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मूलाचार की दृष्टि में -प्रत्याख्यान की विवेचना!

July 7, 2017शोध आलेखjambudweep

मूलाचार की दृष्टि में -प्रत्याख्यान की विवेचना


‘मूलाचार’ एवं भगवती आराधना’

 दिगम्बर मुनि के आचार का अथवा श्रमणाचार का संविधान है। ‘श्रावकाचार’ के अष्ट मूलगुण देश काल की परिस्थिति के अनुसार लचीले रहे परन्तु ‘श्रमणाचार’, भगवान् महावीर के समय से अपने मूल स्वरूप में विद्यमान है। इसमें परिर्वतन या लचीलापन की कोई बात हमारे पूर्वाचार्यों ने नहीं कही। सच्चे गुरु पर श्रद्धा-सम्यक्दर्शन है। सच्चे निग्र्रन्थ दिगम्बर मुनि में सच्चे देव की प्रतिकृति है और वह सम्यग्ज्ञान का अनुशीलन होता है। अत: मुनियों के अट्ठाइस मूलगुण या आचार्य परमेष्ठी के ३६ मूलगुण, जैसे गणधर स्वामी ने कहे वैसे ही प्रवर्तमान है। २८ मूलगुणों के अन्र्तगत ही मुनियों के षडावश्यक बताये है :-सामाइय चउवीसत्थव वंदणयं पडिक्कमण । पञ्चक्खाणं च तहा काओसग्गो हवदि छट्ठो ।।मूलाचार (पूर्वार्ध) श्री मद्वट्टकेराचार्य (टीकाकार-आर्यिकारत्न ज्ञानमती जी) प्रकाशक, भारतीय ज्ञानपीठ-श्लोक क्रं. ५१६ एवं श्लोक क्रम २२ पृ. २८१. सामायिक २. चतुर्विंशतिस्तव ३. वन्दना ४. प्रतिक्रमण ५. प्रत्याख्यान ६. कायोत्सर्ग या व्युत्सर्ग। ये करने योग्य छ: आवश्यक क्रियाएँ हैं।
१. सामायिक या समता है –राग-द्वेष से रहित होना। जीवन-मरण में, लाभ-अलाभ में, संयोग-वियोग में, शत्रु-मित्र में तथा सुख-दु:ख इत्यादि में समभाव होना सामायिक है।वही ग्रन्थ- श्लोक नं. २३ पृ. २९
२. वृषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों के नाम का कथन और उनके गुणों का कीर्तन करके तथा उनकी पूजा करके, मन-वचन-काय पूर्वक नमस्कार करना चतुर्विंशतिस्तव नाम का दूसरा आवश्यक है।वही ग्रन्थ- श्लोक नं. २४ पृ. ३०
३. अर्हन्त, सिद्ध और उनकी प्रतिमा, तप में श्रुत या गुणों में श्रेष्ठ गुरु का कृतिकर्म पूर्वक त्रियोग से प्रणाम करना वन्दना है।श्लोक नं. २५
४. पूर्व में किये अशुभ योग से निर्वत्त होना तथा मन वचन काय की क्रिया के द्वारा द्रव्य क्षेत्र काल और भाव के विषय में हुए अपराधों का शोधन करना प्रतिक्रमण है।वही ग्रन्थ- श्लोक नं. २६
५. पाप के आस्रव में कारण भूत आयोग्य नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का मन वचन काय से त्याग करना-प्रत्याख्यान है। अथवा तपश्चरण के लिए योग्य द्रव्य का परिहार करना भी प्रत्याख्यान है।वही ग्रन्थ- श्लोक नं. २७
६.शरीर में ममत्त्व भाव का त्याग करना अथवा शरीर से खड़े होकर या बैठकर, सर्वांग के हलन-चलन रहित शुभध्यान की वृत्तिपूर्वक श्री जिनेन्द्र देव के गुणों का चिन्तवन करना कायोत्सर्ग है।वही ग्रन्थ- श्लोक नं. २८ पृ. ३५ मुनि के लिए ये निश्चय क्रियाएं या नियम से करने योग्य क्रियाएं भी कहलाती हैं। 

