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समणसुत्तं में प्रतिपादित ज्ञान-मीमांसा!

February 10, 2017शोध आलेखjambudweep

समणसुत्तं में प्रतिपादित ज्ञान-मीमांसा


 तीर्थकर महावीर के २५०० वें निर्वाण वर्ष की अनेक उपलब्धियें में ‘समणसुत्तं ‘ जैसा आगम शास्त्र एक स्थायी सर्वमान्य महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है । दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं के प्राकृत आगमों से विषयानुसार गाथायें चयनकर इसे पूज्य जिनेन्द्र वर्णी जी ने भूदान और गांधीवादी एवं सर्वोदयी चिंतनधारा के लिये समर्पित राष्ट्रसंत विनोबा भावे की प्रेरागा से प्रस्तुत ग्रंथ का यह स्वरूप प्रदान किया । समणुसत्तं के चार खण्डों में मोक्षमार्ग नामक द्वितीय खण्ड में जहाँ रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का विवेचन है, उसमें सम्यग्ज्ञान की अच्छी मीमांसा की गई है । वस्तुत: समणसुत्तं में प्रतिपादित जैनधर्म-दर्शन के सभी सैद्धान्तिक पक्षों का अपना स्वतंत्र, मौलिक, वैज्ञानिक एवं अविवादित सार्वजनीय वैशिष्ट्रय है । इसके: अपने विशिष्ट परिभाषिक शब्द भी है । ज्ञान विषयक चिंतन के क्षेत्र में, तो इसका वैशिष्ट्य देखते ही बनता है । सम्यग्ज्ञान के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान- इन पांच भेदों का अपना महत्त्व है । इसी तरह सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हेतु जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा ‘और मोक्ष इन सात तत्त्वों का श्रद्धान आवश्यक है । इनमें भी जहाँ मोक्ष तल अन्तिम लक्ष्य है, वहीं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चार पुरुषार्थो में भी अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष ही है । इसीलिए जहाँ तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वामी ने ” सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग’ ‘ – कहकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र – इस रत्नत्रय के एकत्ररूप को मोक्षमार्ग का साधक बतलाया है, वही समणसुत्तं में भी कहा है कि

दंसणणाण चरित्ताणि, मोक्समग्गो त्ति सेविदब्बाणि । साधूहि इदं भणिदं तेहिं दु बंधों व मोक्खो वा । ।१ १३ । ।

अर्थात् जिनेन्ददेव ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मोक्ष का मार्ग बतलाया है । साधुओं को इनका आचरण करना चाहिए । यदि वे स्वाश्रित होते हैं तो इनसे मोक्ष प्राप्त होता है । और यदि वे पराश्रित होते हैं तो बन्ध होता है । वस्तुत् ये रत्नत्रय परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं । इसीलिए कहा है-

नाणं चरित्तहीणं, लिंगग्गहणं च दंसणविहीणं । संजमहीण च तवं जो चरइ निरत्थयं तस्स । ।२ १० । ।

अर्थात् सम्यक्चारित्र के बिना सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन के बिना मुनिलिंग का ग्रहण और संयमविहीन तप का आचरण करना निरर्थक है । क्योंकि आगे कहा है कि-

ना दंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुन्ति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निब्बायां । ।२ ११ । ।

अर्थात् सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता । ज्ञान के बिना चारित्रगुण नहीं होता । चारित्रगुण के बिना कर्मक्षय रूप मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के बिना अनंत चतुष्टीय रूप निर्वाण नही होता । कहा भीँ है

अप्पा अप्पम्मि रओ, सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो । जाणइ तं सण्णाणं चारदिह चारित्तमग्गु त्ति ।।२१७ ।।

