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समवसरण सिद्धार्थ वृक्ष स्तोत्र!

November 25, 2013जिनेन्द्र भक्तिjambudweep

समवसरण सिद्धार्थ वृक्ष स्तोत्र


नरेन्द्र छंद

समवसरण में छठी भूमि है, कल्पवृक्ष की सुंदर।

चारों दिश में एक-एक, सिद्धार्थ वृक्ष हैं मनहर।।

इनमें चारों दिश इक इक हैं, सिद्धों की प्रतिमायें।

हम वंदे नित शीश नमा कर, इच्छित फल पा जायें।।१।।

चाल—हे दीनबंधु—

श्री आदिनाथ का समोसरण विशाल हैं।

ध्वजभू को वेढ़ रजतमयी तृतिय साल१ है।।

सिद्धार्थ नमेरू तरू है कल्पभूमि में।

वंदूं सदा चउसिद्ध की प्रतिमा प्रसिद्ध मैं।।१।।

दक्षिण सुकल्प भूमि में मंदार तरु है।

उस मूल में चतुर्दिशा में सिद्धबिंब हैं।।

प्रत्येक बिंब के समक्ष मानथंभ हैं।

वंदूं सदा चउसिद्ध की प्रतिमा अनिंद हैं।।२।।

पश्चिम सुकल्पभूमि में संतानकांघ्रिपा१।

सिद्धार्थ वृक्ष है इसी के चार हों दिशा।।

एकेक सिद्धबिंब साधु वृंद वंद्य हैं।

वंदूं सदा इन्हें ये चक्रवर्ति वंद्य हैं।।३।।

उत्तर सुकल्प भू में पारिजात वृक्ष है।

ये सिद्ध की प्रतिमाओं से सिद्धार्थ सार्थ है।।

जो इनको जजें उनके सर्वकार्य सिद्ध हैं।

वंदूं सदा चउसिद्ध की प्रतिमा अनिंद हैं।।४।।

तीर्थेश अजितनाथ की समवसरण कथा।

भू कल्पतरु पूर्व में नमेरु वृक्ष था।।

सिद्धार्थ नाम इसमें चार सिद्धबिंब हैं।

वंदूं सदा ये सिद्धबिंब इंद्र वंद्य हैंं।।५।।

जिनराज समोसरण मेें जो कल्पवृक्ष हैं।

दक्षिणदिशी मंदार नाम सिद्ध२ अर्थ है।।

उस मूल में चतुर्दिशा में सिद्धबिंब हैं।

वंदूं सदा इन्हें ये तीन लोक वंद्य हैं।।६।।

संतानकाख्य नाम के सिद्धार्थ वृक्ष में।

चारों दिशा में सिद्ध की प्रतिमा नमूँ उन्हें।।

जो वंदते जिनराज समोसर्ण को सदा।

वे स्वर्ग सौख्य भोग के शिव पावें शर्मदा।।७।।

जो पारिजात नाम के सिद्धार्थ वृक्ष को।

नित वंदते हैं भक्ति से उन सिद्धबिंब को।।

वे गणपती सुरेंन्द्र चक्रवर्ती वंद्य भी।

अतिशय अनंत सौख्य धाम प्राप्त करें ही।।८।।

संभव जिनेश समोसर्ण में विराजते।

दशविध के कल्पवृक्ष वहाँ पे हि राजते।।

पूरबदिशी नमेरू सिद्धार्थ वृक्ष है।

वंदूं उन्हें चउदिश के जो सिद्धबिंब हैं।।९।।

जो भी मनुष्य कल्पवृक्ष के निकट आते।

जो कुछ भी माँगते वो क्षणमात्र में पाते।।

दक्षिण में जो मंदार ही सिद्धार्थ वृक्ष हैं।

वंदूं वहाँ चउदिश के जो सिद्धबिंब हैं।।१०।।

इस कल्पभूमि में कहिं पे बावड़ी बनी।

लघु पर्वतों पे देवियां क्रीड़ा करें घनी।।

पश्चिम दिशी संतानक सिद्धार्थ वृक्ष है।

वंदूं वहाँ चउदिश के जो सिद्धबिंब हैं।।११।।

उत्तर में पारिजात जो सिद्धार्थ वृक्ष है।

उस मूल में चउदिश में सिद्ध बिंब रम्य हैं।।

प्रतिमा समक्ष मानस्तंभ जगत वंद्य हैं।

वंदूं वहाँ चउदिश के जो सिद्धबिंब हैं।।१२।।

