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शीश हमेशा झुका रहे

February 18, 2017कविताएँjambudweep

शीश हमेशा झुका रहे


नहीं लेखनी लिख सकती है जिनके जीवन की गुणगाथा।

इस युग में भी हो सकती है ऐसी धर्म परायण माता।।

है होता गर्व मुझे खुद पर जो ऐसी माँ से जन्म लिया।

सब पुत्र-पुत्रियों को हरदम जिनने सच्चा उपदेश दिया।।

वह याद दिवस अब भी मुझको जब घर संदेशा पहुँचा था।

माँ अब घर में ना आयेगी सुन घर का कण-कण रोया था।।

पर सोचा तभी भाइयों ने सब चलकर उन्हें मनायेंगे।

सामायिक पर जब बैठी हों हम उन्हें उठाकर लायेंगे।।

अजमेर नगर में पहुँच सभी ने माँ के चरणों को पकड़ लिया।

इस तरह अनाथ बनाओ न कह-कहकर करुण विलाप किया।।

तब माँ बोली देखो बेटे यह तो शरीर का नाता है।

इस जग में सभी प्राणियों को यह मोहकर्म रुलवाता है।।

इसलिए मोह में मत बाँधो मुझको अब दीक्षा लेने दो।

अब बेटी के जीवन से कुछ मुझको भी शिक्षा लेने दो।।

अब तक इस मोह कर्म ने ही हमको घर में रोके रक्खा।

अब समझ गई हूँ दुनियाँ के इन क्षणिक सुखों में क्या रक्खा।।

सबने फिर मौन सम्मति से माँ के चरणों में नमन किया।

उस पथ पर हम भी चलें कभी जिसका तुमने अनुकरण किया।।

हम सबको दो आशीर्वाद जिससे हमको यह शक्ति मिले।

जिस माँ की छाया थी अबतक उसकी ही छाया पुन: मिले।।

जो त्यागमार्ग की हैं देवी ऐसी माँ को शत-शत प्रणाम।

जो परमशांत मुद्राधारी ऐसी माँ को शत-शत प्रणाम।।

जब तक है चन्द्र सूर्य जग में जीवन की ज्योती जला करे।

‘‘त्रिशला’’ का माँ के चरणों में यह शीश हमेशा झुका रहे।।

Tags: Jain Poetries
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