मानवीय आहार क्या है और कैसा होना चाहिए ? इस पर प्रस्तुत शोध पत्र में विस्तृत वैज्ञानिक विवेचन किया गया है। समस्त शोध संदर्भ प्रामाणिक पत्र पत्रिकाओं से लिये गये हैं। अधिकांश वैज्ञानिक तथ्य लेखक द्वारा सर्वप्रथम संकलित कर समायोजित किये गये हैं हालाकि अनेक संदर्भों को लेखक द्वारा पूर्व शोधालेखों में भी प्रस्तुत किया जा चुका है परन्तु आहार विषय पर समग्रता से विभिन्न शोध बिन्दुओं को पहली बार मौलिकता के साथ प्रस्तुत कर सर्वांगीण विवेचना की गयी है। अहिंसा प्रेमी शकाहारियों के विरोधाभासों एवं बिखराव को चित्रित करते हुये लेखक का प्रयास है कि आलेख को पढ़ने के पश्चात् सुधी पाठक विचार कर सक्रिय हों।आहार जीवन की मूलभूत आवश्यकता है। प्रत्येक जीव अपनी प्रकृति के अनुसार अपना आहार ग्रहण करता है। कुछ जीव (पेड़—पौधे) जहाँ हवा, पानी और प्रकाश से अपना भोजन बनाते हैं तो कुछ जीव (शेर,गिद्ध) दूसरे जानवरों के मांस पर निर्भर हैं वही बहुतेरे जीव सड़ी, गली मृत सामग्री से ही अपना जीवन चक्र पूरा करते हैं। मनुष्य जीवन की विकास यात्रा का सिरमौर प्राणी है। स्पष्टतया वह अब अपने आहार में सब कुछ ग्रहण कर रहा है परन्तु उसका मानवीय आहार क्या होना चाहिए ? और इसके सापेक्ष शाकाहार की क्या स्थिति है ? यह आज के विश्व की सर्वाधिक चितनीय, र्चिचत तथा अत्यावश्यक विषय वस्तु है। व्यक्ति क्या कुछ खा रहा है ? और क्या उसे खाना चाहिए यह उसका नितांत वैयक्तिक मामला है और हम किसी के भी ऊपर अपनी निजी विचारधारा नहीं थोप सकते परन्तु तथ्यों एवं तर्कों के द्वारा सत्य को समाने अवश्य रख सकते हैं।
मनुष्यों के आहार के प्रकार
यूं तो कुछ लोग नरमॉस का भी सेवन करते सुने गये हैं फिर भी मोटे तौर पर आहार के आधार पर लोगों को निम्नानुसार बांटा जा सकता है।
(अ) मांसाहारी—
१. सर्वाहारी—कीड़े, मकोड़ों, पशु पक्षियों, जलचर और शाकपात सब कुछ खाने वाले लोग जो संभवत: सर्वाधिक हैं।
२. मत्स्यभक्षी—मात्र, अण्डा, मछली और शाकाहार का सेवन करने वाले बहुत से लोग स्वयं को शाकाहारी कहते हैं।
३. अण्डा भोजी—अण्डे को दूध के समान मानने वाला बहुत बड़ा वर्ग अण्डा को एक निरापद, पौष्टिक आहार मानकर शाकाहार समझकर इसका निस्संकोच सेवन करता है।
(ब) शाकाहारी—
१. दुग्धाहारी—अनेक पालतू पशुओं के दूध के साथ वनस्पतियों का सेवन करने वाला प्रचलित, पारम्परिक, र्धािमक हिन्दू, जैन वर्ग जो कि आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यधिक सबल समुदाय है।
२. वीगन—समस्त पशु उत्पाद अण्डा, दूध, शहद इत्यादि का पूर्णत: परित्याग करने वाला विश्व व्यापी, विज्ञानवादी वर्ग जो कि शाकाहार के प्रचार—प्रसार में सतत संलग्न है।
३. विविध वर्णी—(अ) कंद मूल त्यागी (ब) लहसुन, प्याज त्यागी (स) आलू, गाजर, मूली त्यागी (द) शहद त्यागी (इ) सूक्ष्म विशेष त्यागी।
मानवीय आहार
