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शब्दों के माध्यम से इतिहास में प्रवेश करने का महत्त्व!

September 22, 2017शोध आलेखHarsh Jain

शब्दों के माध्यम से इतिहास में प्रवेश करने का महत्त्व


सारांश

शब्द अभिव्यक्ति की प्रमुख नौका है। सभ्यता व इतिहास की युगों—युगों से बहती चली आ रही नदी में भ्रमण करने के लिए शब्दरूपी नौका हमें कुछ—कुछ न कुछ उन घाटों का पता बता सकता है, जहाँ से सभ्यता का कारवाँ गुजरा है।

‘शब्दों’ का अस्तित्व निश्चयपूर्वक ‘लेखन’ से पूर्व का होना चाहिए। शब्द ध्वनि के माध्यम से विचरण करते हैं और सूचना प्रेषित करते हैं। आकाश में उड़ने वाले परिंदे, वनों में विचरण करने वाले पशु, जल में जीवन गुजारने वाले प्राणी, थल (जमीन) चर जीव जिसमें मनुष्य भी शामिल है.. सभी ध्वनि के माध्यम से सूचना प्रेषित करते रहते हैं। यह एक अलग बात है कि हम उनको कितना समझ पाते हैं। ध्वनियाँ जो वायुमंडल को लांघकर हमारे कानों तक पहुँचती हैं, क्या सूचना प्रेषित नहीं कर रही हैं। मेघों का गर्जन, बिजली का कड़कना, हवा की सांय—सांय सभी सूचना प्रेषित करती हैं। यह सब ध्वनियाँ आज की देन नहीं हैं—युगों—युगों से चली आ रही हैं—उनकी सूचनाओंं को समझ का रेडार पकड़कर, संदेश को ग्रहण कर लेता है। संगीत की लय, नृत्य की थाप, गीत का उतार—चढ़ाव, शब्द के पूर्व अस्तित्व में थे और प्राणी जगत को जोड़े हुए थे। विकसित समझ कर मनुष्य बड़े पैमाने पर उसे समझ लेते थे/हैं और अविकसित समझ कर अन्य जीव उसे अपनी समझ के अनुकूल समझ लेते थे/हैं। जैसे कौआ, चिड़िया, मोर, हाथी, शेर, बगुला, चींटी, मछली, वृक्ष, अग्नि, जल, वायु आदि अर्थात् सारा जीव जगत अपनी—अपनी ध्वनियों से गढ़ी भाषा में संदेश प्रसारित करते हैं और उसे वे समझ लेते हैं। सब जीव पैदा हो रहे हैं, चल रहे हैं, बढ़ रहे हैं और विखंडित व विर्सिजत हो रहे हैं। हो सकता है इसमें दार्शनिकता—इतिहासज्ञता का अभाव हो किन्तु संदेश व सूचना देने की क्षमता का अस्तित्व अवश्य है। मनुष्य को प्राप्त ज्ञान का स्रोत भी जैन चिंतन के अनुसार दिव्यध्वनि को माना गया है। दिव्यध्वनि को जैन चिंतन में केवलज्ञान के साथ जोड़ा गया है। केवलज्ञान होने के पश्चात् अर्हंत भगवान के सर्वांग से एक विचित्र गर्जना रूप ऊँकार ध्वनि खिरती है, जिसे दिव्यध्वनि कहते हैं। भगवान की इच्छा न होते हुए भी भव्य जीवों के पुण्य से सहज खिरती है पर गणधर देव की अनुपस्थिति में नहीं खिरती ।

