‘अहिंसा परमोधर्म:’ से भारी शोध दुनिया में दूसरा नहीं है । जब तक हम संसार के व्यवहार में रहते हैं और हमारी आत्मा का व्यवहार शरीर से रहता है, तब तक कुछ—कुछहिंसा हम से होती ही रहती है । पर, जिस िहसा को हम छोड़ सकते हैं, उसे छोड़ देना चाहिए । जिस धर्म में जितनी कम िहसा है, समझना चाहिए, उस धर्म में उतना ही ज्यादा सत्य है । अहिंसा और सत्य के सिवाय दूसरा कोई धर्म नहीं है । अहिंसा के उपासकों को टंटे क्यों करने चाहिए । राग—द्वेष का अर्थ है—िहसा। चींटी और खटमल को मारने में ही अहिंसा धर्म की समाप्ति नहीं हो जाती है । यह तो अहिंसा का सर्वाधिक कनिष्ठ रूप हुआ। जिनके हृदय में प्रेम की निरन्तर धार बहती है, वह जगत् को पवित्र बनाता है । ये मेरे शब्द नहीं है, महावीर यही कह गये हैं । मैंने तो इसका थोड़ा—बहुत स्वाद लिया है । इसी सत्य और अहिंसा का पालन करने में मेरा काम सध जाता है । यदि आप इसका पालन करेंगे तो आपका त्राण हुए बिना नहीं रहेगा। जिस अहिंसा, जिस प्रेम से भूखे असहाय लोगों का कल्याण हो, उस अहिंसा, जिस प्रेम से भूखे असहाय लोगों का कल्याण हो, उस अहिंसा से बड़ी अहिंसा क्या हो सकती है ? उस प्रेम से श्रेष्ठ प्रेम क्या हो सकता है । अहिंसा का पथ प्रेम का है, दया का है, सबको समान समझने का है ।
क्षमा वीरस्य भूषणम्
जिस धर्म में जितना दया—भाव है उतना ही उसमें अहिंसा धर्म है । दया की कोई सीमा नहीं होती। सीमा बाँधना मेरा काम नहीं है । सब कोई अपनी—अपनी सीमा निर्धारित कर लेते हैं । वैष्णव धर्म अहिंसा प्रधान है । जैन—ग्रंथों में उस पर विशेष रूप से विचार किया गया है और वह मुझे मान्य भी है । लेकिन अहिंसा पर जैन अथवा अन्य किसी धर्म का एकाधिकार नहीं है । अहिंसा सर्वव्यापक और अविचलित नियम है । जैन दर्शन में उपवास आदि के जो नियम दिए गए हैं उन्हें आत्मघात का पोषण करने वाला कहना मेरे ख्याल से जैन—पद्धति को न समझना है । अहिंसा और दया में उतना ही अन्तर है जितना सोने में और सोने के गहने में, बीज में और वृक्ष में। बीज में और वृक्ष में। जहाँ दया नहीं वहाँ अहिंसा नहीं। अत: यों कह सकते हैं कि जिसमें जितनी दया है उतनी ही अहिंसा है । अपने पर आक्रमण करने वाले को मैं न मारूँ, उसमें अहिंसा भी हो सकती है और नहीं भी। यदि उसे भयवश न मारूँ तो अहिंसा नहीं हो सकती। दयाभाव से ज्ञानपूर्वक न मारने में ही अहिंसा है । अिंहसक मनुष्य अत्याचारी से डरता नहीं है, उस पर दया करता है । दयाधर्म बतलाता है कि जिससे हम डरते हैं, उस पर दया नहीं कर सकते। ‘‘क्षमा वीरस्य भूषणम्’’ जो बात बात शुद्ध अर्थशास्त्र के विरुद्ध हो वह अहिंसा नहीं हो सकती। जिसमें परम अर्थ हो वह शुद्ध है । अहिंसा का व्यापार घाटे का व्यापार नहीं होता। अहिंसा के दो पलड़ों का जमा खर्च शून्प्य होता है । अर्थात् ! उसके दोनों पलड़े समान होते हैं । जो