अगर हम दुनिया भर के महापुरुषों, धर्मग्रंथों एवं धर्मों को देखें या फिर आधुनिक प्रकृतिवादी वैज्ञानिक वर्ग की राय लें तो सब जन प्रकृति के समस्त जीवों के प्रति करुणा का भाव प्रकट करते दिखतें हैं। इस भावना के साथ आहार का सर्वोत्तम तालमेल शाकाहार में ही होता है परन्तु समस्त दयालु लोग शाकाहारी हों अथवा समस्त शाकाहारी दयालु हो यह आवश्यक कदापि नहीं है। कोई भी मनुष्य मात्र माँसाहार ग्रासी नहीं हो सकता जबकि सिर्क शाकाहार पर जीने वाले लोग तब तक असंख्य हो चुके हैं अतएव आदर्श मानवीय आहार के रूप में शाकाहार का अंगीकार सबको ही करना पड़ता है परन्तु विविध वर्गी लोग विभिन्न परिस्थितियों एवं तर्कों से विभिन्न पशु/पक्षियों के अंगों / अंशों को आहार के रूप में ग्रहण करते चले आ रहे हैं। ऐसे में शाकाहार का मानवीय एवं माँसाहार को अमानवीय कहना जल्दबाजी में एक पक्षीय पूर्वाग्रही धारणा माना जाएगा। अतएव बेहतर यही होगा कि विभिन्न भोज्य पदार्थों की हम विस्तृत विवेचना करें।
माँसाहार व शाकाहार : तर्क व तथ्य
१. आहार एवं अपराध
(अ)सात्विक भोजन ये मस्तिष्क में संदमक तंत्रिका संचारक (न्यूरो इनहीबीटरी ट्रान्समीटर्स) उत्पन्न होते हैं, जिनसे मस्तिष्क शांत रहता है। वहीं असात्विक (प्रोटीन वाले मॉस) भोजन से मस्तिष्क में उत्तेजक तंत्रिका संचारक (न्यूरो इक्साइटेटरी ट्रान्समीटर्स) उत्पन्न होते हैं जिससे मस्तिष्क अशांत रहता है। गाय, बकरी, भेड़ आदि शाकाहारी जन्तुओं में सिरोटोगिन की अधिकता के कारण ही उनमें शांत प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं जबकि माँसाहारी जन्तुओं जैसे शेर आदि में सिरोटोनिन के अभाव से उनमें अधिक उत्तेजना, अशांति एवं चंचलता पायी जाती है।
(आ)इसी परिप्रेक्ष्य में सन् १९९३ में जर्नल ऑफ क्रिमिनल जस्टिक एज्युकेशन में फ्लोरिडा स्टेट के अपराध विज्ञानी सी.रे.जैफरी का वक्तव्य भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि वह चाहे कोई भी हो,
मस्तिष्क में सिरोटोनिन का स्तर कम होते ही व्यक्ति आक्रामक और व्रूर हो जाता है। शिकागो ट्रिब्यून में प्रकाशित अग्रलेख भी बताता है कि मस्तिष्क में सिरोटोनिन की मात्रा में गिरावट आते ही हिंसक प्रवृत्ति में उफान आता है। यहाँ यह बताना उचित होगा कि मॉस या प्रोटीनयुक्त भोज्य पदार्थों से जिनमें ट्रिप्टोपेन नामक अमीनों अम्ल नहीं होता है, मस्तिष्क में सिरोटोनिन की कमी हो जाती है एवं उत्तेजक तंत्रिका संचारकों की वृद्धि हो जाती है। इसी से योरोप के विभिन्न उन्नत देशों में नींद ना आने का एक प्रमुख कारण वहाँ के लोगों को माँसाहारी होना भी हैं उपरोक्त सिरोटोनिन एवं अन्य तंत्रिका संचारकों की क्रिया विधि पर काम करने से श्री पॉल ग्रीन गार्ड को सन् २००० का नोबल पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है।
२. आहार और खाद्यान्न समस्या
