Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

श्रावकों को ‘पुरुषार्थ देशना’ की उपयोगिता!

July 7, 2017शोध आलेखjambudweep

श्रावकों को ‘पुरुषार्थ देशना’ की उपयोगिता


जैनदर्शन, संसार—सृजन व संचालन में किसी एक सर्वशक्ति संपन्न संचालक की सत्ता स्वीकार नहीं करता। अपितु कुछ ऐसे समवाय या तत्त्व हैं, जिनके योग से यह जगत स्वत: संचालित है। वे तत्त्व हैं—काल, स्वभाव, नियति, पुरुषार्थ और कर्म। उक्त पाँच समवायों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण—पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ—व्यक्ति को लक्ष्य तक पहुँचाता है। आत्मा का पुरुषार्थ—कर्म के बंध या क्षयोपशम का हेतु होता है। पुरुषार्थ—मानव को महामानव या आत्मा को परमात्मा बनने की दिशा में ले जाता है। पुरुषार्थहीन—साधना के मार्ग पर अवरुद्ध हो ठूँठ की भाँति खड़ा रहता है। भगवान महावीर की दिव्य देशना ने पुरुषार्थ को संयम व अध्यात्म से जोड़ने के लिए कहा। आचार्य अमृतचन्द्र जैन वाङ्मय में प्रखर भास्वर के समान भासमान दसवीं शताब्दी के ऐसे महान आचार्य हैं, जिनका नाम आचार्य कुन्दकुन्द देव, उमास्वामी और समन्तभद्र के पश्चात् बड़े आदर के साथ लिया जाता है। ‘पुरुषार्थसिद्धयुपाय’ इनकी मौलिक रचना है। वस्तुत: यह श्रावकों की आचार—संहिता अथवा कहें कि श्रावकधर्म का महाग्रंथ है। ग्रंथ की पृष्ठभूमि में अनेकान्त व स्याद्वाद के आलोक में निश्चय व व्यवहार नय का कथन, कर्मों का कत्र्ता भोक्ता आत्मा, जीव का परिणमन एवं पुरुषार्थसिद्धयुपाय का अर्थ बतलाया गया है। यह ग्रंथ पाँच भागों में विभक्त है— (१) सम्यक्त्व विवेचन, (२) सम्यग्ज्ञान व्याख्यान, (३) सम्यक्चारित्र व्याख्यान, (४) सल्लेखना व समाधिमरण तथा (५) सकल चारित्र व्याख्यान। 

