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विन्ध्यगिरि पर खड़े गोम्मटेश बाहुबली डग भरने को हैं

July 22, 2017शोध आलेखjambudweep

विन्ध्यगिरि पर खड़े गोम्मटेश बाहुबली डग भरने को हैं


कर्नाटक राज्य की राजधानी बैंगलूर से लगभग १८५ किलोमीटर दूर श्रवणबेलगोल नगर की विन्ध्यगिरि पहाड़ी पर भगवान् गोम्मटेश बाहुबली की मूर्ति पिछले १०२५ वर्षों से कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी है। अपनी उतंगता, भव्यता और सौम्यता में यह अनुपम और अद्वितीय है। हिमालय के पर्वत—शिखर एवरेस्ट जैसी ऊँचाई, चीन की विशाल दीवार तथा मिश्र के पिरामिडों जैसी विशालता एवं ताजमहल जैसी सुन्दरता समेटे भगवान् बाहुबली का यह बिम्ब संसार का एक अद्भुत आश्चर्य है। एक हजार वर्ष से अधिक समय से यह मूर्ति खुले आकाश में प्रचंड धूप, भूकम्प, हवा, धूल, तूफान, वर्षा के थपेड़े सहन करती हुई अविचल और अडिग खड़ी है। समुद्र स्तर से ३२८८ फीट (१००३ मी.) तथा जमीन से ४३८ फीट (१३४ मी.) ऊँचे पर्वत पर स्थित ५८’—८’’ (१८ मी.) उतंग इस प्रतिमा के ऊपरी भाग को नगर से लगभग १५ कि.मी. की दूरी से देखा जा सकता है।शेट्टर ‘श्रवण बेलगोल’’ (रुवारी धारवाड) पृष्ठ ३८ (सहयोग कर्नाटक पर्यटन)। प्रोफैसर शेट्टर कर्नाटक विश्वविद्यालय से ‘श्रेवणबेलगोल के स्मारक’ विषय पर पी. एच. डी. हैं। ये कर्नाटक विश्वविद्यालय धारवाड़ के इतिहास तथा पुरातत्त्व विभाग के अध्यक्ष तथा भारतीय कला इतिहास संस्थान के निर्देशक भी रह चुके हैं। चेहरे का बालसुलभ भोलापन, झुकी हुई आत्मीय पलके, मोहक मुस्कान और आसन की यौगिक प्रशान्तता किसी भी व्यक्ति को ध्यान की आध्यात्मिक ऊँचाईयों तक ले जाने के लिए प्रेरित करती है। 

सचित्त (जीवंत) मूर्ति—

पाषाण भी जीवंत हो सकता है यदि इसका प्रमाण चाहिए तो श्रवणबेलगोल चले जाइए। यह अतिशयोक्ति नहीं, यथार्थ है। भगवान् बाहुबली की यह मूर्ति जीवंत है। इसे दो बिन्दुओं से जाना जा सकता है। प्रथम तो यह है कि यहाँ पर्वत की चोटी पर स्थित विशाल कूट को, जो पर्वत शृंखला का एक हिस्सा है, विराटमूर्ति में परिर्वितत कर दिया गया है। पर्वत का अभिन्न अंग होने के कारण यह मूर्ति नि:सन्देह ही सचित्त और सजीव है। सर्वविदित है कि पहाड़ भी पेड़—पौधों की तरह ही बढ़ते हैं। प्रबल सम्भावना है कि हजारों वर्षों के अन्तराल में यह मूर्ति भी थोड़ी बहुत अवश्य ही बढ़ी होगी। जीवंतता का दूसरा प्रमाण है कि शिल्पकार ने मानों मूर्ति में प्राण संचारित कर दिए हैं। इससे विशाल प्रतिमाएँ तो संसार में और भी हैं किन्तु एक समूचे ग्रेनाइट के शिलाखण्ड से निर्मित निराधार खड़ी ऐसी दिव्य प्रतिमा विश्व में केवल गोम्मटेश बाहुबली की ही है। अफगानिस्तान में बमियान की बुद्ध मूर्तियाँ १२० और १७५ फीट ऊँची अवश्य हैं किन्तु वे एक शिलाखण्ड से निर्मित नहीं है। मिश्र की रयाम्सीज—२ व मेम्नान की मूर्तियाँ तथा चाप्रोन का स्पफंक्स या तो एक ही पाषाण खण्ड से नहीं बने हैं अथवा निराधार नहीं खड़े हैं। बाहुबली की मूर्ति इतनी समानुपातिक है कि देखने के बाद किसी को भी उसकी विशालता का बोध नहीं होता। श्रवण—बेलगोल की इस मूर्ति सदृश विराटता तथा बालसुलभ मोहकता का इतना सुन्दर सामंजस्य संसार में अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। बालक, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, कलाकार, विचारक, दार्शनिक तथा संन्यासी सभी अपनी—अपनी रुचि के अनुसार मूर्ति के चुम्बकीय आकर्षण से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। कुशल शिल्पी ने अपनी एकाग्रता, समर्पण, निष्ठा तथा योग्यता द्वारा मूर्ति को इतनी जीवंतता प्रदान की है कि अपलक निहारने से लगता है कि कहीं भगवान् डग भरने को तो नहीं हैं। 

अलंकरणों से रहित दिगम्बर बिम्ब :