इसके संबंध में कई मतभेद है, जैसे कि कुछ आचार्य कहते हैं यह मुख से होती हैं, कुछ कहते हैं यह मुख से नहीं होती। कुछ कहते हैं यह इच्छापूर्वक नहीं होती इस पर धवला ग्रंथकार ने कई प्रश्न पैदा किये हैं, जिनके उत्तर भी संकलित हैंं। तिलोयपण्णत्ती, धवला, महापुराण, प्रवचनसार आदि कई ग्रंथों में इस पर विचार हुआ है। इनसे एक तथ्य स्पष्ट है कि ध्वनि—सूचनात्मक रूप में शब्दों के माध्यम से बदली हैं और यह शब्द लेखन में बदले। यह लेखन प्रारम्भ में प्रतीकात्मक, बाद में चित्रात्मक और फिर ध्वन्यात्मक तंत्र (मुख) से निकले स्वरों व व्यंजनों के रूपाकारों में बदला। कभी—कभी ‘पंचास्तिकाय’ का कथन कि ‘भाषात्मक शब्द दो प्रकार के होते हैं….। अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक। अक्षरात्मक शब्द संस्कृतादि भाषा के हेतु हैं। अक्षरात्मक शब्द द्वीन्द्रियादि के शब्द रूप और दिव्यध्वनिरूप होते हैं, से दुविधा पैदा होती है। जब धवला का यह कथन कि केवली के वचन में ‘स्यात्’ इत्यादि रूप में अनुभव रूप वचन का सद्भाव पाया जाता है इसलिए केवली की ध्वनि अनक्षरात्मक है यह बात असिद्ध है व महापुराण का कथन कि दिव्यध्वनि अक्षररूप ही है, क्योंकि अक्षरों के समूह के बिना लोक में अर्थ का परिज्ञान नहीं हो सकता, सामने आता है। यह दोनों ही कथन संकेत कर रहे हैं कि आदिनाथ से प्रारम्भ सभी सूचनाएँ अक्षर रूप रही होंगी। फिर वे अक्षर कहां गए ? ऐसा क्यों है कि हमें संस्कृत से पूर्व का लिखा कुछ नहीं मिलता इसीलिए तो यह भ्रम फैला कि समस्त भाषाओं की जननी संस्कृत है।

अथर्ववेद व ऋग्वेद में संस्कृत का प्राचीनतम रूप देखने को मिलता है। पर इसके पहले क्या था ? सिंधु सभ्यता क्षेत्र में प्रचलित भाषा थी, जिसे आज भी नहीं पढ़ा जा सका है। यह सर्वज्ञात है कि सिंधु सभ्यता के पूर्व लिपि थी, अक्षर थे अर्थात् भाषा थी” मोहनजोदड़ों के अक्षर व लिपि, सर्वज्ञात है कि हम ठीक से नहीं पढ़ पा रहे हैं। विश्वभर में लिपि की भिन्नता, भाषा की भिन्नता यह सिद्ध करते हैं कि उसी मुख से जिसके क्षेत्र, कंठ, तालु, जिह्वा और ओंठ शब्द बनते हैं, कई बाह्य प्रभावों से भिन्न—भिन्न रूप में प्रकट होते हैं किन्तु सभी शब्द या ध्वनियां एक ही द्वार से निकलती हैं। शरीर के अन्य द्वारों से निकलने वाली ध्वनियाँ शब्द रूप में बदलने की क्षमता नहीं रखती। ध्वनियाँ जो शब्द में बदलकर भाषा का गठन करती हैं एक अलग ही संसार बनाती हैं। कवि, गायक, वादक, नर्तक, चित्रकार, शिल्पी यही सब मिलकर ध्वनियों से आंदोलित होकर, शब्द जगत का निर्माण करते हैं और यह शब्द जगत जब दिखने के लिए व्याकुल हो जाता है, तो अंकन व लेखन में दौड़ने लगता है। प्रकृति यह कार्य करती रहती है और करती होगी। मानव मस्तिष्क की यह सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है कि उसने गुफावासियों के पत्थर पर अंकन व चित्रण (संकेतों का चित्रण जो कि मिस्रवासियों के ‘पिक्टोग्राफ्स’ व चीनियों के ‘आइडियो ग्राफ्स’ में कहे गए और जिसने शब्द को जन्म दिया) को पहचाना। विश्व के विद्वान विभिन्न विचार देते रहे, किन्त यह सत्य है कि मानव की सारी अभिव्यक्तियाँ ध्वनि के बाद मिस्रवादियों के पिक्टोग्राफ और चीनवासियों के आईडियोग्राफ्स से जुड़ी होना चाहिए। ‘गणेशविद्या’ के विद्वान इससे सहमत नहीं हैं, उनका मत है कि भारतीय शब्द, वैदिक अक्षरों के उचित ढंग से ध्वनि विभाजन पर आधारित हैं। सभी मत एक समय सीमा के बाद उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर हैं। पर इसके पहले क्या? मनुष्य का अस्तित्व तो बहुत पहले से है। केवल वेदों मात्र से नहीं। इतिहास व भूगोल के इस प्रारूप पर ध्यान दें। करीब २०—२२ लाख वर्ष पूर्व भारतीय उपमहाद्वीप, जिसे जम्बूद्वीप कहा गया है (?), में मानव सभ्यता के प्रारम्भ होने के प्रमाण मिलते हैं। ध्यान रखना होगा कि हम मानव सभ्यता के वर्तमान रूप के प्रारम्भ की बात कर रहे हैं—मानव के प्रारम्भ की नहीं। पौराणिक संदर्भों की सूचनाएँ (जब तक वे गलत सिद्ध न हो जाएं उन्हें छोड़ा न जाए। कहती हैं कि भारत में हिममानव की कल्पना प्रत्यारोपित नहीं करना चाहिए। भारत का उत्तरी हिमालय क्षेत्र भी २०—२२ लाख वर्ष से अधिक पुराना नहीं माना जा सकता है। भूगोल व प्रकृति परिवर्तन के समीक्षक यह बात मानते हैं कि २०—२२ लाख वर्ष पूर्व तक के प्राणी यूरेशिया के हिमक्षेत्र से चलकर जम्बूद्वीप के अधिक गर्म प्रदेश में आते थे और यहाँ के प्राणी जगत को बहुआयामी बनाते थे। हिमक्षेत्रों के इन प्राणियों के इस क्षेत्र में प्राप्त जीवाश्म इस विचार को समर्थन देते हैं। मानव समूह इस काल में इस क्षेत्र में कैसा था ? कैसा जीवनयापन करता था यह कहना कठिन है, किन्तु कुछ मुद्दे हमारे पास हैं।