गहरे गोता—खोर की भाँति जैसे कोई

गहरे सागर से मोती खोजकर लाता है और मोतियों की अमूल्य व अभिराम माला बनाकर आभूषण का रूप देता है, वैसे ही आचार्य श्री विशुद्धसागर जी ने, इष्टोपदेश भाष्य का प्रणयन कर दिया। संपूर्ण ‘पुरुषार्थ देशना’ का स्वाध्याय और चिंतन से जो निष्कर्ष और फलश्रुतियाँ निकलीं वे श्रावकों के लिए अत्यन्त उपादेय हैं। कारण है—कि ‘पुरुषार्थ देशना’ की सरस सरल भाषा और कथन—शैली प्रभावक है। अनेक कथानकों और उदाहरणों से आगम—सिद्धांत को दृढ़ आधार दिया। यह केवल पुरुषार्थसिद्धयुपाय के २२५ संस्कृत—पद्यों का विस्तारीकरण ही नहीं है, अपितु १६ पूर्ववर्ती आचार्यों के ३६ अध्यात्म ग्रंथों के संदर्भों से विषय की पुष्टि की है। जैसे एक कुशल अधिवक्ता, न्यायाधीश के समक्ष केस से संबन्धित नजीरें देकर अपनी बात को वैधानिक जामा पहनाता है, वही काम आचार्य विशुद्धसागर जी ने इस कृति में भी अन्यान्य भाष्यकृतियों के समान प्रस्तुत किये एक दिगम्बर संत—केवल वैदुष्य या पाण्डित्य का धनी नहीं होता, अपितु उसके साथ तप साधना की आध्याम्मिक ऊर्जा का तेज होता है। उस तप—बल के चितन से, वह आत्मानुभूति के गवाक्ष से, मूलकृति ‘पुरुषार्थसिद्धयुपाय’ के अध्यात्म अंतरिक्ष को निहारता है। इस वैशिष्ट्य के कारण हर आचार्य की कृति एक मौलिक रचना के स्वरूप में रूपायित होकर, जैनवाङ्मय के कोष में वृद्धि करता है। जिस प्रकार अमृतचन्द्र स्वामी ने ‘समयसार’ के ऊपर ‘अध्यात्म—अमृतकलश’ नाम से कुन्दकुन्दव के आत्मभावों को उद्घाटित कर समयसार की लौकिक और पारलौकिक संपदा का खजाना अनावृत किया, उसी तरह ‘पुरुषार्थ देशना’ ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय के २—२ या ३—३ पद्यों के समूह को उपशीर्षक देकर विषयवस्तु का केन्द्रीकरण कर दिया। उक्त ग्रंथ का नाम चार पदों के समुच्चय—रूप है। पुरुष, अर्थ, सिद्धि उपाय। पुरुष का शब्दार्थ आत्मा भी है। आत्मा के अर्थ यानी प्रयोजन की सिद्धि (प्राप्ति) के उपाय को बतलाने वाला यह अभीष्ट ग्रंथ है। आगम में चार प्रकार का पुरुषार्थ कहा गया है—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। एक श्रावक या जैन—गृहस्थ इन चारों पुरुषार्थ को साधता है। वह धर्मपूर्वक अर्थ या धनसंपत्ति का उपार्जन करता है। स्वदार संतोष व्रत को पालता हुआ स्वपरिणीता के साथ संतान की प्राप्ति के लिए कामेच्छा करता है—वह भी पुरुषार्थ में परिगणित है क्योंकि इससे श्रावक कुल की परम्परा प्रवर्तमान होती है। प्रमादवश यदि श्रावकोचित पथ से भटकता है तो श्रद्धा के सहारे पुन: मोक्षमार्ग का ज्ञान प्राप्त कर अपने अभ्यास को दुहराता रहता है। जबकि सकल चारित्रधारी मुनिराज/आचार्य, मोक्षमार्ग के पथिक होते हैं। 