अभिनंदनेश समोसर्ण में विराजते।

उसमें छठी धरा में कल्पवृक्ष राजते।।

पूरबदिशी नमेरू सिद्धार्थ वृक्ष है।

वंदूं वहाँ चउदिश के जो सिद्धबिंब हैं।।१३।।

दक्षिणदिशी कहा है मंदार वृक्ष जो।

उसके चतुर्दिशा में चउ सिद्ध बिंब जो।।

सुरपति व चक्रवर्ती नरपति से वंद्य हैं।

वंदूं वहाँ चउदिश भी जो मानस्तंभ हैं।।१४।।

पश्चिम दिशी संतानक सिद्धार्थ वृक्ष है।

उसके चतुर्दिशा में चउ सिद्धबिंब हैं।।

निज साम्य सुधारस के स्वादी मुनी वहां।

वंदन करें सतत ही हम वंदते यहाँ।।१५।।

उत्तर में पारिजात जो सिद्धार्थ वृक्ष है।

मुनिगण से वंद्य नित्य ही सुरगण से पूज्य है।।

इसके चतुर्दिशा में चउ सिद्धबिंब हैं।

हम वंदते इन्हें ये सर्वार्थसिद्धि हैं।।१६।।

रोला छंद

सुमतिनाथ जिनराज, समवसरण में राजें।

छठी कल्पतरु भूमि, कल्पवृक्ष से साजें।।

पूरब दिश सिद्धार्थ, वृक्ष नमेरु मानों।

सिद्धबिंब हैं चार, पूजत भव दुख हानों।।१७।।

जो भवि वंदें नित्य, सिद्धों की प्रतिमायें।

समवसरण में जांय, अतिशय पुण्य कमायें।।

दक्षिण दिश मंदार, तरु सिद्धार्थ बखानों।

सिद्धबिंब हैं चार, वंदत भव दुख हानों।।१८।।

साधु मुमुक्षू नित्य, स्वात्मसुधारस पीते।

सिद्धबिंब को ध्याय, कर्म अरी को जीतें।।

पश्चिमदिश सिद्धार्थ, संतानक तरु जानो।

सिद्धबिंब हैं चार, वंदत भव दुख हानों।।१९।।

श्रावक भक्ति समेत, सिद्धबिंब को पूजें।

भवदधि शोषण हेत, करें प्रयत्न सुनीके।।

उत्तर दिश सिद्धार्थ, पारिजात तरु जानो।

सिद्धबिंब हैं चार, वंदत भव दुख हानों।।२०।।

पद्मप्रभु भगवान, समवसरण में तिष्ठें।

उन अतिशय से भव्य, असंख्य मिलकर बैठें।।

पूरबदिश सिद्धार्थ, वृक्ष नमेरु मानों।

सिद्ध बिंब हैं चार, वंदत भव दुख हानों।।२१।।

इन्द्र सभी परिवार, लेकर वहाँ पे आवें।

भरें पुण्य भंडार, जिनवर गुण को गावें।।

दक्षिण दिश मंदार, तरु सिद्धार्थ बखानों।

सिद्धबिंब हैं चार, वंदत भव दुख हानों।।२२।।

धन जन सुख परिवार, बढ़ता जिन भक्ती से।

मिले मुक्ति का द्वार, स्वपर भेद युक्ती से।।

पश्चिम दिश सिद्धार्थ, संतानक तरु जानों।

सिद्धबिंब हैं चार, वंदत भव दुख हानों।।२३।।

मिले राज्य सम्मान, जग में मान्य कहावें।

जो करते गुणगान, जिनवर भक्ति बढ़ावें।।

उत्तर दिश सिद्धार्थ, पारिजात तरु जानों।

सिद्धबिंब हैं चार, वंदत भव दुख हानों।।२४।।

श्री सुपाश्र्व जिनराज, भविजन मन तम हरते।

जो वंदे प्रभुपाद अतिशय, सुख निधि भरते।।

पूरब दिश सिद्धार्थ, वृक्ष नमेरु जानों।

सिद्ध बिंब हैं चार, वंदत भव दुख हानों।।२५।।

त्रिभुवन वैभव पूर्ण, समवसरण सुखकारी।

भव्य करें भव चूर्ण, नित पूजें मनहारी।।

दक्षिण दिश मंदार, तरु सिद्धार्थ बखानो।

सिद्धबिंब हैं चार, वंदत भव दुख हानों।।२६।

चिंतामणि जिनभक्ति, चिंतित फल को देवे।

जो वंदे निज शक्ति, झट प्रगटित कर लेवें।।

