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मूलाचार में दिगम्बर जैन मुनियों का अर्थशास्त्र

September 17, 2017शोध आलेखjambudweep

मूलाचार में दिगम्बर जैन मुनियों का अर्थशास्त्र


 संसार के समस्त साधुओं में दिगम्बर जैन साधुओं का महत्वपूर्ण स्नान है क्योंकि वे ही एक ऐसे हैं जौ यथाजात रूप को धारण करते हैं । स्वावलम्बन का जीवन जीते हैं । उनके आचार, विचार आहार, व्यवहार में जो विशिष्टता है वह अन्यत्र देखने मे नहीं मिलती । हिन्दुओं में भी नागा साधु होते हैं जो नग्न रहते हैं किन्तु उनके आचार, आहार पर प्रश्न चिन्ह लगते हैँ इसके अतिरिक्त दिगम्बर मुनि को जो महत्वपूर्ण बनाती है वह है उनकी अयाचक वृत्ति एवं उनकी अर्थ के प्रति उपेक्षा । धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा उन्हें जन-जन का पूजा बनाती है । नीतिकार कहते है कि –

गुरवो बहव: सन्ति शिष्यवित्तापहारका । गुरुवो विरला: सन्ति शिष्यहदितापहारका । ।

अर्थात् शिष्यों के धन का अपहरण करने वाले गुरु बहुत -से हैं किन्तु शिष्य के ह्दय के ताप का हरण करने वाले गुरु विरले ही होते हैं । संसार में भक्ति, व्रत एवं धर्म का प्रयोजन एक ही होता है और वह है- जन्म-जरा-मरण का क्षय । मुनि रामसिह विरचित उग्पर्भ्रश भाषा की अनुपम कृति ‘ पाहुडदोहा ‘ में आया है कि –

अंतों णत्थि सुईण कालो थोओ वयं च दुम्मेहा । त णवरि सिक्खियब्ब जं जरमरणक्सय कुणदि । । ‘

अर्थात् शास्त्रों का अन्त नहीं है समय थोड़ा है औंर हम दुर्बुद्धि हैं, अत: केवल वही सीखना चाहिए जिससे जन्म-मरण का क्षय हो । जन्म – मरण के क्षय के लिए संसार से विरक्ति आवश्यक है । संसार में रहते हुए संसार को छोड़ने का भाव बना रहे जिससे मुक्ति मिएले; यह आवश्यक है । संसार में, दो शास्त्रों की मुख्यत: है, अनिवार्यता है और ‘आवश्यकता है । इनमें से, एक धर्मशास्त्र और दूसरा है अर्थशास्त्र । इनमें धर्मशास्त्र जीवन को स्वेच्छाचारिता से नियंत्रित करता है तो दूसरा अर्थशास्त्र जीवन जीने मै सहायक बनता है, साधक बनता है । धर्मशास्त्र सब कुछ है जबकि अर्थशास्त्र कुछ कुछ है । इसीलिए जहाँ धर्मशास्त्र को सब मान्यता देते हैं, मानते हैं वहीं अर्थशास्त्र की भी साधन के रूप में अनिवार्यता होने पर भी उसकी कटु आलोचना भी करते हैं । ऐसे आत्नोचक कहते हैं कि-

१. ‘अर्थ अनर्थ करता और कराता है ।
 
२. -रस्किन ( Raskin) और कार्लाइल अर्थशास्त्र को कुबेर की विद्या, घृणित विज्ञान कहते हैं ।
 
