा।
तभी रोका पत्नी ने भील को,
महावीर की कथा निराली है।। सुनो वीर कथा.।।३।।
बोली ये धरती के देवता, इनसे सुनो उपदेश धर्म का।
तब भील को मिला उपदेश था,
महावीर की कथा निराली है।। सुनो वीर कथा.।।४।।
गुरु ने कहा हे भव्यात्मन्! अब, मद्य-मांस-माधु त्याग करो सब।
होगा तेरा कल्याण है,
महावीर की कथा निराली है।। सुनो वीर कथा.।।५।।
गुरु उपदेश को पालन करके, भील देव बना स्वर्ग में जाके।
देखो भील भी बन गया देव रे,
महावीर की कथा निराली है।। सुनो वीर कथा.।।६।।
पुन: मरीचिकुमार बना वह, दीक्षा लेली ऋषभ देव सह।
थे ऋषभदेव के पौत्र वे,
महावीर की कथा निराली है।। सुनो वीर कथा.।।७।।
चक्रवर्ती सम्राट भरत थे, उनके पुत्र मरीचि कुंवर थे।
सुनो आगे मरीचि का क्या हुआ?
महावीर की कथा निराली है।।सुनो वीर कथा.।।८।।
इन्हीं भरत का देश है भारत, सोने की चिड़िया है भारत।
इसी देश में जनमे वीर प्रभु,
महावीर की कथा निराली है।।सुनो वीर कथा.।।९।।
जय बोलो महावीर भगवान की जय।
शासन नायक प्रभु महावीर के प्यारे-प्यारे भक्तो।!
आपने संक्षेप के महावीर कथा के माध्यम से उनके अनेकों भव पूर्व का कथानक जाना है कि एक आदिवासी भील ने मात्र एक बार सच्चे गुरु का उपदेश प्राप्त करके अपने जीवन का उत्थान प्रारंभ कर लिया और वह स्वर्गों के सुख भोगकर पुन: मनुष्य के ऊश्प में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के ज्ये… पुत्र सम्राट चक्रवर्ती भरत महाराज की महारानी अनंतमती के गर्भ से मरिचि कुमार के ऊश्प में मनुष्य जन्म प्राप्त किया।
यहाँ प्रसंगानुसार आपको जानना है कि इन्हीं सम्राट भरत के नाम पर हमारे राष्ट्र का नाम भारत पड़ा है-भारत! इस भारत देश के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि अपने आदर्शों के द्वारा भारत को सदैव उत्थान के शिखर पर ले जाएं। तो चलिए प्रस्तुत है भारतीय संस्कृति की श्रद्धा में पक्तियाँ-
तर्ज—है प्रीत जहाँ की रीत सदा……
प्रभु ऋषभदेव के पुत्र भरत से, भारतदेश सनाथ हुआ।
यह आर्यावर्त इण्डिया हिन्दुस्तान नाम से सार्थ हुआ।। टेक.।।
यहाँ तीर्थंकर प्रभु लार्ड गॉड, साधूजन सेन्ट कहाते हैं। हो……
यहाँ गुलदस्ते की भांति कई, जाती व पंथ आ जाते हैं।। हो……
चैतन्य तत्त्व की प्राप्ती का-२, संचालित यहाँ से पाठ हुआ।
यह आर्यावर्त इण्डिया हिन्दुस्तान नाम से सार्थ हुआ।।१।।
भारत को भारत रहने दो, इण्डिया न यह बनने पाए। हो……
इसकी आध्यात्मिक संस्कृति का, अपमान नहीं होने पाए।। हो……
यहाँ ऋषभ, राम, महावीर, बुद्ध-२, का अमर सदा सिद्धान्त हुआ।
यह आर्यावर्त इण्डिया हिन्दुस्तान नाम से सार्थ हुआ।।२।।
यहाँ की सीता सम नारी पर, छाया न किसी की पड़ पाए। हो……
यहाँ जन्मीं ब्राह्मी माता सम, माँ ज्ञानमती के गुण गायें।। हो……
‘‘चन्दनामती’’ भारत की संस्कृति-२, का तब ही उत्थान हुआ।
यह आर्यावर्त इण्डिया हिन्दुस्तान नाम से सार्थ हुआ।।३।।
तर्ज-जिस गली में तेरा घर न हो………..
अब सुनो तुम मरीचि की आगे कथा,
अपने दादा ऋषभदेव संग मुनि बना!
वे तो षट्मास के योग में लीन थे,
चार हज्जार मुनियों से व्रत ना पला।।अब सुनो.।।
उनमें ही थे मरीचिकुमार एक मुनि,
सबके संग खाने पीने लगे फूल फल।सबके संग…
उनको समझाया वन देवता ने कहा,
यह है जिनमुद्रा इसमें करो ऐसा ना।। अब सुनो तुम.।।१।।
फिर तो सबने ही मुनि मुद्रा को तज दिया,
तपसी बन करके मारग अलग कर लिया।तपसी…
इस सहस वर्ष के बाद फिर वे सभी,
प्रभु निकट जाके दिव्य ध्वनि को सुना।।अब सुनो.।।२।।
आए सब पर मरीचि न आया वहाँ,
मान में उसने मिथ्यात्व मत रच दिया। मान में उसने…
जिससे भव-भव भ्रमण उसका होता रहा,
वर्ष असंख्यातों तक चारों गति में भ्रमा।।अब सुनो तुम.।।३।।
आया कुछ पुण्य का योग उस जीव ने,
राजगृहि नगरी में जा जनम ले लिया। राजगृहि नगरी में…
वहाँ से देव बन फिर मनुज जन्म ले,
अर्धचक्री नारायण त्रिपृ… बना।।अब सुनो तुम.।।४।।