‘पुरुषार्थ देशना’ भाष्य कृति के सृजन का लक्ष्य

(१) निश्चित ही ‘पुरुषार्थ देशना’ के अमृत—प्रवचन के सार संक्षेप हैं जो संपादित हैं। इस दिव्य देशना के पीछे से पाण्डित्य का प्रदर्शन है और न ही ज्ञान के क्षयोपशम का वैशिष्ट्य प्रगट करना है अपितु श्रावकों के संयम—मार्ग को ज्ञानालोक से प्रकाशित करना है। मार्ग में यदि अंधकार है, तो भटकने की संभावना रहती है। प्रकाश के सद्भाव में मार्ग साफ नजर आता है। सिद्धान्त में दिखने वाली शंकाओं के अवरुद्ध को दूर कर, विरोध का निरसन करने वाले अनेकान्त व स्याद्वाद के द्वारा वस्तु—तत्त्व का निरूपण करना ही आचार्य को अभीष्ट है। आचार्य अमृतचन्द्र ने, मंगलाचरण में अनेकान्त को इसलिए नमस्कार किया कि वह जैनागम का प्राण है। आचार्य विशुद्धसागर अनेकान्त के वैशिष्ट्य को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि यदि दृष्टि में अनेकान्त हो, वाणी में स्याद्वाद हो और आचरण में अहिंसा हो तो विश्व के विवादों का हल और शान्ति की मौजूदगी स्वयमेव हो जायेगी। श्रमण—संस्कृति के उक्त तीन सूत्र ही पुरुषार्थ सिद्धि के सशक्त साधन या उपाय हैं। जीवन में अनेकान्त की क्या व्यावहारिकता है ? इसे आचार्य श्री एक जन्मान्ध के एकांगी ज्ञान का उदाहरण देते हुए समझाते हैं। वह जन्मान्ध हाथी के जिस अंग को स्पर्श कर रहा है, उसे ही संपूर्ण हाथी मान रहा है। यही अधूरा ज्ञान उसकी अज्ञानता है, जो ज्यादा घातक है। यही अधूरापन अध्यात्म की भाषा में एकान्तनय या निरपेक्ष नय कहा जाता है जो मिथ्यात्व होता है। आप्तमीमांसा में कहा है—‘निरपेक्षनमो मिथ्या।।१०८।। आचार्य विशुद्धसागर जी के संबोधन में संभावना की तलाश है। वे अणु में विराट व बीज में वटवृक्ष की संभावना के विश्वासी हैं तभी तो सभी श्रोताओं को वे ज्ञानी, मुमुक्षु या मनीषी शब्द का संबोधन देते हैं।ज्ञान को आत्मसात करने वाला ज्ञानी तथा तत्त्व का भेदविज्ञानी मुमुक्षु या मनीषी है। ये शब्द किसी विद्वत्ता या पाण्डित्य के भी सूचक नहीं। सम्यक्त्वी अल्पाहारी भी ज्ञानी व मुमुक्षु हो सकता है और चारित्रशून्य विद्वान भी अज्ञानी है क्योंकि विद्वान के पास तोता रटन्त ज्ञान है वह आत्मसाती नहीं है। संयम का अनुशीलनकर्ता ही सही मनीषी है। सच्चा सम्यक्त्वी—चारित्रमूलक धारणाओं का विश्वासी बन जाता है। 

(२) पुरुषार्थ देशना की पृष्ठभूमि के दो तथ्य—बिन्दु

आचार्य विशुद्धसागर जी कहते हैं कि यदि लोक में जीना है, तो लोक—व्यवहार बनाकर चलो। यदि लोकोत्तर होना चाहते हो तो शुद्ध सम्यक्दृष्टि बनकर लोक—व्यवहार से ऊपर उठकर आत्मा की निश्चय—दृष्टि अपनानी होगी। भावी तीर्थंकर आचार्य समन्तभद्र ऐसा ही लोकोत्तर जीव है जो लोक विनय के समय ध्यान में बैठ जाता है। जिनशासन देवी—ज्वालामालिनी प्रकट होकर कहती है—‘चिता मा कुरु’ अपनी दृढ़ श्रद्धा से च्युत न होना और तभी समन्तभद्र राज से बोले—‘राजन् ! यह शिवपिण्डी मेरा नमस्कार सहन नहीं कर सकेगी और जैसे ही स्वयंभूस्तोत्र का वह पद—वन्दे कहा कि पिण्डी फट जाती है और उसमें से भगवान चन्द्रप्रभ की प्रतिमा प्रकट हो जाती हैं। अंतरंग में इतनी विशुद्धता वाला आचार्य अनेकान्त व स्याद्वाद का कथन, अपने ‘‘अध्यात्म अमृत कलश’’ में करते हुए कहते हैं—

उभयनय विरोधध्वंसिनी स्यात्पदांगे। जिन—वचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहा:।।४।।

जो जीव व्यवहार व निश्चय दोनों नयों की परस्पर की विरुद्धता को मिटा देने वाले स्यात् या कथंचित् पद से चिन्हित जिन—वचनों में रमण करते हैं वे स्वयं मोह का त्याग करते हुए पक्षपात रहित हो ज्योति स्वरूप शुद्धात्म स्वरूप को देखते हैं। यही स्यात् पद अपेक्षा वाचक है और विरोध का मंथन करने वाला है। दूसरा तथ्य है जो आचार्य विशुद्धसागर जी वैज्ञानिक शैली से समझाने का प्रयास करते हैं। वह है आत्मा की बंध या निर्बध दशा। आत्मा जब रागादि परिणमन करती है तो पुद्गल की कार्मण वर्गणाएँ—ज्ञानावरणादिक द्रव्य कर्मों में परिणत कर बंध दशा को प्राप्त होती है तथा कर्म के निमित्त को पाकर जीव रागादि भावों को प्राप्त होता है। इन दोनों द्रव्यों में यह क्रियावती शक्ति पाई जाती है। 

