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श्रमण और श्रमणाभास!

July 16, 2017शोध आलेखjambudweep

श्रमण और श्रमणाभास


श्रमणसंस्कृति में आदिकाल से ही श्रमण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्रमण शब्द प्राकृत भाषा के ‘समण’ का रूपांतर है ‘‘श्राम्यति आत्मानं तपोभिरिति श्रमण:’’ अर्थात् जो तपों से अपनी आत्मा को श्रमयुक्त करता है, वह श्रमण हैश्रमयन्त्यात्मानं तपोभिरिति श्रमणा:। मूलाचार वृत्ति या ‘‘श्राम्यति मोक्षमार्ग श्रमं विदधातीति श्रमण:’’ इस व्युत्पत्ति की अनुसार जो मोक्षमार्ग में श्रम करता है वह श्रमण कहलाता है। यह शब्द ‘श्रमु खेदे’’ धातु से ल्युट् प्रत्यय करने पर कृदन्त रूप में भी बनता है। जो संपूर्ण प्राणियों के प्रति समताभाव रखता है, वह श्रमण है। मूलाचार में दिगम्बर साधु को विविध नामों से उल्लिखित किया गया है, उनमें प्रथम शब्द ही है—

समणोत्ति संजदीत्ति य रिसि मुणि साधुत्ति वीतरागीति।

णामाणि सुविहिदाणं अणगार भदंत दंतोत्ति।

मूलाचार ८८८

अर्थात् श्रमण, ऋषि, मुनि साधु वीतराग, अनगार, भदन्त, दान्त और यति ये सम्यक् आचरण करने वाले साधुओं के नाम हैं। श्रमण का व्यापक विवेचन मूलाचार में है उसी के आश्रय से यहाँ संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत किया जा रहा है। निश्चयनय की विवक्षा से प्रतिपादित श्रमण स्वरूप के साथ श्रमण की क्रियाओं को र्गिभत किया गया है—

णिस्संगो णिरारंभो भिक्खाचरियाए सुद्धभावो य।

एगागी झाणरदो सव्व गुणड्ढो हवे समणो।।

मूलाचार १००२

जो निसंग अन्तरंग बहिरंग परिग्रह के अभाव से मूच्र्छा रहित, निरम्भ पापक्रियाओं से निवृत्त आहार की चर्या में शुद्धभाव सहित एकाकी ध्यान में लीन होते हैं, वे श्रमण सर्वगुण संपन्न कहलाते हैं। वे कषायरहित होने के कारण ही संयत हैं जैसे कि कहा भी है— अकषायपने को चारित्र कहते हैं। कषाय के वश होने वाला असंयत है जिस काल में कषाय नहीं करता उसी काल में संयत है। श्रमण जिनेन्द्राज्ञा का सतत पालन करता हुआ अपने को क्रोधादि कषायों से बचाये रखता है। 

मूलाचार के तप:शुद्ध प्रकरण में आचार्य लिखते हैं—

पंचमहव्वयधारी पंचसु समिदीसु संजदा धीरा।

पंचिदियत्थ विरदा पंचम गई मग्गगया सवणा।।९/८८३

जो पंचमहाव्रतधारी पंचसमितियों से संयत, धीर, पंचेन्द्रिय विषयों से विरक्त तथा पंचम गति के अन्वेषक होते हैं। तप—चारित्र आदि क्रियाओं में अनुरक्त पापों का शमन करने वाले होते हैं। संयम, समिति, ध्यान एवं योगों में नित्य ही प्रमाद रहित होते हैं वे श्रमण कहलाते हैं।मूलाचार ८८४ प्रवचनसार में श्रमण के स्वरूप का निरूपण करते हुए कहा गया है—

समसत्तु बंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसिंणद समो।

समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो।

जिसे शत्रु और बन्धु वर्ग समान है, सुख—दु:ख समान है, प्रशंसा और निन्दा में समभाव रखता है, जिसे लोष्ठ और सुवर्ण समान है तथा जीवन मरण के प्रति समता है, वह श्रमण है। इसी प्रकार अन्य आचार्य ने भी लिखा है—सुख—दु:ख में जो समान है और ध्यान में लीन है, वह श्रमण है।नयचक्र ३३० आचार्य वट्टकेर श्रमण को सामायिक रूप में चित्रित करते हैं ‘जिस कारण से अपने और पर में माता और सर्वमहिलाओं में, अप्रिय और प्रिय तथा मान—अपमान आदि में समान भाव होता है।’’ इसी कारण श्रमण हैं और इसी से वे सामायिक हैं।जं च समो अप्पाणं परे य मादूय सव्व महिलासु। अप्पियपिय माणादिसु तो समणो तो यह सामइयं।।मूलाचार ५२१ यहाँ आचार्य श्रमण का स्वरूप भाव की प्रधानता से प्रतिपादित करते हैं वे श्रमणों को सावधान करते हुए कहते भी हैं—