बन्धुओं! यह है मरीचि कुमार का संक्षिप्त कथानक जो भील की पर्याय से किसी तरह पुण्य के संयोगवश तीर्थंकर के कुल में राजकुमार बनकर पैदा हुआ किंतु वहाँ भी अहंकार के कारण मिथ्यात्व परम्पराओं को शुरु कर देने से वह असंख्यात वर्षों तक संसार में भटकता रहा। कभी-कभी कुतप करने से देव पर्याय भी प्राप्त की किन्तु वहाँ से भी मिथ्यात्व के संस्कारों में मरकर जब मनुष्य गति में आता तो परिव्राजक दीक्षा ही लेकर संसार भ्रमण को बढाता था पुन: त्रिपृ… नारायण की पर्याय से जाकर वह सातवें नरक में नारकी हुआ और वहाँ से आकर सिंह बना।
वह मांसाहारी सिंह पुन: मरकर प्रथम नरक में चला गया, वहाँ के दुखों को भोगकर पुनरपि वह नारकी जम्बूद्वीप में हिमवन् पर्वत के शिखर पर सुन्दर बालों बाला शेर हो गया। अब सुनिये, यह शेर कैसे अपने जीवन का उत्थान प्रारंभ करता है? और आगे जाकर दशवें भव में अहिंसा के अवतार महावीर तीर्थंकर के ऊश्प में जन्म धारण करता है।
-चौपाई-
वीर महावीर, बोलो जय जय महावीर-२
शेर था इक जंगल का राजा, उसको डर न किसी का भी था।
एक हिरण को मार गिराया, अपना भोजन उसे बनाया।।।
वह क्या जाने पर की पीर, वीर महावीर-
बोलो जय जय महावीर।।१।।
उसी समय आकाश मार्ग से, दो मुनि आ गये दया भाव से।
जोर से उसे उपदेश सुनाया, हे मृगराज! बहुत दु:ख पाया।।
अब तू तज दे हिंसा वीर! वीर महावीर-
बोलो जय जय महावीर।।२।।
शेर ने गुरु संबोधन पाया, जतिस्मरण उसे हो आया।
पिछले भवों का स्मरण जो आया, आँखों से झर झर अश्रु बहाया।।
मन में भरा सम्यक्त्व का नीर, वीर महावीर-
बोलो जय जय महावीर।।३।।
शेर की शांत भावना लख के, अणुव्रत ग्रहण कराया मुनि ने।
वह अब सच्चा श्रावक बन गया, निराहार व्रत ग्रहण कर लिया।
रोमांचक है चरित महावीर, वीर महावीर-
बोलो जय जय महावीर।।४।।
एक माह निराहार रहा वो, पशुओं ने मृतक समझ लिया उसको।
नोच नोच कर शेर को खाया, कष्ट सहनकर सुरपद पाया।।
स्वर्ग में पाया दिव्य शरीर, वीर महावीर-
बोलो जय जय महावीर।।५।।
दो सागर की आयु बिताकर, जनमा धातकि खंड में जाकर।
राजपुत्र कनकोज्वल बनकर, दीक्षा लेकर बन गये मुनिवर।।
फिस सन्यास से तजा शरीर, वीर महावीर-
बोलो जय जय महावीर।।६।।
देव बना फिर मनुज जनम ले, चक्रवर्ती प्रियमित्र बने वे।
फिर गये स्वर्ग वहाँ से आकर, मूल्यवान नरतन को पाकर।।
नन्द मुनि बन तजा शरीर, वीर महावीर-
बोलो जय जय महावीर।।७।।
इसी नन्द मुनि की पर्याय में, सोलह कारण भावना भाके।
तीर्थंकर प्रकृति को बांधा, अपने परम लक्ष्य को साधा।
अब उन्हें बनना है महावीर, वीर महावीर-
बोलो जय जय महावीर।।८।।
सुनो बंधु! सम्यक्त्व की महिमा, चार बार मुनि बनने की महिमा।
आखिर तीर्थंकर पद पाया, जग को मोक्ष का मार्ग बताया।
खुद बन गये वीरा अशरीर, वीर महावीर-
बोलो जय जय महावीर।।९।।
मेरे प्यारे भाई-बहनों! अब तुम्हें मैं ले चलती हूँ। उस कुण्डलपुर नगरी में, जहाँ आज से लगभग २६०० से अधिक वर्ष पूर्व भगवान महावीर का जन्म हुआ। तो आपको भी मेरे साथ बोलना है-
जैनी वीरों! हाँ भाई हाँ।
मेरे संग चलोगे, हाँ भाई हाँ।
इक चीज मिलेगी, क्या भाई क्या?
महावीर का जलवा, वाह भाई वाह।
अब सुनिये आगे की बात,
वीरायण को रखना याद।
यह है सबके हित की बात,
वीरा जनमे कुण्डलपुर में,
सिद्धार्थ राज त्रिशला के घर में।
देवों ने आ खुशी मनाई,
जन्मकल्याणक की बजी बधाई।
गीत-
बजी कुण्डलपुर में बधाई, नगरी में वीर जनमे-२
महावीर जी।
सबके मन खुशियाँ छाईं, नगरी में वीर जनमे-२
महावीर जी।
आप जानते हैं कि २६०० वर्षों के बाद अब न तो कुण्डलपुर में कोई महल रह गया और न ही उसके अवशेष, इसीलिए सन् २००१ में जब पूरे देश में भगवान महावीर का २६००वां जन्म कल्याणक महोत्सव मनाया तो पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने स्वयं बिहार प्रांत के उस कुण्डलपुर तीर्थ पर जाकर वहाँ भगवान के जन्म का प्रतीक नंद्यावर्त महल बनाने की प्रेरणा देकर प्राचीन इतिहास को साकार ऊश्प प्रदान किया है। सब मिलकर बोलें-
तर्ज-सज धज कर जिस दिन….