वस्तुत: चैतन्य विद्युत् तरंगें,

इस शरीर रूपी मशीन से काम करा रही हैं। चैतन्य बिजली चली गयी तो मशीन धरी की धरी रह गयी। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं बिना व्यवहार के हम परमात्मा को नहीं समझ सकते। इसी प्रकार बिना पुद्गल के संयोग से हम आत्म द्रव्य को नहीं समझ सकते। मोबाइल की सिद्धि जैनागम से होती है। तीर्थंकर ने जन्म लिया जो स्वर्ग के सौधर्म इन्द्र का मुकुट हिलने लगा और नरक के नारकी क्षणभर के लिए शांति का अनुभव करने लगे। यह पुण्य वर्गणा ने प्रभाव दिखाया, भले ही स्वर्ग या नरक में कोई मोबाइल नहीं रखा था। पुद्गल वर्णणाएं अपना काम कर रही हैं। इस प्रकार जैसे आत्मा के परिणाम कर्मवर्गणाओं को कर्म रूप परिणमित होने में निमित्त बने वैसे ही रागद्वेष रूप परिणमन कराने में कर्म निमित्त मात्र हैं। ऐसा निमित्त नहीं मानोगे तो सिद्धों को भी सिद्धालय से वापिस आना पड़ेगा। 

(३) ‘पुरुषार्थ देशना’ श्रावकों के अष्टमूलगण और रत्नत्रय धर्म पालन करने का एक संपूर्ण आचरण—भाष्य ग्रंथ है।

वस्तुत: उपदेश तो महाव्रत धारण करने का दिया जाता है अत: सकल चारित्र का अध्याय भी इसमें समाहित है परन्तु जीव के कल्याण हेतु क्रमिक देशना का व्याख्यान करना और छिपे अध्यात्म रहस्यों को अनावृत करना इसका अभीष्ट लक्ष्य है। यह एक नैतिक कहावत है कि पाप से घृणा करो पानी से नहीं। योगी का उपदेश केवल वचनात्मक नहीं होता वह अपने साधुत्व स्वभाव से बड़े से बड़े व्यसनी को योगी बना लिया। घटना एक नगर प्रवेश के समय की थी वही व्यसनी आचार्य श्री के सम्मुख आ खड़ा हुआ। लोग िंकचित् िंचतित हो गये कि अब यह क्या करने वाला है ? आचार्य श्री ने देखा और अपना कमण्डलु पकड़ा दिया इतना ही नहीं प्रवचन सभा में उसे अपने बगल में बिठा लिया। हृदय—परिवर्तन के लिए आचार्य श्री की यह अचूक दृष्टि—कि वह नवयुवक सप्त व्यसनी, सभा के बीच खड़ा हो गया और जीवनपर्यन्त के लिए अखण्ड ब्रह्मचर्य का व्रत लेने के लिए प्रार्थना करने लगा। आचार्य श्री ने आशीर्वाद दे दिया। संत हृदय असंत में भी संत खोज लेते हैं। वही आगे चलकर आचार्य संघ में मुनि पायसागर और बाद में आचार्य पायसागर बन गये। उपद्रवी में भी भगवान बैठा है। क्या मनीचि का जीव कम उपद्रवी था जिसने ३६३ मिथ्या मत चलायें बाद में वही भगवान महावीर बने। आवश्यकता है—अन्वेषण दृष्टि की। (४) पुरुषार्थसिद्धयुपाय का केन्द्र विषय वस्तु सम्यक्चारित्र के अन्तर्गत पंचव्रतों में अहिंसा व्रत का वर्णन प्रमुख है। आचार्य अमृतचन्द्र नेहिंसा/अहिंसा की व्याख्या लगभग ४० पद्यों में (श्लोक ४३ से ८६) करते हुए झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह में भीहिंसा पाप होना बताया। आचार्य विशुद्धसागर ने विविध उदाहरणों और कथानकों सेहिंसा की व्यापकता को उल्लिखित किया। आचार्य अमृतचन्द्र ने रागादि भावों के सद्भाव में भले ही द्रव्यहिंसा न हो रही हो परन्तु भावहिंसा का सद्भाव बताया है तथा कई अपेक्षाओं से हिसा/अहिंसा का विवेचन किया है— (१) एक व्यक्तिहिंसा का पाप करता है और अनेक व्यक्ति उसका फल भोगते हैं। (२) अनेक व्यक्तिहिंसा करते हैं परन्तु एक व्यक्ति फल भोगता है। (३)हिंसा करने पर भी (अप्रमाद अवस्था में) अिंहसक बना रहता है। (४) प्राणघात न करने पर भी हिसक हो जाता है। हिसा/अहिंसा के दायरे को ‘पुरुषार्थ देशना’ में बहुत खुलासा करके समझाया गया है। आचार्य विशुद्धसागर भावहिंसा व द्रव्यहिंसा का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि मुमुक्ष उभयहिंसा का त्यागी होता है। श्रावकों को सचेत करते हुए कहते हैं कि आप लोग निष्प्रयोजन भाव हिंसा करते रहते हैं। किसी सीरियल में किसी का घात हो गया और अनुमोदना करते हुए आपने ताली बजा दी या शत्रु देश के हताहत सैनिकों के लिए खुशी जाहिर की तो आपने अकारण ही भावहिंसा कर ली। इसी प्रकार कषाय रूप परिणामों से भले ही परघात नहीं किया परन्तु अपने स्वभाव का घात करने से आप हिसक है। 