भावसमणा हु समणा ण सेस समणाण सुग्गई जम्हा।

जहिऊण दुविहभुविंह भावेण सुसंजदो होई।।

मूलाचार १००४

भावश्रमण ही श्रमण हैं क्योंकि श्रमणों को मोक्ष नहीं होता। इसलिए हे श्रमण ! दो प्रकार (अन्तरंग—बहिरंग) परिग्रह को छोड़कर भाव से सुसंयत होओ। आचार्यों ने श्रमणों के रत्नत्रय की ही प्रशंसा की है क्योंकि श्रमण का द्रव्यिंलग ही मोक्षमार्ग नहीं है अपितु उस लिग/शरीर के आधार से रहने वाला जो रत्नत्रय है, उसी से मोक्ष प्राप्त होता है। अत: श्रमण भावसहित उस द्रव्यिंलग को स्वीकार कर उसके माध्यम से अभेद रत्नत्रय को प्राप्त कर उसमें स्थिरता प्राप्ति के लिए सतत प्रयासरत रहते हैं।ण य होकद मोक्खमग्गो िंलगं जं देहणिम्ममा अरिहा। लिगं मुइत्तु दंसणणाणचरित्ताणि सेवंते।। प्रवचनसार साथ में अर्हदादि की भक्ति, ज्ञानियों में वात्सल्य, अन्य श्रमणों को वन्दन, अभ्युत्थान, अनुगमन व वैयावृत्य करना प्रासुक आहार एवं विहार उत्सर्ग समिति पूर्वक निहार आदि क्रिया, तत्त्वविचार, धर्मोपदेश, पर्व के दिनों में विशेष उपवास चातुर्मासयोग शिरोनति व आवर्त आदि कृत्रिकर्म सहित प्रतिदिन देव वन्दना, आचार्यवन्दना, स्वाध्याय, रात्रियोगधारण, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि शुभोपयोगी क्रियायें व्यवहार मोक्षमार्ग को प्रशस्त करते हुए श्रमण करते हैं। निश्चय—व्यवहार रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग पर चलने वाले ही परिपूर्ण श्रमण होते हैं परिपूर्ण श्रमण के स्वरूप को बतलाते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं—

चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाम्मि दंसणमुहम्मि।

पयदो मूलगुणेसु य जो सा पडिपण्णं सामण्णो।।

प्रवचनसार २१४

जो श्रमण सदा ज्ञान और दर्शनादि में प्रतिबद्ध तथा मूलगुणों में प्रयन्तशील विचरण करता है, वह परिपूर्ण श्रामण्यवान् है। श्रमण का लिंग जिनिंलग कहा जाता है वह दोष रहित होता है। उसमें पूर्णतया अचानक वृत्ति होती है। भावों की शुद्धि की प्रधानता होती है जैसा कि भावप्राभृत में भी कहा है ‘‘जिसमें पांच प्रकार के वस्त्रों का त्याग किया जाता है, पृथ्वी पर शयन किया जाता है, दो प्रकार का संयम धारण किया जाता है, भिक्षा भोजन किया जाता है, भाव की पहले भावना की जाती है तथा शुद्ध निर्दोष प्रवृत्ति की जाती है, वही जिनिंलग निर्मल कहा जाता है।’’पंचविह चेलचायं ख्दििसयणं दुविहसंजमं भिक्खू। भावं भाविय पुव्वं जिणिंलग णिम्मलं सुद्धं।। भावप्राभृत ९७ मूलाचार में दीक्षा योग्य पात्र तथा उसकी दीक्षा विधि आदि का वर्णन नहीं किया गया है किन्त कहा गया है कि यदि श्रमण की चर्या यत्नाचारपूर्वक होती है, तो वह निर्दोष मानी गयी है। इसीलिए मूलाचार में साधु की प्रवृत्ति के संदर्भ में आचार्य ने प्रश्न किया है और स्वयं समाधान भी किया है।

कधं चरे कधं चिट्ठे कधमासे कधं सये।

कधं भुंजेज्ज भासिज्ज कधं पावं ण बज्झदि।।

मूलाचार १०१४

श्रमण को जिस प्रकार से प्रवृत्ति करना चाहिए ? कैसे खड़े होना चाहिए ? कैसे बैठना चाहिए ? कैसा सोना चाहिए ? कैसे भोजन करना चाहिए ? कैसे बोलना चाहिए ? जिससे पाप का बंध न हो। इसी प्रश्न के उत्तर में आगे कहा है—

जदं चरे जदं चिट्ठे जदमासे जदं सये। जदं भुंजेज्ज भासेज्ज जदो पावं ण वज्झई।।

मूलाचार १०१५

जदं तु चरमाणस्स दयापेक्खिस्स भिक्खुणो। णवं ण बज्झदे कम्मं पोराणं च विधूयदि।।

मूलाचार १०१६

यत्न से ईर्यापथ शुद्धिपूर्वक गमन करना चाहिए। यत्न से खड़े होना चाहिए। यत्न से सावधानी पूर्वक जीवों को बाधा न देते हुए उन्हें पिच्छिका से हटाकर पद्मासन से बैठना चाहिए। सोते समय भी यत्न से संस्तर का संशोधन करके अर्थात् चटाई फलक आदि को उलट—पलट कर देखकर रात्रि में गात्र संकुचित करके सोना चाहिए। यत्न से भाषा समिति से बोलना चाहिए। इस प्रकार की प्रवृत्ति से पाप बन्ध नहीं होता है क्योंकि जो श्रमण यत्नाचार से प्रवृत्ति करता है, दया भाव से सतत प्राणियों का अवलोकन करता है, उसके नवीन कर्मों का बंध नहीं होता है और पुराने कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। इसी प्रसंग में और भी बताया गया है कि जो ‘‘जो मुनि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और संहनन की अपेक्षा करके चारित्र में प्रवृत्त होता है”