तेरी चंदन सी रज में, इक उपवन खिलाया है।
कुण्डलपुर के महावीरा तेरा महल बनाया है।।टेक.।।
जन्में जहाँ खेले जहाँ, त्रिशला माँ के नंदन।
उस कुण्डलपुर की धरती का सचमुच कण कण चंदन।।
चंदन सी उस माटी को सिर पर लगाया है।
कुण्डलपुर के महावीरा तेरा महल बनाया है।।१।।
सोने का नंद्यावर्त महल सिद्धारथ जी का था।
मणियों के पलंग पर त्रिशला ने सपनों को देखा था।।
उन सपनों को सार्थक करके फिर से दिखलाया है।
कुण्डलपुर के महावीरा तेरा महल बनाया है।।२।।
महानुभावों! आप लोग जब भी सम्मेदशिखर की यात्रा करने जाते हैं तो उधर कुण्डलपुर की यात्रा भी करते हैं अत: नंद्यावर्त महल के ऐतिहासिक दृश्यों को अवश्य देखा होगा। सब मिलकर पुन: बोलिए-
-चौपाई-
वीर महावीर, बोलो जय जय महावीर-२।
पन्द्रह महीने कुण्डलपुर में, रत्नवृष्टि की थी धनपति ने।
इन्द्रदेवगण आये वहाँ पर, जन्म कल्याण मनाया धरा पर।।
क्षीरोदधि का लाये नीर, जन्माभिषेक किया शिशु वीर।।
वीर महावीर बोलो जय जय महावीर।।१।।
प्यारे भक्तों! जन्मकल्याणक के ये रोमांचक दृश्य आप पंचकल्याणक महोत्सवों में देखते ही हैं, जिसे देखने मात्र से रोम-रोम पुलकित हो जाता है। देखो! सौधर्म इन्द्र ने तो भगवान के ऊश्प को निरखने के लिए अपने नेत्र एक हजार बना लिए थे। आप भी जब भगवान की प्रतिमा के दर्शन करें तो अपनी दो आँखों से प्रतिमा की अच्छी प्रकार से निरखें, देखें और उनकी वीतराग छवि को अपने हृदय में अंकित कर लें। तो मिलकर बोलिए-
नाम तिहारा तारनहारा कब तेरा दर्शन होगा।
तेरी प्रतिमा इतनी सुन्दर, तू कितना सुन्दर होगा।। टेक.।।
जाने कितनी माताओं ने, कितने सुत जन्में हैं।
पर इस वसुधा पर तेरे सम, कोई नहीं बने हैं।।
पूर्व दिशा में सूर्य देव सम, सदा तेरा सुमिरन होगा।
तेरी प्रतिमा इतनी सुन्दर, तू कितना सुन्दर होगा।।१।।
पृथ्वी के सुन्दर परमाणू, सब तुझमें ही समा गए।
केवल उतने ही अणु मिलकर, तेरी रचना बना गए।।
इसीलिए तुझ सम सुन्दर नहिं, कोई नर सुन्दर होगा।
तेरी प्रतिमा इतनी सुन्दर, तू कितना सुन्दर होगा।।२।।
मन में तव सुमिरन करने से, पाप सभी नश जाते हैं।
यदि प्रत्यक्ष करें तव दर्शन, मनवांछित फल पाते हैं।।
आज ‘‘चंदनामती’’ प्रभू का, अनुपम गुण कीर्तन होगा।
तेरी प्रतिमा इतनी सुन्दर, तू कितना सुन्दर होगा।।३।।
मेरी प्यारी बहनों! आप लोग भगवान महावीर का पालना भी तो बड़े चाव से झुलाती हैं। शचि इन्द्राणी भगवान तीर्थंकर बालक को स्वर्ग से लाए हुए दिव्य वस्त्र-आभूषणों से सजाती है और सब मिलकर जब रत्नजडित पालने में पालनहारे प्रभु को झुलाते हैं तो कितना आनंद आता है। तो चलो झुलाओ और गाओ पालना गीत-
महावीरा झूलें पलना, जरा होले झोटा दीजो।
जरा होले झोटा दीजो, नेक धीरे झोटा दीजो।।
अब कुण्डलपुर के राजकुमार त्रिशला नंदन महावीर धीरे-धीरे दूज के चांद सदृश बड़े होने लगे। ध्यान दीजिएगा कि तीर्थंकर के पाँच नाम संसार में प्रसिद्ध हैं-वीर-वर्धमान- सन्मति-महावीर और अतिवीर। इनमें से वीर और वर्धमान ये दो नाम सौधर्मइंद्र ने पाण्डुक शिला पर जन्माभिषेक करने के बाद रखे थे। पुन: भगवान जब शिशु के ऊश्प में नंद्यावर्त महल के अंदर पालना झूल रहे थे तब एक दिन आकाशमार्ग से संजय-विजय नामके दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराज आकर बालक की प्रदक्षिणा करने लगे तभी उनके मन की किसी सूक्ष्म शंका का समाधान स्वयं ही हो गया अत: उन्होंने वीर का नाम ‘‘सन्मति’’ रखकर अपनी श्रद्धा प्रगट की। सब मिलकर बोलिए-
तर्ज—तेरे पाँच हुए कल्याण प्रभो……
हैं पांच नाम विख्यात तेरे, महावीर वीर अतिवीर प्रभो।
सन्मति एवं प्रभु वद्र्धमान, त्रिशलानन्दन महावीर प्रभो।। टेक.।।
जन्म हुआ कुण्डलपुर नगरी, बहुत रतन वहाँ बरसे थे।
चैत्र सुदी तेरस थी तिथि, जब पितु सिद्धारथ हरषे थे।।
बनी रत्नमयी धरती……धरती
बनी रत्नमयी धरती तब से, हे त्रिशलानन्दन वीर प्रभो।।
हैं पांच नाम……।।१।।
पावापुर से मोक्ष पधारे, जलमंदिर वहाँ लहराया।
अपने प्रभु का पादप्रक्षालन, करना मानो उसने चाहा।
दीवाली मनी तब से……तब से,
दीवाली तब से शुरू हुई, हे जगदानन्दन वीर प्रभो।।
हैं पांच नाम……।।२।।
छब्बिस सौवाँ जन्ममहोत्सव, सबने मनाया है तेरा।
तेरे उत्सव से ही ‘‘चन्दनामति”, जग में गौरव पैâला।
जय जय हो तेरी……तेरी
जय जय हो तेरी युग-युग तक, हे त्रिशलानन्दन वीर प्रभो।।
हैं पांच नाम……।।३।।
अब आगे जानिए महावीर नाम के बारे में जो सारे जगत में विख्यात है।
प्रभु वर्धमान जी एक बार कुण्डलपुर के उद्यान में मित्रों के साथ खेल रहे थे, अकस्मात् संगम नाम का एक देव बड़े जहरीले सर्प का ऊश्प धारण करके वहाँ आ गया। भयंकर सांप को देखकर सारे मित्र भाग खड़े हुए किन्तु तीर्थंकर बालक वर्धमान एक पेड़ पर चढ़ गये और काले नाग को पेड़ की ओर बढते देखकर वे पेड़ से कूदकर सर्प के फण पर इस तरह खेलने लगे जैसे माँ की गोद में खेल रहे हों।
उनकी इस परमवीरता से प्रसन्न होकर सर्प बने देवता ने अपना असली ऊश्प दिखाया और वर्धमान को महावीर नाम प्रदान कर उनका गुणगान करने लगा। इस प्रकार उन्होंने चतुर्थ नाम ऐसा पाया जिस नाम से ही आज तक उनकी पहचान चल रही है।
‘‘जय बोलो महावीर भगवान की जय’’
पाँचवां नाम है-अतिवीर, इसे महावीर चरित में ‘‘महति महावीर’’ नाम से कहा है। खैर! यह नाम कैसे पड़ा, इस बात को यहाँ ही बतला दिया जा रहा है कि महावीर भगवान मुनि अवस्था में उज्जैनी नगरी के शमशान घाट में ध्यान कर रहे थे तब एक ऊश्द्र ने उन पर खूब उपसर्ग किया किन्तु उन्हें रंचमात्र भी डिगा न पाया अत: उसने खूब भक्ति करके प्रभु को ‘‘महति महावीर’’ नाम से अलंकृत किया।
‘‘जय बोलो महति महावीर भगवान की जय’’
-चौपाई-
वीर वर्धमान बोलो जय जय वर्धमान, जय सन्मति महावीर भगवान।
महति महावीर बोलो जय जय पांचों नाम, पांचनाम बने जग में वरदान।।
भगवान महावीर का नाम सभी भाषाओं में सभी जाति-सम्प्रदाय के लोग भी लेकर अपनी भक्ति प्रदर्शित कर सकते हैं। अत: यहाँ पर कान्वेन्ट और इंग्लिश स्वूâल में पढ़ने वाले बच्चों के लिए प्रस्तुत है
English Song
Music- Kabhi Ram Banke……..