‘प्रत्याख्यान’ आवश्यक की महती भूमिका 

प्रत्याख्यान का सामान्य अर्थ है – ‘त्याग’। २८ मूलगुणों के अन्तर्गत पांच महाव्रतों का पालन, वह मुनि पांच पापों का त्याग पूर्वक करता है। वह सम्पूर्ण जीववध परिणाम का त्याग करता है, अर्थात् दया धर्म का पालन करता है। असत्य वचन का, बिना दी हुई सम्पूर्ण वस्तुओं का, स्त्री-पुरुष के अभिलाषारूप मैथुन का तथा आभ्यन्तर एवं बाह्य परिग्रह का त्याग करता है। पाँच समितियों के पालन में भी वह प्रमाद का त्याग करता है। प्रमाद का त्याग करके ही सम्यक अवलोकन हो पाता है। ईर्या, भाषा, एषणा, निक्षेपादन और मल-मूत्रादि का सम्यक्परित्याग इन पांच समितियों का पालन वह अप्रमाद अवस्था में ही करता है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय निरोध रूप पांच मूलगुणों का पालन भी मुनि, पांच इन्द्रिय के विषयों को त्याग करके ही उनका निरोध कर पाता है। इस प्रकार ‘प्रत्याख्यान’ शब्द एक विशद अर्थ में लिया जाना चाहिए। अट्ठाइस मूलगुणों के केन्द्र में ‘प्रत्याख्यान’ बैठा है। षडवश्यकों का पालन ‘त्याग’ पूर्वक कैसे होता है? कायोत्सर्ग से सामायिक की ओर चलें। शरीर के प्रति ममत्व भाव का त्याग कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग पूर्वक प्रतिक्रमण, वन्दना, स्तवन और सामायिक किये जाते हैं। प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान सामान्य अर्थ में ‘त्याग’ पर अभिकेन्द्रित है। भूतकाल विषयक अतिचारों का शोधन करना प्रतिक्रमण है। जबकि भूत, भविष्यत् और वर्तमान के अतिचारों को छोड़ना उनका निरसन करना प्रत्याख्यान है। व्रत आदि में लगे अतिचारों की शोधन प्रक्रिया वस्तुत: ‘त्याग’ पर खड़ी है। जबकि व्रत में अतिचार के कारण सचित्त, अतित तथा मिश्रद्रव्यों का सीधा त्याग करना यहां तक कि तप की वृद्धि के लिए प्रासुक योग्य द्रव्य का त्याग कराना-प्रत्याख्यान है। स्तुति में मुनि आत्मनिन्दा या आत्मगर्हा भी करता है और सामायिक में राग-द्वेष का त्याग करता है। मुनि के शेष सात गुणों का सूक्ष्मता से शोध-परक अध्ययन करें तो उसमें भी कहीं न कहीं त्याग या प्रत्याख्यान समाहित है। केशलोंच, अचेलकत्व, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन एवं एकभक्त ये मुनि के शेष सात गुण हैं। शरीर से राग भाव का त्याग करने के लिए केशों में संमूच्र्छन जीवों के परिहार के लिए मुनिराज हाथ से मस्तक व मूंछ के केशों को उखाड़ते हैं। यह चातुर्मासिक आदि प्रतिक्रमणों के दिन उपवास पूर्वक किया जाता है। अचेलकत्व में बाह्य परिग्रह वस्त्र, आभुषण आदि का त्याग किया जाता है। निग्र्रन्थ वेष ही अचेलकत्व है जो पूज्य है। अस्नान में जल से प्रक्षालन करने का परित्याग किया जाता है, प्राणिसंयम की रक्षा के लिए। क्षितिशयन में – जीवों की हिंसा से बचने के लिए जीव रहित प्रासुक प्रदेश-भूमि में सोना। यह इन्द्रिय सुखों के त्याग तथा शरीर से निस्पृह होने के लिए किया जाता है। इन्द्रिय संयम की रक्षा के लिए अदन्तधावन व्रत रखा जाता है। स्थिति भोजन तथा एक भुक्त में आकांक्षा त्याग निहित है। 

प्रत्याख्यान आवश्यक पालन का विधान 

मुनि निरन्तर यह भावना भाता है कि –

खम्मामि सव्व जीवाणं, सव्वे जीवा खमन्तु में । मित्ती में सव्व भूदेसु, वैंर मज्झं ण केणवि ।।४३।।

