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महावीर की पहचान कुण्डलपुर से करें न कि वैशाली से

June 16, 2014विशेष आलेखjambudweep

महावीर की पहचान कुण्डलपुर से करें न कि वैशाली से


प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती

जैनरामायण पद्मपराुण की निम्न पांक्तयां वर्तमान के संदर्भ में अक्षरशः सार्थक सिद्ध हो रही हैं-

आचाराणां विघातेन, कुदृष्टीनां च सम्पदा। धर्मग्लानिपरिप्राप्तमुच्छ्रयन्ते जिनोत्तमाः।।

अर्थात् जब-जब धरती पर सदाचार नष्ट होने लगता है, सच्ची शास्त्रीय दृष्टि निराधार विषयों से बदलने लगती है, धर्म हानि को प्राप्त होने लगता है, तब-तब कोई न कोई जिनोत्तम अथवा जिनमार्ग के पोषक महापुरुष इस धरती पर अवतरित होते हैं अर्थात् हमेशा इस देश में बलि के साथ विष्णुकुमार, रावण के साथ राम, सूर्पणखा के साथ सीता, वंâस के साथ कृष्ण जैसी महान आत्माओं ने जन्म लेकर अधर्म और अत्याचार पर धर्म और सदाचार की विजयपताका फहराई है। वर्तमान कलियुग में भी जैनसंस्कृति के पतन और उत्थान दोनों का मिश्रित रूप चल रहा है। जब संस्कृति से अज्ञात आधुनिक इतिहासवेत्ता मनमानी शोध करने में अपनी अहं भूमिका निभा रहे हैं तब क्यों न हम अपने प्राचीन इतिहास का अवलोकन कर अपनी धरोहरों पर कुठाराघात होने से उन्हें बचाने एवं संरक्षण करने में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दें। एक प्राचीन विद्वान ने कहा है कि- ‘‘इतिहास के सृष्टा तो चले गए, पर सृष्ट इतिहास को एकत्र करने वाले भी उत्पन्न नहीं होते। अपनी ही मिट्टी में अपने रत्न दबे पड़े हैं, उनको हमने अपने पैरों से रौंदा और उनको चुनने के लिए समुद्र के उस पार से टॉड, फाब्र्स, ग्रोस, किंनघम आदि आए। वे इतिहास गवेषणा के लिए नियुक्त नहीं हुए थे परन्तु वे अपने राजकीय कार्य के बाद अवकाश के समय यहां की प्रेमगाथाएं व शौर्यकथाओं से प्रभावित हुए। इनका स्वर उनके कानोें में पड़ा और उसी प्रकार ने उनके हृदय में शोधक बुद्धि उत्पन्न कर दी।’’ श्री सत्यकेतुविद्यालंकार ने ‘‘भारत का इतिहास’’ नामक पुस्तक के पृ. ५०६ पर इतिहास का लक्षण लिखा है-

इतिहास प्रदीपेन, मोहावरण घातिना। सर्वलोकधृतं गर्भे, यथावत्संप्रकाशयेत्।।

अर्थात् इतिहास एक ऐसे दीपक के समान है जो मोहरुपी अर्थात् भ्रमरूपी अंधकार को नष्ट करता है जिसका प्रयोजन यह है कि संसार की घटनाओं की आधारभूत बातों व तथ्यों पर सही-सही रूप से प्रकाश डाला जाए। दीपक द्वारा काली वस्तु काली दिखाई देती है और सफेद, वह किसी से पक्षपात नहीं करता। इतिहास का भी यही प्रयोजन है। महावीर के शासन में जन्म लेने वाले महावीर के भक्तों! इतिहास का लक्षण बताने वाली ये प्राचीन पांक्तयां आज केलव इतिहास की ही धरोहर बन गई हैं, इन पर अमल करने वाले वर्तमान में कोई इतिहासकार शायद शेष नहीं रहे हैं इसलिए आज का इतिहास भारतसरकार की बदलती राजनीतियों से जुड़कर इतिहास लेखकों की धर्मविद्रोही नीतियों का परिचयमात्र प्रदान करने वाला रह गया है। इन दूषित इतिहासों को पढ़ने से क्षुभित होकर ही एक लेखक ने यही पत्रिका के सम्पादकीय में लिखा है- ‘‘प्रागैतिहासिक काल में हुए आदि तीर्थंकर ऋषभदेव, राम, कृष्ण आदि की जन्मभूमि के संबंध में जहां कोई मतभेद नहीं है वहीं ऐतिहासिक युग में हुए भगवानमहावीर की जन्मभूमि का सर्वमान्य निर्णय न हो पाना आश्चर्यजनक है। किसी नीतिकार ने कहा है कि-