पश्चिम दिश सिद्धार्थ, संतानक तरु जानों।

सिद्धबिंब हैं चार, वंदत भव दुख हानों।।२७।।

कल्पवृक्ष की भूमि, मुँहमाँगा फल देवे।

दर्श करें जो भव्य, सब उत्तम सुख लेवें।।

उत्तर दिश सिद्धार्थ, पारिजात तरु जानों।

सिद्धबिंब हैं चार, वंदत भव दुख हानों।।२८।।

चंदा प्रभु भगवान, समवसरण नभ में है।

उन वचनामृतपान, करके भव्य नमें हैं।।

पूरबदिश सिद्धार्थ, वृक्ष नमेरू जानों।

सिद्ध बिंब हैं चार, वंदत भव दुख हानों।।२९।।

चंद्र सदृश आल्हाद, करते जिनवच जग में।

जो वंदते चरणाब्ज, झट पहुँचे शिवपद में।।

दक्षिण दिश मंदार, तरु सिद्धार्थ बखानों।

सिद्धबिंब हैं चार, वंदत भव दुख हानों।।३०।।

निज परिवार समेत, चंद्र सूर्य सुर आवें।

निज पद पावन हेतु, प्रभु नमें गुण गावें।।

पश्चिम दिश सिद्धार्थ, संतानक तरु जानोें।

सिद्धबिंब हैं चार, वंदत भव दुख हानों।।३१।।

चंद्रकिरण समश्वेत, जिनवर तन अति सुंदर।

नेत्र हजार बनाय, दर्शन करें पुरंदर।।

उत्तर दिश सिद्धार्थ, पारिजात तरु जानों।

सिद्धबिंब हैं चार, वंदत भव दुख हानों।।३२।।

वसंततिलका छंद

श्रीपुष्पदंत जिनसर्वहितानुशास्ता।

जो वंदते समवसर्ण हरें असाता।।

है पूर्वदिक् तरु नमेरु नमें मुनींद्रा।

मैं सिद्धबिंब प्रणमूं यजते सुरेंद्रा।।३३।।

मंदार वृक्ष प्रतिमा यजते सदा जो।

स्वात्मैक सौख्य संपति भरते सदा वो।।

सिद्धार्थ वृक्ष सुखदायि नमें मुनींद्रा।

मैं सिद्धबिंब प्रणमूं यजते सुरेंद्रा।।३४।।

संतानकाख्य तरु में प्रतिमा नमें जो।

संसार घोर वन में न कभी भ्रमें वो।।

सिद्धार्थ वृक्ष प्रतिमा नमते मुनींद्रा।

मैं सिद्धबिंब प्रणमूं यजते सुरेंद्रा।।३५।।

जो पारिजात तरु की प्रतिमा नमें हैं।

वे रोग शोक दुख संकट से बचे हैं।।

सिद्धार्थ वृक्ष सुखदायि नमें मुनींद्रा।

मैं सिद्धबिंब प्रणमूं यजते सुरेंद्रा।।३६।।

श्री शीतलेश वचनामृत तापहारी।

जो वंदते समोसर्ण न हों दुखारी।।

है पूर्वदिक् तरु नमेरु नमें मुनींद्रा।

मैं सिद्धबिंब प्रणमूं यजते सुरेंद्रा।।३७।।

मंदार वृक्ष प्रतिमा सुर वृंद नमें।

संसार सौख्य भज निज त्रय रत्न लूटें।।

सिद्धार्थ वृक्ष प्रतिमा नमते मुनींद्रा।

मैं सिद्धबिंब प्रणमूं यजते सुरेंद्रा।।३८।।

संतानकाख्य तरु में प्रतिमा यजें जो।

संतान मोह अरि को उनकी नशे जो।।

है कल्पभूमि सिद्धार्थ नमें मुनींद्रा।

मैं सिद्धबिंब प्रणमूं यजते सुरेंद्रा।।३९।।

जो पारिजात तरु की प्रतिमा नमें हैं।

वे पाप ताप हर स्वात्म सुधा चखे हैं।।

है कल्पभूमि सिद्धार्थ नमें मुनींद्रा।

मैं सिद्धबिंब प्रणमूं यजते सुरेंद्रा।।४०।।

श्रेयांसनाथ जिनका जु समोसरण है।

सिद्धार्थ वृक्षदिक् पूर्व अपूर्व सो है।।

रम्या नमेरु प्रतिमा नमते मुनींद्रा।

मैं सिद्धबिंब प्रणमूं यजते सुरेंद्रा।।४१।।

मंदार वृक्ष दिश दक्षिण में सुहाता।

