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मैना सुन्दरी-काव्य कथानक

December 5, 2017कविताएँjambudweep

मैना सुन्दरी-काव्य कथानक



(महासती_मैनासुन्दरी)

प्रथम करूँ अरिहंत सिद्ध आचार्य को वंदन।

फिर मेरी उपाध्याय गुरू माता को नमन।।

आगे है साधु रूप में श्री चन्दना बहन।

जिनकी मिली है प्रेरणा तो उठाई है कलम।।

(१)

अब आवो सुनाएं इक घटना जो सच्ची लिखी पुराणों में।

राजन पुहुपाल मगन सुख में मंत्रीगण की चर्चाओं में।।

उनकी भार्या श्री निपुणसुन्दरी पट्टरानी पद से शोभित थी।

सुंदर सुंदर दो कन्यायें इनको कर रही विभूषित थीं।।

(२)

इनका लावण्य देख करके सुंदर सा नाम रखा माँ ने।

सुरसुंदरी मैनासुन्दरी के नामों से ख्यात हुईं जग में।।

इन दोनों को देखा पितु ने अभिलाषा जागी थी मन में।

विद्या अध्ययन करवाऊँ इन्हें अब समय आ गया जीवन में।।

(३)

और तभी बुलाया पुत्री को आवो सुरसुन्दरी पास बैठो।

कर फेर फेर कर प्यार किया बोले विद्याअध्ययन कर लो।।

पुत्री प्रणाम करके बोली मैं सारी विद्या सीखूंगी।

राजन प्रसन्न होकर बोले तुम किससे पढ़ना चाहोगी।।

(४)

श्री शैव गुरू से पढ़ने की इच्छा जाहिर की पुत्री ने।

फौरन बुलवाया गया उन्हें आकर आशीष दिया उनने।।

सब गुणसम्पन्न मेरी पुत्री इसको विद्या में निपुण करो।

राजन ने कहकर सौंप दिया इसको अपनी पुत्री समझो।।

(५)

ब्राह्मण गुरु अति प्रसन्न होकर कन्या को लेकर चले गए।

और गुरुदक्षिणा में राजन ने बहुमूल्य वस्तुएं भेंट किए।।

पहले गुरुकुल में रहकर ही विद्या अध्ययन की जाती थी।

सम्पूर्ण गुणों में पारंगत होकर ही वह घर आती थी।।

मैना का अध्ययन जैन गुरु के पास

(६)

फिर दूजी पुत्री को राजन ने पास बुलाकर प्यार किया।

बोले मैनासुंदरि बेटी तुम तो मेरी प्यारी बिटिया।।

अब खेलकूद का समय नहीं पढ़ने की बेला आयी है।

बोलो तुमको किससे पढ़ना मन में ‘क्या तेरे समायी है।।

(७)

मैना बोली हे तात! मुझे जिन मुनिवर जी से पढ़ना है।

यह सुनकर मात पिता बोले तेरी इच्छा पूरी करना है।।

ये कन्या होनहार है कुछ इसके विचार अति उत्तम हैं।

चर्चा ये चली मंत्रियों में हर गुण में ये पारंगत है।।

(८)

प्रात: राजा रानी दोनों मैना को लेकर साथ चले।

जिनमंदिर में दर्शन करके नवकार मंत्र के पाठ पढ़े।।

फिर मुनिवर को नमोस्तु करके मैना के दिल की बात कही।

आशीष आपका मिल जाये इसको दें विद्यारूप निधी।।

(९)

मुनिवर अत्यंत प्रसन्न होकर बोले विचार अति उत्तम है।

ले जावो इसे आर्यिका के सन्निध करवाओ अध्ययन है।।

वे तीनों निकट आर्यिका के सन्मुख आ किया निवेदन है’।

उनने सहर्ष स्वीकार किया गुरूआज्ञा में मन अर्पण है’’।।

(१०)

वात्सल्य देख करके उनका थे मात पिता अति खुशी हुए।

पुत्री को माता सम देंगी ये प्यार बहुत संतुष्ट हुए।।

गुरु माँ के पास छोड़ करके संतोष मिला उनके मन में।

पर मोहकर्म से दुखी हुए वापस आये अपने घर में।।

अध्ययन के बाद माता—पिता का निर्णय

(११)

इस तरह कर रही थीं दोनो विद्याअध्ययन अपनी रुचि का।

इससे ही आगे जुड़ा हुआ देखो ‘त्रिशला’ विधान विधि का।।

दोनो बालायें शिक्षण के अनुरूप आचरण करती हैं।

बस यही बदल देता जीवन और कैसे सुख दुख सहती हैं।

(१२)

सुरसुंदरी सब विद्याओं में जब पूर्ण रूप से निपुण हुई।

तब शैव गुरू लेकर आये कन्या राजन को सौंपी थी।।

फिर राजन ने आदरपूर्वक श्री शैवगुरु को विदा किया।

अपनी पुत्री को पास बिठा कर फेर फेर कर प्यार किया।

(१३)

इक दिन की बात सुनो प्रियवर राजन सुखपूर्वक बैठे थे।

सुरसुंदरी गई पिता सन्निध तब पुत्री से कह बैठे थे।।

हे पुत्री सुनो विवाह योग्य हो गयी उम्र अब तेरी है।

तू चाहे कोई वर चुन ले अब ये भी इच्छा मेरी है।।

(१४)

पहले तो लज्जा से नीचे सिर करके बोली सुनें तात।

धनसुख वैभव ऐश्वर्य आदि आशीर्वाद से मिला प्राप्त।।

इच्छित वर के बारे में जो पूछा है नम्र निवेदन है।

कौशाम्बी नगरी के नरेश उनके सुत नृप हरिवाहन है।।

(१५)

विद्या वय बुद्धि आदि गुण में हैं निपुण सुयोग्य वही नर हैं।

जो मेरे मन में पती रुप स्वीकार मुझे ये ही वर हैं।।

पुत्री की बातें सुनकर के राजन पुहुपाल प्रसन्न हुए।

कौशाम्बी नृप से कर विमर्श बेटी का ब्याह संपन्न किए।।

अध्ययन के बाद मैना का वापस घर गमन

(१६)

अब मैनासुन्दरी पुत्री भी देखें क्या शिक्षा है पाई।

जिनवर का कर अभिषेक और पूजन विधि से कर घर आई।।

जिन गंधोदक को स्वर्णपात्र में भर पितु के सम्मुख लाई।

करके प्रणाम फिर राजन को गंधोदक महिमा बतलाई।।

(१७)

इस गंधोदक से मिटती है आधि व्याधी जो तन की है।

मन भी पवित्र हो जाता है और धन्य करे जीवन भी है।।

पुत्री की इतनी ज्ञानपूर्ण बातें सुन बहुत प्रसन्न हुए।

फिर पास बिठा करके उससे राजन ने ये कुछ प्रश्न किए।।

(१८)