वह चिन्तन में सभी जीवों को क्षमा करता है तथा भावना भाता है कि सभी जीव उसे क्षमा करें। मुनि समभाव रूप होकर सोचता है – मेरा किसी के साथ बैरभाव नहीं है। केवल बैरभाव ही नहीं, अपितु राग का अनुबंध, हर्ष, दीनभाव, भय, शोक, रति, अरति आदि का त्याग करता है। यतियों के छहकाल कहे गये हैं – १. दीक्षाकाल २. शिक्षा काल ३. गणपोषण काल ४. आत्मसंस्कार काल ५. सल्लेखना काल और ६. उत्तमार्थ काल। इनमें अंतिम तीन कालों में यदि मरण उपस्थित होने की सम्भावना हो तो मुनि क्षेत्र, वास्तु आदि बाह्य और मिथ्यात्व आदि अभ्यन्तर परिग्रह को तथा आहार के साथ शरीर आदि का मन वचन काय व कृत कारित अनुमोदना से त्याग करता है। वह पांच पापों का त्याग करता है तथा समस्त जीवों के प्रति समता भाव धारण करता है। किसी से भी बैर भाव न रखता हुआ समस्त आशा को त्याग कर समाधि स्वीकार करता है। सल्लेखना काल में वह मुनि विचार करता है –

एओ में सस्सओ अप्पा, णाणदंसणलक्खणो । सेसा में बहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा ।।४८।।

मेरा आत्मा ही शाश्वत है, ज्ञानदर्शन लक्षण वाला है। जीव अकेला जन्मता और मरता है। शेष सभी बाहरी संयोग है। ऐसा विचार कर देह से निर्ममत्व भाव करता हुआ आत्मा का आलम्बन लेता है। संसार के सभी पदार्थ संयोग रूप हैं। जहां संयोग है, वियोग उसके पीछे खड़े है। संयोग के कारण जीव दुखी है अस्तु मन वचन काय पूर्वक वह समस्त संयोग को छोड़ता है।वही ग्रन्थ- श्लोक नं. ४९ पृ. ५६ 

प्रत्याख्यान के विषय क्षेत्र का विस्तार 

प्रत्याख्यान के विषय क्षेत्र को विस्तार देता हुआ वह मुनि सात भय, आठ मद, चार संज्ञाएं, तीन गारव, तेतीस आसादना तथा राग व द्वेष इस प्रकार सम्यक्तव की विराधना करने वाले पच्चीस मल दोषों की निन्द और गर्हा करता है।वही ग्रन्थ- श्लोक नं. ५२ पृ. ५७ (१) सात भय हैं – इहलोक, परलोक, अत्राण, अगुप्ति, मरण, वेदना और आकस्मिक भय। (२) आठ मद हैं – विज्ञान, ऐश्वर्य, आज्ञा, कुल, बल, तप, रूप और जाति मद। (३) चार संज्ञाएं हैं – आहार, भय, मैथुन और परिग्रह की अभिलाषा। (४) तीन गारव हैं – ऋषि गारव (मैं ऋद्धिशाली हूँ), रस गारव् (मुझे नाना रसों से आहार सुलभ है) तथा साता गारव (साता के उदय से सर्वत्र सुख सुविधाएं हैं), ऐसा बड़प्पन या अहं भाव होना। (५) तेतीस आसादना (६) प्रीति (राग) एवं (७) द्वेष। 

समाधिस्थ मुनि 

पाप का कारण असंयम, अश्रद्धानपूर्वक वस्तु का जानने वाला ज्ञान (जो अज्ञान है) और अतत्त्व श्रद्धान रूप मिथ्यात्व एवं अपने से भिन्न जीव या अजीव में अपनेपन का भाव (ममत्व) इन सभी की वह निन्दा करता है। ऐसा नियम है कि साधु मरण काल में यदि सम्यक्तव से रहित हो जाता है और उसकी देवायु का बंध हो चुका है, तो उसकी देव दुर्गति होती है। आर्तरौद्र ध्यान सहित मरण होने पर व सम्यक्तवगुण की विराधना हो जाने पर उन्हें भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों में भी कान्दर्प, आभियोग्य, किल्विषक सम्मोह और असुर जैसी देवदुर्गतियों में जन्म लेना पड़ता हैं।वही ग्रन्थ- श्लोक नं. ६३ पृ. ५७ जो साधु असत्य बोलता हुआ राग भाव करता है वह कन्दर्प जाति के देवों में, जो साधु हास्य आदि अनेक प्रकार के वचनों का प्रयोग करता है, वह वाहन जाति के देवों में (आभियोग्य देव), जो तीर्थंकरों के प्रतिकूल संघ, जिन प्रतिमा के प्रति अविनयी और मायाचारी बनता है वह किल्विष जाति के देवों में जन्म लेता है।किल्विष जाति के देव-इन्द्र की सभा में प्रवेश नहीं कर पाते क्योंकि वे चाण्डाल के समान माने जाते हैं। इसी प्रकार उन्मार्ग का उपदेशक सम्मोह जाति के देवों में तथा क्षुद्र क्रोधी, मानी, मायावी, तप व चारित्र में संक्लेश रखने वाला असुर जाति के देवों में उत्पन्न होता है। 