3- चार्ल्स डिकिन्स अर्थशास्त्र को ” रोटी मक्खन का विज्ञान’ कहते है ।
 
४. मार्शल (Marsal) ने कहा कि धन तो केवल साधन मात्र है साध्य तो मानव कल्याण है ।धन मनुष्य के लिए है, मनुष्य धन के लिए नहीं । इनके अनुसार-   Economics is a study of mankind in the ordinary business of life; it examines that part of individual and social action which is most closely concented with the attainment and use of the material requisities of well being. Thus it is on the one side a study of wealth; and on the other, and more important side, a part of the study of man.’’
Alfred Marashall : Principles of Economics, P. 1 (बृहत् आर्थिक विश्लेषण : विजयेन्दपालसिंह, पृ १०) अर्थात् अर्थशास्त्र जीवन के साधारण व्यवसाय में मानव जाति का अध्ययन है । इसमें व्यक्तिगत तथा सामाजिक क्रियाओं के उस भाग की जाँच की जाती है जिसका भौतिक सुख के साधनों की प्राप्ति और उनके उपयोग से बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध है । इस प्रकार यह एक ओर तो धन का अध्ययन है और दूसरी ओर जो अधिक महत्वपूर्ण है, मनुष्य के अध्ययन का एक भाग है ।
 
५. रोशे (Roscher) ने अर्थशास्त्र का उद्देश्य और प्रारंभ मनुष्य माना है । इसके विपरीत लियोनेत्न रोबिन्स (Lionel Robbins) ने अपनी पुस्तक `An Essay on the Nature and Significance of Economics Science’ ‘ने लिखा कि Economics is the science which studies human behavior as a relationship between ends and scare means which have alternative uses’’Lionel Robbing “An Essay on the nature on the Nature and Significance of Economic Science (1952) P. 16 (बृहत् आर्थिक विश्लेषण, पृ.१३’)
अर्थात् अर्थशास्त्र वह विज्ञान है जो मनुष्य के व्यवहार का अध्ययन सीमित साधनों जिनके वैकल्पिक उपयोग हो सकते हैं तथा लक्ष्यों के सम्बन्ध के रूप में करता है ।
 
अर्थशास्त्र भी कहीं न कहीं धर्मशास्त्र से नियंत्रित होना चाहिए; यह माँग सदा से उठती रही है और वर्तमान में तो अत्यन्त प्रासंगिक हो गयी है ।श्रीमती बूटन (Mrs Wootan )के अनुसार –  ”एक अर्थशास्त्री के लिए यह अत्यन्त कठिन है कि वह अपनी विवेचना को नैतिकता से पूर्णरूप से वंचित कर दे ।” वास्तव में अर्थशास्त्र अर्थ के उत्पादन, संचयन वितरण के अध्ययन तक ही सीमित नहीं है अपितु वह उसके साध्य की प्राप्ति में सहायक साधन के रूप में भी अपनी भूमिका निभाता है ।
 
प्रो. सेम्मुलसन के अनुसार-”अर्थशास्त्र में इस बात का अध्ययन किया जाता है कि समाज में लोग मुद्रा का प्रयोग करके अथवा बिना प्रयोग किये हुए, किस प्रकार-विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन के लिए उत्पत्ति के दुर्लभ साधनों का प्रयोग करते हैं और इन वस्तुओं को किस प्रकार उपभोग के लिए वर्तमान तथा भविष्य के बीच और समाज के विभिन्न व्यक्तियों तथा समूहों के वितरित करते हैं Samuelson % Fundamentals of Economics Analysis. P. फ्रेजर (Freser) कहते हैं कि-”एक अर्थशास्त्री जो केवल अर्थशास्त्री है; एक महत्त्वहीन प्राणी है।” यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि उसे अर्थ से आगे बढ़कर अर्थ के सदुपयोग एवं हित पर भी विचार करना चाहिए । एसी. पीगू (A. C. Pigou) का मत हैA.C. Pigou : Economics of Welfate, p-4. कि-”मेरा विचार है कि हम सब यह स्वीकार करेंगे कि मानव समाज के विज्ञानों में बल उनके प्रकाशदायक पक्ष पर उतना नहीं रहा जितना कि उनके फलदायक पक्ष पर यह ‘फल’ का आश्वासन है न कि ‘ प्रकाश ‘ का जिस पर हमें अधिक ध्यान देना आवश्यक है Caincross : Introduction to Economics (1944), P. 9. प्रो. जे.के मेहता एक नया विचार प्रस्तुत करते हुए कह्ते हैं कि मानव जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य परम आनन्द की प्राप्ति है वे सुख (Pleasure) दु :ख (Pain) और परमानन्द ; ध्वंचपदमेद्ध के बीच भेद करते हैं ।
 