विगत कुछ वर्षों से विश्वव्यापी खाद्यान्न समस्या चर्चा का विषय बनी हुयी है। इस समस्या का समाधान निम्नांकित वैज्ञानिक तथ्य करते दिखते हैं :—
(अ) एक किलोग्राम जन्तु प्रोटीन (माँस) हेतु लगभग ८ किलोग्राम वनस्पति प्रोटीन की आवश्यकता होती है। सीधे वनस्पति उत्पादों का उपयोग करने पर माँसाहार की तुलना में सात गुना व्यक्तियों को पोषण प्रदान किया जा सकता है।
(आ) किसी खाद्य शृंखला में प्रत्येक पोषक स्तर पर ९० प्रतिशत ऊर्जा का खर्च होकर मात्र १० प्रतिशत ऊर्जा ही अगले पोषक स्तर पर पहुँच पाती है। पादप प्लवक, जन्तु प्लवक आदि से होते हुए मछली तक आने में ऊर्जा का बड़ा भाग नष्ट हो जाता है और ऐसे में एक चिताजनक तथ्य यह है कि विश्व में पकड़ी जाने वाली मछलियों का चौथाई भाग माँस उत्पादक जानवरों को खिला दिया जाता है।
(इ) समुद्र की खाद्य शृंखला को देखने पर पता चलता है कि वहाँ पादप प्लवकों द्वारा संचित ३१०८० ख्व् ऊर्जा बड़ी मछली तक आते—आते मात्र १२६ ख्व् बचती है। समुद्री शैवालों का विश्व में र्वािषक जल संवर्धन उत्पादन लगभग ६.र्५ १००, ००,००० टन है। जापान तथा प्रायद्वीपों सहित दूरस्थ पूर्वी देशों में इसके अधिकांश भाग का सब्जी के रूप में उपयोग किया जाता है। समुद्री घासों में प्रोटीन काफी मात्रा में पायी जाती है। इसमें पाये जाने वाले एमीनो अम्ल की तुलना सोयाबीन या अण्डा से की गयी है। अतएव मछली पालन के स्थान पर पादप प्लवक पल्लवन से अहिंसा , ऊर्जा एवं धन तीनों का संरक्षण किया जा सकता है।
(ई) विश्व में प्रतिवर्ष २० लाख लोग कीटानाशी विषाक्तता से ग्रसित हो जाते हैं, जिनमें से लगभग २० हजार की मृत्यु हो जाती है। कीटनाशक जहर जैसे होते हैं और ये खाद्य शृंखला में लगातार संग्रहीत होकर बढ़ते जाते हैं। इस प्रक्रिया को जैव आवर्धन कहते हैं। उदाहरण के लिये प्रातिबंधित कीटनाशक डी. डी. टी. की मात्रा मछली में अपने परिवेश की तुलना में १० लाख गुना अधिक हो सकती है और इन मछलियों को खाने वालों का स्वाभाविक रूप से अत्यधिक जहर की मात्रा निगलनी ही पड़ेगी। यही प्रक्रिया अन्य माँस उत्पादों के साथ भी लागू होती है। कीटनाशकों, रसायनों से मुक्त आधुनिक जैविक कृषि आज सारे विश्व का ध्यान आर्किषत कर रही है। इसके अलावा वृक्ष खेती तथा मशरूम खेती भी खाद्यान्न समस्या के शानदार समाधान है।
३. आहार और जल समस्या—
विश्व के करीब १.२ अरब व्यक्ति साफ पानी (पीने योग्य) के अभाव में जी रहे हैं। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि वर्ष २०२५ तक विश्व की करीब दो तिहाई आबादी पानी की समस्या से त्रस्त होगी। विश्व के ८० देशों में पानी की कमी है। इस समस्या के संदर्भ में जहाँ १ किलोग्राम गेहूँ के लिये मात्र ९०० लीटर जल खर्च होता है वहीं गोमाँस के उत्पादन में १ लाख लीटर जल खर्च होता है। इस तथ्य से जल समस्या का समाधान भी शाकाहार में दिखायी देता है।
४. मानव मस्तिष्क वृद्धि और आहार—