जीने के लिए खाता है, सेवा करने के लिए जीता है, मात्र पेट पालने के लिए कमाता है वह काम करते हुए भी अक्रिय है । क्रियाहीन अहिंसा आकाश—कुसुम के समान है । क्रिया हाथ पैर की अपेक्षा बहुत ज्यादा काम करता है । विचार मात्र किया है । विचार रहित अहिंसा हो ही नहीं सकती। अतएव ऐसा नहीं कहा जा सकता कि अहिंसा निष्क्रिय है और दया सक्रिय है, बल्कि दोनों ही सक्रिय हैं । सर्वभक्षी जब दया से प्रेरित होकर भक्ष्य पदार्थों की मर्यादा निश्चित करता है तब उस हद तक वह अहिंसा धर्म का पालन करता है । इसके विपरीत जो रूढ़ि के कारण मांसादि नहीं खाता, वह अच्छा तो करता है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि उसमें अहिंसा का भाव है ही। जहाँ अहिंसा है वहाँ ज्ञानपूर्वक दया होनी ही चाहिए । लेकिन, अहिंसा धर्म सच्चा धर्म हो तो व्यवहार में हर तरह उसका आचरण करना भूल नहीं, बल्कि कत्र्तव्य है । व्यवहार और धर्म के बीच विरोध नहीं होना चाहिए । धर्म का विरोधी व्यवहार छोड़ देने योग्य है । सब जगह, सब समय सम्पूर्ण अहिंसा सम्भव नहीं, ऐसा कहकर अहिंसा को एक ओर रख देनाहिंसा, मोह और अज्ञान है । सच्चा पुरुषार्थ तो इसमें है कि हमारा आचरण सदा अहिंसा के अनुसार हो। इस तरह आचरण करने वाला मनुष्य अन्त में परम पद प्राप्त करेगा। क्योंकि वह सम्पूर्णतया अहिंसा का पालन करने योग्य बनेगा और यों देहधारी के लिए सम्पूर्ण अहिंसा बीज रूप ही रहेगी। देह धारण के मूल में हीहिंसा है, इसी कारण देहधारी के पालने योग्य धर्म का सूचक शब्द निषेधात्मक अहिंसा के है ।
हिंसा पर अहिंसा की विजय
आज जगह—जगह हिंसा व अहिंसा की पद्धति के बीच एक द्वन्द्व चल रहा है ।हिंसा तो पानी के प्रवाह की तरह है । पानी का निकलने का रास्ता मिलते ही वह प्रबल वेग से बहने लगता है । अहिंसा पागलपन से काम कर ही नहीं सकती। वह तो अनुशासन का सारतत्व है । किन्तु जब वह सक्रिय बन जाती है, तब फिरहिंसा की कोई भी शक्ति उसे कुचल नहीं सकती। अहिंसा सोलह कलाओं से वहीं उदित होती है, जहाँ कुन्दन की शुद्धता और अटूट श्रद्धा होती है । इसलिए द्वन्द्व में यदि अहिंसा हारती हुई दिखाई दे तो ऐसा श्रद्धा कम होने से या उनकी शुद्धता में कमी आ जाने से अथवा दोनों ही कारणों से होगा। यह होते हुए भी अन्त में हिंसा पर अहिंसा की ही विजय होगी, यह मानने का कारण मालूम होता है । हमारी पीढ़ी के दौरान हुए पिछले दो महायुद्धों से युद्धों की निरर्थकता भी सिद्ध हो गई है । यदि सशक्त और स्पष्ट शब्दों में कहें तो युद्ध का मतलबहिंसा ही है । और सभ्य कहे जाने वाले राज्यों द्वारा आयोजित होने के कारण वहहिंसा से किसी भी तरह कम नहीं है । विश्व में शान्ति बनाए रखने के लिए अहिंसाहिंसा का स्थान प्रभावकारी ढंग से लेती है या नहीं, यह अभी देखना है । परन्तु इतना निश्चित है कि यदि मानव—जाति सबल द्वारा दुर्बल के शोषण के अपने पागलपन के रास्ते पर ही चलती रही तो यह निश्चय ही उस प्रलय का ग्रास बन जायेगी, जिसकी भविष्यवाणी सभी धर्मों में की गई है ।