उनके अनुसार- ” मानव मस्तिष्क .असन्तुलन को नापसन्द करता है और डुसलिए सन्तुलन की अवस्था प्राप्त करने का प्रयत्न करता है ।….. असन्तुलन की दशा की अनुभूति दुःख कहलाती है., जबकि इस बात की अनुभूति कि असन्तुलन घट रहा हैं अथवा सन्तुलन स्थापित हो रहा है, सुख कहलाती है । इस प्रकार सुख केवल दुःख का निवाराग है ।.. आवश्यवदृज्ञा और दुःख दोनों का सह अस्तित्व होता है जब तक कोई अपूर्ण आवश्यकता उतस्थित रहती है, दुःख बना रहता है और इसके परित्याग या इसकी सन्तुष्टि की प्रक्रिया सुख प्रदान करती है । जैसे ही कोई आवश्यकता पूर्णतया सन्तुष्ट हो जाती है या उसे छोड़ दिया जाता है दुःख समाप्त हो जाता है और साथ ही अधिक सुख प्राप्त करने की संभावना भी समाप्त हौ जाती है । इस दशा मैं मानसिक स्थिति साम्य की स्थिति होती है जिसमें न तो दुःख हैं और न ?? सुख, बल्कि आनन्द होता है” J. K. Mehta : Advanced Economic theory, P- 1-2. यह तो सर्वविदित ही है कि जैनधर्म में चार पुरुषार्थ माने गये हैं- धर्म, ‘अर्थ, काम और मोक्ष । तीर्शंकर पुरुषार्थ चतुष्टय के धारक होते हैं ।
 
‘ मूलाचार की टीका में आचार्य श्री वसुनन्दि ने लिखा कि-‘ ‘   मूलगुणादिस्त्ररूपावगमन प्रयोजनमू । ननु पुरुषार्थो हि प्रयोजन न च मृl गुणादि स्वरूपावगमन, पुरुषार्थस्य धर्मार्थकाममोक्षरूपत्वात्, यद्येव सुष्ठु मूलगुणस्वरूपावगमन प्रयोजन यतस्तेनैव ते धमदियो लभ्यन्ते इति ।’ ‘मूलाचार (पूर्वार्द्ध) गाथा-१, वसुनन्दि टीका पृ.४ अर्थात् मूलगुण आदि के स्वरूप को जान लेना ही इस ग्रंथ का प्रयोजन है ।
 
शका-     पुरुषार्थ ही प्रयोजन है न कि मूलगुण आदि के स्वरूप का जानना; क्योंकि पुरुषाथे धम.? अर्थ, काम और मोक्षरूर। है ।
 
समाधान-     यदि ऐसा बात है तो मूलगुणों कै स्वरूप’ का जान लेंना; यह प्रयोजन ठीक ही है क्योंकि उस ज्ञान से ही तो वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरूषार्थ प्राप्त होते हैं । ‘ मूलाचार मुनियों के उतचराग, ?वेस्गर एवं व्यवहार (समाचार) का प्रतिपादक शास्त्र है जिसका अर्थ (प्रयोजन) उत्कृष्ट मुनि के स्वरूप का निर्धारण और उनके मोक्ष का पथ प्रशस्त करना हैँ । इसलिए 1 मूलाचार ‘ मैं ‘ अर्थशास्त्र’ के बीज खोजना कठिन है किन्तु इसमें ‘ अर्थ ‘ से सफ्लरुg हो ही न; ऐसा भी नहीं है । जैन साधु (मुनि) के लिए कहा जाता है कि ” अर्थमनर्थं भावय नित्य’ ‘ अर्थात् अर्थ की अनर्थता (अनित्यता) का नित्य विचार करो । जैन मुनि (दिगम्बर) बनने के लिए आवश्यक- अड़्राईस मूलगुणों में से चार मूलतों का सकध कमोवेश अर्थशास्त्र से है जो इस प्रकार हैं- (१) अचौर्य महाव्रत (२) परिग्रहत्याग महावत (३) अचेलकत्व (नाग्न्य व्रत) (४) स्थिति भोजन (आहारचर्या) अचौर्य महावत- अदत्त का वर्जन करना अचौर्यव्रत है । चूंकि अदत्त का ग्रहण चोरी है, ऐसा सूत्रकार का कथन – । आचार्य श्री वट्टकेर के अनुसार-