जैसे—

(१) २०—२२ लाख वर्ष पूर्व तक भारत का वर्तमान सिंधु—गंगा का मैदान तथा हिमालयीन क्षेत्र और इसके ऊपर का बहुत बड़ा भाग समुद्र था, जिसमें कई जगह उथलापन था, जिस पर होकर कठिनाई से जूझते हुए आना—जाना संभव था। ऋषभ का अस्तित्व संभवत: ऐसे ही युग में था, जो हिम से ग्रस्त नहीं था वरन् बड़े—बड़े घने वनों और फलों से लदे वृक्षों का था। दक्षिण—पश्चिम व मध्य भारत में बहने वाली नदियाँ थी। इसी क्षेत्र में पहाड़ थे। वर्षा थी। सूरज, चाँद और तारे थे। स्त्री और पुरुष थे। पशु—पक्षी थे। प्रकृति अधिक उग्र थी। ब्रह्माण्ड में उथल—पुथल इसका मुख्य कारण था। यही कल्पवृक्ष की संस्कृति का काल था।

(२) जनसंख्या बहुत अधिक नहीं थी। युगलिया समाज का अर्थ केवल एक लड़का और एक लड़की को जन्म देने वाला समाज या एक भावी पति—पत्नी को जन्म देने वाला समाज है। इसका आशय सीमित परिवार के गठन से भी हो सकता है।

(३) जनसंख्या की अपेक्षा जीवन चलाने के लिए आवश्यक साधन अधिक थे। पूर्वकालिक सूचनाओं के समाप्त हो जाने के बाद जब धवला व तिलोयपण्णत्ती के माध्यम से विज्ञ समाज ने सूचनाएं (जिसका आधार—महावीर वाणी और गौतम गणधर का आकलन था) संकलित करना प्रारम्भ किया जो तिलोयपण्णत्ती के रचनाकार ने बताया— तृतीय काल के कुछ कम एक पल्योपम के आठवां भाग प्रमाण (काल) रहने का सुवर्ण सदृश्य प्रभाव से युक्त प्रतिश्रुति नामक प्रथम कुलकर पुरुष पैदा हुआ, जिसकी स्वयंप्रभा नाम की देवी थी। इस काल में सर्वप्रथम चन्द्र और सूर्य के मंडल दिखाई दिये। आकाश में यद्यपि इनका उदय और अस्त नित्य होता रहा है परन्तु तेजाङ्ग जाति के कल्पवृक्षों के तेज से प्रकट नहीं दिखते थे। यह शब्द सूचना दे रहे हैं। यह बहुत बड़ी घटना का संक्षेप में वर्णन है। कई बार प्रश्न उठता है कि जैन इतिहास से जुड़े विभिन्न नाम क्या उस काल के बारे में कुछ सूचना दे सकते हैं ?