Prince of Kundalpur, King of Universe,
Mahavira,O Lord ! Mahavira.
When You came in Garbh of Trishla,
Sixteen dreams seen by Trishla
Felt very happiness, Siddharth Emperor,
Mahavira,O Lord ! Mahavira.
When You had born in the Palace,
Indra and Deva came from heaven
On the Meru Mountain, Celebrated Abhishek
Mahavira, O Lord ! Mahavira.
In Young age you took Deeksha,
Gained Kevalgyan after twelwe years,
Then Samavsaran, formed came all persons,
Mahavira, O Lord ! Mahavira.
When Vira attained liberation,
Indra-human came Pawapuri then
Celebrated Diwali, from then began Diwali,
Mahavira, O Lord ! Mahavira.
Your Shaasan is going today also,
We worship to you “Chandna”so
Give me blessing Prabhuvar, give me knowledge Jinvar,
Mahavira, O Lord ! Mahavira.
(All of you say-Jai Jai Jai, Mahavira Swami-Jai Jai Jai)
अब आगे चलना है प्रभु महावीर वैâसे बाल्यावस्था से युवावस्था को प्राप्त करते हैं। क्या आप जानते हैं कि तीर्थंकर भगवान न तो अपनी माँ का दूध पीते हैं और न ही माँ की रसोई का भोजन करते हैं।
तो फिर वे क्या बिना खाए पिये ही जीवन यापन करते हैं? नहीं, शिशु अवस्था में तो इंद्र उनके दाहिने हाथ के अंगूठे में अमृत स्थापित करता है जिसे चूस-चूस कर वे बड़े हो जाते हैं। पुन: इन्द्र स्वर्ग से दिव्य भोजन लाता है उसे ही तीर्थंकर भगवान ग्रहण करते हैं। महावीर स्वामी ने भी वही देवोपुनीत भोजन किया था।
बन्धुओं! देखते-देखते महावीर स्वामी के जीवन का ३० वर्ष तक समय व्यतीत हो गया। उनके माता-पिता महारानी त्रिशला एवं महाराज सिद्धार्थ अपने महल में पुत्रवधू लाने का स्वप्न देख रहे हैं और अनेक राजकुमारियों में से पुत्र महावीर के योग्य कन्या का चयन करने में लगे हैं, किन्तु महावीर को पूर्व भवों का जातिस्मरण हो जाने से उन्होंने विवाह न करने और बाल ब्रह्मचारी रहकर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करने का निर्णय कर लिया अर्थात् उन्हें वैराग्य हो जाता है अत: कुण्डलपुर की राजसभा में माता त्रिशला के साथ उनका संवाद प्रारंभ होता है-
तर्ज-बार-बार तोहे क्या समझाऊँ………..
माता त्रिशला (पुत्र से)-
महावीर ओ वीर लाडला, आजा मेरे पास।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।।
बेटा मेरे महलों में अब, शीघ्र बहू ले आ तू।
मेरी आशाओं का सुन्दर महल सजाएगा तू।
तुझ जैसी सुत की जननी बन, धन्य हुई मैं आज।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।।१।।
महावीर-
भोली भाली माता मेरी, सुन ले दिल की बात।
अपनी पसंद की दुल्हन, लाऊँगा कुछ दिन बाद।।
पहले तेरी गोदी में, छुप छुपकर तुझे मना लूँ।
फिर जीवन संगिनी को लेने, दूर कहीं मैं जाऊँ।।
खुशी-खुशी तू आज्ञा दे दे, तभी बनेगी बात।
अपनी पसंद की दुल्हन, लाऊँगा कुछ दिन बाद।।१।।
त्रिशला-
बेटा तू जिसमें खुश है, बस वही खुशी मेरी है।
मेरे मन की बात आज, मानो तूने कह दी है।।
लाड़ लड़ा ले चाहे जितना, पर अब चढ़े बारात।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।।२।।
महावीर-
अब मिल गया वचन तो सुन माँ, वह दुल्हन वैâसी है।
नाम है उसका सिद्धिप्रिया, वह सिद्धमहल रहती है।।
उसको वरने जाऊँगा, मैं ले दीक्षा बारात।
अपनी पसंद की दुल्हन, लाऊँगा कुछ दिन बाद।।२।।
त्रिशला-
यह वैâसी अनहोनी बातें, करता तू महावीरा।
अपनी भोली माता से, क्यों छल करता है वीरा।।
सह नहिं पाऊँगी मैं बेटा, असमय में ये मजाक।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।।३।।
महावीर-
जिसे तू कहती है अनहोनी, होना वही है माता।
मैं ना ब्याह रचाऊँ दूजा, सच कहता हूँ माता।
सिद्धिप्रिया से प्रेम है मुझको, सुन ले दिल की बात।
अपनी पसंद की दुल्हन, लाऊँगा कुछ दिन बाद।।३।।
त्रिशला-
इन महलों में क्या कमियाँ, दिखती हैं बेटा तुझको।
क्यों सोचा वन में जाने की, क्यों तू सताता मुझको।।
नहीं कमी हैं सुन्दरियों की, वीर मान ले बात।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।।४।।
महावीर-
महल का सुख नश्वर है माता, आतमसुख अविनश्वर।
तू अधीर क्यों होती है माँ, मोहचक्र में पँâसकर।।
मेरी अच्छी माता मुझको, दे दे आज्ञा आज।
अपनी पंसद की दुल्हन, लाऊँगा कुछ दिन बाद।।४।।
त्रिशला-
मेरा यह सुकुमार पुत्र, कैसे जंगल में रहेगा।