मानव मस्तिष्क में हुयी सबसे बड़ी वृद्धि का कारण हार्वर्ड विश्वविद्यालय के रिचर्ड रेंधम और नेन्सील कांकलिन ब्रिटेन तथा मिनेसोटा विश्वविद्यालय के ग्रेग लेडन के अनुसार पका हुआ शाकाहारी भोजन है।
५. मानवता के मसीहा महात्मा गाँधी और आहार
महात्मा गाँधी शुद्ध शाकाहारी थे। अपने अध्ययन काल में इंग्लैण्ड में उन्हें शुद्ध शाकाहारी भोजन के लिए परेशान होना पड़ा। बाद में वे शाकाहार के प्रमुख प्रचारक तथा द वेजिटेरियन पत्रिका के सम्पादक बने। जीव मात्र के प्रति उनके मन में अपार करुणा थी। महात्मा के मतानुसार अहिंसा का मतलब है बहुत छोटे जीव—जन्तुओं से लेकर मनुष्य तक सब जीवों के लिये समभाव—बराबरी का भाव (अपनेपन का भाव)। गांधीजी के अनुसार सत्य का सर्वांग दर्शन वही कर सकता है जिसने अहिंसा को पूरी तरह अपना लिया हो। गांधी के भक्तों के द्वारा प्रस की राजधानी पेरिस में एक हजार किलोमीटर दक्षिण में तीन सौ एकड़ ऊबड़—खाबड़ बेकार पड़ी जमीन पर आश्रम की स्थापना की गई है। करीब डेढ़ सौ आश्रमवासी एक परिवार के रूप में सामूहिक जीवन जीते हैं। सभी शाकाहारी हैं। अब इटली, जर्मनी और अमेरिका में भी ऐसे कई केन्द्र बनाने की योजना बनी है।
६. संवेदनशीलता और आहार
दूसरे की भावनाओं एवं संवेदनाओं का न्यूनतम हनन शाकाहार से ही संभव है। जीवजगत में वनस्पतियों में सबसे कम संवेदनाएँ होती हैं और फिर इससे कम का हमारे पास कोई विकल्प भी नहीं है।
(भ्रम) — जब वैज्ञानिक डॉ. जगदीश चंद बसु ने वनस्पतियों को भी सामान्य प्राणियों की तरह बताया तो बहुतेरों को यह भ्रम हुआ कि जब अन्य पशु—पक्षियों की भाँति ही पेड़—पौधे भी हैं तो शाकाहार और माँसाहार में भेद क्या है ? इस तरह के विभिन्न अनुसंधान आते रहे हैं कि वनस्पतियों पर भी विभिन्न क्रियाओं का प्रभाव होता है तथा ये अपनी भावनाएँ भी प्रर्दिशत करते हैं। ऐसे शोधों की शुरुआत डॉ. बसु ने की थी। माँसभक्षी पौधों की खोज ने तो माँसाहारियों के मन में से जानवरों के माँस एवं वनस्प्तिजन्य शाकाहार के अंतर को और भी बढ़ा दिया।
(तथ्य) — जन्तु जगत की मुख्य विशेषता संवेदनाओं के वाहक तंत्रिका तंत्र का पाया जाना है। जन्तु जगत में वेंचुआ से लेकर कीटवर्ग (तथा अकशेरुकी जीवों) तक तंत्रिका तंत्र क्रमश: विकसित होता जाता है। इसके पश्चात् कशेरुकी जीवों तंत्रिका तंत्र का और भी अधिक विकसित रूप पाया जाता है जिसकी चरम परिणति मनुष्य के रूप में होती है।
(सत्य) — इस प्रकार जन्तु जगत वनस्पतियों से बिल्कुल हटकर अत्यन्त उन्नत संवेदनाओं वाला जीव जगत है और इसीलिये इसे वनस्पति जगत से पूर्णत: पृथक् रखा गया है। माँसभक्षी पौधों के संदर्भ में विज्ञान का स्पष्ट मत है कि नाइट्रोजन की पूर्ति के लिये ऐसे पौधों के कुछ अंग इस प्रकार रूपान्तरित हो जाते हैं कि कीड़े या छोटे जन्तु इनमें फस जाते हैं तथा पौधें इन्हें यांत्रिक रूप से अवशोषित करते है। रेलवे स्टेशनों पर जिस प्रकार इन्सैक्ट किलर के द्वारा कीड़े मरते हैं उससे थोड़ी उन्नत जैविक प्रक्रिया कीटभक्षी पौधों में पाई जाती है परन्तु इस आधार पर इन्हें जन्तु जगत के सकमक्ष समझना पूर्णत: हास्यास्पद है।
