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श्रावक और उनके षड् आवश्यक कर्त्तव्य!

December 9, 2020शोध आलेखjambudweep

श्रावक और उनके षड् आवश्यक कर्तव्य


श्रावक शब्द का अर्थ

श्रावक शब्द का सामान्य अर्थ श्रोता या सुनने वाला है। जो जिनेन्द्र भगवान के वचनों को एवं उनके अनुयायी गुरूओं के उपदेश को श्रद्धापूर्वक सावधानी से सुनता है, वह श्रावक है कहा भी गया है|

‘‘अवाप्तदृष्टयादि विशुद्धसम्पत् परं समाचारमनुप्रभातम्। श्रृणोति य: साधुजनादतन्द्रस्तं श्रावकं प्राहुरमीर जिनेन्द्रा:।।’’१

अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि विशुद्धि सम्पत्ति को प्राप्त जो व्यक्ति प्रात:काल से ही साधुजन से उनकी समाचार विधि को आलस्य रहित होकर सुनता है, जिनेन्द्र भगवानों ने उसे श्रावक कहा है। श्रावक शब्द की एक निरूक्ति भी प्राप्त होती है, जिसमें श्र, व और क वर्णों को क्रमश: श्रद्धा, विवेक और क्रिया का प्रतीक मानकर श्रद्धावान् विवेकशील एवं अणुव्रती गृहस्थ को श्रावक कहा गया है। यथा—
‘‘श्रन्ति पचन्ति तत्त्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्रा: तथा वपन्ति गुणवत्सप्तक्षेत्रेषु
धनबीजानि निक्षिपन्तीति वा: तथा किरन्ति क्लिष्टकर्मरजो
विक्षिपन्तीति का:, तत: कर्मधारये श्रावका इति भवति:।’’२
 
अर्थात् श्रावक शब्द में प्रयुक्त ‘श्रा’ शब्द तत्त्वार्थश्रद्धान की सूचना देता है, ‘व’ शब्द सप्त धर्म क्षेत्रों में धन रूपी बीजों को बोने की प्रेरणा करता है और ‘क’ शब्द क्लिष्ट कर्म या महान् पापों को दूर करने की सूचना देता है इस प्रकार से कर्मधारय समास करने पर निरूक्ति के रूप में श्रावक शब्द निष्पन्न हो जाता है।

श्रावक की अन्य संज्ञायें

श्रद्धावान् गृहस्थ को भिन्न-भिन्न स्थानों पर श्रावक, उपासक, आगारी, देशव्रती, देशसंयमी आदि नामों से उल्लिखित किया गया है। यद्यपि यौगिक दृष्टि से इन नामों के अर्थों में अन्तर है, तथापि सामान्यत: ये एकार्थक या पर्यायवाची माने जाते हैं। देशव्रती या देशसंयमी पञ्चम गुणस्थानवर्ती श्रावक की ही संज्ञा हो सकती है, चतुर्थ गुणस्थानवर्ती की नहीं। आगम और श्रावकाचारों में श्रावक शब्द को अनेक नामों से अभिहित किया गया है— उपासक, श्रावक,देशसंयमी , आगारी, श्रममोपासक, सद्गृहस्थ , सागर आदि ।

आचार्य जिनसेन कृत आदिपुराण में भी ‘श्रावक’ के लिये उपासक, गृहस्थ आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है।३