स्वजातिपूर्वजानां तु, यो न जानाति सम्भवम्। स भवेत् पुश्चलीपुत्र, सदृश: पुत्रवेदक:।।

अर्थ-अपने पूर्वजों के विषय में जो जानकारी नहीं रखता वह उस कुलटा पुत्र के समान है जिसे अपने पिता के विषय में पता नहीं अर्थात् अतीत ही वर्तमान का सांस्कृतिक आधार है और इस अतीत को न जानने वाला अपनी सनातन निधि के परिज्ञान बिना निराधार सदृश है। जिन तीर्थंकर भगवन्तों की दिव्यदेशना से वर्तमान में जैनशासन विद्यमान है, उनके जीवन का परिज्ञान रखना हमारा परम पुनीत कर्तव्य है। आज से २६०० वर्ष पूर्व जब चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर राजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला से जन्म लेने वाले थे तब इन्द्र ने कुण्डलपुर नगरी की भव्य रचना की थी। ९६ मील विस्तृत उस नगरी का वैभव मानो स्वर्गपुरी के समान ही शोभता था। तीर्थंकर भगवान महावीर के जन्म से वह नगरी सदैव-सदैव के लिए पूज्यनीय बन गई थी जो सौभाग्य से आज भी बिहार प्रदेश में नालन्दा के निकट विद्यमान है। यद्यपि काल के प्रभाव और समाज की सुप्तता ने उसका वैभव अपने आंचल में समेटकर हमारी आंखों से ओझल कर दिया है परन्तु उसकी पूज्यता निरंतन बनी रही है। सम्यग्ज्ञान के पिछले अंकों में कई प्राचीन आगम प्रमाणों द्वारा मैंने कुण्डलपुर का भगवान महावीर जन्मभूमि के रूप में दिग्दर्शन कराया है जिसके मूल में विडम्बना छिपी है और वह है कुछ आधुनिक शोधों के आधार से वैशाली को भगवान महावीर की जन्मभूमि कहने का दुष्प्रयास करना। यह कलियुग की बेबुनियादी शोध का ही प्रभाव मानना पड़ेगा कि महावीर की वास्तविक जन्मभूमि होते हुए भी उसके निराधार विकल्प हमारे समक्ष आ रहे हैं। कुछ ऐसे तथ्यों की ओर सुधी पाठकों का ध्यान आकृष्ट करना चाहती हूं जो निरन्तर शोध की प्रक्रिया में मेरे सामने उजागर हुए हैं। पं. बलभद्र जैन द्वारा लिखित ‘‘भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ-महाराष्ट्र’’ में पृष्ठ २०३ पर गजपन्था क्षेत्र की अवाqस्थति के विषय में लिखा है-कुछ विद्वान वर्तमान गजपंथ क्षेत्र को वास्तविक न मानकर आधुनिक खोज मानते हैं उनका तर्वâ है कि इस क्षेत्र पर न तो कोई प्राचीन मंदिर है और न पुरातत्व ही, किन्तु प्राचीन साहित्य में कुछ प्रसंग या स्थल ऐसे भी प्राप्त होते हैं जिनसे इस बात का निर्णय हो जाता है कि यह क्षेत्र कहां पर अवाqस्थत था। असगकवि कृत ‘‘शााqन्तनाथ चरित’’ में एक प्रसंग है- अमिततेज और श्रीविय ने अपनी विशाल वाहिनी को लेकर अशनिवेगाविद्याधर का पीछा किया तब वह अपनी रक्षा का कोई उपाय न देखकर भाग खड़ा हुआ और नासिक्य नगर के बाहर गजध्वजपर्वत पर जा पहुंचा। उल्लेख इस प्रकार है-

‘‘उर्जयन्त-शत्रुंजय————नासिक्यनगरसमीपर्वित गजध्वजगजपंथ-सिद्धकूट——— तीर्थंकरपंचकल्याणस्थानानि।’’