बोले बेटी ये बतलाओ ये पुण्य पाप क्या होता है।

क्या क्या है पढ़ा आर्यिका से ये मोक्षमार्ग क्या होता है।।

प्रत्युत्तर में मैना बोली श्री देवशास्त्र गुरू भक्ती से।

उत्तम पद मोक्ष मिले क्रमश: बचता है प्राणी दुर्गति से।।

(१९)

मैना का समुचित उत्तर सुन मन ही मन बहुत प्रशंसा की।

इच्छित वर तुम भी बतलाओ जाहिर ये अपनी मंशा की।।

लज्जा से सर को झुका लिया ये क्या कह रहे पिता हमसे।

यह काम आप लोगो का है हम अपना वर ढूँढें कैसे।।

(२०)

इस जग में इष्ट वियोग और जो अनिष्ट योग होता रहता।

यह सब कर्मों की लीला है और पुण्य पाप फल से होता।।

मेरा वर निश्चय करने का अधिकार आपको पूरा है।

जो लिखा भाग्य में है मेरे उस पर अधिकार न मेरा है।।

(२१)

आ गया क्रोध अब राजन को यह कैसी शिक्षा पाई है।

यह सब जो मैंने ठाठ दिए वह भाग्य की नहीं कमाई है।।

उपकारी का उपकार भूल जो जाए कृतघ्नी होता है।

अपनों का करे अनादर जो वह प्राणी सब कुछ खोता है।।

(२२)

कुछ क्षण रुक कर पुत्री बोली अब क्रोध शांत करके सुनिए।

कुछ पुण्य उदय के फलस्वरूप इस घर में जन्म हुआ सुनिए।।

वरना मैं किसी भिखारी की कन्या बनकर पैदा होती।

मेरी गुर्वानी की शिक्षा कर्मों की गति विचित्र होती।।

(२३)

इन कर्मों के वश में होकर तीर्थंकर भी छह महिने तक।

आहारविधी नहिं मिली उन्हें घूमना पड़ा पृथ्वीतल पर।।

हम आप कहां बच पायेंगे ये कर्म बहुत बलशाली हैं।

सिद्धांतग्रंथ में पढ़ा यही कर्मों की कथा निराली है।।

(२४)

तिलमिला गये इतना राजन गुस्से में निर्णय कर डाला।

देखूंगा मैं अब तेरा भाग्य कर्मों का लेख है लिख डाला।।

तब मंत्रीगण बोले राजन यह कन्या अभी बालिका है।

यह है अबोध नहिं समझ इसे चलिए अब समय भ्रमण का है।।

श्रीपाल का परिचय

(२५)

आया अब मोड़ कथानक का तुम्हें चम्पापुर ले चलते हैं।

जहां के राज अरिदमन नाम सुखपूर्वक शासन करते हैं।

एक दिन देखा श्रीपाल पुत्र को मन में निश्चय कर डाला।

परलोक सुधारूँ मैं अपना मन को मक्खन सा मथ डाला।।

(२६)

इतना विचार करके राजन ने श्रीपाल को बुलवाया।

बेटे अब राज्य संभालो तुम मैं धारूँ योगी की काया।।

पितु की आज्ञा को शिरोधार्य कर राज्य संभाला था जबसे।

सारी नगरी अति हर्षित थी लख उनकी कार्यकुशलता से।।

(२७)

पर अकस्मात् लग गया रोग उन कामदेव सी काया में।

गलने लग गये सभी अवयव दुर्गंध उठी अति मात्रा में।।

लोगों का चम्पानगरी में रहना हो गया बड़ा मुश्किल’

कुछ लोग छोड़कर गये गांव, रह गये कर रहे थे बिलबिल’’

(२८)

कुछ ग्रामवासियों ने साहस कर आकर किया निवेदन है।

और हाल सुनाया जनता का चाचा श्री वीरदमन से है।।

श्रीपाल कुंवर की काया से दुर्गंधि शहर में फैली है।

इससे सब गाँव उजाड़ हुआ जनता में दहशत फैली है।

(२९)

चाचा ने देकर आश्वासन उन सबको धैर्य बंधाया था।

राजा श्रीपाल दयालू हैं क्यों अब तक नहीं बताया था।।

फिर वीरदमन ने कर विमर्श श्रीपाल से सारी बात कही।

तब श्रीपाल ने तुरत कहा कि हम रह लेगें अन्यत्र कहीं।।

(३०)

जब तक नहिं रोग शमन होगा तब तक ये राज्य संभालो तुम।

माता श्री कुंदप्रभा को भी समझाया मत घबराओ तुम।।

फिर लेकर चले साथ अपने थे कुंवर सात सौ रोगग्रसित।

उज्जैनी नगरी से बाहर वे ठहर गये थे बहुत व्यक्ति।।

(३१)

राजा पुहुपाल भ्रमण करते करते आ गये बगीचे में।

देखा श्रीपाल और उनके इतने साथी थे सब दुख में।।

बोले राजन हो कौन आप और यहां किसलिए आए हो।

है जातिधर्म क्या बतलाओ दुख के सब बहुत सताए हो।।

(३२)

बोले श्रीपाल सुनो राजन है अशुभ कर्म का उदय हुआ।

उससे यह व्याधि लगी हमको इसलिए यहां आगमन हुआ।।

इतना सुनना था राजन को पुत्री की बात याद आयीं।

वह भी तो माने कर्मों से सुख दुख सबको मिलता भाई।।

(३३)

यह ही वर श्रेष्ठ रहेगा मैना कर्मों का फल पायेगी।

मंत्री बोले यह है अनर्थ इन संग कैसे रह पायेगी।।

सुकुमारी रूपवती कन्या से सगी आपकी बेटी है।

क्या लोग कहेंगे सोचा है राेगी से ब्याही बेटी है।।

(३४)

राजन बोले चुप रहो मुझे नहिं कोई भी सलाह चहिए।

इन दोनों का है मेल सही दोनो को फल मिलना चहिए।।

राजन बोले श्रीपाल से मैं अपनी पुत्री तुमको दूंगा।

और लेकर गये महल में वे पुत्री को मजा चखाऊँगा।।

(३५)

रानी को भी जब बतलाया रो पड़ी धैर्य था टूट गया।

यह देख जिऊँगी मैं कैसे ऐसा क्यों राजन सोच लिया।।

मैना को उनने बुलवाया अब भी तू कहना मान मेरा।

इच्छानुसार वर चयन करो या कुष्ठी से ब्याह करूँ तेरा।।

(३६)

मैना चुपचाप रही सुनती फिर धैर्यपूर्वक बोली है।

जो निर्णय तात आपका है स्वीकार करे यह बेटी है।।

विश्वास हमें खुद पर इतना जब जब शुभकर्म उदय आयें।

तब सभी अनिष्ट अशोभन भी शुभकर्म रूप हैं हो जायें।।

(३७)