वह क्रम से वध—हिसा से रहित हो जाता है।

दव्वंखेत्तं कालं भावं च पडुच्च तह य संघहणं।

चरणाम्हि जो पवटठइ कमेण सो णिरवहो होई।।

मूलाचार

श्रमण समितियों का पालन करते हुए विहार करते हैं जो जीवों से भरे हुए संसार में भी िंहसादि पापों से लिप्त नहीं होता है वह जीव जन्तु भरे रहने पर भी अपने देववंदना, आहार आदि कार्य समिति सहित ही करते हैं। यही कारण है श्रमण हिसादि पापों से बंधते नहीं हैं। कारण यह है कि पत्र के स्नेह गुणसहित होने पर भी उसमें पानी नहीं रुकता है उसी प्रकार श्रमण भी देववन्दनादि कार्य करते हुए जीवों में विहरने पर भी समिति सहित होने के कारण पापों से अल्पित रहते हैं। जिसने लोहे का दृढ़ कवच पहना है, ऐसा योद्धा बाण—तोमन आदि तीक्ष्ण शस्त्रों से सिद्ध नहीं होता है। उसी प्रकार आहार, गुरुवंदना आदि कार्यों में तत्पर मुनि समिति सहित विहार करने के कारण पाप लिप्त नहीं होते हैं। श्रमण की प्रवृत्ति में यत्नाचार की प्रधानता उनके सतत सावधानता को निरूपित करती है। वर्तमान में कुछ साधुओं द्वारा उक्त कथन का भी उल्लंघन किया जा रहा है। वे प्रमाद के वशीभूत होकर अपनी क्रियाओं के प्रति उपेक्षा करते हैं, जिसके कारण पाप बंध को भी प्राप्त होते हैं, जो क्रियाओं में सावधान हैं। वे भाविंलगी श्रमण मोक्षमार्ग को प्रशस्त कर रहे हैं। भाविंलग शून्य द्रव्यिंलग मात्र से कल्याण होने वाला नहीं है क्योंकि मोक्षमार्ग में सभी को स्वीकार न करके जिन्हें स्वीकार किया गया है, उनके विषय में कहा गया है कि—

णग्गंथ मोहमुक्का वावाहपरिसहा जियकसाया।

पावारंभ विमुक्का ते गहीया मोक्खमग्गम्मि।।८०।।

मोक्षपाहुड़

जो परिग्रह से रहित हैं, पुत्र—मित्र—स्त्री आदि के स्नेह से रहित हैं। २२ परीषकों को सहन करने वाले हैं। कषायों को जीतने वाले हैं तथा पाप और आरंभ से दूर हैं। वे मोक्षमार्ग में अंगीकृत हैं। श्रमण जीवन लौकिक व्यवहारों से परे होता है किन्तु उनकी आहार चर्या, वैयावृत्य आदि कार्य गृहस्थों के बिना नहीं सधते। अत: श्रमणों को गृहस्थों के साथ अपनी मर्यादाओं के अन्तर्गत संपर्क आवश्यक होता किन्तु इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि गृहस्थों के साथ उनके आवासों पर रात्रि विश्राम किया जाय या उनसे धन आदि लेने के लिए उन्हें मंत्र आदि देकर संतुष्ट किया जाय। श्रमण को गृहस्थों से अधिक परिचय नहीं बढ़ाना चाहिए और उनकी विनय आदि भी नहीं करना चाहिए। आचार्य वट्टकेर ने कहा भी है—

णो वंदिज्ज अविरदं मादा पिदु गुरु णिंरद अण्णतित्थं व।

देसविरदं देवं वा विरदो पासत्थपणगं वा।।५१४।।

मूलाचार

असंयतजन, माता—पिता, असंयतगुरु, राजा, अन्यतीर्थ या देशविरत श्रावक, यक्षादि देव तथा पाश्र्वस्थादि पांच प्रकार के पापश्रमणों को विरक्त साधु को वन्दना नहीं करने का विधान है।श्रमण गृहस्थ का अभिनंदन, वन्दन, वैयावृत्य आदि कभी नहीं करते हैं। इस कलिकाल ने ऐसा देखने पर मजबूर कर दिया है कि कोई साधु नेताओं या धनवानों के गले में मोतियों की माला स्वयं पहना रहे हैं। तिलक लगा रहे हैं, कलावा आदि बांधकर सत्कार कर रहे हैं, स्वयं पद्मावती क्षेत्रपाल आदि की आराधना कर रहे हैं, करा रहे हैं जो श्रमणचर्या के विरुद्ध है। आगम में लौकिक जनों की संगति छोड़ने का उपदेश है क्योंकि उनकी संगति से वाचालता आती है दुर्भावना उत्पन्न होती है। श्रमण श्रावक के धर आहारार्थ अवश्य जाते हैं किन्तु आहार के बाद पारिवारिक चर्चा में नहीं बैठते हैं। इनके द्वारा इस काल में एकलविहार र्विजत है। अधिक शुभ क्रियाएं वर्तना योग्य नहीं, मंत्र सिद्धि, शास्त्र, अंजन, सर्प आदि की सिद्धि करना तथा इन्हीं कार्यों से अपनी आजीविका चलाना दुर्जन, लौकिक जन, तरुणजन, स्त्री, पुंश्चली, नपुसंक, पशु आदि की संगति करना निषिद्ध है। मूलाचार में श्रमण के दस स्थितिकल्पों का विवेचन प्राप्त होता है—