गामादिसु पडिदाइं अप्पप्पहुदिं परेण संगहिद ।

णादाणं परदव्यं अदल्लपरिवज्जणं तं तु । ।

‘वही, गाथा – ७,

अर्थात् ग्राम आदि में गिरी हुई, भूली हुई इत्यादि जो कुछ भी छोटी-बड़ी वस्तु है और जो पर के द्वारा संगृहीत है ऐसे परद्रव्य को ग्रहण नहीं करना सो. अदत्त परित्याग (अचौर्य) नाम का महाव्रत है । तात्पर्य यह है कि गिरी हुई, भूली हुई, रखी हुई और बिना पूछे ग्रहण की हुई वस्तु अदत्त शब्द से कही जाती है । ऐसी अदत्त वस्तुओं का ग्रहण अदत्नादान है .और इनका त्याग करना अचौर्य व्रत कहलाता है । 

परिग्रह त्याग महाव्रत

परिग्रह के मूल में विशेष रूप से अर्थ की भूमिका होती है । जब दिगम्बर मुनि पद धारण किया जाता है तब परिग्रह त्याग की अनिवार्य शर्त होती है । मूलाचार में परिग्रहत्याग महाव्रत का स्वरूप इस प्रकार बताया है-

जीवणिबद्धाऽबद्धा परिग्गहा जीव संभवा चेल ।

तेसिं सक्कच्चागो इयरम्हि य णिम्ममोऽसंगो । ।

वही, गाथा-९,

अर्थात् जीव से सम्बन्धित, जीव से असम्बम्भित और जीव से उत्पन्न हुए ऐसे ये तीन प्रकार के परिग्रह हैं । इनका शक्ति से त्याग करना और इतर परिग्रह में (शरीर, उपकरण आदि में) ग्जिर्मम होना यह असंग अर्थात् अपरिग्रह नाम का पाँचवा व्रत है। इसकी आचार्यवृलि में आचार्य वसुनन्दि ने लिखा है कि- मिथ्यात्व, वेद, राग, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ आदि अथवा दासी, दास, गो, अश्व आदि ये जीवन से निबद्ध अर्थात् जीव के आश्रित परिग्रह हैं । जीव से पृथग्भूत क्षेत्र, वास्तु, धन, धान आदि जीव से अप्रतिबद्ध, जीव से अनाश्रित, परिग्रह हैं । जीवों से उत्पन्ति है जिनकी ऐसे मोती, शंख, सीप, चर्म, दाँत, कम्बल आदि अथवा श्रमणपने के अयोग्य क्रोध आदि परिग्रह जीवसम्भव कहलाते हैं । सब तरफ से ग्रहण करने रूप मूर्च्छा परिणाम को परिग्रह कहते हैं । इन सभी प्रकार के परिग्रहों का शक्तिपूर्वक त्याग करना, सर्वात्मस्वरूप से इनकी अभिलाषा नहीं करना अर्थात् सर्वथा इनका परिहार करना, अथवा ‘ तेसिं संगच्चागो’ ऐसा पाठान्तर होने से उसका यह अर्थ है-इन संग (परिग्रहों) का त्याग करना, और इतर अर्थात् संयम, ज्ञान तथा शौच के उपकरण में ममत्व रहित होना यह असंगव्रत अर्थात् अगिरग्रहव्रत कहलाता है । तात्पर्य यह है कि जो जीव के आश्रित परिग्रह हैं, जो जीव से अनाश्रित क्षेत्र आदि परिग्रह हैं और जो जीव से संभव परिग्रह हैं उन सबका मन, वचन, काय सै सर्वथा त्याग करना और इतर संयम आदि के उपकरणों में आसक्ति नहीं रखना, अति मूर्च्छा से रहित होना, इस प्रकार का यह परिग्रहत्याग महाव्रत है । ”मूलाचार (पूर्वार्द्ध) गाथा-१, वसुनन्दि टीका पृ.१५-१६ आचार्य वसुनन्दि के अनुसार-बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह की विमुक्ति, सगविमुक्ति है । अर्थात्( श्रमण के अयोग्य सर्ववस्तु का त्याग करना और परिग्रह में आसक्ति का अभाव होना ही परिग्रह त्याग महावत है । ‘ वही, पृष्ठ-९ सामायिक अवस्था में बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करना अनिवार्य है।’ मूलाचार (पूर्वाद्ध), गाथा-४० 