उपासक का अर्थ उपासना करने वाला होता है जो मनुष्य वीतराग देव की नित्य पूजा उपसना करता है , निर्ग्रन्थ गुरूओं की सेवा वैयावृत्य में तत्पर रहता है और सत्यार्थ धर्म की आराधना करते हुए उसे यथाशक्ति धारण करता है उसे उपासक कहा जाता है। श्रमणों की उपासना करने वाले की अपेक्षा श्रमणोपासक, सत्यार्थ धर्म की साधना करने वाला होने से सागार कहलाता है, यद्यपि साधारणतया ये सब नाम पर्यायवाची माने गये हैं तथापि यौगिक दृष्टि से परस्पर विशेषता होने से अलग—अलग नाम उल्लिखित है। श्रावक अणुव्रती व रत्नत्रय का पालक होता है और रत्नत्रय का धारक होने से ही उसे श्रावक संज्ञा दी गयी है। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने गृहस्थ साधु के लिए ‘सावय’ (श्रावक) और सागार शब्द प्रयुक्त किये हैं। उन्होंने श्रावक को सग्रन्थ अर्थात् परिग्रह सहित संयमाचरण का उपदेश दिया है। पंचाणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत इस तरह बारह प्रकार का संयमाचरण बताकर देशविरत श्रावक को दर्शन, व्रत सामायिक आदि बारह श्रेणियाँ भी बतायी है।४
श्रावक के लिये उपासक शब्द प्राचीनकाल में बहुश:प्रचलित रहा है। इसी कारण व्रती गृहस्थ के आचार विषयक ग्रन्थों का नाम प्राय: उपासकाध्ययन या उपासकाचार रहा है। स्वामी समन्तभद्र द्वारा निर्मित रत्नकरण्ड को भी उसके संस्कृत टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र ने ‘रत्नकरण्डकनाम्नि उपासकाध्ययने’ वाक्य में रत्नकरण्ड नामक उपासकाध्ययन ही कहा है। घर में रहने के कारण गृहस्थ की सागर संज्ञा है। इसे गृही, गृहमेधी नाम भी प्रयुक्त हुए हैं। यहाँ गृह वस्त्रादि के प्रति आसक्ति का उपलक्षण प्रतीत होता है। अणुव्रत रूप देशसंयम को धारण करने के कारण श्रावक की देशसंयमी, देशव्रती और अणुव्रती भी कहा गया है।

षड् आवश्यक कर्तव्य

नित्य के अवश्यकरणीय रूप कर्तव्यों को ‘आवस्सय’ या आवश्यक कहते हैं। सामान्यत: अवश्य का अर्थ अकाम , अनिच्छु, स्वाधीन, स्वतंत्र, रागद्वेष से रहित तथा इन्द्रियों की आधीनता से रहित होता है तथा इन गुणों से युक्त अर्थात् जितेन्द्रिय व्यक्ति की अवश्यकाणीय क्रियाओं को आवश्यक कहते हैं। मूलाचार में आचार्य वट्टकर ने कहा है—

‘ ण वसो अवसो अवस्य कम्ममावासगं त्ति बोधण्वा।’५

अर्थात् जो रागद्वेषादि के वश में नहीं होता वह अवश है तथा उस (अवश) का आचरण या कत्र्तव्य आवश्यक कहलाता है। श्रावकों का प्रतिदिन करने वाले छ: आवश्यक बतलाये हैं। इन आवश्यकों में परिवर्तन भी हुए हैं। आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरूषार्थ सिद्धयुपाय में मुनियों के षडावश्यकों को ही यथाशक्ति गृहस्थों के लिए करणीय माना है—

जिनपुंगवप्रवचने मुनीश्वराणां यदुक्तमाचरणम्। सुनिरूप्य निजां पदवीं शत्तिंक च निषेव्यमेतदपि।।६

यशस्तिलक चम्पू में श्री सोमदेव सूरि षडावश्यकों का उल्लेख इस प्रकार किया है—

देवसेवा गुरूपास्ति: स्वाध्याय: संयमस्तप:। दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने।।७

महापुराण में आचार्य जिनसेन ने श्रावक के करने योग्य षट् आवश्यक क्रियाओं का वर्णन किया है, उन्होंने कहा है कि भरतराज ने उपासकाध्ययन नामक अंग से उन व्रती लोगों के लिए इज्या (पूजा) वार्ता, दत्ति (दान), स्वाध्याय, संयम और तप का उपेदश दिया है।
८ चारित्रसार में पूरे छ: आवश्यक जिनसेन की तरह की है—

गृहस्थस्येज्या वार्ता दत्ति: स्वाध्याय संयम: तप इत्यार्यषट् कर्माणि भवन्ति।

चारित्रसार में यह बात अलग है कि षडावश्यकों को पालने वाले गृहस्थ दो प्रकार के होते हैं—जाति क्षत्रिय और तीर्थ क्षत्रिय । जाति क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र के भेद से चार प्रकार है। तीर्थ क्षत्रिय अपनी आजीविका के भेद से अनेक प्रकार के हैं ।

पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका में भी देवपूजा, गुरू उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये छ: कर्म ही बतलाये हैं।९

प्रश्नोत्तरश्रावकाचार में यत्नपूर्वक, मृत्यु पर भी षडावश्यक करणीय माने गये हैं।

इन्होंने समता, वन्दना दान, कायोत्सर्ग, संयम और ध्यान को अलग—अलग श्लोकों में षडावश्यक माना है।१०