अच्चेलक्कुदेसियसेज्ल्जाहररार्यापेंड किदियम्म।

वद जेट्ठ पडिक्कमणं मासं पज्जो समणकप्पो।।९।।

आचेलक्य, उद्देशिक, श्यातर (शैयागृह) पिंडत्याग, राजिंपडत्याग, कृतिकर्म व्रतज्येष्ठं, प्रतिक्रमण मास तथा पर्या (पर्यूषण) ये दस कल्प हैं। श्रमणों को इनका पालन करते हुए संयम मार्ग में प्रवृत्त रहना चाहिए तथा जिस संघ में आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर ये पांच न हों उसमें श्रमण को नहीं रहना चाहिए९। मूलाचार में श्रमण द्वारा श्रमणों के वैयावृत्य का भी विधान है। मूलाचार में शरीर संस्कार का पूर्ण निषेध है। पुत्र, स्त्री आदि में जिन्होंने प्रेमरूपी बन्ध न काट दिया है और जो अपने भी शरीर में ममता रहित हैं, ऐसे साधु शरीर में कुछ भी संस्कार नहीं करते हैं। मुख, नेत्र और दांतों का धोना, शोधना, पखारना, उबटन करना, पैर धोना, अंगमर्दन करना, मुट्ठी से शरीर का ताड़न करना, काठ के यन्त्र से शरीर का पीड़ना। ये सब शरीर के संस्कार हैं। धूप से शरीर का संस्कार करना, कण्ठ शुद्धि के लिए वमन करना, औषध आदि से दस्त लेना, अंजन लगाना, सुगंध तेल मर्दन करना, चन्दन कस्तूरी का लेप करना, सलाई बत्ती आदि से नासिकाकर्म व वस्तिकर्म (श्लेष्म) करना। नसों से लोही का निकालना ये सब संस्कार अपने शरीर में साधुजन नहीं करते। (८३६ से ८३८ तक)श्रमण के ठहरने योग्य स्थान पर विचार करते हुए कहा गया है—जिन स्थानों या क्षेत्रों में कषाय की उत्पत्ति, आदर का अभाव, इन्द्रिय विषयों की अधिकता, स्त्रियों का बाहुल्य, दु:खों और उपसर्गों का बाहुल्य हो ऐसे क्षेत्रों का श्रमण त्याग करें अर्थात् ऐसे स्थानों में नहीं ठहरना चाहिएजत्थं कसायुपप्तिभत्तिं दियदार इत्थि जणबहुलं। दुक्चामुवसग्गबहुलं भिक्खु खेत्तं विवज्जेऊ।।मूलाचार २०/१५८ गाय आदि तिर्यंचनी, कुशील स्त्री, भवनवासी व्यन्तर आदि सविकारिणी देवियां, असंयमी गृहस्थ इन सब के निवासों पर अप्रमत्त श्रमण शयन करने, ठहरने या खड़े होने आदि के निमित्त सर्वथा त्याज्य समझते हैं। जो क्षेत्र राजा विहीन हो या जहाँ का राजा दुष्ट हो, जहाँ कोई प्रव्रज्या न लेता हो जहाँ सदा संयम घात की संभावना बनी रहती हो ऐसे क्षेत्रों का श्रमण हमेशा परित्याग करते हैं। किन्तु धीर वैराग्य संयुक्त साधु पर्वत का गुफा, श्मशान, शून्य मकान, वृक्ष का मूल, जिनमन्दिर, धर्मशाला आदि क्षेत्रों का आश्रय लेते हैं इस तरह के वैराग्य वर्धक क्षेत्रों में रहने से साधुओं के चारित्र की अभिवृद्धि होती है। मूलगुणों का पालन करते हैं। मूलगुणों के प्रकाश में श्रमण की आवश्यकताएँ सीमित होती हैं। वे जीवरक्षा के निमित्त एक पिच्छिका रखते हैं। शौच के निमित्त कमण्डलु रखते हैं। मूलाचार में श्रमण की तीन उपाधियाँ बताई गई हैं—ज्ञानोपधि (पुस्तकादि), संयमोपधि (पिच्छकादि), शौचोपधि (कमण्डलु)। वर्षावास के चार माह छोड़कर निरंतर भ्रमण करते रहते हैं। समस्त परिग्रह से रहित साधु वायु की तरह नि:संग होकर कुछ भी चाह न रखकर पृथ्वी पर विहार करते हैं। छयालीस दोष बचाकर भोजन ग्रहण करते हैं। पिण्डशुद्धि अधिकार में बताया गया है कि भक्ति पूर्वक दिये गये, शरीर योग्य प्रासुक, नवकोटि विशुद्ध एषणा समिति से शुद्ध, दस दोषों, चौदह मलों से रहित भोजन का द्रव्य क्षेत्र काल, भाव को जानकर ग्रहण करते हैं। श्रमणों के दैनिक जीवन में सामायिक, चतुा\वशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान कायोत्सर्ग इन षडावश्यकों का विशेष स्थान होता है। 