गोम्मटेश बाहुबली की यह दिगम्बर प्रतिमा भारतीय श्रमण संस्कृति तथा दिगम्बर जैन परम्परा का दिग्दर्शन कराती है। दिशायें ही इसके वस्त्र हैं। ये सभी बाहरी अलंकरण एवं आयुधों (शस्त्र आदि) से रहित हैं। दिगम्बर जैन प्रतिमायें वीतराग ध्यानस्थ मुद्रा से ही स्थित होती हैं। कुछ व्यक्तियों के मस्तिष्क में वस्त्र रहित होना भद्देपन का सूचक हो सकता है, किन्तु नग्नता तो बालकों जैसी निश्छलता और पवित्रता का प्रतीक है। वस्त्र उतारने में वासना की बू आ सकती है किन्तु नग्न रहना पूर्ण त्याग और अपरिग्रह का द्योतक है। पूर्ण अपरिग्रह (अंतरंग और बहिरंग) दिगम्बर जैन दर्शन, संस्कृति तथा जीवन शैली का प्रतिबिम्ब है। कायोत्सर्ग में स्थित गोम्मटेश बाहुबली का वह बिम्ब ध्यानारूढ़ अवस्था में आत्मावलोकन की उस स्थिति में है जहाँ उन्हें अपने शरीर का भान ही समाप्त हो गया है। बेलें शरीर के ऊपर चढ़ गयी हैं। छोटे छोटे जीव—जन्तुओं ने अपने बिल बना लिए हैं। फिर भी भगवान् अडिग, निश्चल, शरीर से बाहर होने वाली गतिविधियों से अनभिज्ञ आत्मिंचतन में स्थित परम पुरूषार्थ की साधना में निमग्न हैं। हिन्दी के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार श्री आनन्द प्रकाश जैन ने तो अपने उपन्यास ‘‘तन से लिपटी बेल’’ में यहाँ तक कल्पना कर डाली कि—बाहुबली को अन्र्तमन से सर्मिपत वैजयन्ती नरेश की पुत्री राजनन्दिनी को जैसे ही यह पता लगा कि महाराज भरत को चक्रवर्ती पद देकर विजेता बाहुबली ने वैराग्य ले लिया है, वह बन्धु बान्धवों सभी को छोड़कर पागलों की तरह भटकती हुई बाहुबली तक जा पहुँची जहाँ वे एकाग्रमुद्रा में ध्यानावस्थित, सीधे खड़े, आँखें बंद किए मुनि साधना में लीन थे। वह उनकी आँखें खुलने की प्रतीक्षा में उनके चरणों में आसन लगा कर बैठ गई और समय के साथ—साथ वह भी अचल हो गई। उपन्यासकार लिखते हैं : ‘‘आँधियाँ आर्इं, बरसातें आर्इं, गरमी से आस—पास का घास—फूस तक झुलस गया, न ही बाहुबली का ध्यान टूटा और ना ही राजनंदिनी में कंपन हुआ। समय के प्रभाव ने उसके शरीर को परिर्वितत करके मिट्टी का ढेर बना दिया उस पर घास—फूस उग आए, लताओं का निर्माण हुआ और कोई चारा ना देखकर वे लताएँ बाहुबली के अचल शरीर पर लिपट गर्इं।’’ मैसूर के निकट श्रवणबेलगोला स्थान पर स्थित बाहुबली ‘गोम्मटेश्वर’ की ५७ फीट ऊँची, वैराग्य की वह साकार पाषाण प्रतिमा आज भी विद्यमान है, और उस पर लिपटी, अपने प्रीतम के रंग में रंग गई वे पाषाण लताएँ आज भी उस राग और वैराग्य के अपूर्व संघर्ष का इतिहास कह रही हैं।आनन्द प्रकाश जैन ‘‘तन से लिपटी बेल’’ (अहिंसा मन्दिर प्रकाशन) पृष्ठ १५२ कविवर मिश्रीलाल जी ने अपने खण्ड काव्य ‘गोम्मटेश्वर’ में बाहुबली की प्रतिमा के अप्रतिम सौन्दर्य पर मुग्ध होकर लिखा है :

‘‘प्रस्तर में इतना सौन्दर्य समा सकता है, प्राण प्राण पुलकित हों पत्थर भी ऐसा क्या गा सकता है ?

’’मिश्रीलाल जैन ‘‘गोम्मटेश्वर (राहुल प्रकाशन, गुना, म. प्र.) पृष्ठ।

बाहुबली के कामदेव जैसे सुन्दर रूप तथा सर्व—परिग्रह रहित कठोर तपस्या का बड़ा र्मािमक चित्रण कवि ने प्रस्तुत किया है।

‘‘कामदेव सा रूप साधना वीतराग की दो विरुद्ध आयाम एक तट पर ठहरे हैं।’’

मिश्रीलाल जैन ‘‘गोम्मटेश्वर (राहुल प्रकाशन, गुना, म. प्र.) पृष्ठ।

प्रतिमा उत्तरमुखी है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि बाहुबली की ये मूर्ति आंतरिक चक्षुओं से अपने पिता और तीर्थंकर, आदि ब्रह्मा, महादेव शिवशंकर भगवान् ऋषभदेव की निर्वाण स्थली कैलाश पर्वत की ओर निहार रही हो। संसार के प्रतिष्ठित इतिहासविदों पुरातत्त्ववेत्ताओं, विद्वानों, कलाकारों व कलामर्मज्ञों सभी ने, जिन्हें भी मूर्ति के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ, एक ही स्वर से मूर्ति के अद्वितीय होने की अनुशंसा की है। कुछ विद्वानों के विचार नीचे दिये जा रहे हैं। It is the biggest monolithic statue in the world-larger than any of the statues of Rameses in Egypt—–.”M. H. Krishna, “Jain Antiquary”, v, 4, pg. 103 अर्थात् एक ही पाषाण खंड से बना यह संसार का सबसे विशाल बिम्ब है जो मिश्र की रेमेसिज की मूर्तियों से भी बड़ा है। एच. जिमर का मत है : “It is human in shape and feature, yet as inhuman as an icicle, and thus expresses perfecrly the idea of successful withdrawal from the round of life and death, personal, cares, individual destiny, desires, sufferings and events…..like a pillar of some superterrstirial unearthly substance…..stands superbly motionless..”H. Zimmer, “Philosophies of India.” अर्थात् यह मूर्ति आकृति और नाक—नक्श में मानवीय है और अधर में लटकती हिमशिला की भाँति मानवेत्तर है। जन्म मरण के चक्र, जीवन की नियति, चिन्ताओं, कामनाओं, पीड़ाओं, घटनाओं से पूर्णतया मुक्त—भावों को संपूर्णता के साथ अभिव्यक्त करती है। अर्पािथव और अलौकिक स्तम्भ की तरह अचल और अडिग खड़ी है। 

विन्सेट स्मिथ के अनुसार :

Undoubtedly the most remarkable of Jaina statues and the largest free standing statue in Asia….set on the top of an eminence is visible for miles round.”Vineet Smith, “History of Fine Arts in India and Ceylon.” P. 268. “Jain Amtiquary VI. I. p. 34 अर्थात् नि:सन्देह ही यह अति विशिष्ट और असाधारण जैन मूर्ति एशिया की निराधार खड़ी विशालतम प्रतिमा है, जो पर्वत के उच्चतम शिखर पर स्थित चारों ओर मीलों दूर से देखी जा सकती है। 