जो भव्य नित्य नमते तम भाग जाता।।

भक्ती करें सम सुधा रसिका मुनींद्रा।

मैं सिद्धबिंब प्रणमूं यजते सुरेंद्रा।।४२।।

सिद्धार्थ वृक्ष संतानक को नमें जो।

संतान सौख्य धन धान्य समृद्धि ले वो।।

ऋाqद्धधरा सतत ध्यान धरें मुनींद्रा।

मैं सिद्धबिंब प्रणमूं यजते सुरेंद्रा।।४३।।

जो पारिजात तरु की प्रतिमा भजे हैं।

वे जन्म मृत्यु भय से निश्चित छुटे हैं।।

भक्ती भरे स्तुति पढ़े नित ही मुनींद्रा।

मैं सिद्धबिंब प्रणमूं यजते सुरेंद्रा।।४४।।

श्री वासुपूज्य तनु लाल सरोज जैसा।

सुंदर दिखे समवसर्ण अपूर्व वैसा।।

है पूर्वदिक् तरु नमेरु नमें मुनींद्रा।

मैं सिद्धबिंब प्रणमूं यजते सुरेंद्रा।।४५।।

मंदार वृक्ष फलदायि अपूर्व सोहे।

जैनेन्द्र बिंबयुत मानस्तंभ मोहे।।

सर्वार्थसिद्धि सुख हेतु नमें मुनींद्रा।

मैं सिद्धबिंब प्रणमूं यजते सुरेंद्रा।।४६।।

संतानकादि तरु पश्चिम में खड़ा है।

इंद्रादि पूज्य गुण अतिशय से बड़ा है।।

आनंद धाम पद हेतु नमें मुनींद्रा।

मैं सिद्धबिंब प्रणमूं यजते सुरेंद्रा।।४७।।

है पारिजात तरु उत्तर में अनोखा।

जो वंदते फल लहें अतिशायि चोखा।।

आत्मा पवित्र करके नमते मुनींद्रा।

मैं सिद्धबिंब प्रणमूं यजते सुरेंद्रा।।४८।।

भुजंगप्रयात छंद

समोसर्ण को पूजते भक्ति से जो।

लहें सौख्य संपद नवों निद्धि को वो।।

नमेरु तरू में नमूं सिद्ध देवा।

करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।४९।।

वमलनाथ का है समोसर्ण सोहे।

दिशा दक्षिणी वृक्ष मंदार मोहे।।

चतुर्दिक् तरू के नमूं सिद्ध देवा।

करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५०।।

सुरासुर व किन्नर सदा कीर्ति गाते।

बृहस्पति गुणों का नहीं पार पाते।।

सुसंतानकं के नमूं सिद्ध देवा।

करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५१।।

सुरों की वहाँ टोलियाँ आ रही हैं।

करें नित्य भी अप्सरा गा रही है।।

नमूँ पारिजाताग१ के सिद्ध देवा।

करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५२।।

अनंताधिपति का समोसर्ण पूजें।

नमेरू तरू को नमें पाप धूजें।।

सुसिद्धार्थ के मैं नमूं सिद्ध देवा।

करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५३।।

हरो दु:ख मेरे अनंतों भवों के।

हमें सौख्य देवो अनंते स्वयं के।।

सुमंदार के मैं नमूं सिद्ध देवा।

करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५४।।

महामोह अंधेर छाया हृदय में।

उसे दूर कर ज्ञान ज्योति भरूँ मैं।।

सुसंतानकांघ्रिप२ नमूं सिद्ध देवा।

करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५५।।

अनंते चतुष्टय कि लक्ष्मी धरे हैं।

अठारह महादोष तुमसे परे हैं।।

महा पारिजातं नमूं सिद्ध देवा।

करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५६।।