भूख प्यास सर्दी गर्मी, तू कैसे सहन करेगा।
मैं रो रोकर दुःख पाऊँगी, कैसे कऊश्ँ बर्दाश्त।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।।५।।
महावीर-
वीर की माता त्रिशला का दिल, महावीर बलशाली।
फिर तू माता ऐसे क्यूं, अपना मन करती खाली।।
तेरा पुत्र अनन्त बली है, भूल गईं क्या मात।
अपनी पंसद की दुल्हन, लाऊँगा कुछ दिन बाद।।५।।
त्रिशला-
बेटा हर माँ को अपना, घर-आँगन प्रिय लगता है।
बहू की छम छम पुत्र पौत्र के, संग ही मन रमता है।।
माता के सपनों का तू नहिं, समझ सकेगा राज।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।।६।।
महावीर-
हर माता की तरह तू अपनी, गणना मत कर माता।
तेरे पग में तो हर माँ, रखती है अपना माथा।
तुझ सम सोलह स्वप्न किसी ने, देखे हैं क्या मात।
अपनी पसंद की दुल्हन, लाऊँगा कुछ दिन बाद।।६।।
त्रिशला-
बड़ी-बड़ी बातें करके तू, मुझको समझाता है।
मेरे दिल की धड़कन तू क्यों, समझ नहीं पाता है।।
अपने पितु का एक सहारा, तू ही तो है लाल।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।।७।।
महावीर-
जाने कितने मात पिता, भव भव में पाए हमने।
मिथ्या भ्रान्ति तजो माता अब, देखो शाश्वत सपने।।
एक सूर्य का ही होता है, पूर्ण धरा पर राज।
अपनी पसंद की दुल्हन, लाऊँगा कुछ दिन बाद।।७।।
त्रिशला-
तुझसे पहले वीरा तेइस, तीर्थंकर जन्में हैं।
उनमें से उन्निस तीर्थंकर, ने तो ब्याह किये हैं।।
इसीलिए तुझसे भी बेटा, कहती तेरी मात।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।।८।।
महावीर-
ब्याह बुरा नहिं है लेकिन, अविवाह है उससे अच्छा।
ब्रह्मचर्य में सुख है शाश्वत, भोगों में नहिं सच्चा।
वासुपूज्य मलि नेमि पार्श्व ने, तभी किया सब त्याग।
अपनी पसंद की दुल्हन, लाऊँगा कुछ दिन बाद।।८।।
त्रिशला-
पुत्र तेरा यह दृढ़ निश्चय, लगता अब निंह बदलेगा।
तेरे संग अब मेरा भी, जीवन उपवन महकेगा।।
तेरे असिधारा व्रत से, होगा जग का उद्धार।
आँखों का तारा मेरा, कुण्डलपुरी का युवराज।।९।।
महावीर-
अब तूने माँ का असली, कर्तव्य निभाया है।
सिद्धारर्थ की रानी का, गौरव तूने पाया है।
करे ‘‘चन्दनामति’’ उस माँ को, अपने मन में याद।
अपनी पंसद की दुल्हन, लेने चला मैं माता आज।।९।।
भाईयों और बहनो! इस प्रकार से महावीर के वैराग्य की विजय हुई और उनके अर्थात् राजा सिद्धार्थ के दरबार में स्वर्ग से लौकान्तिक देव आ गये और वे तीर्थंकर महावीर के वैराग्य की अनुमोदना-प्रशंसा करने लगे। तभी इन्द्र-देवतागण दिव्य पालकी लेकर आ गये। महावीर युवराज ने किसी की भी नहीं मानी और पालकी में बैठकर चल दिये दीक्षा लेने। आप भी प्राय: गाया करते हैं-
चल दिया छोड़ घरबार, कुटुम्ब परिवार, धार मुनि बाना,
समझाया वीर न माना-२।।
भगवान महावीर के प्यारे-प्यारे भक्तों!
आप सबको जानना है कि भगवान महावीर ने विवाह नहीं किया था ऐसा दिगम्बर जैन ग्रंथों में लिखा है इसीलिए पांच बालयतियों में वे अंतिम बालयति तीर्थंकर माने जाते हैं।
अब सुनिये तीर्थंकर महामुनि महावीर ने मुनिचर्या में सर्वप्रथम कूलग्राम के राजा कूल (वकुल) के महल में मानव निर्मित भोजन के ऊश्प में खीर का आहार लिया। तब देवताओं ने रत्न, पुष्प, गंधोदक, जयकार और बाजे बजाकर पंचाश्चर्यों की वृष्टि करके खूब धर्म प्रभावना की थी।
बन्धुओं! तीर्थंकर महामुनि महावीर स्वामी ने १२ वर्षों तक जगह-जगह मौनपूर्वक विहार किया और उनके अनेक आहार का लाभ अनेक पुण्यशाली श्रावकों को, राजाओं को प्राप्त हुआ। इसी मध्य एक बार वे कौशाम्बी नगरी पहुँच गये, वहाँ कुमारी चंदनासती को सुभद्रा सेठानी ने अपने घर की काल कोठरी में बेड़ियां पहनाकर और सिर मुडांकर बंद कर रखा था, उसे वह मिट्टी के सकोरे में कोदों का भात खाने को देती थी। गलतफहमी का शिकार बनी चंदना को अपनी निर्दोषता पर गर्व था अत: वह चुपचाप सेठानी द्वारा दिये जा रहे कष्टों को सहन करते हुए सच्चे हृदय से प्रभु का स्मरण कर रही थी, तभी मानो उसके पुण्ययोग तीर्थंकर महामुनि महावीर के कौशाम्बी में पधारने का समाचार उसे पता चलता है और वह बड़ी भक्ति से महावीर के सामने जाने का प्रयास करती है कि तभी उसके बंधन अपने आप टूट जाते हैं, सिर पर केश आ जाते हैं, मिट्टी का सकोरा स्वर्णमय बन जाता है, कोदों का भात शालिधान्य की उत्तम खीर के ऊश्प में परिवर्तित हो जाती है। इसी ऐतिहासिक घटना को गीत में निबद्ध किया गया है-
तर्ज-कभी राम बनके……..