वाल हाउस का मत है :

Truly Egyptian in size, and unrivalled throughtout India as detached work…… Nude, cut from a single mass of granite, darkened by the monsoons of centuries, the vast statue stands upright…. in a posture of somewhat stiff but simple dignity.” Valhouse—of Sturrock, “South Cancer, `. o. 86 अर्थात् वस्तुत: आकार में मिश्र की मूर्तियों जैसी, समस्त भारत में अद्वितीय एवं अनुपम, निर्लिप्त, नग्न ग्रेनाइट की एक ही चट्टान से तराशी गई, शताब्दियों से मानसून के थपेड़े सहन करती हुई बाहुबली की यह विशाल प्रतिमा अपनी सादगीपूर्ण भव्यता के साथ कायोत्सर्ग मुद्रा में अचल खड़ी है। महान् विद्वान फ्ग्र्यूसन ने मूर्ति के विषय में निम्न विचार व्यक्त किये हैं : Nothing more grander or more inposing exists anywhere out of egypt, and even there no known statue surpasses it in height.”Fergusson, “A History of Indian and Astern Architecture” II. pp. 72-73; Buchanon Travels, III, p. 83 अर्थात् मिश्र से बाहर संसार में कहीं भी इससे अधिक भव्य और अनुपम मूर्ति नहीं है और वहाँ भी कोई भी ज्ञात मूर्ति ऊँचाई में इसके समकक्ष नहीं है। कवि बोप्पण ने लगभग ११८० ई. में मूर्ति के कला सौन्दर्य पर मुग्ध होकर अपने काव्य में लिखा है : अतितंगाकृतिया दोडागदद रोल्सौन्द्यर्यमौन्नत्यमुं नुतसौन्दर्यमुभागे मत्ततिशंयतानाग दौन्नत्युमुं नुतसौन्दर्यमुर्मूिज्जतातिशयमुं तन्नल्लि निन्दिदर्दुवें क्षितिसम्पूज्यमो गोम्मटेश्वर जिनश्री रूपमात्मोपमं।।विंध्यगिरि पर सुत्तालय के प्रवेश द्वार के बांयी ओर का शिलालेख क्रम संख्या ३३६
अर्थात् ‘‘यदि कोई मूर्ति अति उन्नत (विशाल) हो, तो आवश्यक नहीं वह सुन्दर भी हो। यदि विशालता और सुन्दरता दोनों हों, तो आवश्यक नहीं उसमें अतिशय (दैविक प्रभाव) भी हो। लेकिन गोम्मटेश्वर की इस मूर्ति में तीनों का सम्मिश्रण होने से छटा अपूर्व हो गई है।’’ इसी अभिलेख में लिखा है पक्षी भूलकर भी इस मूर्ति के ऊपर नहीं उड़ते। यह भी इसकी दिव्यता का प्रमाण है। मैसूर के तत्कालीन नरेश कृष्णराज वोडेयर ने कहा था, ‘‘जिस प्रकार भरत के साम्राज्य के रूप में भारत विद्यमान है उसी प्रकार मैसूर की भूमि गोम्मटेश्वर बाहुबली के आध्यात्मिक साम्राज्य की प्रतीक रूप है।’’ भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, काका कालेलकर तथा डॉ. आनन्दकुमार स्वामी, शेषगिरिराव, श्री एल. के. श्रीनिवासन, प्रो. गोरावाला जैसे कला विशेषज्ञों ने भी मूर्ति के अपूर्व सौन्दर्य की प्रशंसा की है। मूर्ति का निर्माण किसने किया ? मूर्ति का निर्माण गंगवंशीय नरेश राचमल्ल चतुर्थ के सेनापति एवं प्रधानमंत्री वीर चामुण्डराय द्वारा सम्पन्न हुआ।। मूर्ति के पैरों के पास दाँई ओर के पाषाण सर्प विवर के १०वीं शताब्दी के लेख, क्रम संख्या २७२ कन्नड, अन्य लेख क्रम संख्या २७३ तमिल १०वीं शताब्दी, क्रम संख्या २७६ मराठी नागरी लिपि। कहा जाता है कि चामुण्डराय की माता कालिका देवी ने जैनाचार्य अजितसेन से आदिपुराण का यह वृतांत सुनकर कि पोदनपुर में सम्राट भरत द्वारा स्थापित भगवान् बाहुबली की पन्न की ५२५ धनुषप्रमाण ऊँची मूर्ति है, दर्शन करने की इच्छा व्यक्त की। चामुण्डराय अपने धर्म गुरु आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती, अपनी माता एवं पत्नी के साथ यात्रा पर निकल पड़े। जब वे मार्ग में श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरि पर्वत पर ठहरे तो रात्री में वहाँ क्षेत्र की शासन देवी कुष्मांडिनी देवी ने स्वप्न में आकर उन्हें पृथक्—पृथक् बताया कि कुक्कुट सर्पों द्वारा आच्छादित तथा समय के प्रभाव से विलुप्त होने के कारण उस मूर्ति के दर्शन संभव नहीं हो सकेगे। किन्तु यदि चामुण्डराय वहीं से सामने की पहाड़ी इन्द्रगिरि पर भक्तिभावना से तीर छोड़ें तो वैसी ही मूर्ति के दर्शन उस पहाड़ी पर होंगे। गुरु की आज्ञा से चामुण्डराय ने तीर छोड़ा। कहते हैं कि चमत्कार हुआ। पत्थर की परतें टूट कर गिरी और मूर्ति का मस्तक भाग स्पष्ट हो गया। जिस स्थान से चामुण्डराय ने यह तीर छोड़ा था उसे ‘चामुण्डराय चट्टान’ के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है।विंध्यागिरि पर सुत्तालय के प्रवेश द्वार के बार्इं ओर बोप्पन पंडित द्वारा अंकित १२वीं शताब्दी के विस्तृत शिलालेख, क्रम संख्या ३३६। इस मान्यता में कल्पना का कितना पुट है यह तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु यह तथ्य र्नििववाद है कि चामुण्डराय उच्च कोटि के जिनेन्द्र भक्त व मातृभक्त थे और उनके मन में भगवान् बाहुबली की एक अनुपम मूर्ति निर्मित कराने की तीव्र अभिलाषा थी। और उन्होंने गुरु के आदशे से राज्य शिल्पी अरिष्टनेमी द्वारा मूर्ति का निर्माण कराया। यही कारण है कि उनके द्वारा जिनधर्म की प्रभावना के कारण सर्वसंघ ने चामुण्डराय को ‘सम्यक्त्व—रत्नाकर’, ‘सत्य—युधिष्ठर’, ‘देवराज’ तथा ‘शौचाभरण’ जैसी उपाधियों से अलंकृत किया था। उस समय के सर्वोत्कृष्ट शासकों ने भी उन्हें उनकी विजयोपलब्धियों पर समय—समय पर ‘समर धुरंधर’, ‘वीर—मार्तण्ड’, ‘रण—रंग—िंसह’,‘बैरीकुल—कालदण्ड’, ‘भुजविक्रम’, ‘समर केशरी’, ‘प्रतिपक्षराक्षस’, ‘सुभट चूड़ामणि’ ‘समर—परसुराम’ तथा ‘राय’ इत्यादि उपाधियों से विभूषित किया था। 