अर्थात् आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यग्दृष्टि होता है। जो आत्मा को यथार्थ रूप- में जानता है, वही सम्यग्ज्ञान है और आत्मा में स्थित रहना हो -सम्यक्चारित्र हैं । इस तरह से रलत्रय परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं । किमी एक से मोक्षमार्ग की सिद्धि नहीं होती किन्तु इनमें भो समयग्ज्ञान का अपना ही वैशिष्ट्य है । क्योंकि रत्नत्रय के मध्य में ‘इसी का कम है । आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने रत्नत्रय रूप इन तोनों की परिभाषा बडी ही कुशलता से मात्र एक- गाथा मै,’ कर्ते हुए कहा है

जीवादि सद्दहणं सम्मतं तेसिमधिगमो णाणं । रायादि परिहरणं चरणं एसो दु मोक्सपहो समयसार।(155)

अर्थात् जीवादि तत्वों का श्रद्धान सम्यक्तव (सम्यग्दर्शन) है, उन्हें यथार्थरूप- में जानना सम्यग्ज्ञान हैं और राग-द्वेषादि का त्याग करना सम्यक् चारित्र है । यही रत्नत्रय स्वरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र मोक्ष का मार्ग है । 

ज्ञान का स्वरूप और महत्त्व –

सामान्यत: जो जाणदि सो णाणं” (प्रवचनसार गाथा 35) अर्थात् जो जानता हैं, वही ज्ञान है । आचार्य वीरसेन स्वामी के अनुसार ”भूतार्थ प्रकाशनं ज्ञानम्’ (धवत्ना 1 /43 ) अर्थात सत्यार्थ का प्रकाश करने वाली शक्ति विशेष ज्ञान है । स्वार्थसिधि 1/6 में आचार्य पूज्यपाद कहते हें- ”जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञातिमात्रं वा ‘ज्ञानम्’- अर्थात् जो जानता है,? वह ज्ञान है (कतृसाधन) जिसके द्वारा जाना जाये, वह ज्ञान है, (करण साधन), अथवा ‘जानना मात्र ज्ञान है (भावसाधन) । इस प्रकार ”.येन-येन प्रकारेण जीवादय: पदार्था व्यवस्थितास्तेन तेनावगम: संम्यगज्ञानम् (सर्वार्थसिद्धि 1/5) अर्थात् जिस-जिस तरह से जीव-अजीव आदि पदार्थ अवसि्थत हैं, उस उस प्रकार से उनका जानना सम्यग्ज्ञान हैं । ज्ञान के पहले ‘सम्यक विशेषण संशय, विराप्र[यि और अनध्यवशय (विमोहं) जैसे मिथ्या ज्ञानों का निराकरण करने हेतु रखा गया हैं आचार्य अकलंकदेव तत्त्वार्थवार्तिक ( 1/1/2) मेँ नयप्रमाणविकल्पपूर्वको जीवाद्यर्थ याथात्म्यावगम सम्यग्ज्ञानम् – अर्थात् नय और प्रमाणों के द्वारा जीवादि तत्वों का संशय, .विपर्यय 3शैर अनध्यवसाय रहित यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान कहा है और आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने ”णाणँ णरस्स सारो” कहकर ऐसे ही सम्यग्ज्ञान को मनुष्यो के लिए सारभूत बतलाया है । क्गेंकि ज्ञान ही हेय और उपादेय को जनता है वस्तुतः समसुत्तं में प्रतिपादित ज्ञानमीमांसा उस सम्यग्ज्ञान की विवेचना और महत्ता का दिग्दर्शन कराती है । जो सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के साथ मिलकर या एकरूप होकर मोक्षमार्ग प्रशस्त करती है । इसीलिए जिनशासन में ज्ञान किसे कहते हैं) अनेक दृष्टियों सै इसका विवेचन करते हुए कहा है

तेण तच्चं विसुज्झेण जेण चित्तं णिरुज्झदि जेण अत्ता विसुज्झेज्ज तं णाणं जिणसासणे 252