समाधिस्थ साधु 

उद्वेग पूर्वक मरण, जन्मते हीे मरण और नरकों की वेदनाएं स्मरण करते हुए- ‘‘मैं पण्डित मरण में मरूँगा’’ ऐसा शुभ विचार करता है, क्योंकि मरणों में पण्डित-मरण ही सौ-सौ जन्मों का नाश कर देता है अत: यह सुमरण होता है।वही ग्रन्थ- श्लोक नं. ७८ पृ. ७७ सल्लेखना विधि से मरण करने वाला क्षपक साधु, पण्डित मरण करने का दृढ़ निश्चय करता है और इस मरण के लिए वह अपने को तैयार करता है। साधु अपने यावज्जीवन की तपश्चर्या का एक ही प्रतिफल चाहता है- सल्लेखना पूर्वक पण्डित मरण करना। सल्लेखना के समय यदि भूख प्यास की वेदनाएं उत्पन्न होती हैं, तो उस समय वह नरक के दु:खों के विषय में विचार करता है कि वहां कितनीं वेदनाएं इस जीवात्मा ने नहीं सहीं। अब क्यों अपने धर्म से च्युत हो रहा है? वह बार-बार असार संसार की अनित्यता का स्मरण करता है, धैर्य और समता भाव धारण करता है। वह सभी प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान करता हुआ सोचता है कि मैंने दही, दूध, खाण्ड, गुड़, जल आदि कितनी बार ग्रहण किये हैं, परन्तु तृप्त नहीं हो पाया अपितु आकांक्षाएं और बढ़ती जाती हैं। वह विचारता है कि क्या अग्नि-तृण और काष्ट से तृप्त हो पाया है? क्या समुद्र हजारों नदियों के जल से तृप्त हो पाया है? क्या यह जीवात्मा इच्छित सुख साधनभूत आहार, वस्त्र काम भोगों से तृप्त हो पाया ? वह मन में निश्चय करता है- नहीं, इस मन को सन्तुष्ट कर पाना सम्भव नहीं है। पंचेन्द्रिय विषयों के उपयोग से तृप्ति की बात तो दूर रही प्रत्युत इच्छाएं और और बढ़ती जाती हैं। आचार्य क्षपक साधु को समझाते हैं कि भले ही आहार आदि भोग पदार्थ, तू इस स्थिति में भोग नहीं सकता तथापि इच्छा मात्र से पाप का भागी क्यों बनता है। देखो स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य के कर्ण में तन्दुलमत्स्य होते हैं, वे मत्स्य, महामत्स्य के मुख में प्रवेश करते हुए तमाम जीवों को देखकर सोचते रहते है कि यदि मेरा बड़ा शरीर होता तो इन सबको मैं खा लेता, एक को भी नहीं छोड़ता, किन्तु वे खा नहीं पाते। मात्र इस खोटी भावना से पाप बन्ध करते हुए सातवें नरक में चले जाते हैं। इसलिए साधुओं को सम्बोधित करते हुये आचार्यगुरु साधु को सचेत कर सदोष आहार ग्रहण करने की इच्छा नहीं करने के लिए कहते हैं। प्रत्याख्यान आवश्यक का पालन करता हुआ क्षपक अपने परिणामों को दृढ़ करता है। वह विचारता है कि अब मुझ्े ज्ञान, दर्शन और चारित्र की ही शरण है। मेरे पूरे जीवन काल का तपश्चरण और संयम ही शरण है, भगवान् महावीर शरण है।