मूर्ति प्रतिष्ठा :

चामुण्डराय ने मूर्ति का निर्माण और स्थापना कराई, इसमें तो कोई संदेह नहीं, किन्तु स्थापना कब किस तिथि को हुई इस बारे में विद्वानों में गंभीर मतभेद रहे हैं। यह विषय स्वतन्त्र विवेचन की अपेक्षा रखता है। यहाँ इतना ही जानना पर्याप्त है कि लगभग सभी विद्वानों ने काफी विचार विमर्श के बाद तथा ‘बाहुबली चरित’ में दिए हुए नक्षत्रीय संकेतों को भी ध्यान में रखते हुए श्रवणबेलगोल में मूर्ति की प्रतिष्ठा के लिए १३ मार्च, ९८१ A.D. को सर्वाधिक अनुकूल माना है। इसी के आधार पर सन् १९८१ में सहस्राब्दि महामस्तकाभिषेक सम्पन्न हुआ था। तब से यही समय प्रामाणिक माना जा रहा है। 

बेलगोल से श्रवणबेलगोल :

श्रवणबेलगोल का ‘श्रवण’ शब्द स्पष्ट रूप से ‘श्रमण’ भगवान् बाहुबली (जो स्वयं महाश्रमण थे) के साथ सम्बन्धित है। एक महत्त्वपूर्ण शिलालेख (नं. ३१) में यह उल्लेख है कि जैनधर्म की प्रभावना उस नगर में उसी समय से हो गई थी जब आचार्य भद्रबाहु अपने शिष्य सम्राट चन्द्रगुप्त के साथ वहाँ पहुँचे थे। जैनधर्म का प्रभाव कुछ समय के लिए अवश्य कम हुआ किन्तु उसे मुनि शान्तिसेन ने पुनर्जीवित किया। (६५० A.D.)। कन्नड़ में ‘बेल’ और ‘गोल’ शब्दों का अर्थ है ‘श्वेत सरोवर’ अथवा ‘धवल सरोवर।‘‘जैन शिलालेख संग्रह’’, १ Nदे. १७-१८ (३१) ज्ज्. ६-७ घ्हूr. ज्. २. नगर के मध्य का कल्याणी तालाब मूल ‘श्वेत सरोवर’ की जगह स्थित माना जाता है। इस शिलालेख में केवल ‘बेलगोल’ शब्द का उल्लेख है ‘श्रवणबेलगोल’ का नहीं अत: नगर का नाम ‘श्रवणबेलगोल’ अवश्य ही श्रमण भगवान् बाहुबली की प्रतिमा की स्थापना के बाद ही प्रसिद्ध हुआ है। 

मूर्ति का नाम गोमटेश्वर क्यों ?