धरमनाथ का है समोसर्ण दीपे।

वहाँ पूर्वदिक् में नमेरू तरू पे।।

नमूँ शीश नाके नमूं सिद्ध देवा।

करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५७।।

समोसर्ण में भूमि छट्ठी दिपे हैं।

नमूँ नित्य जो बिंब मंदार पे हैं।।

नमें इंद्र मैं भी नमूं सिद्ध देवा।

करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५८।।

भरी कल्पतरु से छठी भूमि दीखे।

सभी के वहाँ पे मनोरथ फले थे।।

महावृक्ष संतानक्कं सिद्ध देवा।

करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।५९।।

सुसिद्धार्थ तरु पारिजात नमें जो।

चतुर्दिक्क प्रतिमा हरें कर्म सब वो।।

फलें सर्ववांछित नमूं सिद्ध देवा।

करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।६०।।

प्रभो शांति ईश्वर जगत् शांति कर्ता।

नमेरु तरू को नमूँ सौख्य भर्ता।।

पुनर्जन्म नाशो नमूं सिद्ध देवा।

करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।६१।।

मुनीचित्त पंकज खिलाते रवी हो।

महाशांतिदाता विधाता शशी हो।।

सुमंदार तरु के नमूं सिद्ध देवा।

करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।।६२।।

समोसर्ण शांतीश का सौख्यकारी।

वहाँ कल्पभूमी फलें इष्ट भारी।।

सुसंतानकांघ्रिप नमूं सिद्ध देवा।

करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।६३।।

महावृक्ष है पारिजाताख्य उसमें।

चतुर्दिक्क सुरपूज्य प्रतिमा उसी में।।

गणीश्वर नमें मैं नमूं सिद्ध देवा।

करूँ आपके पाद की नित्य सेवा।।६४।।

दोहा

कुंथुनाथ जिनराज का, समवसरण अभिराम।

छट्ठी भूमि नमेरु के, नमूं सिद्ध सुखधाम।।६५।।

समवसरण दक्षिणदिशी, तरु मंदार महान्।

नमूं सिद्ध प्रतिमा सदा, पाऊँ स्वात्मनिधान।।६६।।

समवसरण पश्चिमदिशी, सन्तानक सिद्धार्थ।

सिद्धबिंब चउदिश नमूं, पूर्ण फलें सर्वार्थ।।६७।।

उत्तर दिश में कल्पतरु, भूमि सर्व हितकार।

पारिजात तरु बिंब को, नमूं सर्व सुखकार।।६८।।

अरहनाथ जिननाथ का, समवसरण जग श्रेष्ठ।

नमूं सिद्ध प्रतिमा सदा, तरु नमेरु सब ज्येष्ठ।।६९।।

तीर्थनाथ को पूजते, अंत मिले जिननाम।

सिद्धारथ मंदार के, सिद्ध नमूं गुणधाम।।७०।।

करूँ तीर्थपति अर्चना, खंडित हो यमराज।

संतानक तरु बिंब को, नमत मिले निज राज्य।।७१।।

अर जिनवर की भक्ति से, मुक्तिरमा वश होय।

पारिजात तरु बिंब को, नमूं स्वात्म सुख होय।।७२।।

मल्लिनाथ का जगत् में, समवसरण अतिरम्य।

तरु नमेरु के बिंब को, नमत मिले शिवशर्म।।७३।।

मोहराज यमराज को, जीत बने जगदीश।

दक्षिणदिश मंदार के, बिंब नमूं नत शीश।।७४।।

क्षमाभाव से क्रोध को, किया निमूल जिनेश।

संतानक तरु अपरदिश, नमूं मिटे भव क्लेश।।७५।।

लोभ पाप को नष्ट कर, पाया त्रिभुवन राज्य।

पारिजात तरु बिंब को, नमत लहूँ निजराज्य।।७६।।

मुनिसुव्रत भगवान का, समवसरण सुरवंद्य।

तरु नमेरु के बिंब को, वंदूं जग अभिनंद्य।।७७।।