७. आहार एवं आरोग्य—
(अ) विश्व स्वास्थ्य संगठन की बुलेटिन संख्या ६३७ के अनुसार माँस खाने से शरीर में लगभग १६० बीमारियाँ प्रविष्ट होती हैं। अधिकांश औषधियाँ वनस्पतियों से ही प्राप्त होती है।
(आ) हरी सब्जियों में उपस्थित पोषक तत्व तथा विटामिन ई एवं सी प्रति ऑक्सीकारकों की तरह कार्य करते हैं। अल्जाइमर रोग से बचाने में इन प्रति आक्सीकारकों की ही भूमिका होती है, शरीर से मुक्त मूलकों की सफाई में प्रति आक्सीकारक अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मुक्त मूलक कैंसर सहित अनेक घातक रोगों के लिये उत्तरदायी होते हैं।
(इ) टी. बी. हमारी सफेद रक्त कोशिकाओं एवं रोगाणु का पेगोसोम बंद करवाती है फिर इसे लाइसोसोम के संपर्क में लाकर नष्ट करवा देती है परन्तु टी.बी. का कीटाणु पेगोसोम को लाइसोसोम से जुड़ने नहीं देता है और अंदर बैठा—बैठा बढ़ता रहता है। यूरोपियन मालिक्यूलर बायोलॉजिकल रिसर्च सोसायटी जर्मनी के एक अनुसंधान के अनुसार वनस्पति तेलों में पाई जाने वाली वसाएँ एरेचिडोनिक अम्ल और सेरेमाइड पेगोसोम को लाइसोसोम से जुड़ने नहीं देता है और अंदर बैठा—बैठा बढ़ता रहता है। यूरोपियन मालिक्यूलर बायोलॉजिकल रिसर्च सोसायटी जर्मनी के एक अनुसंधान के अनुसार वनस्पति तेलों में पाई जाने वाली वसाएँ एरेचिडोनिक अम्ल और सेरेमाइड पेगोसोम को लाइसोसोम से जोड़ने में मदद करती हैं जबकि मछली के तेल में पाई जाने वाली वसाएँ इस क्रिया में बाधक होती हैं। अर्थात् शाकाहार टी. बी. को रोकता है जबकि माँसाहार इस मारक रोग को बढ़ाता है। इस शोध के प्रमुख गेरेथ ग्रिफिथ्स के अनुसार शायद इसीलिए खूब मछली खाने वाले इनुइट लोग टी. बी. से जल्दी ग्रसित हो जाते हैं। इस संदर्भ में यह तथ्य ध्यान देने योग्य हैं कि भारत में प्रतिवर्ष लगभग ५ लाख लोग टी. बी. से मर रहे हैं।
(ई) कैंसर—अमरीकी वैज्ञानिकों की एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार यदि लोग अधिक भुने हुये माँस तथा सड़ी चर्बी न खाये तो उन्हें कैंसर होने की आशंका बहुत कम रहेगी। इंटरनेशनल एजेन्सी ऑफ रिसर्च ऑन कैंसर के निर्देशक पॉल क्लीहाज के अनुसार पश्चिमी देशों में १० में से १ मरीज फल और सब्जी नहीं खाने की वजह से इस बीमारी की चपेट में आता है। केलिर्फोिनया विश्वविद्यालय के जीव रसायन विभाग के अध्यक्ष श्री ब्रूस एन एम्स ने बताया कि भोजन पकाने की प्रक्रिया में खाद्य तेल और चर्बी गोश्त में विकृति बढ़ाते हैं जिससे इनके सेवन में कुछ ऐसी विकृत स्थितियाँ बनती हैं जिनसे आनुवांशिकी द्रव्य क्षतिग्रस्त होते हैं और शरीर में कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है। संतरे के रस और हरी सब्जियाँ में फोलेट नामक तत्व होता है जो स्तन कैंसर के खतरों को कम करता है। प्रमुख कैंसर रोधी औषधियाँ इविंनग प्राइमरोज के बीज, लंदूसी नामक बूटी की पत्तियों का सलाद इत्यादि शाक पात हैं।