उपर्युक्त उल्लेख में ‘‘नासिक्यसमीपवर्ती गजध्वज गजपंथ’’ नाम देकर सारी शंकाओं का समाधान कर दिया है इसका अर्थ यह ही है कि गजपंथ नासिक नगर के समीप था और उसका अपरनाम ‘‘गजध्वज’’ भी था। वर्तमान में भी गजपन्थ क्षेत्र नासिक शहर से केवल ६ किमी. दूर है। यहां पर इस उदाहरण को लेने का तात्पर्य यही है कि जब-जब आधुनिक इतिहासकार एवं शोधकर्ताओं ने किसी वास्तविकता पर प्रश्नचिन्ह लगाया तब-तब अपने-अपने प्राचीन दिगम्बर जैन आगमग्रन्थों के आधार से ही निर्णय हुए हैं अन्यथा प्रत्येक तीर्थ एवं धर्म की बातें विवाद की कोटि में आ जाएंगी। पाश्र्वनाथ, विद्यापीठ, वाराणसी द्वारा प्रकाशित ‘‘भ्रमण’’ पत्रिका अप्रैल-सितम्बर २००१ जन्मभूमि के संदर्भ में कुछ और अधिक प्रकाश डाल रही है। इस पत्रिका में प्रकाशित लेख ‘‘वैशाली-आचार्य विजयेन्द्रसूरि’’ पृष्ठ २०-४९ द्वारा यह स्पष्ट है कि वास्तव में श्वेताम्बर परम्परा द्वारा प्रारंभ में वैशाली को भगवान महावीर की जन्मभूमि माना गया है और दिगम्बर जैन सम्प्रदाय नालन्दा के निकट कुण्डलपुर को महावीर की जन्मभूमि मानता है। यहां पर विशेष विचारणीय तथ्य यह है कि इसी पत्रिका में प्रकाशित दूसरे आलेख ‘‘महावीर के जन्मस्थान पर नया प्रकाश’’ पृष्ठ ५०.५४ में पुरातत्व विभाग, बिहार के निदेशक श्री अजय कुमार सिन्हा ने विभिन्न भूगर्भीय, भौगोलिक, ऐतिहासिक तथा भाषायी साक्ष्यों के आधार से वैशाली का भगवान महावीर की जन्मभूमि के रूप में पूर्णतया विरोध किया है। वह लिखते हैं कि भगवान महावीर यदि वैशाली से संबंधित होते ही उनकी भाषा वैगई होती उन्होंने यह भी लिखा है कि कोई प्राचीन जैन भग््नाावशेष वैशाली के निकट प्राप्त नहीं हुआ है जिससे उनकी जन्मभूमि का तथ्य सामने आ सके——इत्यादि। पुरातत्व सम्बघी “It is still more significant that Vaishali known as the birth place of Mahavira Kundgrama and also as the place which Mahavira visited several times has not yided nany clear Jaina antiquity. Nor the various sites of Yaksha worship; Sarandada; Capala; Vdena; Bahupujiya and the last visited by Mahavira have been indentified. Even Vasukunda believed to be the birthplace of Mahavira has not been excavate………….while Vasukunda has not been touched by archaeologist’s spade. Thus even Vaishali needs further excavation.” अर्थात् ‘‘यह और भी अधिक महत्वपूर्ण है कि वैशाली जिसे महावीर की जन्मभूमि-कुण्डग्राम कहा जाता है और जहां महावीर कई बार गए वहां से कोई स्पष्ट प्राचीन जैन अवशेष प्राप्त नहीं हुए हैं—यहां तक कि वासोकुण्ड, जिसे महावीर का जन्मस्थान माना जाता है, की भी खुदाई की गई है—जबकि वासोकुण्ड को पुरातत्वशााqस्त्रयों द्वारा स्पर्श भी नहीं किया गया है। इस प्रकार वैशाली में भी आगे खुदाई किये जाने की आवश्कयता है।’’ सार यह है कि पुरातत्व एवं प्राचीन भगवानाशेषों के आधार पर वैशाली की स्थति भगवान महावीर की जन्मभूमि के रूप में तो कभी सुदृढ़ हो ही नहीं सकती बाqल्क यह वैशाली भी वास्तविक वैशाली नहीं है क्योंकि सन् १९५० से १९६० के मध्य उस नगर का नाम ‘‘बसाढ़’’ था और कुछ लोगों ने मिलकर उसका नाम ‘‘वैशाली’’ रख दिया। इस तरह से तो राजधानी दिल्ला में भी एक कॉलोनी का नाम है ‘‘वैशाली’’, वहीं पर निकट में ‘‘कौशाम्बी’’ नामक एक विशाल कॉलोनी है किन्तु ये सभी स्थल महावीर से कोई संबंध नहीं रखते, उसी प्रकार प्राचीन बसाढ़ आज की वैशाली भी केवल नाम बदल देने से महावीर की ननिहाल नहीं हो सकती है। शास्त्रों में र्विणत वैशाली सिन्धुदेश में मानी गई है और कुण्डलपुर नगरी विदेहदेश में कही है। विदेशदेश तो वर्तमान का बिहार प्रदेश है तो वहां सिन्धुदेश हो ही नहीं सकता है अतः अभी तो सिन्धुदेश की असली ‘‘वैशाली’’ नगरी की खोज होनी चाहिए एवं ५० वर्ष से स्थापित वैशाली को प्राचीन नाम ‘‘बसाढ़’’ के रूप में ही माननी चाहिए। इसी Directory of Bihar Archaeology का अवलोकन करने पर मैंने देखा कि पृष्ठ २६४ पर लिखा है- Besides being located in Basukunda-Vaishali; Kundalpur-baragaon near Nalanda is the considered belief of Digamber Jainas as Mahavira’s birthplace while many Svetamvara Jains take Lacchuar; near the Lakhisarai railway station as his birthplace- अर्थात्-नालन्दा के निकट कुण्डलपुर-बड़गांव दिगम्बर जैनों की मान्यतानुसार महावीर की जन्मभूमि है—।। The site earlier was known as baragaon; which is even today a village adjacent to Nalanda ruins and formed a part of Nalanda complex; who according to Buchanan belonged to he dynasty of the Andhras wo began their rule 80 years after christ and continued for 200 years. But Jains priests told Buchanan that the site represents the residence of Raja Shrenik and his oncesores; who preceded the establishment of the Andhra dynasty here and lived about six or seven centrues earlier. —अर्थात् नालन्दा के निकट बड़गांव-कुण्डलपुर को ‘‘बुकनैन’’ के अनुसार के ‘‘मग’’ राजा द्वारा स्थापित माना गया है। इस का शासनकाल ईसा के ८० वर्ष बाद प्रारंभ होकर २०० वर्ष तक चला परन्तु जैन पुजारियों ने ‘‘बुकनैन’’ को बताया कि इस स्थान पर वास्तव में राजा श्रेणिक और उनके संबंधियों का निवास था जो के पूर्ववर्ती थे और उनसे छह या सात शताब्दी पूर्व हुए थे।’’ पुरातत्व की इन पांक्तयों से कुण्डलपुर की जो पहचान नालन्दा और बड़गांव की निकटता से हुई है वही प्रामाणिकता ‘‘दिगम्बर जैन पुस्तकालय’’ श्रीमहावीरजी-राज. से दिस. सन् १९६२, वी.नि.सं. २४८६ में प्रकाशित ‘‘वृहद् महावीर र्कीितन’’ के पृष्ठ ९०४ पर निम्न पांqक्तयों के द्वारा तीर्थयात्रियों को सूचना दी जाती रही है। कुण्डलपुर यहां का स्टेशन बड़गांव है। इस दर्शनीय स्थल पर जमीन के अंदर एक विशाल नगरी और जैनर्मूितयां निकली हैं। एक विशाल भवन बौद्धधर्म का भी निकला है। इसके संबंध में कहा जाता है कि यह नालन्दा विश्वविद्यालय और छात्रालय है। दिगम्बरी धर्मशाला में एक मंदिर है जिसमें महावीर स्वामी की प्रतिमा बड़ी सुन्दर है। यह महावीर स्वामी का जन्मस्थान है। बड़गांव स्टेशन वापस आकर राजगृही की टिकट लें। इन पांqक्तयों से एकदम स्पष्ट हो जाता है कि सभी लोग ईसा से छह-सात शताब्दी पूर्व नालन्दा के निकट कुण्डलपुर को ही महावीर का जन्म और निवासस्थल मानते हैं। जहां