अब पुत्री का दृढ़ निश्चय सुन ज्योतिषविद् को था बुलवाया।

श्रीपाल संग मैना की शादी का शुभ मुहूर्त था निकलाया।।

है श्रेष्ठ आज का ही मुहूर्त कन्या वर के लिए सौख्यप्रद है।

नहिं ऐसा तीस वर्ष तक फिर शुभ दिन आयेगा यह मत है।।

(३८)

सबके विरोध के बावजूद राजन ने जो जिद ठान लिया।

श्रीपाल कुंवर संग विधिवत फिर मैना का कन्यादान किया।

रोती रह गयी बहन माता पर मैना बिल्कुल शांत रही।

बोली अब आप दुखी मत हो इसमें है किसी का दोष नहीं।

मैना का विवाह

(३९)

अब मेरे लिए पती मेरे सबसे हैं रूपवान जग में।

यदि ब्याह बाद कुछ हो जाता तो क्या छुट जाता बंधन ये।।

राजन ने सब कुछ दे करके मैना की करी बिदाई थी।

पश्चात होश में जब आये रो रोकर बहुत दुहाई दी।।

(४०)

कैसी बुद्धी हो गयी मेरी ये पुत्री संग क्या कर डाला।

मै अहंकार के वश होकर कोढ़ी संग ब्याह रचा डाला।।

पर पछताये अब होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत।

यही कहावत कह गये जब प्राणी होय अचेत।।

(४१)

दिन रात एक करके मैनासुन्दरि ने पति की सेवा की।

जख्मों को धोकर साफ करे दुर्गंधी से नहिं ग्लानि की।।

पत्नी की इतनी सेवा से श्रीपाल हृदय भी भर आया।

बोले इतना श्रम नहीं करो क्यों गला रही अपनी काया।।

मैना और श्रीपाल का संवाद

(४२) यह रोग बहुत ही भीषण है हे प्रिये तुम्हें ना हो जाए।

कुछ दिन मेरे से दूर रहो जब तक हम ठीक न हो जाएं।।

इतना सुनकर बोली मैना ये है कर्तव्य नहीं मेरा।

सुख दुख के अब हम साथी हैं और ये ही कहता धर्म मेरा।।

(४३)

हे प्रिये आपको मालुम है यदि उदय असाता का होगा।

तो बिना किसी भी कारण के यह तन तब रोगग्रस्त होगा।।

इस व्याधी से ऋषि मुनियों को भी नहीं मुक्ति मिल पाई है।

सहने की शक्ती अलग अलग जब दुक्ख वेदना आई है।।

(४४)

ऐसे वचनों को सुन करके श्रीपाल हृदय में खुशी हुई।

कितना है प्रबल पुण्य मेरा जो ऐसे क्षण में आप मिलीं।।

हे मैना प्रेम तुम्हारा ये आधी व्याधी हर लेता है।

कल जायेंगे जिनदर्शन को जो पूर्ण शांति भर देता है।।

(४५)

मंदिर में दर्शन पूजन कर मुनिवर के सन्निध बैठ गये।

धर्मोपदेश सुनकर उनका मैना ने उसने प्रश्न किये।।

हे भगवन! पूर्व असाता से मेरे पति को है कुष्ठ हुआ।

उसका उपाय बतलायें अब सुन उत्तर मन संतुष्ट हुआ।।

मुनिवर ने कुष्ठ रोग दूर करने का उपाय बताया 

(४६) हे बेटी, सुनो बताते हैं तुम सिद्धचक्र का पाठ करो।

नंदीश्वर व्रत करके बेटी अष्टान्हिक में दिन आठ करो।।

कार्तिक फाल्गुन आषाढ़ मास की शुक्लपक्ष की बेला हो।

तब अष्टमि से पूनो तिथि तक विधिवत् तुम पूजा कर लो।।

(४७)

यह आठ वर्ष तक करना है एकाशन या उपवास सहित।

अथवा जैसी भी शक्ती हो पर करना पूरी भक्ति सहित।।

दृढ़ता से व्रत को पूरा कर उद्यापन भी करना बेटी।

सब रोग नष्ट हो जायेगा इतनी श्रद्धा रखना बेटी।।

मैना ने श्रीपाल आदि का कुष्ठरोग कैसे दूर किया

(४८)

कुछ दिन के बाद सुनें प्रियवर था कार्तिक मास सुखद आया।

तब मैनासुन्दरी ने विधिवत् सिद्धचक्र पाठ था करवाया।।

प्रतिदिन जिनवर का पंचामृत अभिषेक किया था मैना ने।

फिर अष्टद्रव्य से पूजन कर गंधोदक लाती मंदिर से।।

(४९)

पति के शरीर पर श्रद्धा से हर रोज लगाती गंधोदक।

और वीर सात सौ जो कुष्ठी उन पर भी छिड़कती गंधोदक।।

इसका माहात्म्य सुनो ‘त्रिशला’ कैसा था चमत्कार लाया।

इन आठ दिनों में ही निखरी उनकी ये कंचन सी काया।।

(५०)

जो और सात सौ साथी थे वे भी सबके सब स्वस्थ हुए।

यह अतिशय देख हुए विस्मित और सब थे बहुत प्रसन्न हुए।।

इसके पश्चात् सभी जन मिल हर रोज न्वहन पूजन करते।

मैनासुन्दरी श्रीपाल सहित सुखपूर्वक महलों में रहते।।

(५१)

इक दिन की बात सुनो बैठे श्रीपाल संग प्रिय महलों में।

द्वारपाल सूचना देता है माता आयी सुत से मिलने।।

इतना सुनते ही श्रीपाल आसन से उठकर खड़े हुए।

अपनी पत्नी मैना को ले बाहर स्वागत को खड़े हुए।।

मैना का सासू माँ से मिलन

(५२) मैना ने मंगलकलश हाथ में लेकर के अगवानी की।

सासू माँ के जब चरण छुए आशीर्वाद की झड़ी लगी।।

माँ का आशीष प्राप्त करके मैना श्रीपाल निहाल हुए।

माता का चिरवियोग दुख जो सुख में अश्रू बन छलक गए।।

(५३)

पश्चात श्री राजन श्रीपाल ने माँ को सब बातें बतलाईं।

कैसे हैं मिली मुझे मैना क्यूँ इनके पितु ने परणाई।।

ये कर्म और सिद्धांत बना हम लोगों की जीवन नैया।

हमने काटे हैं कर्म सुनो पूजन विधान से हे मैया।।

(५४)

ये बहू आपके बेटे की सेवा कर कंचन रूप दिया।

इसने जिनमुनि पर श्रद्धा कर श्री सिद्धचक्र का पाठ किया।।

खुश होकर सासू माँ ने फिर मैना को इतना प्यार किया।

तुम बनो पट्टरानी सबमें यह कहकर आशीर्वाद दिया।।

(५५)