(उ) अमरीकी डाइटेटिक एसोशियेसन के अनुसार बहुत सारे वैज्ञानिक आंकड़ों से सिद्ध होता है कि शाकाहारी भोजन अपनाने और अनेक ऊर्जा नाशक भीषण रोगों और पाचन तंत्र की खराबियों के खतरे से बचने के बीच सीधा संबंध है। मोटापा, नाडी अवरोध के रोगों, तनाव ग्रस्तता, डायबिटीज, कोलोन कैंसर आदि रोगों से शाकाहारी भोजन द्वारा बचा जा सकता है।
८. जैव विविधता एवं आहार—
अंतर्राष्ट्रीय जैन विविधता वर्ष २०१० के संदर्भ में गत दो हजार वर्षों में लगभग १६० स्तनपायी जीव, ८८ पक्षी प्रजातियाँ लुप्त हो चुकी हैं और वैज्ञानिक अनुमान के अनुसार आगामी २५ वर्षों में एक प्रजाति प्रति मिनट की दर से विलुप्त हो जायेंगी। इसी परिप्रेक्ष्य में करीब ६० देशों में ग्रामीण आबादी जंगली जानवरों के माँस का आहार करती है। कांगो के वनवासी छोटे जानवरों के समाप्त होने से ऐंटीलोप गोरिल्ला, चिम्पैंजी जैसे जानवरों का शिकार कर रहे हैं जिससे ये सभी जानवर विलुप्तीकरण की ओर बढ़ रहे हैं।
अण्डा एवं दूध : सत्य तथ्य
(१) शाकाहारी हिंसक अण्डा ?अनिषेचित अण्डे को शाकाहारी प्रचारित किया गया है, क्योंकि किसी भी नये जीवन की उत्पत्ति में निषेचन एवं आवश्यक चरण है। परन्तु बिना निषेचन के भी जीवों की उत्पत्ति संभव है। पेड़—पौधों में बिना निषेचन के फल (बिना बीज के) पैदा करना बिल्कुल आम बात है। यह क्रिया अनिषेक—जनन कहलाती है। एफिड्स कीटों में भी निषेचन की क्रिया नहीं होती है। कृमि साँपों की १४ प्रजातियाँ हैं जो सभी टायफलीना वंश से संबधित हैं इस वंश में नर नहीं होते। कृमि साँप अनिषेकज होते हैं अर्थात् मादा बिना नर की सहायता से ५—८ तक अण्डे देती है। सन् १९७१ में मिशीगन यूनिर्विसटी (अमेरिका) के वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया है कि संसार का कोई अण्डा निर्जीव नहीं है फिर चाहे वह निषेचित हो अथवा अनिषेचित।
(२) दूध माँसाहारी माँसाहारी कदापि नहीं है ।
(अ)किसी दृश्य सचल प्राणी को अंशत: या पूर्णत: खाना माँसाहार कहलाता है परन्तु दूध निकालने से पशु को कोई शारीरिक क्षति नहीं होती।
(आ)दूध—दुग्ध ग्रंन्थ्यिों में बनता हैं जिसमें विभिन्न पोषक पदार्थ पाये जाते हैं परन्तु जीवन की मूलभूत इकाईयाँ—कोशिकायें अनुपस्थित होती हैं।
(इ) एक दुधारू पशु (गाय) अपने जीवन काल में ४,१०,४४० मनुष्यों को एक बार का भोजन देती है और इसके बदले में हम उसको तथा उसकी संतान को अन्य पोषण तथा समुचित सुरक्षा प्रदान करते हैं।
(ई) सभी धर्म दुग्ध सेवन का समर्थन करते हैं। शुद्ध शाकाहारी एवं अहिंसक संत, महात्मा भी दूध का सेवन करते हैं।