कुछ विद्वानों का मत है कि ‘गोमट’ चामुण्डराय का प्यार का नाम था। यहाँ तक की आचार्य श्री नेमिचन्द्र चामुण्डराय की जिनेन्द्र भक्ति से इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने अपने द्वारा रचित पाँच सिद्धान्त ग्रंथ में से दो ‘कर्मकाण्ड’ और ‘जीवकाण्ड’ का नाम मिलाकर ‘गोमटसार’ रख दिया था। जब चामुण्डराय द्वारा बाहुबली की प्रतिमा का निर्माण कराया गया तो लोगों ने उन्हें गोमटेश्वर अर्थात् गोमट (चामुण्डराय) के ईश्वर, गोम्मट के भगवान् के नाम से पुकारना प्रारम्भ कर दिया। अत: इनका नाम गोमटनाथ, गोम्मट स्वामी, गोम्मट जिन व गोम्मटेश्वर प्रसिद्ध हो गया। डॉ. ए. उन उपाध्याय का मत है कि ‘गोम्मट’ शब्द का प्राकृत और संस्कृत से कुछ लेना देना नहीं है। यह स्थानीय भाषा का शब्द है जो कन्नड़, तेलगू, कोंकणी तथा मराठी भाषा में मिलता है जिसका अर्थ होता है ‘श्रेष्ठ’, ‘उत्कृष्ठ’ ‘अच्छा’, ‘सुन्दर’, ‘उपकारी’। उनके अनुसार यह चामुण्डराय के संदर्भ में ही प्रयोग हुआ लगता है। उपरोक्त मत निम्न कारणों से तर्क संगत प्रतीत नहीं होता। (१) इस मूर्ति की स्थापना के पूर्व और पश्चात् भी दक्षिण में गोम्मटेश्वर की विशालकाय मूर्तियाँ र्नििमत हुर्इं—ई. सन् ६५० में बीजापुर के बादामी में; मैसूर के समीप गोम्मट गिरी में १८ फीट ऊँची १४वीं सदी में; होसकोटे हलल्ली में १४ फीट ऊँची; कारकल में सन् १४३२ में ४१.५ फीट ऊँची; वेणूर में सन् १६०४ ई. में ३५ फीट ऊँची। ये मूर्तियाँ भी ‘गोम्मट’, ‘गुम्मट’, अथवा गोम्मटेश्वर’ कहलाती हैं जिनका निर्माण चामुण्डराय ने नहीं कराया। (२) चामुण्डराय के आश्रय में रहे कवि रन्न ने अपने ‘अजितपुराण’ (९९३ ई.) में गोम्मट नाम से कहीं भी उनका उल्लेख नहीं किया है। (३) कवि दोड्डय ने अपने संस्कृत ग्रंथ ‘भुजबलि शतक’ सन् (१५५०) में चामुण्डराय द्वारा मूर्ति का प्रकटीकरण करने का वर्णन करते हुए कहीं भी उनका नाम ‘गोम्मट’ उल्लेख नहीं किया है। (४) मूर्ति के निर्माण से १२ शताब्दी तक मूर्ति को ‘कुकुटेश्वर’ ‘कुकुट—जिन’ या ‘दक्षिण कुकुट जिन’ के नाम से जाना जाता था क्योंकि यह मान्यता थी कि उत्तर भारत की भरत द्वारा स्थापित मूर्ति कुक्कुट सर्पों द्वारा ढक दी गई है। नेमीचन्द्र आचार्य ने भी इन्हीं नामों से मूर्ति को संबोधित किया है। (५) स्वयं चामुण्डराय ने मूर्ति के पादमूल में अंकित उपरोक्त र्विणत तीनों अभिलेखों में कही भी अपने को ‘गोम्मट’ नहीं लिखा है। ‘श्री चामुण्डराय करवियले’ आदि लिखा गया है। (६) श्रवणबेलगोल के शिलालेखों में जहाँ गोम्मट नाम का उल्लेख है (Nद. ७३३ aह् Nद. १२५) उनमें मूर्ति को ‘गोम्मटदेव’ और चामुण्डराय को ‘राय’ कहा गया है।Epigraphia Karnatica’ Vol. 2 (Indore) p. 13 (७) श्री एम. गोविन्द पाई का भी यही अभिमत है<ref.“Indian Historical Quaterly” (IV, 2 pp. 270-286; JS. B, IV,2 pp. 102-109 कि बाहुबली का ही अपर नाम ‘गोम्मट’ ‘गुम्मट’ था। पं. के. बी. शास्त्री ने ‘गोम्मट’ शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए इसका अर्थ ‘मोहक’ प्रतिपादित किया है। कात्यायन की ‘प्राकृत मंजरी’ के अनुसार संस्कृत का ‘मन्मथ’, प्राकृत में ‘गृम्मह’ और कन्नड़ में ‘गम्मट’ हो जाता है। कोंकणी भाषा का ‘गोमेटो’ संस्कृत के ‘मन्मथ’ को ही रूपान्तर है। गोम्मट संस्कृत के ‘मन्मथ’ शब्द का ही तद्भव रूप है और यह कामदेव का द्योतक है। अब प्रश्न उठता है कि बाहुबली क्या कामदेव कहलाते थे ? यह सत्य है। जैन धर्मानुसार बाहुबली इस युग के प्रथम कामदेव थे। ‘तिलोयपण्णत्ती’’ अधिकार—४ में लिखा है कि चौबीस तीर्थंकरों के समय में महान् , सुन्दर प्रमुख चौबीस कामदेव होते हैं। इन कामदेवों में बाहुबली प्रथम कामदेव थे। अत: इन्हें गोम्मटेश्वर में (कामदेवों में प्रमुख) कहते हैं। वे सर्वार्थ सिद्धि की अहमिन्द्र पर्याय से चलकर आए थे। चरम शरीरी और ५२५ धनुष की उन्नत काय के धारी थे।श्री मदभागवत्, पञ्चम स्कन्ध, तृतीय अध्याय, २०वाँ श्लोक। (८) भगवान् बाहुबली ने सिद्धत्व प्राप्त किया था। लौकिक व्यवहार में ही अरिहंतों , सिद्धों, तीर्थंकरों के नाम पर व्यक्तियों के नाम रखे जाते हैं, ना कि देहधारी संसारियों के नाम पर सिद्धों या अरिहंतों के। अत: ये समझना तर्क संगत नहीं कि बाहुबली की दिव्य प्रतिमा का नाम चामुण्डराय के अपर—नाम ‘गोमट’ के कारण ‘गोम्मटेश्वर’ पड़ा। परन्तु ये अधिक तर्क संगत है कि ‘गोम्मटेश्वर बाहुबली’ की स्थापना के कारण लोगों ने चामुण्डराय को प्रेम से ‘गोमट’ अथवा ‘गोम्मट’ पुकारना प्रारम्भ किया है। बाहुबली का स्वयं का नाम ही गोम्मटेश्वर था इनमें कोई संदेह प्रतीत नहीं होता। 

बाहुबली कौन थे :