धर्मसंग्रहश्रावकाचार में आचार्य जिनसेन के समान ही इज्या, वार्ता, तप, दान, स्वाध्याय तथा संयम इन छ: कर्मों को प्रतिदिन करने वालों को गृहस्थ माना है।११

कुन्दकुन्द श्रावकाचार में सबसे अलग संख्या निर्धारित की और श्रावकों के दस गृहस्थ धर्म बतलाये हैं—

दया दानं दयो देव—पूजा भक्तिर्गुरौ क्षमा। सत्यं शौचस्तपोऽस्तेयं धर्मोऽयं गृहमेधिनाम्।।१२

अर्थात् दया, इन्द्रियदमन, देव—पूजन, गुरूभक्ति, क्षमा, सत्य, शौच, तप, अचौर्य यह गृहस्थों का धर्म कहा गया है । यद्यपि इन्हें यहाँ आवश्यक शब्द से नहीं कहा गया तथापि कही भी षडावश्यकों का पृथक् उल्लेख न होने के कारण हम इन्हीं को दशावश्यक मान लेते हैं। पदद्मकृत श्रावकाचार में पुन: उन्हीं षडावश्यकों को स्वीकार किया गया है जो मुनियों में होते हैं—

१. देवपूजा

देवदर्शन ही सम्यग्दर्शन का निमित्त है, देव पूजा को श्रावकों को प्रतिदिन करने वाले आवश्यकों में रखकर अनिवार्य माना गया। आचार्यों ने देवपूजा के बारे में एक स्वर में समर्थन दिया। देव पूजा की विधियों में यद्यपि कुछ अन्तर दिखायी देते हैं किन्तु वे सभी श्रावक को धर्म से जोड़ने रखने हेतु आवश्यक जान पड़े इसलिये उनका समावेश किया गया है। देव पूजा गृहस्थों का आवश्यक कत्र्तव्य है।

आचार्य समन्तभद्र कहते हैं — गृहस्थ को आदरपूर्वक नित्य सर्वकामनाओं के पूर्ण करने वाले और कामविकार को जलाने वाले देवाधिदेव जिनेन्द्र भगवान् की पूजा अर्चना जरूरी चाहिए।१३

महापुराण में आचार्य जिनसेन ने, अर्हन्त देव की पूजा के लिए पांच प्रकार बताये हैं, वे पांच प्रकार हैं—

(१) नित्य—मह (सदार्पण)

प्रतिदिन अपने घर से जिनालय में ले जाये गये गंध अक्षत आदि के द्वारा जिन भगवान् की पूजा नित्यमह कहलाता है। भक्ति से जिनबिम्ब और जिनालय आदि का निर्माण कराना तथा उनके संरक्षण के लिये ग्राम आदि का राज्य शासन के अनुसार, पंजीकरण करके दान देना भी नित्यमय कहलाता है।

अपनी शक्ति के अनुसार मुनीश्वरों की नित्य अहार आदि के साथ जो पूजा की जाती है वह भी नित्यमह कहलाती है।१४

(२) चतुर्मुख —मह (महामह, सर्वतोभद्र)

महामुकुट—बद्ध राजाओं के द्वारा की जाने वाली महापूजा को चतुर्मुख— यह आदि नामों से जाना जाता है।१५

(३) कल्पद्रुम —मह (कल्पवृक्ष—यज्ञ)

चक्रवर्तियों के द्वारा ‘‘तुम लोग क्या चाहते हो ?’’

इस प्रकार याचक जनों से पूछ —पूछकर जगत् की आशा को पूर्ण करने वाला किमिच्छक दान दिया जाता है, वह कल्पद्रुम मह या कल्पवृक्ष—यज्ञ कहलाता है।१६

(४) (आष्टह्निक — मह)

आष्टह्निका पर्व में सामान्यजनों के द्वारा किया जाने वाला पूजन, आष्टाह्निक—मह कहलाता है।१७

इन्द्रध्वज—   मह उपर्युक्त चारों प्रकार की पूजनों के द्वारा इन्द्रों के द्वारा की जाने वाली महान पूजा को इन्द्रध्वज मह कहते हैं, आज के युग में प्रतिमा की प्रतिष्ठा के निमित्त प्रतिष्ठाचार्यों के द्वारा जो पंचकल्याणक पूजा की जाती है, उसे इन्द्रध्वज—मह कहा जाता है।

१८ इसके अलावा भी जो पूजन किया जाता है , उन सबका समावेश इन पांच भेदों में हो जाता है।