अब बोले माँ से श्रीपाल कैसे मेरा ये पता मिला।

तेरे वियोग से दुखी तेरी माँ करती थी दिन रात गिला।।

भगवन क्यों मुझको बेटे से क्यूँ नही मिलाते कैसा है।

आवाज सुनी इक मुनिवर ने बोले वो बिल्कुल अच्छा है।।

(५६)

एक शीलशिरोमणि कन्या से उसकी शादी है करवाई।

उसने भी सिद्धचक्र पूजन की महिमा जग में दिखलाई।।

है कुष्ठ रोग भी दूर हुआ यह सुनकर मैं दौड़ी आई।

तेरे चाचा से अनुमति ले देखो मैं तेरे पास आई।।

(५७)

फिर इष्टक्षेम सुन पूछ सभी भोजन की अब तैयारी की।

सासू माँ को स्नान और भोजन कर वैयावृत्ती की।।

अब सब कुछ पाकर श्रीपाल सुखपूर्वक राज्य चलाते हैं।।

है पुण्यकर्म से मिले सभी मन यही भावना भाते हैं।।

(५८)

मैनासुन्दरि की यादों में पुहुपाल सेठ अब तड़प रहे।

कोढ़ी पति को ले साथ न जाने कहां कहां वे भटक रहे।।

वे इन्हीं विचारों में खोये दिन पर दिन दुर्बल होते हैं।

तब उनकी पत्नी ने पूछा क्यों इतने चिंतित दिखते हैं।।

(५९)

मन को कर शांत सुनो स्वामिन् हम नहीं किसी को दुख देते।

हम तो केवल निमित्तमात्र सब पुण्य पाप ही फल देते।।

यह ही तो मैना थी कहती लेकिन जो होनी वही हुई।

दुख चिंता छोड़ो हे राजन् चलिए मंदिर जी चलें सही।।

शादी के पश्चात् मैना का पिता से मिलन

(६०)

शायद कोई अवधिज्ञानी मुनिराज अगर मिल जायेंगे।

तो कहां हमारी पुत्री है वे ही हमको बतलायेंगे।।

पर मंदिर में जाकर देखा मुनिवर के पास युगल बैठे।

पहचान लिया निजपुत्री को पर उसके साथ कौन बैठे।।

(६१)

एकदम से रानी निपुणसुंदरी घृणा क्रोध से भर आई।

परपुरुष साथ है ये मैना कुष्ठी पति को ये छोड़ आई।।

मैना माँ का अभिप्राय समझ आकर प्रणाम करके बोली।

ये है जामाता श्रीपाल जिस संग ब्याही बिटिया भोली।।

(६२)

तेरी बेटी ने कुष्ठी को शुभ कर्म धर्म से स्वस्थ किया।

आशीष हमें अब दो माता शुभ वचनों से आश्वस्त किया।।

यदि संशय रहा अभी बाकी तो कुष्ठ रोग है जरा बचा।

अंगूठे में यह देखो माँ तेरा दमाद कितना सच्चा।।

(६३)

आँखों में अश्रू छलक पड़े बेटी का धैर्य देख करके।

सीने से उसको लगा लिया सुख दुख पूछे तब बेटी से।।

इतने दिन कैसे रही कहां क्या किया सभी कुछ सुन करके।

गद्गद हो करके माँ बोली मैं धन्य हुई तुझको पाके।।

(६४)

संतप्त हृदय से राजन ने पुत्री से क्षमायाचना की।

मत दोष दीजिए अपने को यह सब लीला है कर्मों की।।

फिर किया दुबारा सिद्धचक्र का पाठ सभी को दिखलाया’

निर्मूल हो गया कुष्ठरोग अब चमत्कार जग ने गाया’’

(६५)

श्रीपाल और मैनासुन्दरि का राजन ने सम्मान किया।

जब पुण्य उदय में आता है सब मिल जाता है दिए बिना।।

जिन कर्मों से चिढ़कर राजन ने मैना संग अन्याय किया।

उन ही कर्मों का फल लख अब मैना को आशीर्वाद दिया।।

(६६)

इक दिन निद्रा मेें सोये थे श्रीपाल अचानक जाग गये।

हम इतने दिन तक रहे यहां चिंतातुर हुए सोचकर ये।।

पत्नी के घर रहने वाला निर्लज्ज कुपुत्र कहाता है।

पितु कुल का जो सम्मान करे वह ही सुपुत्र कहलाता है।।

(६७)

अब इक दिन इक पल रहना भी इक वर्ष सरीखे दिखते हैं।

जो जन्मभूमि को भूल जाए क्या पुत्र उसे कह सकते हैं।।

इत्यादि वचन सुनकर मैना अत्यंत प्रभावित हो बोली।

चलिए अब अपने घर चलिए चल करके राज्य संभालो जी।।

(६८)

हे प्रिये आपके ये विचार अतिसुंदर और विवेकी हैं।

पर इतने दिन के बाद हमें वह राज्य न दें ऐसा भी है।।

हम क्षत्रिय वीरपुरुष को अब मांगना ना शोभा देता है।

अन्यत्र कहीं जाकर धन बल मैं प्राप्त करूं मन होता है।।

धनप्राप्ति के लिए श्रीपाल का अन्यत्र भ्रमण

(६९)

मेरी अनुपस्थिति में अपनी सासू माँ का खयाल रखना।

नित पूजन आदि क्रियाओं में अपने मन को स्थिर रखना।।

मैं जल्द लौटकर आऊँगा बस बारह वर्ष बाद इस दिन।

मैना बोली मैं साथ चलूँ अब नहिं रह पाऊंगी तुम बिन।।

(७०)

लेकिन श्रीपाल नहीं माने बोले मत इतना मोह करो’

तुम इतनी समझदार हो प्रिय थोड़ा तो मन में धैर्य धरो’’

तब बोली मैना अगर आप नहिं नियत समय पर आयेंगे’

अगले दिन ले लूंगी दीक्षा नहिं आप मुझे घर पायेंगे’’

(७१)

सुन श्रीपाल हँसकर बोले स्वीकार बात ये करता हूं।

बारह वर्षों के बाद इसी दिन वापिस आकर मिलता हूं।।

पर इतने वर्षों का वियोग मैना के दिल को हिला गया।

आँखों में अश्रू भर बोली कैसे तुम बिन मैं रहूं पिया।।

(७२)

क्या कोई अन्य उपाय नहीं अपने स्वदेश में जाने को।

मैना ने कई उपाय किए अपने प्रिय को समझाने को।।

पर सभी प्रयास हुए निष्फल तब अपना दिल मजबूत किया।

मजबूर हुई माँ ने भी तब अपने सुत को था बिदा किया।।

(७३)