बाहुबली प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ (ऋषभदेव जिन) के पुत्र भरत जिनके नाम पर इस देश का नाम ‘भारतवर्ष’ पड़ाश्री मदभागवत् पञ्चम स्कन्ध, चतुर्थ अध्याय, ८, ९ श्लोक। के लघु भ्राता थे। ऋषभ देव का विवाह कच्छ और महाकच्छ राजा की राजकुमारियों यशस्वती और सुनंदा ये दो रानियाँ बताई हैं। ‘पउमचरिउ’ और श्वे. ग्रंथों में सुमंगल और नन्दा नाम दिए हैं। ‘पद्म पुराण’ पर्व २० श्लोक १२४ में भरत की माता का नाम यशोवती भी लिखा है। यशस्वती से भरतादि एक सौ पुत्र और पुत्री ब्राह्मी एवं सुनंदा के साथ हुआ था ‘‘महापुराण में यशस्वती और सुनंदा से एक पुत्र बाहुबली और सुन्दरी नाम की कन्या ने जन्म लिया था।‘पद्म पुराण’, हरिवंशपुराण, पउमचरिय’ और श्वे. ग्रंथों में ऋषभदेव के पुत्रों की संख्या १०० संख्या लिखी है, किन्तु ‘महापुराण’ में १०१ पुत्र बताये गए हैं। एक दिन नृत्यागंना नीलाजंना की नृत्य करते हुए आकस्मिक मृत्यु हो जाने पर जीवन की क्षणभंगुरता देख महाराज ऋषभदेव को वैराग्य हो गया। उन्होंने युवराज भरत को उत्तराखण्ड (अयोध्या उत्तर भारत) को और राजकुमार बाहुबली को (पोदनपुर—दक्षिण पथ) का शासन सौंप मुनि दीक्षा धारण कर ली। इस बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वानों के अनुसार पोदनपुर तक्षशिला (उत्तर भारत) के पास ही स्थित था, या तक्षशिला का ही दूसरा नाम था, जो वर्तमान में पाकिस्तान में है। ‘महापुराण’, ‘पद्मपुराण’, ‘हरिवंशपुराण’ में ‘पोदनपुर’ लिखा है किन्तु ‘पउमचरिय’ में ‘तक्षशिला’ लिखा है। आचार्य हेमचन्द्र का भी यही मत है। किन्तु आचार्य गुणभद्र के अनुसार पोदनपुर दक्षिण भारत का हिस्सा था।गुणभद्र ‘‘उत्तर पुराण’’ ३५ ए २८-३६। देखें वादिराज ‘‘पाश्र्वनाथ चरित्र’’। ९. ३७-२८, २-६५। बौद्ध साहित्य से भी इसी विचार की पुष्टि होती है कि पोदनपुर (पोदन, पोसन, पोतली) गोदावरी के किनारे स्थित था।सुत्तनिपात, ९७७ पाणिनी का भी यही मत प्रतीत होता है।पाणिनी, ‘‘अष्टाध्यायी’’, १-३७३ डॉ. हेमचन्द्रराय चौधरी बोधना को महाभारत के पोदना और बौद्ध साहित्य के पोत्तना से सम्बन्धित समझते हैं। यदि हम ये मान लें कि पोदनपुर दक्षिण भारत में स्थित था तो आन्ध्र प्रदेश के निजामाबाद जिले में स्थित ‘बोधना’ नगर को पोदनपुर स्वीकार करना अधिक तर्क संगत होगा। कवि पम्पा के ‘भरतकाव्य’, वैमलवाद स्तम्भ पर खुदा लेख तथा परवनी ताम्र लेख भी इसी विचार की पुष्टि करते हैं। यह नगर राष्ट्रकूट राजा इन्द्रवल्लभ की राजधानी भी था। यह विचार भी अधिक तर्क संगत प्रतीत होता है कि एक भाई को उत्तर भारत का तथा दूसरे भाई को दक्षिण भारत का राज्य दिया गया। बाहुबली अत्यन्त पराक्रमी और बाहुबल से युक्त थे। जिनसेनाचार्य ‘महापुराण’ के पर्व १६ में बाहुबली के नाम की सार्थकता सिद्ध करते हुए कहते हैं :

बाहु तस्य महाबाहोरधातां बलर्मिजतम्।

यतो बाहुबलीत्यासीत् नामास्य महसां निधे:।।

लम्बी भुजा वाले तेजस्वी उन बाहुबली की दोनों भुजाएँ उत्कृष्ट बल को धारण करती थीं। इसीलिए उनका ‘बाहुबली’ नाम सार्थक था। अत्यन्त पराक्रमी होने के कारण ‘भुजबली’, ‘दोरबली’, एवं सुनन्दा से उत्पन्न होने के कारण वे ‘सौनन्दी’, नाम से भी जाने जाते थे। वे वीर और उदार हृदय थे। अधिक की उन्हें लालसा नहीं थी। राज्यों पर विजय प्राप्त करने की उनकी महत्त्वाकांक्षा नहीं थी। वे विशिष्ट संयमी थे। शरणागत की रक्षा के लिए, अन्याय के प्रतिकार के लिए ही अग्रज भरत के प्रति असीम आदर रखते हुए भी उन्होंने उनके शत्रु बङ्काबाहू को अपने यहाँ शरण दी थी। अपने पिता द्वारा दिए राज्य से वे संतुष्ट थे। भरत ने िंसहासनरूढ़ होकर दिग्विजय की दुन्दुभि बजा दी और चक्रवर्ती सम्राट का विरद प्राप्त किया। सभी राजाओं ने उनकी आधीनता स्वीकार कर ली। उनके स्वतन्त्रता प्रेमी भाईयों ने संन्यास धारण कर लिया। किन्तु जब वे दिग्विजय से लौटे तो उनके चक्ररत्न ने आयुधशाला में प्रवेश नहीं किया। कारण खोजने पर पता लगा कि उनके अनुज बाहुबली ने उनका स्वामित्व स्वीकार नहीं किया था। दूत भेजा गया। बाहुबली ने स्पष्ट किया कि भाई के रूप में वे बड़े भाई भरत के समक्ष शीश झुकाने को सदैव तत्पर हैं किन्तु राजा के रूप में वे स्वतंत्र शासक हैं, उनका शीष किसी राजा के समक्ष नहीं झुक सकता। यह एक राजा को अपने सम्मान, अपनी स्वतन्त्रता, न्याय के पक्ष तथा विस्तारवादी नीति के विरुद्ध चुनौती थी। परिणाम स्वरूप युद्ध की घोषणा हुई। सेनायें आमने—सामने आ डटीं। ‘पउमचरिउ’‘पउमचरिय’’, ४. ४३ तथा ‘आवश्यक चूर्णी के अनुसार बाहुबली ने स्वयं ये प्रस्ताव रखा कि युद्ध में सेनाओं की व्यर्थ की बर्बादी को रोका जाए और दोनों भाई द्वन्द के द्वारा जय पराजय का निर्णय करें। यह एक अहिंसक निर्णय था। बाहुबली युद्ध की विभीषिका से परिचित थे। सेनाओं की उनके कारण व्यर्थ क्षति हो, ऐसा वे नहीं चाहते थे। ऋषभ की संतानों की परम्परा हिंसा की नहीं थी। भरत ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। तीन प्रकार की प्रतियोगिताएँ निश्चित की गर्इं—दृष्टि युद्ध, मल्ल युद्ध और जल युद्ध।‘आवश्यक चूर्णी, पृ. २१० ‘पउमचरिउ’ में केवल दो—दृष्टि युद्ध और मुष्टि युद्ध (मल्ल युद्ध) का ही उल्लेख है। अन्य एक ग्रंथ में ‘वाक—युद्ध’ और दन्ड युद्ध’ को मिलाकर पाँच प्रकार के युद्धों का समावेश वर्णन किया।‘महापुराण’, ३-३४, २०४ निष्कर्ष है कि जय पराजय का निर्णय दोनों भाईयों के बीच हुआ जिसमें सेनाओं ने भाग नहीं लिया। इन सभी युद्धों में बाहुबली विजयी रहे। अपमानित होकर क्रोध के वशीभूत भरत ने बाहुबली पर अमोध चक्र से प्रहार किया।‘आवश्यक भाष्य’, गाथा ३२ किवंदती है कि चक्र ने भाई को क्षति नहीं पहुँचाई। वह बाहुबली की तीन प्रदक्षिणा कर वापस लौट आया। घटना किसी भी प्रकार घटी हो, निष्कर्ष यही निकलता है कि बाहुबली चक्र के प्रहार से बच गए जिससे भरत को और भी अधिक अपमान महसूस हुआ। 