आचार्य जिनसेन इस विधि से युक्त महान् पूजन को षट् आवश्यकों (कत्र्तव्यों) में इज्या—वृत्ति (देव—पूजन) कहते हैं।१९

देव रूप बताते हुए आचार्य कहते हैं कि एक तो पुष्पादि में जिनभगवान् की स्थापना करके पूजा की जाती है, दूसरे जिनबिम्बों में जिन् भगवान् की स्थापना करके पूजा की जाती है, अन्य दूसरे मतों की प्रतिमाओं में जिनेन्द्रदेव की स्थापना करके पूजा नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार अतदाकार और तदाकार पूजन के (अतदाकार) जिनेन्द्रदेव की स्थापना करके पूजन करते हैं। उसकी पूजा विधि बताते हुए कहते हैं कि पूजा विधि के ज्ञाताओं को सदा अर्हन्त और सिद्ध को मध्य में, आचार्य को दक्षिण में, उपाध्याय को पश्चिम में, साधु को उत्तर में और पूर्व को सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को क्रम में भोजपत्र पर, लकड़ी के पाटिये पर, वस्त्र पर शिलातल पर, रेत से बनी भूमि पर , पृथ्वी , आकाश में और हृदय मतें स्थापित करना चाहिए, फिर पूजा करनी चाहिए।

२० इसके बाद प्रतिमा में स्थापना करके तदाकार पूजन करने की विधि आचार्यों ने बतायी।

आचार्य ने देव पूजा के छ: प्रकार बतलाते हैं— १. प्रस्तावना, २. पुराकर्म , ३. स्थापना , ४.सन्निधापन, ५. पूजा, ६. पूजा का फल।२१

२. गुरू पूजा- गुरूभक्ति

भारतीय संस्कृति में प्राचीनकाल से ही विख्यात है। सभी जैन आचार्यों ने गुरू भक्ति को श्रावकों का आवश्यक कत्र्तव्य माना है। रत्नकरण्डश्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र ने सत्यार्थ गुरू का लक्षण दिया है, वे कहते हैं कि जो पंचेन्द्रियों की आशा के वश में रहित हो, खेती—पशु—पालन आदि आरभं से रहित हो, ज्ञानाभ्यास , ध्यान, समाधि और तपश्चरण में निरत हो ऐसे तपस्वी निर्ग्रन्थ गुरू प्रशंसनीय होते हैं।
 
२२ पण्डित मेधावी ने धर्मसंग्रह श्रावकाचार में कहा है कि दर्शनाचार, ज्ञानाचार आदि पंच प्रकार के आचार से युक्त सूरि (आचार्य) द्वादशांग शास्त्र को जानने वाले उपाध्याय तथा अपनी आत्मा की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने वाले साधु (मुनि) ये सब पूजन योग्य है।
२३ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार में निग्र्रन्थ अर्थात् परिग्रह रहित को ही गुरू मानने को कहा है, अन्य की नहीं—

‘निग्र्रन्थश्च गुरुर्नान्य एतत्सम्यक्तवमुच्यते।’

धर्मोंपदेशपीयूषवर्ष श्रावकाचार में भी जो रत्नत्रयधारी हो तथा स्वयं को एवं दूसरों को संसार से पार लगाये उन्हीं गुरू को पूजनीय माना है—

सन्त ते गुरवो नित्यं ये संसार —सरित्पतौ। रत्नत्रयमहानावा स्व— परेषां च तारका:।।२४

उमास्वामीश्रावकाचार में कहा गया है कि गुरू के बिना भव्यजीवों को भव से पार उतारने वाला कोई भी नहीं है और न ही गुरू के बिना अन्य कोई मोक्षमार्ग का प्रणेता ही हो सकता है। अत: सज्जनों को श्री गुरू की सेवा करनी चाहिए।

गुरूं बिना न कोऽप्यास्ति भव्यानां भवतारक: । मोक्षमार्गप्रणेता च सेव्याऽत: श्रीगुरू: सताम् ।। गुरूणां गुणयुक्तानां विधेयो विनयो महान् । मनोवचनकायैश्च कृतकारितसम्मतै:।।२५

अर्थात् गुणों से संयुक्त गुरूओं की मन—वचन—काय से कृत कारित अनुमोदना से महान् विनय करनी चाहिए। पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका में गुरू की उपासना का सुफल तथा नहीं करने पर दुष्फल इन दोनों का ही वर्णन है—