मनुष्य स्वभाव से अहिंसक है
मनुष्य का स्वभाव अहिंसक है लेकिन उसकी उत्पत्ति अहिंसा से नहीं। जब हम आत्मा का दर्शन करते हैं तब हमारा मनुष्यत्व सिद्ध होता है । जब हम अपने मनुष्यत्व को सिद्ध करते हैं, तब हम परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हैं । आज हमारी परीक्षा का समय है । ईश्वर का साक्षात्कार करने का अर्थ यह है कि हम भूत—मात्र से उसे देखें। अर्थात् भूत—मात्र के साथ हम ऐक्य—साधन करें। यह मनुष्य का विशेष अधिकार है, और यही मनुष्य और पशु के बीच का भेद है । यह तभी हो सकता है जबकि हम स्वेच्छापूर्वक शरीर—बल का उपयोग त्याग दें और हमारे हृदय में जो अहिंसा सुप्त रूप में पड़ी हुई है, उसका विकास करें। इस वस्तु का उद्भव सच्चे बल से होगा । सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं और अहिंसा परमोधर्म से बढ़कर कोई आचार नहीं। प्रत्येक धर्म की उच्चता इसी बात में है कि उस धर्म में अहिंसा तत्व की प्रधानता हो अहिंसा तत्त्व को यदि किसी ने अधिक से अधिक विकसित किया है तो वे महावीर स्वामी थे। अहिंसा, सत्य आदि स्वयं प्रकाश है । अगर नहीं है तो नकली वस्तु है ।
चिन्तन करें
वह व्यक्ति जैनधर्म के प्रवर्तक महावीर या गौतमबुद्ध अथवा वेदों का अनुयायी नहीं है जो स्वयं तो मृत्यु से डरकर किसी वास्तविक या काल्पनिक भय के सामने से भाग खड़ा होता है और मन में यह मानता है कि कोई अन्य व्यक्ति सम्बन्धित अत्याचारी का नाश करके खतरे का परिहार कर दे । वह नि:सन्देह अहिंसा का अनुयायी नहीं है जो व्यापार में धोखा देकर किसी व्यक्ति को घुला—घुलाकर मारता है, या जो हथियार उठाकर कुछ गायों की रक्षा करता है और कसाई का मार डालता है या जो देश के तथाकथित लाभ की आशा में शासन के कुछ अधिकारियों की हत्या करने में नहीं हिचकता । इन सारे कृत्यों की जड़ में घृणा, कायरता और भय है । गाय अथवा देश के प्रति प्रेम की यह भावना एक धूमिल—सी चीज है और इसका मकसद अपने दम्भ की तुष्टि या अन्तर्वेदना को सहलाना है । मेरी विनम्र राय में अहिंसा लौकिक और अलौकिक सभी बुराइयों निवारण के लिए रामबाण है । इसके आचरण में अति सम्भव नहीं है । अभी तो इसका आचरण हो ही नहीं रहा है । अहिंसा दूसरे सद्गुणों के आचरण का स्थान नहीं ले लेती, बल्कि उनका आचरण अहिंसा के प्रारम्भिक रूप के पालन के लिए भी आवश्यक कत्र्तव्य हो जाता है । महावीर और बुद्ध और इसी प्रकार टॉल्स्टॉय सिपाही थे । अलबत्ता उन्होंने अपने पेशे को अधिक गहराई और वास्तविकता के साथ देखा और सत्य, सुख और सम्मान से पूर्ण पवित्र जीवन के रहस्य को समझा, हम भी इन गुरुजनों के पथ पर चलें और अपने इस देश को फिर एक बार देव—भूमि बना दें ।