श्रीपाल चल पड़े पैदल ही वन उपवन नगर ग्राम आये।

वे वत्सनगर के उपवन में क्या देखा एक नजारा ये।।

एक पुरुष मंत्र जप रहा मगर नहिं सिद्ध कर सका विद्या को।

तब इन्हें देखकर दिया मंत्र तुम सिद्ध करो इस विद्या को।।

श्रीपाल को विद्यायें प्राप्त हुईं

(७४) श्रीपाल ने भी था सिद्ध किया शुभ पुण्य योग से इक दिन में।

उसको विद्या देकर बोले नहिं लोभ मुझे पर के धन में।।

पर आग्रहवश उन सज्जन ने श्रीपाल को दो विद्यायें दीं।

भोजन करवाया घर में फिर आगे जाने की स्वीकृति दी।।

(७५)

फिर आगे नगर भ्रमण करते वे ‘भरुच’ नगर में आये थे।

सो रहे वृक्ष के नीचे जब कुछ लोग वहां के आये थे।।

जब नींद खुली देखा उनको थे अस्त्र शस्त्र सब लिए हुए।

हे महाभाग हम आये हैं लेने को मेरे साथ चलिए।।

श्रीपाल का धवलसेठ से मिलन

(७६)

इसका क्या कारण है सुनिए हे देव! तुम्हें बतलाते हैं।

कौशाम्बी नगरी से आये वे धवलसेठ कहलाते हैं।।

जा रहे माल लेकर वे सब था पांच शतक नौकाओं में।

वे सब खाड़ी में चले गए सहसा आंधी तूफानों से।।

(७७)

अब कहा किसी ज्योतिविद् ने कोई गुणी पुरुष की बलि दीजे।

राजाज्ञा से हम आये हैं हम सबके प्राण बचा लीजे।।

तुम लोग डरो मत चलते हैं जाकर सारी बातें समझीं।।

स्नान कराके आभूषण पहनाकर देने चले बली।।

(७८)

अब श्रीपाल ने ललकारा रे सेठ तुझे क्या है चहिए।

मेरा वध करना है तुझको या फिर जहाज तुझको चहिए।।

घबराकर धवलसेठ बोला मुझको जहाज तुम दिलवा दो।

और इस विपत्ति से रक्षाकर हे वीर! क्षमा हमको कर दो।।

(७९)

सबको सवार कर नौका पर महामंत्र का था स्मरण किया।

कर सिद्धचक्र का ध्यान हाथ से धक्का देकर चला दिया।।

सबने जयकार किया उनका संग चलने की प्रार्थना करी।

यदि देंगे दसवां भाग मुझे तो चलूं शर्त स्वीकार करी।।

(८०)

श्रीपाल साथ में चले सभी जन हुए बहुत आनंदित थे।

आकस्मिक हुए डाकुओं के हमले से सब आतंकित थे।।

सब दौड़े आये श्रीपाल से की पुकार सब लूट लिया।

पर श्रीपाल ने युक्ती से सबको उनसे था छुड़ा लिया।।

श्रीपाल का जहाज सहित हंसद्वीप के लिए प्रस्थान

(८१)

श्रीपाल हृदय इतना उदार क्षमादान दिया डाकुओं को।

खुश होकर सात जहाज माल थे दिए भेट में राजन को।।

श्रीपाल के मीठे वचनों का डाकुओं पर बड़ा प्रभाव हुआ।

नंतर सारे जहाज लेकर था ‘हंसद्वीप’ प्रस्थान किया।।

(८२)

यहां हंसद्वीप के वन उपवन की शोभा बड़ी निराली है।

श्रीपाल संग श्री धवल सेठ के परिकर में खुशहाली है।।

रत्नों की खाने गजमोती यहां बहुत अधिक पाये जाते।

ऊंचे ऊंचे प्रासाद बने हैं नगर बहुत वैभवयुत ये।।

(८३)

श्रीपाल श्रमण करते करते जिनमंदिर में जब पहुंचे थे।

वह मंदिर स्वर्णमयी लेकिन उसके कपाट वज्र के थे।।

चौकीदारों से पूछा तब ये द्वार किसलिए बंद किए।

कोई शूरवीर आकर खोले हे देव’ इसलिए बंद है ये।।

(८४)

है राजा ‘कनककेतु’ उनकी आज्ञा से हम सब देख रहे।

अब हुई प्रतीक्षा पूर्ण आज जो थे मुनिवर ने वचन कहे।।

होगा वर तेरी पुत्री का जो वज्रकपाट ये खोलेगा।

सो पूर्ण हुई है अभिलाषा उनका न कहा मिथ्या होगा।।

रयनमंजूषा से श्रीपाल का विवाह संपन्न

(८५)

जाकर अनुचर ने राजा को जब समाचार ये बतलाया।

चल दिए साथ वे परिकर के श्रीपाल देख मन हरषाया।।

जिनमंदिर के दर्शन करके सबको लेकर घर पर आये।

पुत्री का ब्याह किया उन संग बहुमूल्य रत्न भी भेंट किए।।

(८६)

कुछ दिवस वहां पर रुक करके राजन से आज्ञा मांगी थी।

अब आगे जाना है हमको तब पुत्री संग बिदा दी थी।।

हाथी घोड़े आदिक लेकर वे फिर आगे के लिए चले।

अब पत्नी रयनमंजूषा संग सुखपूर्वक दिन थे बीत रहे।।

(८७)

कुछ दिनों बाद मन डोल गया जब रयनमंजूषा को देखा।

तब धवलसेठ ने व्याकुल हो उसे पाने को षड्यन्त्र रचा।

समझाया बहुत मंत्रियों ने पर नहीं दुराग्रह को छोड़ा।

कहलाया आगे खतरा है श्रीपाल देखने हेतु चढ़ा।।

(८८)

श्रीपाल चढ़े ज्यों ही ऊपर गिर पड़े समुन्दर के भीतर।

कोहराम सुना मंजूषा ने गिर पड़ी वहीं मूर्छित होकर।।

मनवाञ्छित पूरा होने पर वह धूर्त धवल खुश बहुत हुआ।

दासी को भेजा समझाने जो लिखा भाग्य में वही हुआ।।

(८९)

अब धवलसेठ की रानी बन वह पागल तेरे रूप का है।

सुन सकी न रयनमंजूषा यह क्रोधित हो उसको कोसा है।।

रे दुष्टे! तेरी जीभ के सौ सौ टुकड़े क्यों कर नहीं हुए।

वे मेरे पति के धर्मपिता इसलिए हमारे श्वसुर हुए।।

(९०)

दूती ने जाकर संदेशा जब धवलसेठ तक पहुंचाया।

खुद चलकर उसको समझाने वह पापी फिर भी था आया।।

जब नहीं प्रेम से वह मानी तब करने लगा जबरदस्ती।

कंपायमान हो गया देव जब जब विपदा में पड़ी सती।।

देव द्वारा धवलसेठ का अपमान

(९१)

अदृश्य देव ने उसे बांध फिर उसकी करी पिटाई थी।

यह दृश्य देख आश्चर्यचकित उस नौका पर जो जनता थी।।

सबने फिर सती मंजूषा के चरणों में गिर प्रार्थना करी।

हे शीलशिरोमणि क्षमा करो अपराध सेठ से हुआ सही।।

(९२)