तक पर्यटन विभाग का प्रश्न है- बिहार सरकार के पर्यटन विभाग द्वारा प्रकाशित फोल्डर राजगिर में ख्ल्ह्aत्ज्ल्r को दिगम्बर जैन मान्यतानुसार भगवान महावीर की जन्मभूमि लिखा गया है। Kundalpur- The Digamber sect of the Jains believe that Lord Mahavir was born at Kundalpur, 18 km from Rajgir. A Jain temple and two lotus lakes-the Dirga Pushkarni and Pandava Pushkarni mark the spot. बिहार से प्रकाशित ‘‘सप्ततीर्थ दर्शन’’ नामक रंगीन चित्र वाली पुस्तक में भी ‘कुण्डलपुर’ और ‘लिछवाड़‘ इन दो जन्मभूमियों के चित्र प्रकाशित हैं जिसमेें से कुण्डलपुर दिगम्बर जैनों के अनुसार और लिछवाड़ श्वेताम्बर जैनों के अनुसार महावीर जन्मभूमि है। लालचन्द एण्ड संस, दरियागंज-दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘‘बिहार तथा झारखण्ड के प्रमुख जैन तीर्थ’’ में पृष्ठ ४७ पर वैशाली-कुण्डग्राम के लिए लिखा है कि ‘‘उत्तराध्ययन सूत्र, भगवती सूत्र आचारांग सूत्र आदि से यह सिद्ध होता है कि विदेहक्षेत्र में स्थत कुण्डग्राम-वैशाली भगवान महावीर का जन्म स्थल है। इसी कारण भगवान महावीर को विदेह, विदेहदन्त, विदेहसुकुमार और वैशालिक भी कहा गया है। स्पष्ट है कि ये मान्यताएं श्वेताम्ब गं्रथों पर ही आधारित हैं एक भी दिगम्बर जैन आगमग्रन्थ वैशाली का समर्थन महावीर जन्मभूमि के रूप में नही करता। वर्तमान की वास्तविकता यह है कि वैशाली को छोड़कर अब श्वेताम्बर समाज ‘लिछवाड़‘ का जन्मभूमि के रूप में समर्थन कर रहा है। इसलिए वैशाली और लिछवाड़ तो श्वेताम्बर मान्यतानुसार जन्मभूमियां हुई, तथा दिगम्बर मान्यतानुसार तो एकमात्र जन्मभूमि कुण्डलपुर-नालन्दा ही है। इसलिए कुण्डलपुर के विकास में ही भारत के सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज को अपने तन-मन-धन को सर्मिपत करना चाहिए और इतिहासकारों की बातों में आकर कदापि दिग्भ्रमित नहीं होना चाहिए। उपरोक्त पुस्तक में पृष्ठ ३२ पर श्वेताम्बर परम्परानुसार ही भगवान महावीर स्वामी के गणधर इन्द्रभूति, अग्निभूति व वायुभूति का जन्म कुण्डलपुर-नालंदा में माना है जबकि दिगम्बर जैनागम के अनुसार गौतम गणधर का कुण्डलपुर से कोई संबंध ही नहीं है वह तो ब्राह्मण नामक एक गांव में जन्मे थे। तात्पर्य यही है कि हमें वास्तविकता का निर्णय करने के लिए दिगम्बर जैन आगम ग्रन्थों के आइने में देखना होगा अन्यथा हमारी मान्यताएं बौद्ध एवं श्वेताम्बर आम्नाय को ही पुष्ट करेंगी और दिगम्बर जैन समाज की समस्त सांस्कृतिक धरोहरें एक दिन विनाश के कगार पर पहुँच जाएंगी। एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य की ओर भी पाठकों का ध्यान आकर्षित करना आवश्यक समझ रही हूँ-श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ संरक्षिणी महासभा-लखनऊ द्वारा प्रकाशित ‘‘अंगकोर के पंचमेरु मंदिर’’ पुस्तक के पृष्ठ ४९ पर एक सारणी दी गई है। जिसके अनुसार अधिकतर तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमियों को अन्य देशों में अवस्थित माना गया है- वर्तमान तीर्थंकरों के जन्म नगरों से मिलते-जुलते नाम जो दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में पाए जाते हैं- क्र.