अर्थात् जिससे तत्त्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है तथा आत्मा विशुद्ध होती हैं, उसी को जिनशासन’ में ज्ञान कहा है । आगे कहा है-

जेण रागा विरज्जेज्ज जेण सेएसु रज्जदि । जेण मित्ती प्रभावेज्ज, तं णाणं जिणसासणे । ।२ ५३ । ।

अर्थात् जिससे जीव राग विमुख से होता है श्रेय में अनुरक्त होता है ओर जिससे मैत्रीभाव प्रभावित होता (बढ़ता) है, उसी को जिनशासन में ज्ञान कहा गया है । इसीलिए आचार्यदेव कहते हैं

एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि । एदेण होहि तित्तो होहिदि तुह उत्तम सोक्खं । ।२ ५९ । ।

अर्थात् इसीलिए हे भव्यजीव। तू इसी, ज्ञान में ही सदा लीन रह । इसी में सदा संतुष्ट रह । इसी से तप्त हो । इसी से तृप्त उत्तमसुख (परमसुख) प्राप्त होगा । क्योंकि सम्यक्त्वरूपी रत्न से शून्य अनेक प्रकार के शास्त्रों के ज्ञाता व्यक्ति भी आराधना विहीन होने सै संसार में अर्थात् नरकादिक गतियों में भ्रमाग करते रहते है।२ ५१ । । जैसे कोई व्यक्ति निधि प्राप्त होने पर उसका उपभोग स्वजनों के बीच करता है? वैसे ही -ज्ञानीजन प्राप्त ज्ञान निधि का उपभोग परद्रव्यों से विलग होकर अपने में ही करता है । । गाथा २६१ । । इसीलिए ज्ञान, ध्यान और तपोबल से इन्दिय-विषयों और क्रोध मान माया एवं लोभ-इन कषायों को बलपूर्वक रोकना चाहिए । जैसे कि लगाम के द्वारा गो बलपूर्वक रोका जाता हैं । समणसुत्त में ज्ञानवान् होने की सार्थकता अहिंसा में प्रतिपादित करते हुए कहा है-

एयं खु नाणिणो सारै, जै न हिंसइ कंचण । अहिंसा समयं चेव, एतावंते वियाणिया । ।१ ४७ । ।

अर्थात् ज्ञानी होने का सार यही है कि वह ज्ञानी किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । इतना जानना ही पर्याप्त है कि अहिंसामूलक -समता ही धर्म है .अथवा यही अहिंसा का विज्ञान है । इस संबन्ध में समणसुत्तं मैं आगे बताया कि चूंकि ज्ञानी कर्मक्षय के लिए उद्यत हुआ है, हिंसा के लिए नहीं। जो निश्चलभाव से अहिंसा के लिए प्रयत्नशील रहता है, वह अप्रमत्त मुनि अहिंसक होता है।।१५६७ ।। वस्तुत: शास्त्रों का अध्ययन करके मोक्षमार्ग का ज्ञान हो जानें पर भी सत्किंया से रहित ज्ञान इष्ट लक्ष्य को प्राप्त नहीं करा सकता। जैसे किसी गन्तव्य तक पहुँचने के मार्ग का ज्ञान होने पर भी समुचित प्रयत्न न करने से कोई भी जीव अपने गन्तव्य तक नहीं पहुँच सकता अथवा अनुकूल वायु की प्रेरणा के अभाव में जलयान (जहाज) इच्छित स्थान तक नहीं पहुंच सकता।।२६५।। इसी तरह चारित्रशून्य पुरुष का विपुल शास्त्रों का अध्ययन भी व्यर्थ ही है। जैसे कि अन्धे के आगे लाखों-करोड़ों दीपक जलाना व्यर्थ है।।२६६ ।। अत: सम्यग्ज्ञान के प्रकाशन से अज्ञान और मोह के परिहार से तथा रागद्वेष कै पूर्णक्षय सें जीव एकान्त सुख अर्थात् मोक्ष प्राप्त करता है।।२८९ ।। अत: जो .आत्मा. को इस अपवित्र शरीर से तत्त्वतः भिन्न तथा ज्ञायक भावरूप जानता है वही समस्त शास्त्रों को जानता है ।।२५५ ।। इसीलिए कहा है- ”जे एगं जाणइ, से सव्व जाणइ। जे सव्व जाणइ, से एगं जाणइ।।२५८ ।। अर्थात् जो एक (आत्मा) को जानता है, वह सब (जगत्) को जानता है और जो सबको जानता है वह एक को जानता है । इस प्रकार समणसुत्तं में ज्ञान का महत्व प्रतिपादित किया गया है । आगे ज्ञान के भेदों’ की चर्चा करते हुए ज्ञान की सूक्ष्म विवेचना प्रस्तुत है- 