इन दीनवचन को सुन करके अदृश्य देव को आज्ञा दी।

इस धवलसेठ को माफ करो हे देव आपने रक्षा की।।

हे शीलशिरोमणि धैर्य रखो श्रीपाल जल्द ही आयेंगे।

महाराजा बनकर वे जग में अब काफी नाम कमायेंगे।।

(९३)

यह कह करके वह देव गया गिर पड़ा सेठ तब चरणों में।

हे देवी क्षमा करो मुझको अज्ञान समाया था मन में।।

ये भक्ति आपकी हे भगवन् जब कुष्ठ रोग हर लेता है।

तब भक्त आपका हे प्रभुवर क्यों दुखी भला रह सकता है।।

(९४)

सुनिए अब श्रीपाल राजन नवकारमंत्र का ध्यान किया।

उसका प्रभाव देखो ‘त्रिशला’ वे महासमुद्र भी पार किया।।

तिरते तिरते आये तट पर श्रम से थे वे बेहोश हुए।

जब होश में आये देखा तब कुछ अनुचर से वे घिरे हुए।।

(९५)

हे देव जहां पर आये हो यह ‘कुंकुमद्वीप’ कहाता है।

यहां राजन की एक कन्या है वनमाला उनकी माता है।।

इक समय एक अवधिज्ञानी मुनिवर ने उनको बतलाया |

जो यह समुद्र तिरकर आये उस नर की ये होगी भार्या।।

श्रीपाल का गुणमाला के साथ विवाह

(९६)

सो हम सब खड़े प्रतीक्षा में राजन को खबर हुई आये।

भावी जामाता के स्वागत को अपने महल लिवा लाये।।

गुणमाला के संग ब्याह किया श्रीपाल वहीं सुख से रहते।

एक दिन पत्नी के आग्रह पर अपना पूरा परिचय देते।।

(९७)

कुछ दिनों बाद फिर धवलसेठ उस ही नगरी में आया था।

वह रत्नों का उपहार भेंट राजन को देने लाया था।।

सम्मान प्राप्त कर राजन का जब जाने को तैयार हुआ।

तब श्रीपाल पर पड़ी दृष्टि वो खड़े खड़े ही कॉप गया।।

(९८)

वापस आकर मंत्रणा करी अब आगे क्या करना चहिए।

खुल गया राज यदि मेरा तो अब शीघ्र हमे चलना चहिए।।

उनमें से इक मंत्री बोला हे सेठ सुनो बतलाते हैं।

कुछ भांड बुलाकर राजन के दरबार में नाच कराते हैं।।

(९९)

वह भांड इसे अपना साथी कह कहकर उनसे चिपट गये।

कोई स्त्री वेष बना करके मेरे भर्ता कह लिपट गये।।

राजन ने उनको फटकारा पर भेजे गए कुशल नर थे।

ऐसा सच्चा वह अभिनय था राजन भी असमंजस में थे।।

(१००)

श्रीपाल में यद्यपि शक्ती थी उन सबको मार गिराने की।

पर कर्मों की क्या लीला है आगे अब और नचाने की।।

इसलिए चल दिए चुप रहकर राजाज्ञा थी फांसी दे दो।

गुणमाला तब रोती आयी हे नाथ क्यूं चुप हो कुछ बोलो।।

(१०१)

तब पास बुलाकर गुणमाला को कहा समुद्र तट पर जावो।

वहां रयनमंजूषा रानी से सारी बातें तुम बतलाओ।।

तब ही कुल जाती का प्रमाण दे पाओगी अपने पितु को।

जाकर ढूंढा लेकर आयी सब हाल बता करके उनको।।

(१०२)

आ करके रयनमंजूषा ने सारा वृत्तांत सुनाया था।

अन्याय कर रहे हो राजन परिचय उनका बतलाया था।।

ये क्षत्रियपुत्र राजवंशी उत्तम कुल चरमशरीरी हैं।

नहिं सागर डुबा सका इनको ये सागर सम गंभीरी हैं।।

(१०३)

यह सब सुन राजन सन्तराज ने जाकर क्षमायाचना की।

चलिए अब कुंवर महल चलिए चिन्तित होंगी बनमाला भी।

अब धवल सेठ को बुलवाकर करवाई बहुत पिटाई थी।।

बोले श्रीपाल क्षमा कर दो है धर्मपिता ये दुहाई दी।।

(१०४)

यद्यपि अपराध न क्षम्ययोग्य फिर भी बंधन से छुड़वाया।

इतनी महानता देख सेठ इस कदर हृदय में पछताया।।

पछतावे की अग्नि में उसने इतनी लंबी साँस भरी।

तत्क्षण ही उदर विदीर्ण हुआ हो गयी मृत्यु गिर पड़ा वहीं।।

(१०५)

सब दुखी हुए यह दृश्य देख पर होनहार सो होती है।

पापोदय से वह नरक गया पापी की दुर्गति होती है।।

सेठानी को ढाढस देकर बोले श्रीपाल सेठानी से।

हे माता! पुत्र मुझे समझो जो आज्ञा पूर्ण करूँगा मैं।।

(१०६)

सेठानी बोली हे बेटे! तुम से सुपुत्र नहिं मिलते हैं।

जितनी भी प्रशंसा की जाए शब्दों में नहिं कह सकते हैं।।

मुझको मेरे घर भिजवा दो जो जो होना था वही हुआ।

सेठानी की आज्ञानुसार सब माल जहाज देश भेजा।।

श्रीपाल को मैना का स्मरण

(१०७)

गुणमाला रयनमंजूषा संग श्रीपाल खुशी से रहते हैं।

कुंडनपुर आदिक राज्यों की कई कन्यायें वे वरते हैं।।

इस तरह अनेकों राज्यों की कन्याओं से थे ब्याह हुए।

स्मरण हुआ अब मैना का तब बीते वादे याद किए।।

(१०८)

अब बारह वर्ष के होने में कुछ ही दिन रह गये शेष।

तब राजन ने स्वीकृति मांगी जाने को वे अपने स्वदेश।।

श्रीपाल संग उस समय चली सब आठ हजार रानियां थीं।

वैभव से युत श्रीपाल साथ में बहुत बड़ी सेना भी थी।।

श्रीपाल का उज्जैनी नगर में प्रवेश

(१०९)

निज श्वसुर नगर उज्जैनी के बाहर वे आकर ठहर गये।

कोलाहल सुनकर चिंतित हो कुछ लोग राजदरबार गये।।

बोले महाराज करो रक्षा कोई बहुत बड़ी सेना लेकर।

है घेर लिया है इस पुर को जाने किस राज्य से है आकर।।

(११०)