वंदूं सदा जिनदेव का, समवसरण अतिशायि।

सिद्धबिंब मंदार के, नमूं सर्व सुखदायि।।७८।।

त्रिभुवन जनता पूज्य है, समवसरण गुणधाम।

संतानक तरु बिंब को, नमूं मिले निजधाम।।७९।।

महामोेह अज्ञानहर, ज्ञान ज्योति से पूर्ण।

पारिजात के बिंब को, नमत करूँ यम चूर्ण।।८०।।

चौपाई

नमि जिन समवसरण अभिरामा, नमत भव्य बनते निष्कामा।

तरु नमेरु के चउदिश सिद्धा, वंदत करूँ विघन अरिविद्धा१ ।।८१।।

नमिजिनवर दुख संकट हारी, जो जन नमें वरें शिव नारी।

तरु मंदार चतुर्दिश सिद्धा, वंदत करू विघन अरिविद्धा।।८२।।

श्री नमिनाथ स्वात्मसुख भोगें, जो जन नमें परम सुख भोगें।

संतानक तरु चउदिश सिद्धा, वंदत करूँ विघन अरिविद्धा।।८३।।

नमिजिन पाद सरोज नमें जो, सर्व उपद्रव दूर भगें जो।

पारिजात तरु चउदिश सिद्धा, वंदत करूँ विघन अरिविद्धा।।८४।।

नेमिनाथ करुणा के सिंधु, नमत चखूँ समरस सुखबिंदू।

तरु नमेरु के चउदिश सिद्धा, वंदत करूँ विघन अरिविद्धा।।८५।।

शिवललना के जिनवरस्वामी, त्रिभुवन के प्रभु अंतर्यामी।

तरु मंदार चतुर्दिश सिद्धा, वंदत करूँ विघन अरिविद्धा।।८६।।

जगत्पूज्य सुरनर खग ईशा, जो पूजें सो लहें मनीषा।

संतानक चरु चउदिश सिद्धा, वंदत करूँ विघन अरिविद्धा।।८७।।

सौधर्मेन्द्र नरेन्द्र फणीन्द्रा, जिनचरणांबुज नमें मुनींद्रा।

पारिजात तरु चउदिश सिद्धा, वंदत करूँ विघन अरिविद्धा।।८८।।

समवसरण जिन पारसनाथा, पद्मावति फणपति नत माथा।

तरु नमेरु के चउदिश मूर्ती, वंदत हो मुझ वांछा पूर्ती।।८९।।

समवसरण सुरवंद्य जिनंदा, वंदत सुरनर खग रविचंदा।

तरु मंदार चतुर्दिश मूर्ती, वंदत हो मुझ वांछा पूर्ती।।९०।।

कमठ मान भंजन जिनराजा, भविजन पूजें निजहित काजा।

संतानक तरु चउदिश मूर्ती, वंदत हो मुझ वांछा पूर्ती।।९१।।

कलियुग पाप दलन जगख्याता, तुम यश गातीं शारद माता।

पारिजात तरु चउदिश मूर्ती, वंदत हो मुझ वांछा पूर्ती।।९२।।

समवसरण जिनगुण मणिमाली, नमत बने नर महिमाशाली।

तरु नमेरु में सिद्धन मूर्ती, वंदत हो मुझ वांछा पूर्ती।।९३।।

समवसरण में राजें वीरा, महावीर सन्मति अतिवीरा।

तरु मंदारसिद्ध की मूर्ती, वंदत हो मुझ वांछा पूर्ती।।९४।।

वद्र्धमान जिनवर को वंदे, पाप अद्रि हों सौ सौ खंडे।

संतानक तरु सिद्धन मूर्ती, वंदत हो मुझ वांछा पूर्ती।।९५।।

सर्वोत्तम कल्पद्रुम वीरा, बिन मांगे फल पावें धीरा।

पारिजात तरु सिद्धन मूर्ती, वंदत हो मुझ वांछा पूर्ती।।९६।।

गीता छंद

इस कल्पतरु भूमि में, सिद्धार्थ तरु चारों दिशी।

श्री सिद्धबिंब विराजते, प्रत्येक तरु के चहुँदिशी।।

एकेक मानस्तंभ हैं, प्रत्येक प्रतिमा के निकट।

उनमें चतुर्दिश बिंब जिनवर, वंदते ही शिव निकट।।९७।।

दोहा

कल्पवृक्ष चिंतामणी, जिनभक्तों के दास।

नमत ज्ञानमती पूर्ण हो, पहुँचूँ जिनवर पास।।९८।।

चाल—हे दीनबन्धु…….