वही ग्रन्थ- श्लोक नं. ९६ पृ. ८९ जो कषाय रहित हैं, जिनकी संज्वलन कषायें मंद हैं, जो इन्द्रियों के निग्रह में कुशल हैं, चारित्र के अनुष्ठान में तत्पर हैं, चतुर्गति रूप संसार के दु:खों का स्वरूप जानकर जो उससे त्रस्त हो चुके हैं, ऐसे साधु का प्रत्याख्यान सुख-पूर्वक होता है। वे सल्लेखना मरण करते हुए आराधक हो जाते हैं। यदि किसी साधु को किसी प्रकार के आकस्मिक मरण का प्रसंग आ जाये जैसे – सिंह या व्याघ्र द्वारा आक्रमण करने पर अथवा अग्नि या किसी रोग से मरण काल आ जाये तो संक्षेप प्रत्याख्यान उचित होता है। उस समय वह सर्व आहार विधि को आहार आदि संज्ञाओं को आकांक्षाओं और कषायों को तथा सम्पूर्ण ममत्व को छोड़कर क्षमाभाव धारण करता है :- यह प्रत्याख्यान दो प्रकार से होता है :-
(१) यदि देश या इस काल में जीवन शेष रहेगा, तो प्रत्याख्यान की समाप्ति करके पारणा ले लेता है। वह संकल्प करता है कि यदि जीवन का अस्तित्व रहता है, तो आहार ग्रहण करूँगा।
(२) परन्तु यदि मरण होने का निश्चय हो जाता है तो वह पेय पदार्थ को भी छोड़कर सम्पूर्ण आहार का त्याग मन वचन काय पूर्वक करता है।वही ग्रन्थ- श्लोक नं. ११३ पृ. १०० वह उत्तम विधि द्वारा बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह और (आहार का त्याग जीवन भर के लिए कर देता है)। ऐसा प्रत्याख्यान करने वाला साधु पण्डित मरण का निश्चय करता है। ऐसा आराधक साधु सात या आठ भव धारण कर श्रेष्ठ निर्वाण को प्राप्त करता है।वही ग्रन्थ- श्लोक नं. ११९ पृ. १०२ अकस्मात् होने वाले मरण के समय आराधक के लिए तीन प्रतिक्रमण करने के निर्देश हैं।वही ग्रन्थ- श्लोक नं. १२० पृ. १०३ १. सर्वातिचार प्रतिक्रमण। २. त्रिविध आहार त्याग प्रतिक्रमण।
(३) यावज्जीवन पानक आहार का त्याग प्रतिक्रमण। विशेष यह है कि सल्लेखना ग्रहण करके क्षपक पहले सर्वातिचार प्रतिक्रमण करता है। जिसमें दीक्षाकाल से लेकर अभी तक जो भी दोष हुए हों, उनका प्रतिक्रमण रूप प्रत्याख्यान करता है। फिर तीन प्रकार के आहार का त्याग करता है और अन्त में मोक्ष की अभिलाषा रखता हुआ यावज्जीवन के लिए पानक वस्तु का त्याग कर उत्तमार्थ प्रतिक्रमण करता है। वह क्षपक साधु केवल उक्त तीन प्रतिक्रमण ही नहीं करता किन्तु योग, इन्द्रिय, शरीर और कषायों का भी प्रतिक्रमण करता है। आगम में कषाय और काय की सल्लेखना के साथ-साथ दश प्रकार के मुण्डन की बात कही है जिसमें योग, इन्द्रिय और शरीर में हस्त व पाद का मुण्डन कहा है। पाूंच इन्द्रिय मुण्डन अर्थात् इन्द्रियों को विषयों के व्यापार अलग करना। प्रलाप रूप वचन को रोकना वचन मुण्डन तथा हस्त व पैरों का अप्रशस्त रूप से न संकोचन करना, न फैलाना-हस्त मुण्डन और पाद मुण्डन है। इसी तरह मन को अप्रशस्त चिन्तन से रोकना मनोमुण्डन है। मुण्डन का अर्थ केवल शिर मुड़ा लेने से नहीं लिया जाना चाहिए। इन्द्रियों का नियंत्रण, हाथ-पैर तथा शरीर की अप्रशस्त क्रियाओं को रोकना तथा मन में अशुभ परिणाम नहीं आने देना, ये सब संयम आवश्यक है। 