श्रमणों का मूल उद्देश्य विभाव से हटकर

स्वभाव में रमण करना या परभाव से हटकर स्वभाव में आना। ये प्रदर्शन न कर आत्मदर्शन करते हैं। बाह्य शौच की अपेक्षा आध्यात्मिक शुद्धि का विशेष ध्यान रखते हैं। आध्यात्मिक विकास क्रम (गुणस्थान की अपेक्षा) छठा सातवां स्थान है। श्रमण मन, वचन और काया से न स्वयं िंहसा करता है, न दूसरों को करने के लिए ही उत्प्रेरित करता है, न िंहसा की अनुमोदना करता है। जिस श्रमण के आचार में निर्मलता है, वही श्रमण विज्ञ है और वही आचार का सही रूप से पालन करता है। तृष्णा मुक्त साधक श्रेष्ठ होता है क्योंकि तृष्णा से मुक्त रहना ही चाहिए। बालाग्र भी परिग्रह संचय साधु नहीं करते। हस्तांजुलि ही उनका भोजन पात्र है। आहार ही दिन में एक बार खड़े होकर प्रासुक एवं श्रावक द्वारा दिया हुआ ही ग्रहण करते हैं। ऐसी चर्या दिगम्बर साधु की होती है. बालग्गकाडिमित्तं परिग्गहगहणं ण होई साहूण। भुंजेइ पाणिपत्तो इक्क ठााणम्मि।। सूत्रपाहुड ; । संयमी जीवन में कई बार अनुकूल परीषह भी आ जाते हैं, उस समय साधक की स्खलना की संभावना रहती है किन्तु जो श्रमण सावधान रहते हैं, वही मोक्षमार्ग पर बढ़ते हैं। श्रमणों की साधना पद्धति में त्याग का उच्चतम आदर्श, अिंहसा का सूक्ष्मतम पालन, व्यक्तिगत का पूर्ण विकास, संयम या तप की पराकाष्ठा पायी जाती है। प्रवचनसार में शुभोपयोगी और शुद्धोपयोगी श्रमण के दो भेद बतलाये हैं किन्तु मूलाचार में इन भेदों की चर्चा नहीं है। नयचक्र में सराग और वीतराग श्रमणों की चर्चा है तत्त्वार्थसूत्र सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थर्वाितक आदि ग्रंथों में पुलकादि भेदों का कथन है किन्तु मूलाचार में निक्षेप की दृष्टि से श्रमण के भेदों को प्रतिपादित किया है। यथा जैसे नाम से श्रमण होते हैं, वैसे ही स्थापना से, द्रव्य से तथा भाव से होते हैं। इस प्रकार श्रमण स्वरूप, श्रमण माहात्म्य और श्रमण के भेदों को बताया गया अब जो श्रमण न होकर श्रमण जैसे भासित होते हैं उन पर विचार किया जा रहा है। 

श्रमणाभास और श्रमणाभासी

जो अययार्थ साधु हैं, वे श्रमणाभासी कहे जायेंगे। संयत जप से, तप से युक्त होने पर भी जिनाज्ञा का पालन या श्रद्धान न करने वाले श्रमण न होकर श्रमणाभासी हैं जैसा कि कहा गया है—

ण हवदि समणोत्ति मदो संजम तवसुत्त संपजुत्तो वि।

जदि सद्दहदि ण अत्थे आदपधाणे जिणक्खादे।।

प्रवचनसार २६४

जो जिनेन्द्र कथित जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान नहीं करता है, वह संयम, तप तथा आगम रूप संपत्ति से युक्त होने पर भी श्रमण नहीं माना गया है। वह श्रमणाभास है। श्रमण आहार आदि की शुद्धि हमेशा रखते हैं। परिमार्जन पूर्वक ही शास्त्र कमण्डलु आदि को ग्रहण करते हैं और रखते हैं क्योंकि ठहरने में, चलने में ग्रहण करने में, सोने में, बैठने में साधु प्रतिलेखन से प्रयत्न पूर्वक परिमार्जन करते हैं। यह उनके अपने पक्ष का चिह्न हैठाणे चंकमणादाणे णिक्खेवे सयण आसण पयत्ते। पडिलेहणेण पडिलेहिज्जइ िंलगं च होइ सपक्खे।।मूलाचार ९१६। जो अपने पक्ष के चिह्नों या कार्यों के प्रति निरंतर सावधान हैं, वही श्रमण कहे जाते हैं किन्तु जो श्रमण के द्वारा कार्य करने योग्य न हों उन कार्यों को करता है वह श्रमणाभास है।
 
श्रमणाभासी मुनिपने से हीन होते हैं, उनके विषय में कहा भी है—
 
पिडीवधिसेज्जाओ अविसोधिय जो य भुंजदे समणो।
मूलट्ठाणं पत्ते भुवणेसु हवे समणपोल्लो।। ९१८।।
 
मूलाचार जो श्रमण आहार, उपकरण और वसतिका का बिना शोधन किये ही ग्रहण करते हैं, वे मूलस्थान प्रायश्चित को प्राप्त होते हैं और संसार में मुनिपने से हीन होते हैं। हीनचारित्र वाले का तप संयम सब व्यर्थ है। मूल का घात करके बाह्य योग को ग्रहण करना भी निरर्थक है। अप्रासुक वस्तुओं के सेवन से सुख का इच्छुक मोक्ष का अधिकारी नहीं है। कुछ गृहस्थ साधुओं को प्रिज का ठण्डा पानी और तथा ईनो आदि अभक्ष्य पदार्थों के संयोग से भोजन सामग्री तैयार कर आहार कराते हैं और उनके द्वारा जीवराशि के घातपूर्वक आहार ग्रहण किया जाता है तो उनके विषय में मूलाचार में कहा है—सिह अथवा ब्याघ्र एक या दो या तीन मृग को खावे तो हिस्र है और यदि साधु जीवराशि का घात करके आहार लेवे तो वह नीच
एक्को वा वि तयो वा सीहो वग्घो मयो व खदिज्जो।
जदि खादेज्ज से णीचो जीवयरािंस णिहंतूणा।।
 
मूलाचार ९२२ है।
दोष युक्त आहार लेने वाले की संपूर्ण क्रियाएं निरर्थक है२०। वह श्रमणपने से भी बाह्य है। प्रवचनसार की गाथा २६० की टीका में कहा है—‘‘आगमज्ञोऽपि—श्रमणाभासी भवति’’ अर्थात् इतना कुछ होने पर भी वह श्रमणाभास है। आत्मा को परद्रव्यों का कत्र्ता देखने वाले भले हों, लोकोत्तर हों श्रमण हों, पर वे लौकिकपने का उल्लंघन नहीं करते अर्थात् उन्हें लौकिक जानना चाहिए। इन्हीं को पापश्रमण संज्ञा दी गई है अर्थात् जो श्रमण साधना नहीं कर सकता, वह पापश्रमण है। जो शिष्य न होकर आचार्य बन बैठा है, जो स्वेच्छाधारी है, स्वछन्दता से विहार करते हैं जिसने पूर्वापर विवेक को छोड़ दिया है। ऐसे ढुंडाचार्य को पापश्रमण कहा जाता है। और भी कहा है—
 