(उ)दूध विरोधियों का यह तर्क पूर्णत: तथ्यहीन है कि दूध की वयस्कों को कोई आवश्यकता नहीं होती। वस्तुत: वयस्कों में दूध पचाने वाले एंजाइम लाइपेन, रेनिन आदि पाए जाते हैं।
आदर्श आहार अण्डा अथवा दूध
(क) वैज्ञानिक मानते हैं कि मनुष्यों के लिये जंतु प्रोटीन आचश्यक है। अण्डे में सभी आठ आवश्यक अमीनो अम्ल पाये जाते हैं तथा इसकी कुल प्रोटीन उपादेयता मात्र ९४ प्रतिशत होती है जबकि खाद्यान्नों तथा दालों की कुल प्रोटीन उपादेयता मात्र ४०—६० प्रतिशत होती है। अण्डे का एक मात्र हिंसक विकल्प दूध है जिसकी कुल प्रोटीन उपादेयता ८० प्रतिशत होती है तथा यह एक निरापद जंतु प्रोटीन भी है। यदि गेहूं और दाल का सेवन दूध अथवा दही के साथ किया जाए तो इस प्रकार होने वाले प्रोटीन की कोटि अधिक उच्च हो जाएगी जो कि उन तीनों से प्राप्त प्रोटीन से श्रेष्ठ होगी।
(ख) जंतु प्रोटीन के अलावा विटामिन बी—१२ की कमी भी शाकाहारी व्यक्तियों में पायी जाती है जो कि अण्डे में प्रचुरता में मिलता है। इसकी कमी की र्पूित दूध और दही ही कर सकते हैं। विटामिन बी—१२ मनुष्य की आँत में पाये जाने वाले सूक्ष्म जीवों के द्वारा बनते हैं जिनका संवर्धन दही से अच्छे तरह से होता है।
(ग)अण्डे में कार्बोहाइड्रेट नहीं होता जबकि दूध में इसकी पर्याप्त मात्रा होती है। ज्ञातव्य है कि प्रत्येक व्यक्ति की समस्त सक्रियता का प्रमुख स्रोत कार्बोहाइड्रेट ही होता है।
(घ) हृदय रोगों का मुख्य कारक कोलेस्ट्राल अण्डे में १३३० मि. ग्रा. / १०० ग्राम होती है जबकि दूध में इसकी मात्रा ११ मिग्रा. / १०० ग्राम होता है अण्डे से अनेक रोग होते हैं जबकि दूध अनेक असाध्य रोगों को दूर करता है।
अण्डा एवं दूध का प्रभाव
(क) प्राणीजन्य प्रोटीन के अभाव में मुर्गियाँ अण्डे न ही दे पाती अत: अण्डे के प्रत्यक्ष मांसाहार के साथ परोक्ष मांसाहार भी स्वत: बढ़ जाता है।
(ख) अण्डे के उद्योग के फैलने से उसके सह उत्पाद मुर्गा सेवन की दर भी निश्चित रूप से बहुत बढ़ चुकी है।
(ग) दूध के स्थान पर अण्डा खाने से तथा दुधारू पशुओं के ऊपर कम ध्यान देने से पशुओं का प्रतिशत लगातार घटा है। १९४७ में देश में प्रति हजार मनुष्यों पर पशुधन संख्या ४६० थी जो १९९७ में घटकर १४६ हो गयी।
विडंबना, विरोधाभास एवं वास्तविकता
(१)एक कन्दमूल त्यागी शाकाहारी चीटियों को शक्कर खिलाता है परन्तु सबेरे से हड्डी वाले टूथपेस्ट से दांत साफ करके, चर्बी वाले साबुन से नहा धोकर, रेशम के कपड़े पहनकर मंदिर में ध्यान लगाता है।
(२)हरी वनस्पति को सदोष समझकर दूसरे शाकाहारी ने आज इसका त्याग किया है परन्तु इनकी कई एलौपेथिक दवाइयों में पशु पक्षियों के अंश मिले हुये हैं इसका न तो इन्हें ज्ञान है ना ही ये जानना चाहते हैं।
(३) प्रासुक पानी का सेवन करने वाले तीसरे शाकाहारी कीटनाशक दवाइयों का धंधा करते हैं जिनके माध्यम से प्रतिदिन अनगिनत कीड़े अनावश्यक रूप से असमय काल कवलित हो जाते हैं।
