Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

राजीमती गणिनी आर्यिका!

July 13, 2017जैनधर्मjambudweep

गणिनी आर्यिका राजीमती


२२वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ के गर्भ में आने के छह माह पूर्व ही कुबेर ने शौरीपुर के राजा समुद्रविजय की रानी शिवादेवी के आँगन में रत्नों की वर्षा करना शुरु कर दिया। कार्तिक शुक्ला षष्ठी के दिन अहमिन्द्र का जीव जयन्त विमान से च्युत होकर शिवादेवी के गर्भ में आ गया। उसी समय इंद्रों ने यहाँ आकर भगवान का गर्भ महोत्सव मनाया। नव महीने बाद श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन पुत्र का जन्म होते ही देवों ने आकर उसे सुमेरु पर ले जाकर १००८ कलशों से जन्म अभिषेक करके जन्म कल्याणक महोत्सव मनाया। पुन: नेमिनाथ यह नामकरण करके जिनशिशु को लाकर माता-पिता को सौंप दिया। नेमिनाथ की आयु एक हजार वर्ष की थी और शरीर की ऊँचाई दश धनुष (१०²४·४० हाथ) थी। क्रम से ये तीर्थंकर युवावस्था को प्राप्त हो गये। एक बार श्रीकृष्ण, नेमिकुमार आदि वन में क्रीड़ा को गये थे। साथ में श्रीकृष्ण की रानियाँ भी थीं। वहाँ जल क्रीड़ा में नेमिकुमार ने अपने गीले वस्त्र निचोड़ने के लिए सत्यभामा को कह दिया। तब उसने चिढ़कर कहा-क्या आप श्रीकृष्ण हैं कि जिन्होने नागशय्या पर चढ़कर शांर्ग नाम का दिव्य धनुष चढ़ा दिया और दिगदिगंत व्यापी शंख पूँका था। क्या आपमें वह साहस है कि जिससे आप मुझे अपना वस्त्र धोने की बात कहते हैं।
नेमिकुमार ने कहा- ‘‘मैं यह कार्य अच्छी तरह कर दूँगा।’’ वे तत्क्षण ही आयुधशाला में गये। वहाँ नागराज के महामणियों से सुशोभित नागशय्या पर अपनी ही शय्या के समान चढ़ गये और शांर्ग-धनुष को चढ़ा दिया तथा योजन व्यापी महाशब्द करने वाला शंख पूक दिया। श्रीकृष्ण को इस बात का पता चलते ही आश्चर्यचकित हुए। पुन: उन्होंने विचार किया कि ‘‘श्री नेमिकुमार का चित्त बहुत समय बाद राग से युक्त हुआ अत: इनका विवाह करना चाहिये।’’ इसके बाद विमर्श कर वे स्वयं राजा उग्रसेन के घर पहुँचे और बोले-‘‘आपकी पुत्री राजीमती तीन लोक के नाथ तीर्थंकर नेमिकुमार की प्रिया हो।’’ उग्रसेन ने कहा-‘‘हे देव! तीन खंडों में उत्पन्न हुए रत्नों के आप ही स्वामी हैं। आपकी आज्ञा मुझे सहर्ष स्वीकार है।’’ राजा समुद्रविजय श्रीकृष्ण आदि बारात लेकर (जूनागढ़) आ गये। इसी मध्य श्रीकृष्ण ने सोचा-इंद्रों द्वारा पूज्य तीर्थंकर नेमिनाथ महाशक्तिमान हैं कहीं मेरा राज्य न ले लें।……..पुन: सोचा-‘‘ये नेमिकुमार कुछ ही वैराग्य का कारण पाकर दीक्षा ले सकते हैं।’’ ऐसा सोचकर एक षड्यंत्र किया और बहुत से मृग आदि पशु इकट्ठे कराकर, एक बाड़े में बंद करा कर द्वारपाल को समझा दिया। जब नेमिकुमार उधर से निकले, तब बाड़े में बंद चिल्लाते हुए पशुओं को देखकर पूछा-‘‘इन्हें क्यों बंद किया गया है ?’’
द्वारपाल ने कहा- ‘‘प्रभो! आपके विवाहोत्सव में इनका व्यय (वध) करने के लिए इन्हें इकट्ठा किया गया है।’’ उसी क्षण अपने अवधिज्ञान से श्रीकृष्ण की सारी चेष्टा जानकर तथा पूर्वभवों का भी स्मरण कर नेमिनाथ विरक्त हो गये। तत्काल ही लौकांतिक देव आकर स्तुति करने लगे। पुन: इंद्रों ने आकर भगवान की पालकी उठायी और प्रभु दीक्षा के लिये वन में पहुँच गये। वह वन सहस्राम्र नाम से प्रसिद्ध था जो कि आज सिरसा वन कहलाता है। वहाँ पर श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन दीक्षा ले ली। तेला के बाद उनका प्रथम आहार राजा वरदत्त के यहाँ हुआ था। उस समय उसके घर में साढ़े बारह करोड़ रत्नों की वर्षा हुई थी। अनंतर छप्पन दिन बाद भगवान को आसोज वदी एकम् के दिन केवलज्ञान प्रगट हो गया।