सं. तीर्थंकर नाम जन्मनगरी देश का नाम जहाँ यह नगर अवस्थित है १. ऋषभनाथ अयोध्या थाईलैण्ड २. अजितनाथ अयोध्या थाईलैण्ड ३. अभिनंदनननाथ अयोध्या थाईलैण्ड ४. सुमतिनाथ अयोध्या थाईलैण्ड ५. चन्द्रप्रभ चन्द्रपुरी थाईलैण्ड ६. श्रेयांसनाथ सिंहपुर थाईलैण्ड ७. वासुपूज्य चम्पा दक्षिण वियतनाम व वर्मा ८. अनन्तनाथ अयोध्या थाईलैण्ड ९. धर्मनाथ रत्नपुर कम्बोडिया १०. शांतिनाथ हस्तिनागपुर बर्मा ११. वुंâथुनाथ हस्तिनागपुर बर्मा १२. अरनाथ हस्तिनागपुर बर्मा १३. नमिनाथ विदेह दक्षिण चीन १४. वर्धमान कुण्डलपुर विदेह का १०वां नगर यहाँ विचारणीय बात यह है कि क्या आधुनिक शोध के आधार पर अयोध्या को थाइलैण्ड में, रत्नपुर को कम्बोडिया में, चम्पापुर को वियतनाम में और हस्तिनापुर को वर्मा में मानना चाहिए और इन तीर्थों की यात्रा करने सभी को विदेश में जाना चाहिए तथा भारत के सभी तीर्थंकरों की जन्मभूमियों को तिलांजलि दे देना चाहिए। इसी पुस्तक में पृष्ठ ४८ पर लेखक ने लिखा है कि-‘‘मैं तो समस्त मुनियों को विनम्र यही प्रस्ताव देना चाहूँगा कि एक बार सिर्फ एक दिन के लिए नियम तोड़कर वायुयान में बैठकर इन मंदिरों के दर्शन अवश्य करें।……..अगर मुनिसंघ इस भ्रमण के लिए स्वीकृति दें तो कम्बोडिया सरकार से बातचीत की जा सकती है।’’ इस पुस्तक के लेखक से मेरा प्रश्न यह है कि क्या करोड़ों-अरबों रुपये देकर भी अयोध्या के कारसेवकों को भगवान राम की जन्मभूमि थाईलैण्ड में मानने के लिए राजी किया जा सकता है, जरा हिन्दू समाज को एक बार यह कहकर तो देखें? वर्तमान मेें किया जा रहा शोध तो अपनी माता पर ही प्रश्नचिन्ह लगाए दे रहा है अत: ऐसे शोधकर्ताओं से तो सावधान रहना ही अच्छा है अन्यथा हमें न जाने क्या-क्या खोना पड़ेगा? अंत में यही कहना है कि जि. नालंदा-बिहार स्थित कुण्डलपुर ही भगवान महावीर की वास्तविक जन्मभूमि है। समस्त दिगम्बर जैन आगम ग्रंथों, प्राचीन मान्यताओं इत्यादि के अनुसार दिगम्बर जैन समाज को यदि भगवान महावीर जन्मभूमि को सम्मान प्रदान करना है तो वह कुण्डलपुर-नालंदा को करना है। आधुनिक शोधों पर जाएंगे तो शाश्वत सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर को पुरलिया-पं. बंगाल में और अहिच्छत्र को बिजौलिया-राजस्थान में मानना पड़ेगा क्योंकि श्वेताम्बर ग्रंथों, बौद्ध प्रमाणों एवं आधुनिक खोजों के आधार पर ही वैशाली को जन्मभूमि बताया जा रहा है। अंंत में समस्त दिगम्बर जैन समाज से मेरी यह प्रेरणा है कि कहीं भी आप महावीर जन्मस्थल कुण्डलपुर के साथ वैशाली का उल्लेख न करें क्योंकि वह भगवान की ननिहाल थी। कुण्डग्राम, क्षत्रियकुण्ड, वासोकुण्ड इत्यादि नामों के स्थान पर एकमात्र कुण्डलपुर ही प्रयुक्त करें। न ही भगवान महावीर को वैशालिक, विदेहदन्त, विदेहसुकुमार, नाथपुत्र, णिगण्ठपुत्त आदि लिखें वरन् उनके वीर, वर्धमान, महावीर, अतिवीर और सन्मति ये पाँच नाम ही दिगम्बर सम्प्रदाय में मान्य हैं। इनके अतिरिक्त सिद्धार्थपुत्र, त्रिशलानंदन एवं नाथवंशी विशेषण भी प्रयुक्त किए जा सकते हैं। आप अपनी प्राचीन परम्परा का अनुकरण करें और जैनधर्म की शाश्वत सत्ता के संवर्धन में सहयोगी बनें।

 

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