प्रत्याख्यान का स्वरुप एवं भेद विवेचना 

जैसा पूर्व में बता चुके हैं प्रत्याख्यान का अर्थ है – ‘त्याग’। त्याग करने वाला जीव प्रत्याख्यान तथ त्यागने योग्य वस्तु जैसे उपाधि, परिग्रह एवं आहार आदि प्रत्याख्यातव्य कहलाते हैं। प्रत्याख्यान- भूत, वर्तमान एवं भवष्यिकाल त्रैकालिक सिद्ध हैं। अर्हन्त आदि की आज्ञा से और गुरु के उपदेश से, पाप रूप अंधकार के हेतुक दोषों को जानकर सविकल्प और निर्विकल्प संयम को पालन करता हुआ उन दोषों का त्याग करता है ऐसा दृढ़वान, धैर्यवान साधु प्रत्याख्यापक होता है। सावद्य द्रव्य का त्याग करना अथवा तप के निमित्त से निर्दोष द्रव्य का त्याग करना प्रत्याख्यान है। नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप प्रत्याख्यान छह प्रकार का होता है।
(१) अयोग्य नाम – पाप के हेतु हैं, विरोध के कारण होते हैं। अत: ऐसे नाम को नहीं रखना, न रखवाना और न उसकी अनुमोदना करना चाहिए- यह नाम प्रत्याख्यान है।
(२) अयोग्य स्थापना – मूर्तियों, पाप बन्ध और मिथ्यात्व की प्रवर्तक हैं। अवास्तविक रूप देवता आदि के प्रतिबिम्ब भी पाप के कारण हैं। ऐसी स्थापना कृत, कारित अनुमोदना पूर्वक नहीं करना स्थापना प्रत्याख्यान है।
(३) पाप बन्ध के कारण भूतव सावद्य व सदोष द्रव्य का त्याग करना तथा तप की वृद्धि के लिए निर्दोष द्रव्य को भी ग्रहण नहीं करना, विशेष रूप से भोग पदार्थ का त्याग करना द्रव्य प्रत्याख्यान है।
(४) असंयम आदि के कारणभूत क्षेत्र का परिहार क्षेत्र प्रत्याख्यान है।
(५) असंयम आदि के कारणभूत काल का भी मन वचन काय से परिहार करना काल प्रत्याख्यान है। तथा
(६) मिथ्यात्व, असंयम, कषाय आदि का त्रियोग पूर्वक त्याग करना भाव प्रत्याख्यान है। साधु के उत्तर गुणों में अनेक प्रकार के उपवास आदि होते हैं, वे प्रत्याख्यान हैं। भोजन के परित्याग के दृष्टिकोण से प्रत्याख्यापक साधु के दस प्रकार के प्रत्याख्यान कहे गये हैं।
(१) अनागत प्रत्याख्यान – भविष्यत् काल में किये जाने वाले उपवास पहिले कर लेना जैसे – चतुर्दशी का उपवास, त्रयोदशी को कर लेना।
(२) अतिक्रान्त प्रत्याख्यान – अतीत काल में किये जाने वाले उपवास को आगे करना जैसे चतुर्दशी के उपवास को प्रतिपदा के दिन करना।
(३) कोटि सहित प्रत्याख्यान – शक्ति आदि की अपेक्षा से संकल्प सहित उपवास करना जैसे प्रात: स्वाध्याय के अनन्तर यदि शक्ति रहेगी तो उपवास करूँगा। शक्ति नहीं रही तो नहीं करूँगा ऐसा संकल्प करके यह प्रत्याख्यान होता है।
(४) निखण्डित प्रत्याख्यान – पाक्षिक आदि में अवश्य किये जाने वाले उपवास का करना।
(५) साकार प्रत्याख्यान – भेद सहित उपवास करना जैसे सर्वतोभद्र आदि व्रतों की विधि से या रोहिणी आदि नक्षत्रों के भेद से उपवास करना।
(६) ऊनाकार प्रत्याख्यान – किसी तिथि या नक्षत्र की अपेक्षा बिना, स्वेच्छा से उपवास करना।
(७) परिमाणगत प्रत्याख्यान – बेला, तेला, चार उपवास, सात दिन या पन्द्रह दिन आदि चाल के प्रमाण सहित उपवास करना।
(८) अपरिशेष प्रत्याख्यान – जीवन पर्यन्त के लिए चार प्रकार के आहार का त्याग करना।