ज्ञान के भेद –

आत्मा में अनन्तगुण हैं, किन्तु इन अनन्त गुणों में एक ” ज्ञान’ ‘ गुण ही ऐसा है, जो ” स्व पर’ ‘ प्रकाशक है । जैसे दीपक अपने को भी प्रकाशित करता है और अन्य पदार्थो को भी प्रकाशित करता है । उसी प्रकार ज्ञान अपने को भी जानता है और अन्य पदार्थो को भी जानता है । यदि ज्ञानगुण न हो तो वस्तु को जानने का दूसरा कोई उपाय नहीं है । इसीलिए ज्ञान की उपमा प्रकाश से दी जाती है- ” णाणं पयासयं’ ‘ । आत्मा का गुण तो ज्ञान है ही, किन्तु वह सम्यक् भी होता है और मिथ्या भी होता है । संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को मिथ्याज्ञान कहते हैं । इसीलिए समणसुत्तं में कहा है-

संसयविमोह-विब्भय विवज्जियं अप्पपरसरूवस्स । गहणं सम्मं णाणं सायारमणेयभेयं तु । ।६ ७४ । ।

अर्थात् संशय, विमोह (विपर्यय) और विभ्रम (अनध्यवसाय) – इन तीन मिथ्याज्ञानों से रहित अपने और पर के स्वरूप का ग्रहण करना सम्यग्ज्ञान है । यह सम्यग्ज्ञान वस्तुस्वरूप का यथार्थ निश्चय कराता है, अतएव इसे साकार अर्थात् सविकल्पक (निश्चयात्मक) कहा गया है । इसके अनेक भेद हैं । जैसा कि इस लेख के प्रारम्भ में ही ज्ञान के पाँच भेद बतलाये गये हैं । समणसुत्तं में भी कहा है-

तत्थ पंचविह नाण, सुयं आभिनिबोहिय । ओहिनाण तु तइयं मणनाण च केवलं । ।६ ७५ । ।

अर्थात् वह ज्ञान पाँच प्रकार का है – १. आभिनिबोधिक (मतिज्ञान), २. श्रुतज्ञान ३. अवधिज्ञान, ४. मनपर्ययज्ञान और ५. केवलज्ञान । इन पाँच ज्ञानों में आरम्भ के चार ज्ञान क्षायोपशमिक होने के कारण अपूर्ण हैं। पंचम केवलज्ञान संपूण कर्मो के क्षय से उत्पन्न होने के काला परिपूण है । इन्हीं पांच ज्ञानों का प्रत्यक्ष और परोक्ष – इन दो प्रमाणों के रूप में विभाजन किया गया है । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान – ये परोक्ष हैं । क्योंकि ये इन्द्रिय और मन की सहायता से होते हैं । शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं । इनमें भी अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान ये दो देश प्रत्यक्ष हैं तथा एकमात्र केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है । समणसुत्तं में गाथा संख्या ६७७ से ६८४ तक आठ गाथाओं में ज्ञान के इन पाँच भेदों का स्वरूप विवेचन किया गया है । अत: क्रमश:’ प्रस्तुत है – १. मतिज्ञान – सामान्यत: ” ‘ तदिन्द्रियाऽनिंद्रिय निमित्तम्’ ‘ (तत्त्वार्थसूत्र अध्याय.१.) अर्थात् इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान पदार्थो को जानता है, वह मतिज्ञान है । दर्शनपूर्वक अवग्रह, ईहा, अवाय और धारण के क्रम से मतिज्ञान होता है । समणसुत्त में इसे आभिनिबोधिक नाम से कहा गया है । कहा भी है –