(४)फूलों के प्रेमी, फलों को तोड़ने एवं खाने की खिलाफत करने वाले चौथे शाकाहारी भ्रूण परीक्षण एवं भ्रूण हत्या के कार्य में नि:संकोच कार्यरत हैं।
(५) एक शुद्ध शाकाहारी हिटलर ने लाखों लोगों को निर्ममता से कत्ल किया तो ऐसे लाखों मांसाहारी लोग हैं जिन्होंने जीव दया, मानवता और विश्व कल्याण में अपना अमूल्य योगदान दिया। वास्तव में सब जीवों के प्रति समग्रता से आत्मीयता का भाव आना आरंभ हो तब ही शाकाहारी होने की सार्थकता होती है अन्यथा उनसे अच्छे तो वही मांसाहारी है जिनका दृष्टिकोण व्यापक होना शुरू हो गया है और जो निश्चिम रूप से आगे चलकर स्वयं ही सत्य मार्ग पर पहुँच ही जायेंगे।
कत्लखाने, गौशालाएँ और हम
आज दूसरे देशों में शाकाहार का प्रवचन बढ़ रहा है। प्रकृति एवं पर्यावरण प्रेमी वैज्ञानिक रीति से लोगों को सत्य तथ्यों के द्वारा स्वास्थ्यप्रद सम्पूर्ण आहार की ओर उन्मुखकर रहे हैं। इसके विपरीत स्वदेश में अण्डा एवं दूध के द्वन्द में जहाँ अण्डा सच्चे शाकाहारियों के घरों में तेजी से घुस रहा है वहीं दूध देने वाली गौमातादि निस्सहाय होकर या तो कत्लखाने में कराह रही हैं या फिर चंद दयालु सज्जनों की छाया तले गौशालाओं में पल रही हैं। आखिर क्या कारण है कि विश्व गुरु की विरासत वाले भारत में देश की सर्वश्रेष्ठ शाकाहारी शक्तियों के होते हुये माँसाहार पसर रहा है। साधु—संतों देवी—देवताओं के देश में हम गौमाता की पूजा भी करते हैं और इनकी जीवित खाल उतरवा के उसके चमड़े से बने जूते, बेल्ट, पर्स धारण करने में शान भी समझते हैं। आखिर इतने सारे देवता और उनकी भक्ति कहाँ जाती है जब कत्लखाने के उत्पादों का घर—घर उपयोग होता है। हिन्दुस्तान में शुद्ध शाकाहारियों के पास इतनी पूँजी है और अहिंसा प्रचारक संतों के पास इतनी क्षमता है कि यदि इस तन—मन—धन का सूक्ष्मांश भी सही दिशा में लग जाए तो एक वर्ष में पूरा भारत अहिसक विश्वगुरु बनकर उभर सकता है। क्या कोई सक्षम संस्था अहिंसा की समस्त शक्तियों को एक मंच पर बैठाकर एक सूत्र में बांधने का प्रयास नहीं कर सकती ? क्या देश की इतनी बड़ी शाकाहार प्रचारक संस्थाएँ न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार नहीं कर सकती ? नगर—नगर और डगर—डगर पर स्वावलंबी अहिंसक दुग्ध शालाओं तथा अहिंसक उत्पाद विक्रय केन्द्रों के हम लोगों के सपनें क्या कभी साकार होंगे ? लोग कहते हैं कि हिम्मत नहीं हारो, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो, बस यही सोचकर मैं पत्थरों को फैकता चला जा रहा हूँ। संभव है हमारी ये कोशिश जलते घर को बुझाने के लिये चिड़िया के चोंच भर पानी जैसी ही हो परन्तु हमें इस बात का तो संतोष रहेगा कि हम आग लगाने वालों में नहीं आग बुझाने वालों में है। क्या आप भी मेरी तरह चिड़िया की चोंच भर पानी नहीं डालेंगे? तभी और केवल तभी मानवीय शाकाहार बन सकेगा।