(९) अध्वानगत प्रत्याख्यान – मार्ग विषयक जैसे जंगल या नदी आदि से निकलने के प्रसंग में उपवास करना। जैसे यह संकल्प लेना कि इस जंगल से बाहर निकलने तक या अमुक नदी पार होने तक चतुर्विध आहार का त्याग कर देना।
(१०) सहेतुक प्रत्याख्यान – उपसर्ग आदि के निमित्त से उपवास करना। इसी प्रकार विनय से, अनुभाषा से, अनुपालन से और परिणाम से उपवास करना, इस दृष्टि से प्रत्याख्यान के चार भेद किये जा सकते हैं।वही ग्रन्थ- श्लोक नं. ६४१ पृ. ४७१
(१) कृतिकर्म औपचारिक विनय, दर्शन विनय, ज्ञान विनय और चारित्र विनय इन चतुर्विध विनय पूर्वक उपवास करना विनय शुद्ध प्रत्याख्यान है।वही ग्रन्थ- श्लोक नं. ६४२ पृ. ४७१
(२) गुरु के अनुरूप बोलना, अक्षर, पद, व्यजंन क्रम से विशुद्ध और घोष की विशुद्धि पूर्वक शुद्ध बोलते हुए उपवास रखना अनुभाषणा शुद्धि प्रत्याख्यान है।वही ग्रन्थ- श्लोक नं. ६४३ पृ. ४७२
(३) आकस्मिक व्याधि, उपसर्ग, भिक्षा का अलाभ और गहन वन में जो उपवास ग्रहण किया जाता है वह अनुपालना शुद्ध प्रत्याख्यान है।वही ग्रन्थ- श्लोक नं. ६४४ पृ. ४७३ (४) राग अथवा द्वेष रूप से मन के परिणामों को जो दूषित नहीं करता वह भाव विशुद्धि या परिणाम विशुद्धि प्रत्याख्यान है।वही ग्रन्थ- श्लोक नं. ६४५ पृ. ४७३ इस प्रकार ‘प्रत्याख्यान’ का विषय-क्षेत्र विस्तृत है। प्रत्याख्यापक साधु विचार करता है कि यद्यपि मेरा आचरण निर्दोष है परन्तु अपने सामायिक आवश्यक को निर्विकल्प बनाने के लिए यदि अल्प भी दुश्चरित रूप दोष रह गये हों तो उनका मैं मन वचन काय से परिहार करता हूँ। प्रत्याख्यान यदि निर्दोष पूर्वक अंगीकार किया जाता है, तो उसके षडावश्यक भी सही रूप से निर्वाहित होते हैं। ये प्रत्याख्यान – दु:ख या कष्ट देने वाले होते हैं ऐसा नहीं समझना चाहिए क्योंकि वैद्य की शल्यक्रिया के समान जब डॉक्टर रोगी के फोड़े को चीरता है, तो वह ऑपरेशन तत्काल में दु:खप्रद दिखते हुए भी स्वास्थ्य के लिए होते हैं। वैसे ही इन षडावश्यकों के पालन में या महाव्रत, समितियों के अनुष्ठान में तत्काल भले ही दु:ख दिखता हो किन्तु ये आत्मा को स्वर्ग मोक्ष के लिए होने से सुखप्रद ही हैं। प्रत्याख्यान में बारह प्रकार के तपों का अन्तर्भाव समाहित है। जैसे भोजन का त्याग करना आवश्यक है, प्रमाद को बढ़ाने वाला भोजन का त्याग करना या भूख से कम भोजन करना अवमौदर्य है, रस विषयक आसक्ति का त्याग रस परित्याग है, विशेष नियम पूर्वक आहार संज्ञा को जीतना वृत्तिपरिसंख्यान है तथा शरीर में सुखाभिलाषा का त्याग करना कायक्लेश तप है। ये छह प्रकार के बाह्य-तप इनमें प्रत्याख्यान ही जुड़ा है। इस तरह प्रत्याख्यान के मूलगुणों के अनुपालन में एक विशेष भूमिका और संदर्भ के रूप में देख सकते हैं। प्रत्याख्यान- निवृत्ति परक होने से निर्जरा का साक्षात् हेतु है। पापों के मल को धोने कि लिए प्रत्याख्यान ही एकमेव आध्यात्मिक प्रक्रिया है, जिससे आत्मा विशुद्ध बनती है।
पाचार्य पं. निहालचंद जैन
जवाहर वार्ड- बीना (म.प्र.) ४७०११३
वर्तमान- निदेशक, २१ वीर सेवा मंदिर, दरियागंज नई दिल्ली-२
अनेकान्त जन०-मार्च २०१२
Tags: Anekant Patrika
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