ईहा अपोह मीमांसा, मग्गाण य गवेसणा । सण्णा सती मती पण्णा सब्ब आभिणिबोधिय । ।६ ७७ । ।

अर्थात् ईहा, अपोह, मीमांसा, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, शक्ति, मति और प्रज्ञा- ये सब आभिनिबोधिक या मतिज्ञान है । २. श्रुतज्ञान – श्रुतज्ञ के विषय में कहा है

अत्थाओ अत्थंतर-मुवलंभे तं भणंति सुयणाणं । आभिणिबोहियपुव्व णियमेण य सद्दयं मूलं । ।६ ७८ । ।

अर्थात् अनुमान की तरह अर्थ (शब्द) को जानकर उस पर से अर्थान्तर (वाच्यार्थ) को ग्रहण करना श्रुतज्ञान कहलाता है । यह नियमत: आभिनिबोधिकज्ञानपूर्वक होता है । इसके लिंगजन्य और शब्दजन्य – ये दो भेद हैं । धुआँ देखकर अग्नि का ज्ञान होना लिंगज है और वाचक के शब्द सुनकर या स्वयं पढ़कर होने वाला ज्ञान शब्दज है । आगम में शब्दजन्य श्रुतज्ञान का ही प्राधान्य है । ३. अवधिज्ञान – ” अवधीयते इति अवधि:- ” अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादापूर्वक रूपी पदार्थो को एकदेश जानने वाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं । आगमों मैं इसे ” सीमाज्ञान ” भी कहा है । इसके दो भेद हैं – भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय। (गाथा सं. ६८१) ४. मन: पययज्ञान – जा ज्ञान मनुष्यलोक में स्थित जीव के चिन्तित अचिन्तित, अर्धचिन्तित आदि अनेक प्रकार के अर्थ से मन को प्रत्यक्ष जानता है, वह मनपर्ययज्ञान है । । ६८२ । । ५. केवलज्ञान – समस्त पदार्थो की त्रिकालवर्ती पर्यायों को युगपत् जानने वाला केवलज्ञान है । कहा भी है कि केवलज्ञान लोक और अलोक को सर्वत: परिपूर्ण रूप से जानता है । भूत भविष्य और वर्तमान में से ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे केवलज्ञान नहीं जानता हो । । ६८४ । । केवलज्ञान की विशेषताओं के विषय में समणसुत्तं में कहा है –