जैसा कि हम बार—बार कहते हैं—‘अजनाभ’ कुलकर के नाम पर अजनाभ वर्ष, ‘भरत’ के नाम पर भारत वर्ष, ‘ब्राह्मी’ के नाम पर ब्राह्मी लिपि। अन्य कुलकर जो आदिनाथ के पूर्व हुए उनके नाम प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमंकर, सीमंकर, सीमंधर, विपुलवाहन, चक्षुष्मान, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित, नाभिराय आदि का अस्तित्व कब से है ? कहने का तात्पर्य यह है कि जिस काल के ये नाम हो सकते हैं, उस काल के पूर्व यह सब क्या किसी अन्य प्रकार के संकेत, अंकन आदि से पहचाने जाते थे और बाद के काल में जब भाषा ने आकार लिया तो उन संकेतों को नाम दिया। यदि ऐसा है तो नाम के सहारे इतिहास ढूँढना, संदर्भों को ढूँढना संभव हो जाएगा। सभी तीर्थंकरों के नाम भी इसी समीकरण से जुड़े हो सकते हैं। सभी शलाकापुरुष, स्थानों के नाम, कल्याणकों के नाम, इन्द्रों के नाम, जिन भी नामों से भेंट होती है सब इसी समीकरण के परिणाम हैं। मेरा ऐसा सोचना इस विचार पर आधारित है कि प्रारम्भ की सूचनाएं प्रकृति की उथल—पुथल के बीच आकार लेते भारत की सूचनाएँ हैं। इसकी खबर कुलकरों के माध्यम से सबसे पहले जैन रिकार्ड्स ने दी है किन्तु उस समय यह जैन नाम से नहीं जानी जाती थी। ‘जैन’ या ‘श्रमण’ ऐसा सोच अथर्व व ऋग्वेद के काल (करीब ३००० वर्ष पूर्व) का हो सकता है। इस आधार पर कालविभाजन हो सकता है।

कुलकर काल २ अरब ८० करोड़ वर्ष से २०—२० लाख वर्ष पूर्व का होना चाहिए। आदिनाथ काल जिसका प्रभाव १० लाख वर्ष पूर्व तक रहा। (भारत में हुई प्रथम आर्थिक क्रांति तक) इस काल में वह जमावट जमी, जिससे वर्तमान में चली आ रही सभ्यता को आधार मिला। अजितनाथ तथा संभवनाथ काल जो अगले करीब १० लाख वर्ष पूर्व तक चला, कृषि क्रांति हुई जिसने आर्थिक समृद्धि इस क्षेत्र को दी। ऐसा प्रतीत होता है कि कोई काम हुआ जो लाखों वर्षों तक पशु या पक्षी के रूप में याद रहा और जब अर्थों को परिभाषित करने वाली भाषा विकसित हुई तो यादें जो पशु या पक्षी पर केन्द्रित थीं या अन्य प्राकृतिक संकेत से मन में रखी रहती थीं, उनका नामकरण हुआ। जैसे—प्रारम्भ की गतिविधियों को उस काल के प्रमख पशु वृषभ से याद रखा जाता था। उस काल के नायक को भी बाद में ऋषभ नाम दे दिया गया। अजित और संभव की परम्परा में याद चिन्ह हाथी और घोड़ा, वृषभ के साथ जुड़ने वाले स्वाभाविक पशु हैं। खेती हो, वर्षा हो, विराट भूमि का क्षेत्र हो तो ऊँचे—ऊँचे पेड़ों वाले जंगल होंगे तो हाथी जैसा पाले जाने लायक विशालकाय पशु ही आने—जाने में सहायक होगा। लम्बे—लम्बे, बड़े—बड़े खेती व वनों के क्षेत्रों में लम्बी दूरी तक जाने में, पाले जाने लायक पशु घोड़ा ही सहायक होगा। समाज ने हाथी व घोड़े को मान्यता दी और उनका उपयोग बताने वाले को अपना मार्गदर्शक माना।