आयिकुलं मुच्चा विहरदि समणो य जो दु एगागी।
ण य गेण्हदि उपदेसं पावस्समणोत्ति वुच्चदि दु।। ९६१।।
 
मूलाचारजो श्रमण आचार्य संघ को छोड़कर एकांकी विहार करता है और उपदेश को ग्रहण नहीं करता, वह पाप श्रमण है। इस प्रकार के मुनियों को सेवन नहीं करना चाहिए। ऐसा श्रमण मतवाले हाथी के समान अंकुश रहित होता है। जैसा कि मूलाचारकार कहते भी हैं—जो साधु क्रोधी, चंचल, आलसी, चुगलखोर है एवं गारव और कषाय की बहुलता वाला है, वह श्रमण आश्रय लेने योग्य नहीं है। सुचारित्रवान् साधु वैयावृत्य से हीन, विनय से हीन, खोटे शास्त्र से युक्त कुशील तथा वैराग्यहीन श्रमण का आश्रय न लेवें। मायायुक्त, अन्य का िंनदक पैशून्यकारक पापसूत्रों के अनुरूप प्रवृत्ति करने वाला और आरंभ सहित श्रमण चिरकाल से दीक्षित क्यों न हो तो भी उसकी उपासना नहीं करना चाहिए (मूलाचार ९५७ से ९५९) जो पहले शिष्यत्व व ग्रहण करके आचार्य होने की जल्दी करता है, वह ढोंढाचार्य है इन सदोष श्रमणों के मूलाचार में पाँच भेद बतलाये हैं—पाश्र्वस्थ, कुशील, संसक्त, अवसन्न, मृगचरित्र। ये सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में अयुक्त तथा धर्मादि में हर्ष रहित होते हैं। ये पाश्र्वस्थ आदि पांचों प्रकार के श्रमण आचरणहीन होने के कारण श्रमणाभासी हैं और अवंद्य हैं जैसा कि मूलाचार में कहा है—
 
दंसणाणचरित्ते तवविणए णिच्चकालं पासत्था।
एदे अवद्यणिज्जा छिद्दप्पेही गुणधारय।।
मूलाचार ९७।।
छिद्रप्रेक्षिण: सर्वकालं गुणधारणं च छिद्रान्वेषिण: संयतजनस्य दोषाद्भाविनो यति: न वंदनीया एतेऽन्ये च। ये पाश्र्वस्थ आदि साधु दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप की विनय से हमेशा दूर रहते हैं। इसलिए ये वंदनीय नहीं हैं। ये हमेशा गुणधरों के छिद्रों को देखने वाले हैं—संयत जनों के दोषों को प्रगट करने वाले हें इसीलिए ये अवंद्य हैं तथा इनसे अतिरिक्त अन्य पाखण्डी साधु भी वंदना के योग्य नहीं हैं। श्रमणाभासी साधु तीर्थंकरों के काल में भी होते थे और इस पंचमकाल में तो इनकी बहुलता है। पाँचों प्रकार के श्रमणाभास यत्र तत्र विचरण करते हुए पाये ही जाते हैं, उन्हीं के विषय में विवेचन प्रस्तुत है— 

पार्श्र्वस्थ

संयत के गुणों के पाश्र्व में स्थित रहने वाले श्रमण पाश्र्वस्थ कहलाता है अर्थात् अतिचार सहित संयम मार्ग का स्वरूप जानकर भी उसमें प्रवृत्ति नहीं करते परन्तु संयम मार्ग के समीप ही रहते हैं। इस तरह एकान्त रूप से जो असंयमी नहीं है किन्तु निरतिचार संयम का पालन नहीं करने वाले श्रमण पाश्र्वस्थ हैं। मूलाचार में स्पष्ट कहा है कि जो वसतिकाओं में आसक्त हैं, उपकरणें को बनाते हैं, मुनियों के मार्ग का दूसरे से आश्रय करते हैं, वे पाश्र्वस्थ कहलाते हैं। इनमें मोह, आसक्ति और संग्रह की प्रवृत्ति अधिक होती है। निषिद्ध स्थानों में आहार लेते हैं। हमेशा एक ही वसतिका में रहते हैं। एक ही संस्तर पर शयन करते हैं। गृहस्थों के घर में बैठक बनाते हैं अर्थात् कोठियों में जाकर ठहरते हैं। गृहस्थोपकरणों से अपनी शौचादि क्रिया करते हैं, जिसका शोधन अशक्य है। जो फ्लम का प्रयोग करेगा, वह शौचस्थान का शोधन कैसे कर सकता है ? वर्तमान में महानगरों में जो मुनि कोठियों में ठहरते हैं, फ्लस का प्रयोग करते हैं उनके प्रतिष्ठापना समिति का भी पालन नहीं होता है। मूलाचार की दृष्टि से वह अयथार्थ पाश्र्वस्थ आदि मुनियों की कोटि में ही आयेंगे। निग्र्रंथपने में एक स्थान का सतत वास सर्वथा बाधक है। अत: जो साधुओं के द्वारा अपने सर्वसुविधायुक्त निवास बनवाने की प्रवृत्ति चल रही है वह जिनमत से बाह्य है। इस प्रवृत्ति के पाश्र्वस्थ आदि मुनियों की क्या दशा होती है ? इस विषय में आचार्य शिवार्य लिखते हैं ‘‘जैसे विशैले काटों में बिंधे हुए मनुष्य अटवी में अकेले पड़े हुए दु:ख पाते हैं, वैसे ही मिथ्यात्व, माया और निदान शल्य रूपी कांटों से िंबधे हुए वे पाश्र्वस्थ मुनि दु:ख पाते हैं। ये संघ का मार्ग त्यागकर ऐसे लोगों के पास जाते हैं जो चारित्र से भ्रष्ट होते हैं।’’ इन्द्रिय, कषाय और विषयों के कारण राग—द्वेष परिणामों और क्रोधादि परिणामों के तीव्र होने से चारित्र को तृण सदृश मानते हैं। आचार्य बट्टेकर के समय भी पाशव साधुओं का बाहुल्य था। मूलाचार के समयसार अधिकार में उन्होंने कहा है कि—
 