अचेलकत्व

मूलाचार में अचेलकत्व को मुनि का मूलगुण माना है । उसे परिभाषित करते हुए आचार्य श्री वट्टकेर ने लिखा है कि-

कत्थाजिणवक्केणय अहवा पल्लाइणा असंवरण ।

णिब्भूसण णिग्गंथ अच्चेलक्क जगदि पूज्जं । ।

‘वही, गाथा-३०

अर्थात्( वस्त्र, चर्म और वल्कलों से अथवा पले आदिको से शरीर को नहीँ ढकना, भूषण अलंकार से और परिग्रह से रहित निर्ग्रंथ वेष जगत में पूज्य ‘अचेलकत्व नाम का मूलगुण है । जब मुनि दीक्षा होती हैं तो उसे अचेलकत्व स्वीकार करना होता है । मूलाचार में .आचार्य वसुनंदी ने कहा कि-‘ ‘ आचेलकं-चेलं वस्त्रं, उपलक्षणमात्रमेतत्, तेने सर्वपरिग्रह श्रामण्योयोग्य चेलशब्देनोव्यते न विद्यते चेलं सस्यासावचेलक: अचेलकस्य भावोऽचेलकत्व वस्त्रभरणादि परित्याग । ‘ मूलाचार (पूर्वार्द्ध), आचार्य वसुनन्दि टीका, पृ.७ (गाथा-३) अर्थात् (चेल यह शब्द उपलक्षण मात्र है, इससे श्रमण अवस्था के अयोग्य सम्पूर्ण परिग्रह को चेल शब्द से कहा गया है । नहीं है चेल जिनके, वे अचेलक हैं, अचेलक का भाव अचेलकत्व है अर्थात् सम्पूर्ग वस्त्र आभरण आदि का परित्याग करना आचेलक्य व्रत है । आचेलक्य व्रत के मूल में अर्थ और अर्थ के उपजीव्य पदार्थों का त्याग प्रमुख है, । अर्थात्( अर्थ के विसर्जन सै ही मुनित्व के सर्जन की प्रक्रिया प्रारंभ होती है । स्थिति भोजन ज़- मूलाचार के अनुसार –