गुरोरेव प्रसादेन लभ्यते ज्ञानलोचनम् । समस्तं दृश्यते येन हस्तरेखेव निस्तुषम् ।। ये गुरूं नैव मन्यन्ते तदुपास्तिं न कुर्वते। अन्धकारो भवेत्तेषामुदितेऽपि दिवाकरे।।२६

अर्थात् गुरू के प्रमाद से ही ज्ञान रूप नेत्र प्राप्त होता है, जिसके द्वारा समस्त विश्वगत पदार्थ हस्तरेखा के समान स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसलिये ज्ञानार्थी गृहस्थों को भक्तिपूर्वक गुरूजनों की वैयावृत्य और वन्दना आदि करना चाहिये। जो गुरूजनों का सम्मान नहीं करते हैं और न ही उनकी उपासना ही करते हैं, सूर्य के उदय होने पर भी उनके हृदय में अज्ञानरूप अन्धकार बना ही रहता है।

३. स्वाध्याय :

‘स्वाध्याय: परमं तप:—कहकर आचार्यों ने स्वाध्याय को तप के भेदों में गिना है।यद्यपि ‘तप’ भी षडावश्यकों में है। तथापि स्वाध्याय का महत्त्व इतना अधिक है तो उसे पृथक् स्थान देकर उसकी अनिवार्यता मानी है। स्वाध्याय स्व—पर का भेद ज्ञान करवाने में सबसे बड़ा निमित्त है। शेष आवश्यकों को सच्ची रीतिपूर्वक करने के लिये भी स्वाध्याय बहुत आवश्यक है। धर्मसंग्रह श्रावकाचार के अनुसार अपने लिये अध्ययन करने को स्वाध्याय कहते हैं और यही स्वाध्याय अज्ञान का नाश करने वाला है—

स्वाध्यायायोऽध्ययनं स्वस्मै जैनसूत्रस्य युक्तित:। अज्ञानप्रतिवूलत्वात्तप : स्वेष परं तप:।।२७

आचार्य स्वाध्याय को मोक्ष का कारण बताते हुए कहते हैं कि स्वाध्याय के करने से ज्ञान की वृद्धि होती है, ज्ञान की वृद्धि होने से चित्त उत्कट वैराग्यवान होता है, वैराग्य के होने से और परिग्रह का त्याग होने से ध्यान होता है , ध्यान के होने आत्मा की उपलब्धि होती है, आत्मा की उपलब्धि होने से ज्ञानावरणादि आठ कर्मो का नाश होता है और कर्मों का नाश ही मोक्ष कहा जाता है। अत: स्वाध्याय परम्परा से मोक्ष कहा जाता है। अत: यह स्वाध्याय परम्परा से मोक्ष कहा जाता है। अत: यह स्वाध्याय परम्परा से मोक्ष का कारण है। इसलिए भव्य पुरूषों को शक्तयनुसार स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये। पूर्वकाल में जितने सिद्ध हुए हैं , आगामी होंगे तथा वर्तमान में होने योग्य हैं, वे सब नियम से इस स्वाध्याय मोक्ष का कारण है।

अत: भव्य गृहस्थों को स्वाध्याय परम्परा मोक्ष का कारण जानकर, एकान्त स्थान में बैठकर, मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक नित्य तथा नैमित्तिक स्वाध्याय करना चाहिये।२८

४. संयम

संयम एक ऐसा आवश्यक है जिसमें सम्पूर्ण श्रावकाचार गर्भित हो जाता है। सभी व्रतों को अपनें में संजोने वाले संयम को श्रावक का आवश्यक कत्र्तव्य माना गया है। असंयमी का धर्म के क्षेत्र में कोई मूल्य नहीं है। आचार्यों ने संयम की परिभाषा तथा व्याख्या विस्तार से की है । चारित्रसार में पञ्चाणुव्रत का पालन करना ही संयम कहा है — ‘संयम: पञ्चाणुव्रतवत्र्तनम्’ । उमास्वामी श्रावकाचार में संयम के दो भेदों का उल्लेख करते हुए कहा है कि संयम दो प्रकार का जानना चाहिये— १. इन्द्रिय संयम, २. प्राणी संयम। पांचों इन्द्रियों के विषयों के विषयों की निवृत्ति करना इन्द्रिय संयम है और छ: काय के जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है।

संयमो द्विविधो ज्ञेय आधश्चेन्द्रिसंयम:। इन्द्रियार्थनिवृत्त्युत्थो द्वितीय: प्राणिसंयम :।।२९

अर्थात् संस्कृत—भावसंग्रह में गृहस्थों के एक देश संयम का लक्षण किया है | ………

 

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