राजन पुहुपाल मंत्रियों को आदेश दिया तैयार रहें।

सेना को दे आदेश स्वयं अंत:पुर में विश्राम करें।।

श्रीपाल ने भी निजसेना को विश्राम का था आदेश दिया।

वे भी सोने के लिए चले पर निद्रा ने ना साथ दिया।।

मैना और सासू माँ का संवाद

(१११)

अब रात आखिरी बची आज कल सुबह न मैना मानेगी।

इसलिए चले चुपचाप महल मिलके वह कितना खुश होगी।।

यह सोच खड़े दरवाजे पर माँ और पत्नी की बात सुनी।

हे माता! बीत गये बारह वर्षों में कोई नहीं सुध ली।।

(११२)

इसलिए मुझे आज्ञा दीजे आर्याव्रत अंगीकार करूँ।

मेरी त्रुटियों को क्षमा करो मन में सबसे समभाव धरूँ।।

माँ बोली बेटी जहां किया इतने दिन इंतजार तुमने।

दो चार दिवस और कर लो मेरा बेटा पक्का धुन में।।

(११३)

अच्छा गर आया नहीं पुत्र तो मैं भी तेरे साथ चलूं।

मैं भला पुत्र और तेरे बिन इस घर में किसके लिए रहूं।।

क्षत्रियसुत वचन में दृढ़ रहते फिर भला हुआ क्या कारण है।।

मैना बोली विश्वास मुझे पर कर्म बड़ा दुखदारण है।।

बारह वर्ष पश्चात् मैना और श्रीपाल का मिलन

(११४)

अब रहा गया ना श्रीपाल से दरवाजा खटखटा दिया।

माता खोलो अब दरवाजा तेरा पुत्र द्वार पर खड़ा हुआ।।

दोनों को कितना हर्ष हुआ क्या मिलन रहा होगा उनका।

माँ को प्रणाम कर बैठ गये और हाल सुनाया यात्रा का।।

(११५)

हर्षातिरेक से मैना के आनंदाश्रू तब छलक पड़े।

जो रोके बारह वर्षों तक पति के मिलने से निकल पड़े।

मैना संग रात्रि व्यतीत करी फिर सुबह सभी से मिलवाया।

माँ कुंदप्रभा के दर्शन कर उन सबका दिल भी हर्षाया।।

मैना पट्टरानी पद से विभूषित

(११६)

नंतर माता की आज्ञा से मैना को किया विभूषित था।

उन आठ हजार रानियों में पट्टरानी पद से भूषित था।

बोले श्रीपाल प्रिये ये सब जो वैभव मैंने पाया है।

वह पतीरूप में जिस क्षण से तुमने मुझको अपनाया है।।

(११७)

ये धर्म और सेवा का फल मैं कभी भुला ना सकता हूँ।

इसलिये प्रिये स्वीकार करो पट्टाभिषेक अब करता हूं ।।

इस तरह प्रशंसा सुन करके लज्जा से सर को झुका लिया।

हे नाथ! आपको पा करके अब आज सभी कुछ प्राप्त किया।।

(११८)

गुणमाला रयनमंजूषा आदि उनकी सेवा सम्मान करें।

यह सब है मिला पुण्य फल से मैना हर क्षण ये ध्यान करे।।

इतना सब कुछ जो पाकर भी ना थोड़ा भी अभिमान करे।

क्योंकी ‘त्रिशला’ ये सब नश्वर हर क्षण हम भी ये ध्यान करें।।

(११९)

इक दिन मैना बोली पति से हे नाथ! मुझे कुछ कहना है।

मेरे पितु के अन्यायों का मुझको अब बदला लेना है।।

मैना की बातें सुन करके श्रीपाल उन्हें हैं समझाते।

मेरे संग तो उपकार किया वरना तुमको कैसे पाते।।

(१२०)

मैना बोली वे पिता मेरे दुर्भाव नहीं है कुछ मेरा।

पर धर्म में प्रीति जगाने का बस भाव हुआ है अब मेरा।।

ऐसा सुनकर वे मैना से कुछ परामर्श करके बोले।

पुहुपाल सभा में जा करके इक दूत को भेजा ये बोले।।

(१२१)

एक राजा राज्य जीत करके आ गया आपके पुर में है।

वह करके सबको वशीभूत तुम्हें करने आया वश में है।।

उसने संदेशा कहलाया जो ध्यान लगाकर अब सुनिए।

लंगोट पहन कंबल ओढ़े सर पर बोझा रखकर मिलिए।।

(१२२)

एक और शर्त जो कही सुनें कंधे पे कुल्हाड़ी रख लायें।

अब और सुन सके ना राजन बोले जो हो रण में आये।।

पुहुपाल क्रोध से भड़क उठे इतना दुस्साहस है किसमें।

उसका सर धड़ से अलग करो कैसे हिम्मत आई इसमें।।

(१२३)

इस दूत को मृत्युदंड देकर इसको फांसी पर लटका दो।

ये राजनीति के है विरूद्ध हे राजन! इसको माफ करो।।

ऐसा मंत्रीगण ने राजन से कहकर पुन: विमर्श किया।

हम इसी वेष में आयेंगे कह दूत को वापस भेज दिया।।

(१२४)

जो नगर घेरकर खड़ा हुआ लगता है बहुत प्रतापी है।

अतएव संधि करना बेहतर ना युद्ध में होगी भलाई है।।

इस ऊहापोह में थे राजन किसने यह सब है कहलाया।

पर पुन: दूत संदेशा ले अगले दिन फिर वापस आया।।

(१२५)

मेरे राजन ने है कहलाया जैसे दो राजा मिलते।

बस उसी वेष में आ जायें अपमान नहीं हम कर सकते।।

चल दिए बहुत वैभव लेकर आगत से मिलने जाते हैं।

राजन को आता देख चले श्रीपाल गले लग जाते हैं।।

(१२६)

क्यों प्रेम उमड़ है रहा मुझे जाने पहचाने लगते हो।

इकटक निहार करके बोले तुम कितने प्यारे लगते हो।।

तब हँसकर बोले श्रीपाल क्यों इतनी जल्दी भूल गये।

हम है जामाता श्रीपाल हम बारह वर्षों बाद मिले।।

(१२७)

राजा पुहुपाल हुए पुलकित पूछा सब हाल भ्रमण का था।

फिर आये पुत्री से मिलने उससे फिर हाल कहा दिल का।।

जो तेरे संग अन्याय किया था बेटी मुझको माफ करो।

सुन पितु की बातों को मैना में शांत किया अपने मन को।।

(१२८)

हे तात् ! आपने देख लिया किस तरह से कर्म नचाते हैं।

इक क्षण में धनी निर्धन बनता निर्धन वैभव पा जाते हैं।।

जब कुष्ठ रोग जैसे भीषण भी रोग नष्ट हो जाते हैं।

इतना ही नहीं धर्म से ही हम स्वर्ग मोक्ष पा जाते हैं।।

(१२९)