अजलिपुडेण ठिच्चा कुड्डाइ विवज्जणेण समपाय ।

पडिसुद्धे भूमितिए असणं ठिदिभोयण णाम । ।

‘मूलाचार (पूर्वार्द्ध), गाथा-३४

अर्थात्( दीवाल आदि का सहारा न लेकर जीव-जन्तु से रहित तीन स्थान की भूमि में समान पैर रखकर खड़े होकर दोनों हाथ की अंजली बनाकर भोजन करना स्थिति भोजन नाम का व्रत है । ऊपर देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि स्थिति भोजन नामक मूलत का अर्थ या अर्थशास्त्र से कोई संबध नहीं है । किन्तु ऐसा है नहीं । क्योंकि साधु (मुनि) भोजन करने से पहले भोजन के मूल में गर्भित अर्थ के विषय में विचार करता है । मुनि भोज्य वस्तु के उद्गम, उत्पादन, अशन (भोग), संयोजना (मिलावट), प्रमाण (सही मात्रा का अभाव) आदि दोषों से रहित ‘आहार करता है । इन सभी का सबंध अर्थशास्त्र से पैं । अर्थशास्त्र भी वस्तु के उद्गम, उत्पादन, भोग, वस्तु के क्रय-विक्रय में सही-सही मात्रा का निर्धारण आदि देखता है और इनसे संतुष्ट होने पर ही वह अपने अर्थशास्त्र का कार्य सम्पन्न होना भानता है । मुनि आहार के समय विचार करते हैं कि- 1 आहार दाता का धन; जिससे .आहार बना है वह न्यायोपार्जित होना चाहिए । प्रासुक द्रव्य होना चाहिए । ‘वही, गाथा-४८५ 2 आहार दाता का धन, जिससे आहार बना है वह दाता का स्वयं का होना चाहिए । 3 आहार दाता का धन, जिससे आहार बना है वह कर्ज रूप में नहीं लिया गया हो । यहाँ तक कि भोज्य वस्तु भी उधार की नहीं हो । मूलाचार में इसे प्राशन दोष के अर्न्तगत लिया है । मूलाचार के अनुसार

डहरियरिणं तु भणियं पामिच्छं ओदणादिअण्णदरं ।

तं पुण दुविहं भणिदं सवड्ढियमवड्ढियं चावि । ।

”वही, गाथा-४३६

अर्थात्- भात आदि कोई वस्तु कर्ज रूप में दूसरे के यहाँ से लाकर देना लघुऋण कहलाता है । इसके दो भेद हैं-ब्याज सहित और ब्याज रहित । आचार्य वसुनन्दि के अनुसार- लघु ऋण अर्थात् स्तोक ऋण । ओदन आदि भोजन तथा मण्डक-रोटी आदि अन्य वस्तुओं को प्रामृष्य कहते हैं । इस ऋण दोष के वृद्धि सहित और वृद्धि रहित की अपेक्षा दो भेद हो जाते हैं । जब मुनि आहार के ‘लिए आते हैं उस समय दाता श्रावक अन्य किसी के घर जाकर भक्ति से उससे भात आदि माँगता है और कहता है कि मैं आपको इससे अधिक भोजन दे दूँगा या इतना ही – भोजन वापस दे दूँगा । ऐसा कहकर पुन: उसके यहाँ से लाकर यदि श्रावक मुनि को आहार देता है तो वह ऋण सहित प्रामृष्य दोष कहलाता है । इसमें दाता को क्लेश और परिश्रम आदि करना पडता है अत: यह दोष है । ‘वही, आचार्य वसुनन्दि टीका, पृ.३४२ 4 आहार योग्य वस्तु में मिलावट नहीं होना चाहिए । मुनि को देखकर पकते हुए चावल आदि में और अत्ग्कि मिला देना अध्यधिदोष है । अप्रासुक और प्रासुक वस्तु का सहेतुक मिश्रण करना यह पूतिदोष हैँ । .अर्थशास्त्र भी मिलावट को स्वीकार नहीं करता । मुनि संयोजना और प्रमाणदोष से रहित आहार लेते है । मूलाचार (पूर्वार्द्ध), गाथा-४७६यह मिलावट से संबंधित दोष। ५ अर्थशास्त्र कहता है कि किसी को कष्ट देकर धन कमाना उचित, नहीं । दिगम्बर मुनिराज भी आहार करते समय विचार करते हैं कि यह भोजन छह काय के जीवों की विराधना और मारण आदि से बनाया हुआ अपने निमित्त स्व या पर से किया गया जो आहार है वह अधःकर्मदोष से दूषित है ।वही, गाथा-४२४ अत: मेरे योग्य नहीं है । 6 अर्थशास्त्र कहता है कि दूसरे के अधिकार की वस्तु पर स्वय अधिकार कर लेना उचित नहीं है । दिगम्बर मुनि भी दूसरे के लिए बनाये गये आहार को ग्रहण नहीं करते हैं। उसे औद्देशिक मान कर त्याग करते हैं ।वही, गाथा-४२४-४२६ ७ अर्थशास्त्र कहता हैं कि जो धन दूसरे के अधिकार का है उस पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं । दिगम्बर मुनि भी जिस दान का स्वामी दाता स्वयं नहीं होता है; ऐसा आहार ग्रहण नहीं करते हैं । उसे अनीशार्थदोष मानते हैंवही, गाथा-४४४ ( जिस तरह चाणक्य ने कहा था कि –