हरिवंशपुराण में लिखा है कि- नेमिनाथ के दीक्षा लेने के बाद राजीमती बहुत ही दु:खी हुई और वियोग के शोक से रोती रहती थी। भगवान को केवलज्ञान होने के बाद समवसरण में राजा वरदत्त ने दीक्षा ले ली और भगवान के प्रथम गणधर हो गये। उसी समय छह हजार रानियों के साथ दीक्षा लेकर राजीमती१ आर्यिकाओं के समूह की गणिनी बन गई।’’ आज जो विंवदन्ती है कि राजीमती ने गिरनार पर्वत आकर नेमिनाथ से वार्तालाप किया। अनेक बारहमासा और भजन गाये जाते हैं। वे सब कल्पित हैं क्योंकि जब तीर्थंकर दीक्षा ले लेते हैं। वे केवलज्ञान होने तक मौन ही रहते हैं पुन: वार्तालाप व संबोधन का सवाल ही नहीं उठता। भगवान को केवलज्ञान होने के बाद ही राजमती ने आर्यिका दीक्षा लेकर गणिनी पद प्राप्त किया था।‘‘राजीमती का नव भव से नेमिनाथ के साथ संबंध चला आ रहा था।’’ यह प्रकरण भी हरिवंश पुराण, उत्तर पुराण में नहीं है अन्यत्र कहीं गंरथों में हो सकता है।
‘नेमिनिर्वाण’ काव्य में नेमिनाथ के पूर्वभवों का वर्णन इस प्रकार है- ‘‘इस भरतक्षेत्र में विन्ध्याचल पर्वत पर एक भील रहता था। एक दिन वह शिकार के लिए निकला। कुछ दूर पर दो मुनिराज थे। उनके ऊपर बाण चलाने को तैयार हुआ। उसी क्षण उसकी भार्या ने आगे आकर कहा-हे प्रियतम! आप मेरे ऊपर बाण छोड़ो किन्तु इन्हें न मारो। ये दो मुनिराज मान्य हैं, मारने योग्य नहीं हैं। मैं एक बार नगर में सामान खरीदने गई थी वहाँ मैंने देखा कि राजा भी इन्हें प्रणाम कर रहा था। इतना सुनकर भील ने धनुष बाण एक तरफ रख दिया। पत्नी के साथ गुरु के दर्शन करके उनका उपदेश सुना। पुन: उसने शिकार खेलना और माँस खाना छोड़ दिया। इस व्रत के प्रभाव से वह वृषदत्त की पत्नी से इभ्यकेतु नाम का पुत्र हुआ। उसे स्वयंवर में राजा जितशत्रु की पुत्री कमलप्रभा ने वरण किया था। इस कमलप्रभा के एक सुकेतु नाम का पुत्र हुआ। उसे राज्य देकर इभ्यकेतु दीक्षा लेकर अंत में मरणकर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हो गया। पुन: जम्बूद्वीप के सिंहपुर नगर में राजा जिनदास के यहाँ वह देव अपराजित नाम का पुत्र हो गया। इसने भी कालान्तर में तपश्चरण कर अच्युत स्वर्ग में इंद्रपद को प्राप्त कर लिया। पुन: कुरुजांगल देश की हस्तिनापुर नगरी के श्रीचंद राजा का सुप्रतिष्ठ नाम का पुत्र हो गया। इस सुप्रतिष्ठ ने भी दीक्षा लेकर तीर्थंकर प्रकृति का बँध कर लिया तथा अनेक व्रतों का अनुष्ठान कर जयंत विमान में अहमिन्द्र हो गया। वहाँ से आकर ये अहमिन्द्र का जीव यदुवंशी राजा समुद्रविजय की रानी शिवादेवी के पुत्र नेमिनाथ हुए हैं।१ जिन भीलनी ने इन्हें मुनिवध से रोका था वे ही राजीमती हुई हैं ऐसी प्रसिद्धि है। जो भी हो यह कथन इस काव्य में नहीं है।
पांडव पुराण में भी श्री नेमिनाथ के दशभव के नाम आए हैं-  विन्ध्य पर्वत पर भिल्ल # इभ्यकेतु सेठ  देव  चिंतागतिविद्याधर  देव  अपराजित राजा  अच्युत स्वर्ग के इंद्र  सुप्रतिष्ठ राजा # जयन्त अनुत्तर में अहमिन्द्र  तीर्थंकर नेमिनाथ। २ इस पुराण में भी राजीमती के भवों का वर्णन नहीं है। भगवान नेमिनाथ के समवसरण में अठारह हजार मुनि, चालीस हजार आर्यिकायें, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकायें थीं। उस काल में कुन्ती, सुभद्रा, द्रौपदी आदि ने गणिनी राजीमती से ही दीक्षा ली थी३। अंत में नेमिनाथ ने आषाढ़ शुक्ला सप्तमी के दिन गिरनार पर्वत से निर्वाण को प्राप्त किया है। राजीमती, कुन्ती, सुभद्रा, द्रौपदी ये चारों आर्यिकाओं ने धर्मध्यान से सल्लेखना करके स्त्रीवेद का नाश कर सोलहवें स्वर्ग में देवपद प्राप्त कर लिया। वहाँ की २२ सागरोपम आयु को पूर्ण कर पुरुष होकर तपश्चरण करके निर्वाण प्राप्त करेंगी।४
 
Previous post द्वादश अनुप्रेक्षा अधिकार! Next post श्री शांतिनाथ चक्रवर्ती!
Privacy Policy