वरं गणं पवेसादो विवाहस्स पवेसणं।
विवाहे रागउप्पत्ति गणो दोसाणमागारो।।९२।।
 
गण में प्रवेश करने से विवाह कर लेना उत्तम है। विवाह में रोग की उत्पत्ति होती है और गण दोषों का आकार है। टीकाकार वसुनन्दि इसी प्रसंग में लिखते हैं कि यदि अन्त समय में गण में रहता है तो शिष्य वगैरह के मोहवश साधुओं के संपर्व में होगा इससे तो विवाह करना श्रेष्ठ है क्योंकि गण सब दोषों का आकर है। यहाँ पाश्र्वस्थ साधु को सबसे अधिक निन्द्य माना गया है। वर्तमान में इस श्रेणी वाले भी देखने को मिल रहे हैं जो अत्यधिक िंचता का विषय है। 

कुशील

कुत्सित आचरण युक्त स्वभाव वाले श्रमण कुशील कहलाते हैं। ये साधु संघ से दूर होकर कुशील प्रतिसेवना रूप वन में उन्मार्ग से दौड़ते हुए आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा रूप नदी में गिरकर कष्ट रूपी प्रवाह में पड़कर डूब जाते हैं। पहले वे उत्तरगुण छोड़ते हैं फिर मूलगुण और सम्यक्त्व से भी भ्रष्ट होकर संसार में परिभ्रमण करते हैं। कुशील संबन्धी दोषों की प्रवृत्ति में प्रवृत्त रहते हैं, इन्द्रिय विषय एवं कषाय के तीव्र परिणामों से युक्त होते हैं तथा व्रत, गुण शील, चारित्र की परवाह न कर अपयश फैलाते हैं। इस प्रवृत्ति के साधुओं से जैनधर्म की अप्रभावना हो रही है। वर्तमान जो शील में दोष लगा रहे हैं, उन्हें कुशीलमुनि ही कहा जायेगा। बड़ी विड़म्बना है कि चारित्र भ्रष्ट होने वाले साधुओं को भी समाज बहुमान देती रहती है। इससे इस प्रवृत्ति वालों पर अंकुश नहीं लग सकता है। 

संसक्त

जो असंयत के गुणों में अतिशय आसक्त रहते हैं वह संयक्त हैं। वे आहार आदि की लम्पटता से वैद्यक, मंत्र ज्योतिषी आदि द्वारा अपनी कुशलता दिखाने में लगे रहते हैं, राजादिकों की सेवा करने में तत्पर रहते हैं। ऐसे श्रमण चारित्रप्रिय मुनि के सहवास से चारित्रप्रिय और चारित्र अप्रिय मुनि के सहवास से चारित्र अप्रिय बनते हैं नट के समान इनका आचरण रहता है ये संसक्त मुनि इन्द्रियों के विषय में आसक्त रहते हैं। तथा तीन प्रकार के गारवों में आसक्त होते हैं। स्त्री के विषय में इनके परिणाम संक्लेश युक्त होते हैं। गृहस्थों पर इनका विशेष प्रेम होता है। इन संसक्त मुनियों जैसा आचरण जिनका चल रहा है, उनसे मुनिधर्म की हानि तो हो ही रही है। श्रावक भी बहुत छले जा रहे हैं, श्रावकों के लिए जानकर ऐसे आचरण वालों से बचना ही श्रेयस्कर है। 

अवसन्न

सम्यग्दर्शनादिक जिनके विनष्ट हो गये हैं, जिनवचनों को न जानकर चारित्रादि से भ्रष्ट तेरह क्रियाओं को करने में आलसी तथा मन से सांसारिक सुख चाहने वाले श्रमण असन्न कहलाते हैं२८। जैसे कीचड़ में हुए मार्ग से भ्रष्ट पथिक भाव अवसन्न हैं वैसे ही अशुद्ध चारित्रयुक्त संयतमार्ग से भ्रमित श्रमण अवसन्न हैं भगवती आराधनाकार का कहना है कि इन्द्रिय और कषायरूप तीव्र परिणाम होने से सुखपूर्वक समाधि में लगा जो साधु पंचमहाव्रत, पंचसमिति, त्रिगुप्ति रूप क्रियाओं को आलसी होकर करने लगता है, वह अवसन्न या अवसंज्ञ कहलाता है। तेरह प्रकार के चारित्र से भ्रष्ट साधुओं द्वारा धर्म की प्रभावना हुई है और हो रही है। महानगरों की सुख सुविधाओं ने समितियों से नाता तुड़वा दिया है। रात्रि में बोलने और आधुनिक उपकरणों ने गुप्तियों का पालन भी छुड़ा दिया है। चारित्रभ्रष्ट साधुओं की क्रिया शास्त्राभ्यासी कुछ साधुओं का उक्त आचरण देखकर संक्लेषित होते हैं। धर्म की अप्रभावना होती है। अत: तेरह प्रकार का चारित्र प्रत्येक साधु को सतत पालने करते रहने की आवश्यकता है। 