 ”सुखस्य मूलं धर्म: । धर्मस्य मूलं अर्थ: ।

अर्थस्य मूल राज्यं। राज्यस्य मूल इन्द्रियजय ।”

अर्थात् सुख का मूल धर्म है। धर्म का मूल अर्थ है । अर्थ का मूल राज्य है । राज्य का मूल इन्द्रिय जय है । उसी तरह अर्थशास्त्र भी सुख का मूल अर्थ मानता और अर्थ के इर्द-गिर्द सभी उपलब्धियों को स्वीकार करता है । अर्थशास्त्र भी मांग और पूर्ति तथा उपयोगिता और हास के नियम को स्वीकार करता है। जैन धर्म-शास्त्र भी अर्थ की महत्ता को स्वीकार करते हैं किन्तु गृहस्थ के लिए ही । मुनि के लिए अर्थ अनर्थकारी है । गृहस्थों को अर्थ की मांग रहती है इसलिए जैनाचार्यों ने कहा कि तुम न्यायोपाल्ल धन ग्रहण करो और जब तुम्हारी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाए तब उसका हास करो अर्थात् लोभ छोड़ो और दान करो । जब गृहस्थ मुनि बन जाए तब उसके लिए कहा कि अब न तुम अर्थ की मांग करोंगे और न उसकी पूर्ति के लिए प्रयास करोगे । बल्कि तुम अर्थ का पूरी तरह मन-वचन-काय .से, कृत-कारित-अनुमोदना से त्याग करो । यह त्याग तुम्हें अपरिग्रह महाव्रती बनायेगा। इस तरह हम देखते है कि मूलाचार भले ही मुनि केलिए अर्थ संचय का पक्षधर न हो किन्तु अर्थ के परित्याग को तो विषय बनाता ही है और यह अर्थ का परित्याग उनके अर्थ (मोक्ष प्राप्ति रूप प्रयोजन) की सिद्धि में सहायक है अत: मूलाचार और अर्थशास्त्र कहीं न कहीं एक दूसरे से सम्बंधित अवश्य दिखाई देते हैं । वैसे भी मुनि के द्वारा सदुपदेश पाकर ही गहस्थजन नैतिक तरीके से अर्थार्जन करते हैं और अर्जित अर्थ को जिनायतनों के निमर्ता, मुनि आदि अतिथियों के सत्कार (आहारदान, शास्त्रदान, उपकरणदान) आदि मैं उपयोग करते हैं । अत: धर्मशास्त्र के साथ-साथ अर्थशास्त्र की भी उपयोगिता है । मूलाचार के मूल में अट्ठाईस मूलगुण हैं । इसी प्रकार धर्म के मूल मैं अर्थ है-; .इससे इंकार नहीं किया जा सकता है ।
श्रीमती उर्मिला चोकसे
– सहायक प्राध्यापक, अर्थशास्त्र सेवासदन महाविद्यालय, .बुरहानपुर (मप्र.)
अनेकान्त जनवरी मार्च २०१३ पेज न 27 से 34 तक
 
Tags: Anekant Patrika
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