मुनिराज बनके, जिनराज बनके, चले आए,
महावीर चले आए।।टेक.।।
कौशाम्बी की है एक घटना।
जहाँ बेड़ियों में जकड़ी थी चन्दना।।
उद्धार करने, संकट टालने उसके, चले आए,
महावीर चले आए।।१।।
देखा चन्दना ने जब महावीर को।
आंसू भरकर पुकारा उसने वीर को।।
आवाज सुनके, बंधन काटने उसके, चले आए,
महावीर चले आए।।२।।
टूटी बेड़ियाँ चन्दना की तत्क्षण।
ज्यों ही हुआ महावीर का दर्शन।।
वीतराग बनके, उसका भाग्य बनके, चले आए,
महावीर चले आए।।३।।
श्रद्धा भक्ति से पड़गाया प्रभु को।
दिया चन्दना ने आहार प्रभु को।।
चमत्कार करने, आहार करने, चले आए,
महावीर चले आए।।४।।
इस इतिहास के साथ घटना आगे बढ़ती है और १२ वर्ष की तपस्या के बाद भगवान महावीर को एक दिन जृम्भिका ग्राम में ऋजुकूला नदी के तट पर केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई अत: पल भर में धनकुबेर ने अधर आकाश में समवसरण की रचना कर दी जिसमें चतुर्मुखी ब्रह्मा के ऊश्प में भगवान महावीर विराजमान हो गये।
‘‘जय बोलो तीर्थंकर महावीर स्वामी की जय’’
-चौपाई-
वीर महावीर बोलो जय जय महावीर, समवसरण में विराजे महावीर।
सुनो यहाँ अचरजमय घटना, प्रभु की दिव्य ध्वनि ना खिरना।
मौन में बैठे वीर जिनेश्वर, कहें सभी बोलो मेरे प्रभुवर।।
बोल रहे सब जय जयवीर, वीर महावीर बोलो जय जय महावीर।।१।।
बारह सभा सब लगी हुई हैं, दृष्टि सभी की प्रभु पर ही है।
बीत गये छ्यासठ दिन ऐसे, सभी सोच रहे यह हुआ कैसे?।।
क्यों नहिं बोल रहे मेरे वीर, वीर महावीर बोलो जय जय महावीर।।२।।
इक दिन इन्द्र के मन में आया, एक वृद्ध का ऊश्प बनाया।
गौतमशाला में पहुँच के उसने, एक प्रश्न पूछा गौतम से।
मौन हैं मेरे प्रभु महावीर, वीर महावीर बोलो जय जय महावीर।।३।।
पाँच सौ शिष्य वहाँ बैठे थे, इन्द्रभूति गुरु से पढ़ते थे।
गौतमगौत्री इन्द्रभूति ने, मान में भरकर कहा वृद्ध से।।
मुझ सम कोई न ज्ञानी वीर, वीर महावीर बोलो जय जय महावीर।।४।।
बाबा तू अपना प्रश्न बता दे, मेरा उत्तर मन में बसा ले।
इन्द्र ने पूछा काल हैं कितने, द्रव्य व अस्तिकाय हैं कितने।।
उत्तर पाने को हूँ अधीर, वीर महावीर बोलो जय जय महावीर।।५।।
गौतम को सुन चक्कर आया, तब उसने षड्यंत्र बनाया।
बोला, चल मैं वहीं चलूंगा, तेरे गुरु से बात कऊश्ँगा।।
इन्द्र चला उसके संग वीर, वीर महावीर बोलो जय जय महावीर।।६।।
समवसरण में आते ही गौतम, सम्यग्दर्शन सहित बने मुनि।
वीर शिष्य गणधर वे बन गये, प्रभु दिव्य ध्वनि स्वामी बन गये।।
सब जय जय बोलें महावीर, वीर महावीर बोलो जय जय महावीर।।७।।
यह श्रावण कृष्णा एकम तिथि, राजगृही का विपुलाचल गिरि।
धन्य धन्य हो गया जगत में, वीर की प्रथम देशना बल से।।
आज भी वहाँ लगती है भीड़, वीर महावीर बोलो जय जय महावीर।।८।।
राजगृही के राजा श्रेणिक, समवसरण के श्रोता थे प्रमुख।
सती चंदना गणिनी बन गईं, आर्यिकाओं में प्रमुख बन गईं।।
सभी मिल जय जय बोलें महावीर, वीर महावीर बोलो जय जय महावीर।।९।।
बन्धुओं! इस प्रकार आपने जाना कि भगवान महावीर को केवलज्ञान होने के बाद भी ६६ दिनों तक उनकी दिव्य ध्वनि नहीं खिरी। चौबीसों तीर्थंकर में से केवल महावीर ही ऐसे हुए हैं कि उनकी दिव्यध्वनि खिरने में इतना समय लगा अन्यथा सभी की केवलज्ञान के पश्चात् समवसरण में विराजमान होते ही दिव्य ध्वनि खिरने लग जाती थी। इसका कारण रहा कि महावीर की शिष्यता स्वीकार करने वाला कोई योग्य शिष्य नहीं प्राप्त हुआ था पुन: इन्द्रभूति गौतम के आते ही वह निमित्त प्राप्त हो गया और श्रावण कृ. एकम के दिन राजगृही के विपुलाचल पर्वत पर महावीर भगवान की दिव्य ध्वनि खिरने लगी। वह दिन वीर शासन जयंती दिवस के नाम से आज भी
प्रसिद्धि को प्राप्त है।
३० वर्षों तक महावीर तीर्थंकर प्रभु ने समवसरण में अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा समस्त संसारी प्राणियों को उपदेश सुनाया। जैन आगम ग्रंथों में लिखा है कि महाराजा श्रेणिक ने महावीर स्वामी से ६० हजार प्रश्न किये थे पुन: उनके उत्तर में महावीर स्वामी की ऊँकारमयी दिव्यध्वनि खिरती थी उसे गौतमगणधर स्वामी सभी भव्यात्माओं को विस्तार से समझाकर उन्हें तृप्त करते थे। और श्री गौतमस्वामी ने भगवान की दिव्यध्वनि को द्वादगांगश्रुत के ऊश्प में निबद्ध कर दिया। जो वर्तमान में चार अनुयोगों के ऊश्प में षट्खंडागम, कसायपाहुड़, समयसार, मूलाचार, महापुराण आदि ग्रंथ उपलब्ध हैं वे सब भगवान की दिव्यध्वनि के अंश ही हैं।
धर्मप्रेमी बन्धुवर! भगवान महावीर के समवसरण की एक घटना आपको बताती हूँ, ध्यान से सुनें-
तर्ज-णमोकार णमोकार महामंत्र णमोकार….