हाथी ने दल—दल, बड़े— बड़े पेड़—वृक्षों व जंगलों में रहना सिखाया। प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग में हाथी ने महत्वपूर्ण विजय दिलाई इसीलिए बहुत लम्बे काल तक हाथी ने उस काल को तथा उसके प्रेरक व्यक्ति को याद रखने में मदद दी। इसमें करीब १० लाख वर्ष गुजर गए। जब ‘शब्द’ गढ़े जाने लगे और अर्थों को परिभाषित करने वाली भाषा विकसित होने लगी तो १०—२० हजार वर्ष पहले हाथी को हाथी नाम मिला और हाथी को व उसके प्रायोजक को ‘न जीता जा सके’ ऐसा ‘अजित’ नाम मिला। घोड़ा और संभव शब्द का भी ऐसा ही जोड़ा हो सकता है। इस जीवनशैली का अस्तित्व भी करीब १० लाख वर्ष होना चाहिए। प्राकृतिक परिवर्तनों की कहानी को देखें और उसके समानान्तर चलने वाली मानव सभ्यता को परखें, तो कुछ नये तर्क नजर आते हैं। पद्मप्रभु, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ व पुष्पदन्त के कालों में परिवर्तन के ऐसे संकेत नजर आते हैं (करीब ७००० से ५००० वर्ष पूर्व के) जिसमें वर्तमान सभ्यता का प्रारूप बनने लगा था। सिंधु घाटी सभ्यता का गठन पद्मप्रभु के काल में प्रारम्भ हो गया था। ५० हजार वर्ष पहले के गुफा चित्र, तीर्थंकरों के पहचान चिन्ह वे चित्रात्मक व दिखने वाले शब्द हैं, जिनकी भाषा में अभिव्यक्ति बाद में हुई। कुलकरों के नाम भी बहुत बाद में पहचानने के लिए दिये गये। उनके पहचानने के आधार पहले कुछ अन्य रहे होंगे। इस काल में मानव समूहों का बहुत बड़ी संख्या में पलायन हुआ। जल—भोजन और रहने लायक स्थान की सुगमता ने बर्फीले प्रदेशों, अरब देशों और वर्तमान चीन के क्षेत्रों में मानव, पशु और पक्षियों का बढ़—चढ़कर जम्बूद्वीप में आगमन हुआ। अधिक सभ्य, सुशिक्षित व ज्ञानी भारतीयों की विदेशों में मांग हुई और लोग वहाँ गए। इसने मिश्रण को पोषित किया।