दीक्षा :

भरत के इस व्रूर, अनीतिपूर्ण कृत्य से बाहुबली का हृदय ग्वानि से भर उठा। व्यक्ति की महत्त्वाकांक्षायें उससे या नहीं करा सकती इस विचार से वे सहम गए। संसार की क्षणभंगुरता का दृश्य उनकी आँखों के सामने नाचने लगा। उन्होंने तत्काल सब कुछ भाई भरत को सौंप वैराग्य धारण कर लिया।‘पउमचरिय ४-४७। उपरोक्त कथानक में घटनाओं का अत्यन्त मनोवैज्ञानिक चित्रण है। कौन व्यक्ति किस स्थिति में किस तरह का निर्णय लेगा इसका अनुमान लगाना कितना कठिन है। इस मन:स्थिति का चित्रण इस कथानक से स्पष्ट होता है। बाहुबली ने विजय प्राप्त करने के बाद भी अपनी भावना के रथ को उसी दिशा में मोड़ दिया जिस दिशा में उनके पिता आदि तीर्थंकर ऋषभदेव गए थे। जिनसेन आचार्य के अनुसार भगवान् ऋषभदेव के चरणों में ही उन्होंने दीक्षा ग्रहण की।पउमचरिय व पद्मपुराण फिर दीक्षा ग्रहण कर १ वर्ष का प्रतिमायोग धारण किया।जिनसेनाचार्य, ‘‘महापुराण’’, पर्व ३६ श्लोक १०४ ‘‘भरतेश मुझसे संक्लेश को प्राप्त हुए हैं’’, ये विचार बाहुबली के केवलज्ञान में बाधक हो रहे थे। भरत के द्वारा बाहुबली की पूजा करते ही ये बाधा दूर हो गई, हृदय पवित्र हुआ और केवलज्ञान प्राप्त हो गया। भरत ने दो बार पूजा की। केवलज्ञान से पहले की पूजा अपना अपराध नष्ट करने के लिए तथा बाद की पूजा केवलज्ञान की उत्पत्ति का अनुभव करने के लिए की थी।जिनसेनाचार्य ‘महापुराण’’, पर्व ३६ श्लोक १०६ प्राकृत के कुछ ग्रंथों में उल्लेख है कि बाहुबली ऋषभदेव के पास दीक्षा लेने नहीं गये। उसका कारण यह बताया जाता है कि उन्हें अपने अनुजों को भी विनय करना पड़ता, जो पहले ही दीक्षित हो चुके थे।जिनसेनाचार्य, ‘महापुराण’, पर्व ३६ श्लोक १८४-१८८ ‘पउमचरिय’ व ‘पद्मपुराण’ में भी बाहुबली का भगवान् से दीक्षा लेने का कथन नहीं है। उन्होंने संकल्प किया था कि वे ऋषभदेव की सभा में केवलज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त ही जाएँगे। उन्होंने स्वयं ही दीक्षा ली ओर १ वर्ष का कायोत्सर्ग धारण किया।‘आवश्यक चूर्णी’ पुष्ठ २१०, (स) वासुदेवा हिन्दी पृष्ठ १८६ यह मान कषाय उनके केवलज्ञान की उपलब्धि में बाधक बना हुआ था। जब ब्राह्मी ने आकर बाहुबली से कहा कि ‘‘तुम कब तक मान के हाथी पर चढ़े रहोगे। तुम अपने अनुजों की नहीं, उनके गुणों की विनय कर रहे हो।।’’हेमचन्द्राचार्य, ‘‘त्रिषष्टिशलाका पुरुष’’ अपनी गलती को मान जैसे ही बाहुबली जाने को उद्यत हुए उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। ‘हरिवंशपुराण’ के अनुसार तो बाहुबली केवलज्ञान के बाद ही भगवान् की सभा में गए। जैन पुराणों में एक और कथा आती है कि बाहुबली के मन में शल्य था कि वे भरत की भूमि पर खड़े हैं। जैसे ही भरत ने उनसे इस शल्य को यह कह कर त्यागने की प्रार्थना की कि अनेकों चक्रवर्ती आये और गए, यह पृथ्वी किसकी हुई है, उनका शल्य दूर हो गया और उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। बाहुबली को शल्य था, ये विचार तर्क संगत प्रतीत नहीं होता। आचार्य जिनसेन के अनुसार बाहुबली को सभी प्रकार की ऋद्धियाँ प्राप्त हो गई थी और वे अत्यन्त निशल्य थे। ‘‘गौरवैस्त्रिभिरुन्मुक्त: परां नि:शाल्यतांगत:’’।संघदास गणी वसुदेव हिन्डी, पृष्ठ १८७-८८ (प्राकृत) आचार्य उमास्वामी ने भी ‘तत्वार्थ सूत्र’ में कहा है कि ‘‘नि:शल्योव्रती’’ अर्थात् जो माया, मिथ्यात्व व निदान तीनों शल्यों से रहित है वही व्रती होता है। और यदि बाहुबली जैसे परम तपस्वी, प्रतिमा योग के धारक, सकल भोगों का त्याग करने वाले दिगम्बर महामुनि को भी शल्य मान लिया जाए तो वे महाव्रती कैसे हो सकते हैं। ‘पद्मपुराण’ में भी आचार्य रविषेण ने बाहुबली के शल्य का वर्णन नहीं किया है।जिनसेनाचार्य, ‘‘महापुराण’’१५२-१५४ शल्य की कथा पुराणों में संभवत: इस विचार को प्रमुखता देने के लिए जोड़ दी गई कि किसी भी प्रकार का ‘मान कषाय’ व्यक्ति की आत्मोपलब्धि में बाधक होता है चाहे वह तप के कितने ही ऊँचे शिखर पर क्यों न बैठा हो। 

बाहुबली की मूर्तियाँ क्यों ?