महावीर महावीर, बोलो जय जय महावीर।
प्रभु दर्शन को आया इक मेंढक ले कमल में नीर।।
महावीर महावीर.।।
समवसरण की सभा लगी थी, एक देव वहाँ आया।
लगा नाचने मुकुट में, उसने मेंढक चिन्ह बनाया।।
तब श्रेणिक ने पूछा कौन है? यह बतलाओ वीर।।
महावीर महावीर.।।१।।
प्रभु ने बताया दिव्यध्वनि में, सुनलो श्रेणिक राज।
अभी तुम्हारे हाथी के पग तल, मरा था मेंढक राज।।
भक्ति से मरा देव बन आया, धर कर दिव्य शरीर।।
महावीर महावीर.।।२।।
जिन भक्ति का यह फल देख के, कई बने सम्यक्त्वी।
श्रेणिक राज ने खूब सराही, नये देव की भक्ती।।
समवसरण में बोलें सब मिल, धन्य धन्य प्रभु वीर।।
महावीर महावीर.।।३।।
ऐसी अनेक घटनाएँ समवसरण में रोज ही घटित हुआ करती थीं, जिन्हें देख-देखकर सहस्रों नर-नारी, देव-देवी और पशु भी सम्यक्दर्शन के साथ-साथ अपनी योग्यतानुसार व्रतों को भी धारण करते थे।
एक दिन पुन: क्या होता है? सुनिये! श्रेणिक महाराज एक दिन समवसरण में जा रहे थे, तभी रास्ते में एक मुनिराज को ध्यान करते देखकर उनके दर्शन करने उतरे और मुनिराज की कुछ विकृत मुखमुद्रा देखकर समवसरण में पहुँचते ही उन्होंने भगवान महावीर से प्रश्न किया कि स्वामिन्! आज मैंने एक मुनिराज को कुछ अशांत भाव में ध्यान करते देखा है, उनकी कौन सी गति होने वाली है?।
भगवान महावीर की ओंकारमयी दिव्यध्वनि खिरती है जिसे श्रीगौतमस्वामी श्रेणिकराजा से बताते हैं-
हे श्रेणिक! तुम शीघ्रता से जाओ और मुनिराज को सम्बोधित करो। वे इस समय धर्मध्यान से विचलित होकर आर्त-रौद्र ध्यान में आ गये हैं और कुछ ही देर में मरकर नरक जाने वाले हैं। वे मुनिराज अपने पुत्र के मोह में पड़ गये हैं और उसे कष्ट देने वाले मंत्रियों के प्रति उनके मन में भारी विद्वेष जागृत हो गया है जिससे वे रौद्र ध्यान में पड़कर स्वयं को दुर्गति में डालने जा रहे हैं।
जाओ जाओ राजन्! शीघ्र जाओ औन मुनि को आत्मतत्व की ओर लाने का प्रयत्न करो।
ओह! देखो, भावों का खेल। परमदिगम्बर मुनिराज श्री कुछ निमित्तों से रागद्वेष परिणति में उलझकर अपने अगले भव को बिगाड़ रहे हैं। किन्तु आगे देखिए, क्या होता है?
राजा श्रेणिक तुरन्त समवसरण से वापस चलकर मुनिराज के निकट आकर उन्हें सम्बोधन देना प्रारंभ कर देते हैं-
तर्ज-अरिहंत जय जय, बोलो, जय भगवन्त जय जय…….
मुनिराज जय जय, बोलो, जिनराज जय जय-२।
गुरुदेव! जब देह अपनी नहीं है,
आत्मा सदा उससे भिन्न कही है।
तो पुत्र भला कैसे हो सकता अपना,
शत्रु भी क्या कोई हो सकता अपना।
मुनिवर तुम्हारी हम करते जय जय,
महावीर के लघुनंदन की जय जय।।१।।
यह बोलते ही मुनिवर ने सोचा,
हे भव्यात्मन् कह खुद को सम्बोधा।
तज आर्तध्यान धर्मध्यान में आए,
झट शुक्लध्यान से कर्म नशाए।।
बने केवली देवता करते जय जय,
श्री केवली अरिहंत की जय जय।।२।।
चिन्तन करो भव्यात्माओं! उस समय राजा श्रेणिक को कितनी प्रसन्नता हुई होगी, कि उनके छोटे से सम्बोधन मात्र से एक मुनिराज की केवल नरकगति ही नहीं टली, बल्कि उन मुनिवर का संसार ही सदा-सदा के लिए समाप्त हो गया और वे अनंत सुख स्वऊश्प मोक्ष में जाकर बस गये।
तो बन्धुओं! इन मुनिराज की कहानी भी आप अवश्य जानना चाहेंगे कि उन्हें तपस्या करते हुए मुनिश्री को अपने पुत्र के प्रति तीव्र राग और मंत्रियों के प्रति तीव्र द्वेष का भाव क्यों आया? तो सुनिये वह सच्चा पौराणिक कथानक भी-
तर्ज-फूलों का तारों का………….