वैचारिक द्वंद्व ने सरस्वती नदी के किनारे अथर्व—ऋग आदि वेदों के निर्माण को संभव बनाया। यहाँ हम शब्दों और भाषा के परिपक्व संकलन को देखते हैं। हो सकता इसी काल के किसी जैन साधु ने पूर्व में प्रचलित सूचनाओं को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र नाम से वर्णित किया हो। इतिहास केवल घटनाओं से बंधा नहीं है। इतिहास नदी के समान होता है। नदी जब पहाड़ों या जलाशयों से निकलती दिखती है तो क्या वह पहाड़ या जलाशय ही उसका उद्गम स्थल है ? शायद नहीं। जहाँ से नदी की धारा दिखने लगी आखिर उसमें जल कहाँ से आया। पहाड़ों की अंतरंग दरारों से, ऊपर बरसे पानी के नीचे ढलान से बहकर आने से नदी बन गई। समझा जाए तो प्रकृति की प्रत्येक चेतन अचेतन वस्तु के किसी एक रूप में होने और दूसरे में बदलने की प्रक्रिया ऐसी ही होती है। न दिखने के कारण ऐसा नहीं लगता है, किन्तु रूप में और रूपान्तरण में एक निरंतरता होती है। इस निरंतरता को ग्रहण न करवाने के कारण हम मृत्यु और अंत को अस्तित्वहीन मानते हैं, किन्तु वह अस्तित्वहीनता नहीं होती वह रूपान्तरण होता है। सामने रखा कचरे का ढ़ेर माचिस लगने पर जलने लगता है। कचरे का ढेर जलकर थोड़ी—सी राख में बदल गया। आखिर क्या हुआ ? वह बची राख ही कचरे का परिवर्तित रूप नहीं है कचरे की परिवर्तित अवस्था धुआं या लौ रूप में प्रकृति में मिल गई। कचरे में उत्सर्जित रसायन भी वातावरण में मिल गये। देखा जाए तो कचरे का एक अणु भी समाप्त नहीं हुआ वह अपने मूल तत्वों में विगठित हो गया। यह विगठित तत्व ही पुन: अन्य रूपों में गठित होकर पुन: पुन: प्रकट होते हैं।

यह क्रम चेतन, अचेतन सबमें सदैव चलता रहता है। कषायपाहुड़ में इस रूपांतरण को इस प्रकार व्यक्त किया गया है कि ‘अनेक गुण और अनेक पर्यायों सहित अथवा उनके द्वारा एक परिणाम से दूसरे परिणाम में, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में, एक काल से दूसरे काल में अविनाशी स्वभाव रूप से रहने वाले द्रव्य को ले जाता है अर्थात् उसका ज्ञान करा देता है उसे नय कहते हैं। प्रतिदिन, प्रतिक्षण जो गुजरता है और जो होता है वह रूपांतरित भले ही हो जाए किन्तु वह कभी नष्ट नहीं होता, उसका कभी अंत नहीं होता। भले ही वह दिखाई न दे किन्तु किसी न किसी रूप में मौजूद रहता है। यह अलग बात है कि पानी विगठित होगा तो बादल में बदलेगा, देह विगठित होगी तो भिन्न तत्वों से विगठित होगी। समस्त ब्रह्माण्ड, धरती, पाताल सभी इसी प्रक्रिया से बंधे हैं अत: सामने रखा चश्मा, गिलास, दीया, किताब, नाश्ता, फोन सभी इस प्रक्रिया के प्रमाण हैं। जब हम इसको किसी क्रम में बांधते हैं तो इतिहास के सूत्र इकट्ठा होने लगते हैं। इसमें परीक्षण का महत्व होता है अर्थात् निरीक्षणकर्ता की दृष्टि का भेद व क्षमता उन सूत्रों के बयान में भिन्नता के कारण होते हैं। वास्तव में जो जैसा है, वैसा ही उसको कहना इतिहास की अधिक बेहतर अभिव्यक्ति होगी। अपने पूर्वाग्रहों से युक्त कथन इतिहास नहीं कहला सकते।

‘मानव—मनोविज्ञान’—   अर्थात् चेतन जगत के विकास का वैज्ञानिक अध्ययन यह स्पष्ट संकेत करता है कि चेतन जगत के अस्तित्व का मूल आधार है भाव पैदा होना और उनको व्यक्त करना। भावों की यह अभिव्यक्ति केवल मूक नहीं हो सकती, क्योंकि यह दूसरे की अपेक्षा से होती है। मूकता अंदर से स्थिरता और मांजने का काम करती है, किन्तु अभिव्यक्त भावों को प्रवाह देती है। यह अभिव्यक्ति प्राणी को गतिशील करती है। यह गति नृत्य, अंकन व शब्द के रूप में हमारे सामने अभिव्यक्त होती है, जो दूसरे जीव को भी तरंगित करती है। इन तरंगों का प्रवाह भौतिक विद्युत तरंगों से कई गुना तेजी से होता है”

सूरजमल बोबरा

अध्यक्ष—ज्ञानोदय फाउण्डेशन, ९/२, >

स्नेहलतागंज, इन्दौर—४५२ ००५

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