मृगचरित्र

मृग—पशु के समान जिनका आचरण है, वे मृगचरित्र कहलाते हैं। ये मुनि आचार्य के उपदेश/आदेश को स्वीकार न करके स्वच्छन्द और एकाकी विचरण करते हैं। जिन वचनों में दूषण लगाकर तप:सूत्रों के प्रति अविनीत और धृति से रहित हो जाते हैं ये जिनसूत्र में दूषण लगाते हैं पूर्वाचार्यों के वाक्यों को न मानकर अपनी इच्छानुसार अर्थ की कल्पना करते हैं—वैंची से केश निकालना ही योग्य है ऐसा कहते हैं। केशलोंच करने से आत्म विराधना होती है। सचित्त तृण पर बैठने पर भी मूलगुण पाला जाता है। उद्देशादिक दोष सहित भोजन करने में दोष नहीं है। ग्राम में आहार करने जाने से जीव विराधना होती है। अत: अपनी प्रेरणा से बनवायी गई आश्रम रूप वसतिका में ही भोजन करना चाहिए। इस प्रकार उत्सूत्र भाषण करने वाले मृगचारित्री जो श्रमण हैं वे श्रमणाभास हैं। दीक्षा लेकर संघ तुरन्त छोड़कर अकेले स्वच्छन्द विचरण में जिन्हें संकोच नहीं है। वे स्वच्छन्द विचरण करने वाले निज—पर हानि करते हैं। भ्रष्ट मुनि दूसरे से ही साधु मार्ग का त्याग करके उन्मार्ग में प्रवृत्त रहते हैं तथा आगम में कहे हुए कुशील नामक मुनि के दोषों का आचरण करते हैं। इन्द्रिय के विषयों तथा कषाय के तीव्र कार्यों में तत्पर हुए वे मुनि चारित्र को तृणवत् समझते हुए निर्लज्ज होकर कुशील का सेवन करते हैं। जो मुनि साधु मार्ग का त्याग कर स्वतंत्र हुआ है, जो स्वेच्छाचारी बनकर आगम विरुद्ध और पूर्वाचार्यों के द्वारा न कहे हुए आचारों की कल्पना करता है उसे स्वच्छन्द नामक भ्रष्ट मुनि समझना चाहिए। (भगवती १३०६—१३१७) आचरणहीन को अनेक निदंनीय नामों से उल्लिखित किया गया मिथ्यादृष्टि, स्वच्छंद, द्रव्यिंलगी, पापश्रमण, नट, पापजीव, तिर्यंचयोनि, नारद, लौकिक, अभव्य, राजवल्लभ आदि निदनीय नाम दिये गये हैं। इन पाँच तरह के भ्रष्ट मुनियों की जिनेश्वरों ने आगम में निंदा की है। ये पांचों इन्द्रिय व कषाय के गुरुत्व से सिद्धान्तानुसार आचरण करने वाले मुनियों के प्रतिपक्षी हैं। ये पांचों ही जिनधर्म बाह्य हैं। इनको मूलच्छेद नाम का प्रायश्चित्त भी दिया जाता है। उक्त पाश्र्वस्थादि मुनियों के स्वरूप को शास्त्रों में जानकर उन्हीं जैसे प्रवृत्ति जिनके द्वारा की जा रही है उनके विषय में यह कथन सटीक है—जो मनुष्य यह जानते हुए भी कि अग्नि में हाथ देने से हाथ जल जायेगा। अग्नि में हाथ देता है तो उसका जानना न जानना समान है। यदि ज्ञान के अनुकू’ल मनुष्य का आचरण नहीं होता है तो वह ज्ञान व्यर्थ है।
 
यही आचार्य अमृचन्द्र ने कहा है—  ‘‘यथा प्रदीपसहितपुरुष: स्वकीयपौरुषबेलेन कूपपतनादि न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं प्रदीपो दृष्टिर्वा किं करोति न किमपि। तथायं जीव: श्रद्धानज्ञानसहिताऽपि पौरुषस्थानीय चरित्रबलेन रागादिविकल्परूपादसंयमाद्यदि न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं ज्ञानं वा किं कुर्यान्न किमपीति। ‘‘जैसे दीपक को रखने वाला पुरुष अपने पुरुषार्थ के बल से कूपपतन से यदि नहीं बचता है तो उसका श्रद्धान दीपक व दृष्टि कुछ भी कार्यकारी नहीं हुई, वैसे ही जो मनुष्य श्रद्धान, ज्ञान सहित भी है परन्तु पौरुष के समान चारित्र के बल से रागद्वेषादि विकल्परूप असंयमभाव से यदि अपने को नहीं हटाता है तो श्रद्धान तथा ज्ञान उसका क्या हित कर सकते हैं ? अर्थात् कुछ हित नहीं कर सकते हैं। अन्त में यही कहना अपेक्षित समझता हूँ कि चारित्रहीन श्रमण आत्म हित और परहित विघातक होता है। समाज चारित्रहीन श्रमणाभासी साधुओं के प्रति सजग होकर कार्य करे जिससे धर्म और समाज की मर्यादा सुरक्षित रह सके। 
डॉ. श्रेयांसकुमार जैन
रीडर संस्कृत विभाग दि. जैन कालेज, बड़ौत
अनेकान्त अक्टू. दिसम्बर. २०१० पृ० ६६ से ७७ तक
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