मुनिवर के भावों का वर्णन सुनना है।
सच्चे कथानक को मन से सुनना है।।
राजाश्रेणिक सम धर्म का पालन करना है।।मुनिवर के.।।टेक.।।
एक बार ध्यानी मुनिवर आहार को निकले थे।
उनके पीछे पीछे तीन व्यक्ति चलते थे।।
उनकी आपस की बातें सबको सुनना है।।मुनिवर के.।।१।।
एक निमित्त ज्ञानी ने कहा ये नंगे क्यों रहते हैं।
इनके शारीरिक लक्षण सम्राट इन्हें कहते हैं।।
उन त्यागी मुनिवर का चारित सुनना है।।मुनिवर के.।।२।।
सम्राटों के भी सम्राट ये दूजे ने बतलाया।
राजाओं का राजा यह मुनि महाराज कहलाया।।
इनके गुणों के मोती हमको चुनना है।।मुनिवर के.।।३।।
कहा तीसरे ने यह बड़ा स्वार्थी नराधम पापी है।
निज अबोध बालक को सौंपा राज लाज ना आती है।।
चलते मुनि सोचें इनकी बातें सुनना है।।मुनिवर के.।।४।।
तीनों की बातें सुनकर मुनिराज के मन में क्लेश हुआ।
मंत्री मेरे पुत्र को दुख दे रहे हैं सुन मन खेद हुआ।।
उनके चिन्तन की बातें सबको सुनना है।।मुनिवर.।।५।।
लिया नहीं आहार आ गये वापस वे श्री मुनिवर।
करने लगे तपस्या किन्तु न हो पाए वे स्थिर।।
पुत्र का मोह मन को विचलित करता है।।मुनिवर.।।६।।
नमक हराम मेरे मंत्री मेरे सुत को दुख देते हैं।
उनके प्रतिविद्वेष से अपना मन कलुषित कर लेते हैं।।
आगे क्या होता है उसको सुनना है।।मुनिवर.।।७।।
मन का कलुषित भाव मुनि के मुख पे झलकने लगता है।
तभी तो राजा श्रेणिक को गुरु का मुख ठीक न लगता है।।
उनने वीरा से जो कुछ पूछा सुनना है।।मुनिवर.।।८।।
हे प्रभु! बोलो वे मुनि अब किस गति में जाने वाले हैं।
प्रभु बोले वे रौद्रध्यान से नरक में जाने वाले हैं।।
जाओ सम्राट! जल्दी उद्बोधन करना है।।मुनिवर.।।९।।
श्रेणिक का सम्बोधन सुन मुनिराज ध्यान में लीन हुए।
धर्मध्यान से शुक्लध्यान में आ मुनिवर तल्लीन हुए।।
उनको अब केवली भगवान बनना है।।मुनिवर.।।१०।।
ध्यान लीन मुनि कर्मनाश कर केवलि पद को प्राप्त हुए।
श्रेणिक भी मुनि केवलिप्रभु की गंधकुटी में बैठ गये।।
क्योंकि अब केवलि प्रभु की वाणी सुनना है।।मुनिवर.।।११।।
महानुभावों! भगवान महावीर के समवसरण की एक सच्ची घटना आपने सुनी है। इस तरह की अनेक घटनाएँ महावीर चरित्र, उत्तरपुराण, वर्धमान चरित्र आदि ग्रंथों में पढ़ना चाहिए।
इस प्रकार ३० वर्षों तक भगवान महावीर ने केवलज्ञानी अवस्था में समवसरण में विराजमान होकर अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा इन्द्र-देवता-मनुष्य-पशु आदि असंख्य भव्य प्राणियों को धर्मामृत का पान कराया पुन: ७२ वर्ष की आयु में विहार प्रांत की पावापुरी नगरी में पहुँच गये और वहाँ अपने योगों का निरोध करके जलमंदिर के मध्य ध्यान में स्थित हो गये। और कार्तिक कृष्णा अमावस के मंगल प्रभात में अघातिया कर्मों का भी विनाश करके वे सिद्ध परमात्मा बनकर अनंत काल तक के लिए सिद्धशिला पर विराजमान हो गये।
महानुभावों! उन सिद्ध पद को प्राप्त भगवान महावीर का निर्वाण कल्याणक महोत्सव तो स्वर्ग से आकर इन्द्र-इन्द्राणी, देवी-देवताओं और मनुष्यों ने पावापुर में असंख्य दीपमालिका जलाकर मनाया ही था उसके बाद से लेकर आज तक महावीर स्वामी की स्मृति में पूरे देश के अंदर दीपावली पर्व मनाया जाता है तथा जैन श्रद्धालु भक्तगण कार्तिक अमावस्या की प्रभात बेला में भगवान महावीर का अभिषेक-पूजन करके धूमधाम से निर्वाण लाडू चढ़ाते हैं पुन: सांयकाल में गौतम गणधर स्वामी के केवलज्ञान प्राप्ति के उपलक्ष्य में केवलज्ञान लक्ष्मी पूजन होती है और गृहस्थजन खूब दीपमालिका सजाकर दीपावली पर्व मनाते हैं।
उन पंचकल्याणक के अधिपति भगवान महावीर के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन करते हुए महावीर कथा यहीं सम्पन्न हो रही है।
तर्ज—कभी तू………………………….
मुझे पावापुर जाना है, मुझे जलमन्दिर जाना है,
वहाँ लाडू चढ़ाकर दीवाली का पर्व मनाना है।
जय जय दीवाली हो……जय जय दीवाली हो…।। टेक.।।
महावीर प्रभु कर्म नाशकर, मोक्षधाम जब पहुंचे।
पावापुर के जलमंदिर में, देव इन्द्र सब पहुंचे, देव इन्द्र……
उनकी ही यादों में, अब दीप जलाना है।
घर घर में धन लक्ष्मी का, भण्डार भराना है।। मुझे……।।१।।
वह पावापुरी सरोवर, अब तक भी लहर रहा है।
प्राचीन वहाँ जलमंदिर, का उपवन महक रहा है, हांँ उपवन……
आती है याद वहाँ, महावीर प्रभू जी की।
जिनको वन्दन करती, है भारत की धरती।। मुझे……।।२।।
महावीर वीरसंवत्सर, मंगलमय हो सब जग में।
निर्वाण की ही स्मृति में, जो शुरू हुआ भारत में, जो शुरू……
‘‘चन्दनामती” सबको, दीवाली मंगल हो।
जीवन में हर क्षण सबके, नव खुशियाँ शामिल हों।। मुझे……।।३।।
जय हो अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की जय।
-आर्यिका चन्दनामती
तर्ज-दीवाना गुरुवर का………………
बढाओ बेटी को, पढ़ाओ बेटी को
ये हैं देश का गौरव, पढ़ाओ बेटी को….।।
भारतीय संस्कृति की रक्षा हुई सदा बेटी से
पढ़ाओ बेटी को, बढ़ाओ बेटी को।।टेक.।।
यदि बेटी शिक्षित होगी तो देश बढ़ेगा आगे।
किसी की पुत्रवधु बन वह कुलवंश बढ़ाएगी आगे।।
फिर भी बन वह निज संतान की बने प्राथमिक शाला
पढ़ाओ बेटी को, बढ़ाओ बेटी को।।१।।
ऋषभदेव प्रभुवर ने प्रथम, पुत्रियों को शिक्षा दी थी।
ब्राह्मी सुंदरी सब विद्या व कला में पारंगत थी।।
अब सरकार ने भी नारी शिक्षा अभियान चलाया।
पढ़ाओ बेटी को, बढ़ाओ बेटी को।।२।।
गर्भ में बेटी जान के बहनों! मत मारो तुम उसको।
तुम भी किसी की बेटी हो, बेटी को ममता से सींचो।।
तभी ‘‘चंदनामती’’ धरा पर प्रेम की सरिता बहेगी।
पढ़ाओ बेटी को, बढ़ाओ बेटी को।।३।।