केवलमेगं सुद्ध सगलमसाहारण अणंतं च। पाय च नाणसद्दो, नामसमाणाहिगरणोऽयं।।६८२ ।।

अर्थात् ”केवल” इस शब्द के एक, शुद्ध, सकल, असाधारण और अनन्त आदि अर्थ हैं। इसीलिएकेवलज्ञान ”एक” है। इन्दियादि की सहायता से रहित है और इसके होने पर अन्य सभी ज्ञान निवृत्त हो जाते हैं – इसीलिए यह ”एकाकी” है। मलकलंक रहित होने से ‘शुद्ध’ है । सम्पूर्ण ज्ञेयों का ग्राहक होने से ”सकल” है । इसके समान ‘और कोई ज्ञान नहीं है, अत: ” असाधारण” है । इसका कभी अन्त नहीं होता, अत: अनन्त है । ये सब केवलज्ञान की विषेशताये् हैं प्रश्न होता है कि इन पाँच ज्ञानों में एक साथ किसी भी जीव को कितने ज्ञान हो सकते हैं? आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र (१? ३०) में कहा है – ” एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्भ्य ” – अर्थात् एक जीव में एक साथ एक से लेकर चार ज्ञान तक ही हो सकते हैं, इससे अधिक नहीं । जीव को यदि एक ज्ञान होगा तो मात्र ” केवलज्ञान’ ‘ । क्योंकि यह निरावरण और क्षायिक है । अर्थात् समस्त ज्ञानावरण कर्म के क्षय से यह होता । इसीलिए असहाय (अकेला) होता है । इसके साथ अन्य क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रह सकते । ज्ञान के सम्बन्ध में जैनधर्म की यह मान्यता भी विशेष महत्त्व रखती है कि यहाँ ज्ञान के अभाव को तो अज्ञान कहा ही है, मिथ्याज्ञान को भी अज्ञान माना है । यहाँ इन दोनों में यह अन्तर विशेष दृष्टव्य कि जीव एकबार सम्यग्दर्शन रहित तो हो सकता है, किन्तु ज्ञान रहित नहीं हो सकता । किसी न किसी प्रकार का ज्ञान जीव में अवश्य रहता है । वही ज्ञान .सम्यक्त्व का आभिर्भाव होते ही सम्यग्ज्ञान कहलाने लगता है । इस प्रकार जैनधर्म में द्रव्यानुयोग के अनेक विशिष्ट ग्रंथों की अपेक्षा समागसुत्तं में यद्यपि ज्ञान का स्वरूप – विवेचन सामान्य होते हुये भी सम्पूर्ण है । ज्ञानविषयक इन गाथाओं की यदि विस्तृत व्याख्या की जाए तो काफी सूक्ष्म विवेचना सामने आती है । इसलिए रत्नत्रय में सम्यग्ज्ञान का अपना विशेष महत्व है । क्योंकि ज्ञानरूपी प्रकाश ही ऐसा उत्कृष्ट प्रकाश है, जो समस्त जगत् को प्रकाशित करता है । इसीलिए इसे द्रव्य स्वभाव का प्रकाशक कहा गया है । सम्यग्ज्ञान से तत्त्वज्ञान, चित्त का निरोध तथा आत्मविशुद्धि प्राप्त होती है । ऐसे ही ज्ञान से जीव राग से विमुख तथा श्रेय में अनुरक्त होकर मैत्रीभाव से प्रभावित होता है । भगवती आराधना गाथा (७७१) में कहा है कि ज्ञानरूपी प्रकाश के बिना मोक्ष का उपायभूत चारित्र, तप, संयम आदि की प्राप्ति की इच्छा करना व्यर्थ है । अब ज्ञान की महिमा को बतलाने वाली समणसुत्तं की निम्नलिखित गाथा प्रस्तुत करते हुये इस आलेख को पूर्ण मानता हूँ

सूई जहा ससुत्ता, न नस्सई कयवरम्मि पडिआ वि । जीवो वि तह ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे । ।२ ४८ । ।

अर्थात् धागा पिरोई हुई सुई कचरे में गिर जाने पर भी खोती नहीं पै, वैसे ही ससूत्र अर्थात् शास्त्रज्ञान युक्त जीव संसार में पड़कर भी नष्ट नहीं होता । अत: मैं अपने प्रति यह कामना करता हूँ कि ऐसे ही सम्यग्ज्ञान को मेरी आत्मा प्राप्त करे, ताकि यह मनुष्य जन्म सफल हो जाए ।

प्रो फूलचन्द जैन प्रेमी

निदेशक, बीएलइस्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, 2०वाँ किमी. जीटीकरनाल रोड, पो. अलीपुर, दिल्ली-। 1००-२6
अनेकान्त जनवरी मार्च २०१३ पेज न 35 से ४०
 
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