जैन परम्परा में केवल तीर्थंकरों की मूर्तियाँ ही प्रतिष्ठापित की जाती हैं। बाहुबली स्वयं तीर्थंकर नहीं थे फिर भी समस्त भारत में उनकी मूर्तियाँ स्थापित की गर्इं। इसका मुख्य कारण यह है कि वे इस अवर्सिपणी काल के प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव से भी पूर्व मोक्ष जाने वाले जीव थे। उन्होंने एक वर्ष की घोर तपस्या कर प्राप्त किया था। उन्होंने लौकिक और पारलौकिक जीवन के लिए उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किये थे। लौकिक स्तर पर उन्होंने सत्य, न्याय, स्वाधीनता, अिंहसा और आत्मसम्मान के लिए संघर्ष किया। युद्ध की विभिषिका को जानते हुए, नर संहार को रोकने का प्रयत्न किया। अहिंसा और प्रेम का पाठ पढ़ाया। त्याग का अनूठा आदर्श प्रस्तुत किया। विजेता होकर भी सांसारिक सुखों को तिलाजंली दे दी और संसार की स्वार्थपरायणता, क्षणभंगुरता और निस्सारता को जानकर दुर्धर तप के रास्ते को अपनाया। कठिन तपश्चर्या में भी उन्होंने असाधारण एवं सर्वश्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत किया। एक वर्ष के प्रतिमा योग में शरीर रहते हुए भी उनका शरीर के दु:ख—सुख से सम्बन्ध टूट गया। वे स्वतंत्रता और स्वाधीनता का पर्याय बन गये। संसार में रहते हुए स्वाधीन रहना और संसार को त्यागकर अपने पुरुषार्थ से परम स्वाधीनता (मुक्ति) प्राप्त करना ही उनका चरित्र है। इतिहास साक्षी है संसार उन्हीं की पूजता है जो त्याग करते हैं। रामचन्द्र अपने त्याग और मर्यादाओं के कारण ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहलाये। रावण भी वीर, बली और विद्वान था, किन्तु अपनी अनीति के कारण खलनायक कहलाया। कृष्ण ने कंस जैसी आसुरी शक्तियों को नष्ट किया इसलिए प्रतिष्ठा प्राप्त की। बाहुबली अपने उत्कृष्ट आदर्शों के कारण मानव से महामानव तथा अपनी दुर्धर तपश्चर्या के कारण महामानव से भगवान् के पद पर प्रतिष्ठित हो गए। उस समय के चक्रवर्ती सम्राट भरत ने भी उनका पूजन किया। स्वाभाविक है कि जैनों ने पूजनार्थ उनकी मूर्तियाँ स्थापित कीं।रविषेणाचार्य, ‘‘पद्मपुराण’’, ४. ७५-७६ भगवान् बाहुबली की यह अत्यन्त मोहक विशाल, निश्चल, ध्यानस्थ, परम दिगम्बर प्रतिमा अहिंसा, सत्य, तप, वीतरागता का प्रतीक है। यह राग से विराग की यात्रा का दर्पण है। निर्वित मूलक जैन परम्परा का स्तम्भ है। पूर्ण आत्म—नियन्त्रण की द्योतक है। श्रद्धापूर्वक एकाग्रता से मूर्ति का अवलोकन चेतना का ऊध्र्वारोहण करने में समर्थ है। ६ फरवरी २००६ को भगवान् बाहुबली का २१वीं शताब्दी का प्रथम महामस्तकाभिषेक हो रहा है। भारत सरकार ने श्रवणबेलगोल को रेल यातायात से जोड़ने की घोषणा की है। इस घोषणा की उपयोगिता तभी सार्थक हो सकती है जबकि श्रवणबेलगोल देश के प्रमुख महानगरों से आने जाने वाली मुख्य रेलगाड़ियों से आरक्षण सुविधा सहित जोड़ा जा सके। आज पूरा विश्व एक वैश्विक ग्राम के रूप में परिर्वितत हो रहा है। इस मूर्ति में ऐसा करिश्मा है कि यदि इस नगर को राष्ट्रीय पर्यटक केन्द्र के रूप में विकसित किया जाए और यहाँ सीधी हवाई सेवायें अथवा बैंगलूर से हेलिकॉप्टर सेवायें प्रदान की जाएँ तो भारत अकल्पनीय विदेशी मुद्रा अर्जित कर सकता है। यदि उचित प्रक्रिया अपनाते हुए जैन समाज अथवा भारत सरकार , मूर्ति को विश्व के अद्भुत आश्चर्यों में सम्मलित कराने का प्रयास करे तो इसमें अवश्य सफलता प्राप्त होगी जो देश के लिए एक महान् उपलब्धि होगी। यह मूर्ति देश की अमूल्य सांस्कृति धरोहर है। जैसे पहले भी कहा जा चुका है, यह खुले आकाश में १ हजार वर्षों से भी अधिक समय से प्रकृति के थपेड़े सहन कर अडिग खड़ी है, यह हमारा परम कत्र्तव्य और धर्म बनता है कि हम मूर्ति की पूर्ण सुरक्षा और संरक्षण का युद्ध स्तर पर प्रबंध करें। विशेषज्ञों से परामर्श कर मूर्ति के चारों ओर यदि सम्भव हो तो अभेदी शीशे का या किसी अन्य पारदर्शी वस्तु का परकोटा बनाया जाए जिससे कि वर्षा, धूप, तूफान इत्यादि से इसकी सुरक्षा हो सके। 
डॉ. बी. डी. जैन
पूर्व प्राचार्य एफ—१३१, पाण्डव नगर दिल्लीत्र११००९१
अनेकान्त बाहुबली महामस्तकाभिषेक २००६ पृ. १४ से ३२ तक
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