इत्यादि धर्मचर्चा सुनकर हुए बहुत प्रभावित थे राजन।

श्रीपाल को नगर प्रवेश करा कर दिये रत्न और आभूषण।

इस तरह बहुत दिन मैना संग उज्जैनी में ही बीत गये।

इक दिन फिर उन्हें ख्याल आया अब तक हम पितु घर नहीं गये।।

(१३०)

राजन से स्वीकृति ले करके अब चम्पापुर के लिए चले।

श्रीपाल भ्रमण करते करते आकर ठहरे बागीचे में।।

फिर चाचा वीरदमन को वह यह समाचार भिजवाते हैं।

आकर के मिले राज्य उनका दे दे उनको कहलाते हैं।।

(१३१)

यह सुनकर क्रोधित होकर के बोले चाचा श्री वीरदमन।

क्या नहीं जानता तू ऐसे नहिं मिलता राज्य व स्त्रीधन।।

 यदि वीर पुरुष हो श्रीपाल आ करके युद्ध करे मुझसे।

राज्याधिकार का निर्णय अब हे दूत वहीं होगा रण में।।

(१३२)

श्रीपाल सोचते हैं देखो मेरा ही राज्यपाट लेकर।

जो दिया धरोहर में उनको हो गया गर्व ऐसे धन पर।।

अब अगर युद्ध वे चाह रहे तो युद्ध हमें करना होगा।

यह राज्य हमें तो लेना है भुजबल साबित करना होगा।।

(१३३)

दोनों पक्षों में युद्ध हुआ हो रहा सैनिकों का विनाश।

तब मंत्रीगण ने कर विमर्श बोले दो राज्यों का विनाश।।

हो रहा अत: सुनिए राजन दो वीर स्वयं ही युद्ध करें।

दोनों ने इसको स्वीकारा हम दोनों की निर्णय कर लें।।

(१३४)

श्रीपाल निवेदन फिर करते हैं मेरा राज्य मुझे दे दो।

दूसरे के राज्य पे चाचाजी इस तरह नहीें तुम मोह करो।

मैंने सदैव पितु सम माना पितु से लड़ना है उचित नहीं।

पर वीरदमन बोले रण में होते हैं ये सम्बन्ध नहीं।।

श्रीपाल द्वारा चाचा वीरदमन पराजित

(१३५)

दोनों ही वीरों में त्रिशला तब युद्ध भयंकर होता है।

कर दिया पराजित चाचा को बाहों में उठा वो लेता है।।

श्रीपाल हृदय अति दयावान वरना कुछ भी कर सकते थे।

पृथ्वी पर उनको लिटा दिया वरना वो पटक भी सकते थे।।

(१३६)

जयकार हुई जयध्वनि से नभमंडल था उस क्षण गूंज उठा।

लज्जित हो वीरदमन बोले बेटे मैं तुमसे हार गया।।

तुम कोटिभट्ट हो शूरवीर तुमसे यह वंश प्रशंसित हो।

अब अपना राज्य संभालो तुम मुझको दीक्षा की अनुमति दो।

मैनासुन्दरी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया

(१३७)

राज्याभिषेक कर श्रीपाल का वन में गमन किया उनने।

अपने राजन को पाकर के आनंद मनाया था सबने।।

कुछ समय बाद मैनासुन्दरि ने पुत्ररत्न को जन्म दिया।

राजन श्रीपाल सदा करते रहते उनके संग धरम क्रिया।।

(१३८)

मैना और रयनमंजूषा आदी सभी रानियों के मिलकर।

बारह हजार थे पुत्र हुए श्रीपाल राज्य था अतिसुखकर।।

राजन ने इतना दान दिया नहिं कोई दरिद्री रहा वहाँ।

इतने परिवार सहित राजन सुख भोग रहे थे बहुत अहा।।

(१३९)

इक दिन सिंहासन पर राजन श्रीपाल सभा में बैठे हैं।

ऋतुओं के सब फल फूल आदि बनमाली लाकर देते हैं।।

आये उपवन में महामुनी जिनका अतिशय अतिभारी है।

आपस में बैर विरोधी भी पशुओं ने समताधारी है।।

मुनिराज द्वारा राजा श्रीपाल का पूर्व भव बताना

(१४०)

यह समाचार सुन श्रीपाल उठकर परोक्ष वंदन करते।

वनमाली को दे पुरस्कार चलने को हैं उद्यत होते।।

ले जाकर अष्टद्रव्य आदिक मुनिवर की उनने पूजा की।

हे प्रभो! पूर्वभव बतलाएं कर जोड़ यही प्रार्थना करी।।

(१४१)

क्यूं कुष्टरोग है हुआ मुझे और क्यों सागर में गिरा प्रभो।

किस पुण्य उदय से तिर निकला भांडों ने अपना कहा प्रभो।।

कैसे इतनी रानियां मिलीं जो बल वैभव ये मिला मुझे।

मैं बना महामंडलेश्वर कृपया बतलाएं आप मुझे।।

(१४२)

हे वत्स! सुनो सबके उत्तर क्यूं कुष्टरोग ये तुम्हें हुआ।

इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में संचयपुर इक नगर हुआ।।

वहां का राजा श्रीकण्ठ नाम विद्याधर सेना का स्वामी।

था नीति निपुण बलवान महाधर्मात्मा थी उसकी रानी।।

(१४३)

एक दिन मुनिवर को वंदन कर कुछ श्रावक के व्रत ग्रहण किए।

मिथ्यात्व उदय में आने से अपने व्रत से पदभ्रष्ट हुए।।

धन यौवन शक्ती के मद में हो गये चूर इतने राजन।

मिथ्यागुरु देव शास्त्र में रुचिपूर्वक करने लग गए अर्चन।।

पूर्वभव श्रीपाल में राजा द्वारा मुनि पर उपसर्ग

(१४४)

वे राजन इक दिन चले सात सौ वीरों संग क्रीड़ा करने।

परिषहविजयी इक महामुनी तप में थे लीन वहीं वन में।।

उनकी कृश काया मलिन देख कोढ़ी कह हंसी करी सबने।

फिंकवाया उन्हें समुन्दर में फिर भी वे अचल रहे मन में।।

(१४५)

इस चमत्कार को देख हृदय में दया आ गयी राजन को।

बाहर समुद्र से निकलाकर वे चले गये अपने घर को।।

कुछ दिनों बाद वे पुन: गये उपवन में क्रीड़ा करने को।

आहार हेतु जा रहे तपस्वी मुनि को लगे मारने वो।

(१४६)

नंगे निर्लज्ज गालियां दे तलवार उठायी जैसे ही।

उस क्षण भी दयाभाव से कुछ मन था बदला फिर वैसे ही।।

तलवार म्यान में रख करके वे वापस महल लौट आये।

दो बार किया उपसर्ग अत: कर्मों को आप बांध लाये।।

(१४७)

इक दिन अपनी महारानी से ये सारी बातें बतलायीं।

क्यों ऐसा पती मिला मुझको यह सोच बहुत ही अकुलायी।।