स्वयंभूरमण समुद्र का महामच्छ

जब छह माह सोता है तो उसके २५० योजन के खुले मुख में अनेक जीवन आते जाते रहते हैं। उसके कान में बैठा एक तन्दुलमच्छ सोचता है यदि मुझे ऐसी शरीर की अवगाहना मिली होती तो एक को भी नहीं छोड़ता। तन्दुलमच्छ अपने कलुषित भावों के कारणहिंसा का इतना बंध कर लेता है कि मरकर सातवें नरक जाता है। जीव की परिणति देखिए—बिना सताये अपने प्रमाद भावों के कारण कितनी हिंसा कर लेता है कि वर्तमान में संयम धारण करने के परिणाम नहीं हो पा रहे हैं। कषाय से युक्त जीव अपनी आत्मा का पहले घात करता है क्योंकि अंगार को हाथों से फैकने वाले के हाथ पहिले जलते हैं भले ही दूसरा जले या न जले। अहिंसा का पालन करने वाला वस्तुत: दूसरे की नहीं, बल्कि स्वयं की रक्षा कर रहा है। जो स्वयं की रक्षा के भाव में जीता है, वह पर की रक्षा तो कर ही रहा है। आप संभल संभल के चलेंगे तो जीवों की रक्षा स्वयमेव हो जायेगी। आचार्य कहते हैं तू दूसरे के उपकार का कत्र्ता बनकर अहंकार मत करना। अपने उपकार की बात बताकर यदि उसके मन को दु:खी किया तो वहहिंसा है। उपकार करना है तो बिना बताये, जैसा अमरचन्द्र दीवान ने एक गरीब वृद्धा माँ की, की थी। जिसके घर में खाने का अनाज भी नहीं था।
प्राचार्य पं. निहालचंद्र जैन
Tags: Anekant Patrika
Previous post आधुनिक संदर्भ में ‘सामायिक’ की उपादेयता! Next post सिद्धवरकूट—कतिपय तथ्य!

Related Articles

कंलिङ्ग चक्रवर्ती खारवेल!

July 19, 2017jambudweep

णवकार-मंत्र-माहात्म्य!

July 7, 2017jambudweep

आस्रव स्वरूप और कारण!

February 10, 2017jambudweep
Privacy Policy