धनि धन्य सिद्ध वृंद जो सिद्धालयों मे हैं।

धनि धन्य सिद्ध बिंब जो सिद्धार्थ तरु में हैं।।

धनि धन्य तीर्थकृत समोसरण महान हैं।

धनि धन्य समोसरण स्वात्म गुण निधान हैं।।९९।।

जो कल्पतरु नाम की छट्टी धरा वहाँ।

हैं कल्पवृक्ष दशविधा चउदिश दिखे वहाँ।।

जन मांगते जो कुछ भी वे वृक्ष दे रहे।

सुरगण वहाँ पे आके क्रीड़ा में रत रहें।।१००।।

पानांग वृक्ष बहुते विध पेय दे रहे।

तूर्यांग वाद्यवीणा मृदंग दे रहे।।

तरु भूषणांग बहुत से गहने दिया करें।

वस्त्रांग बहुत वस्त्र धोतियाँ दिया करें।।१०१।।

तरु भोजनांग विविध भोज्य वस्तु दे रहे।

तरु आलयांग महल कोठियाँ भी दे रहे।।

दीपांग दीप दे रहे सुंदर प्रकाशयुत।

तरु भाजनांग थाल आदि पात्र दें विविध।।१०२।।

मालांग वृक्ष सुरभि पुष्पमाल दे रहे।

तेजांग वृक्ष कोटि सूर्य ज्योति हर रहे।।

उस भूमि में कहीं पर ऊँचे भवन बनें।

कहिं बावड़ी जलों में फूले कुसुम घनें।।१०३।।

प्रत्येक दिश में इक इक सिद्धार्थ वृक्ष हैं।

तरु मूल में चतुर्दिक् श्री सिद्धबिंब हैं।।

प्रत्येक बिंब आगे इक मानथंभ हैं।

ये तीन कोट सहिते त्रयपीठ उपरि हैं।।१०४।।

एकेक समवसृति में, सिद्धार्थ चार-चार।

एकेक तरु में सिद्धों के बिंब चार-चार।।

एकेक मानथंभों में बिंब चार-चार।

सिद्धों के बिंब सोलह, चौसठ सु जिनाकार।।१०५।।

चौबीस समवसृति में, तरु छयान्वे सिद्धार्थ।

वे तीन सौ चुरासी, तरु सिद्धबिंब सार्थ।।

इतने हि मानथंभों१ में, बिंब चतुर्दिश।

वे बिंब सर्व इक हजार पाँच सौ छत्तिस।।१०६।।

सौ इंद्र भक्ति से वहाँ पे वंदना करें।

नर नारियाँ भि द्रव्य लेय अर्चना करें।।

सुर अप्सरायें नित्य वहाँ नृत्य कर रहीं।

सुर किन्नरी वीणा व बांसुरी बजा रहीं।।१०७।।

चारों गली में चार-चार नाट्य२ शालिका।

बत्तीस रंगभूमियुक्त पाँच खन युता।।

प्रत्येक में बत्तीस हि ज्योतिष्क देवियाँ।

वे नृत्य करें भक्ति भरीं, पुण्य देवियाँ।।१०८।।

इस भूमि के आगे चतुर्थ वेदिका बनी।

गोपुर पे देव भावन रक्षा करें घनी।।

प्रतिद्वार मंगलद्रव्य इक सौ आठ इकसौ आठ।

प्रत्येक तोरणद्वार पे नवनिधि के रहें ठाठ।।१०९।।

बहुविध अनेक वर्णना कोई न कह सके।

धनपति वहाँ जिनके प्रभाव से हि रच सके।।

मैं सिद्धबिंब की सदैव वंदना करूँ।

तीर्थेश भक्ति से दुखों को रंच ना धरूँ।।११०।।

दोहा

तीन रत्न के हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।

ज्ञानमती की याचना, पूरो नाथ अबार।।१११।।

प्रशस्ति

शंभु छंद

श्री शांतिकुंथुअरनाथ प्रभु ने, जन्म लिया इस धरती पर।

यह हस्तिनागपुरि इंद्रवंद्य, रत्नों की वृष्टि हुई यहाँ पर।।

यहाँ जंबूद्वीप बना सुंदर, जिनमंदिर हैं अनेक सुखप्रद।

मेरा यहाँ वर्षायोग काल, स्वाध्याय ध्यान से है सार्थक।।१।।

इस युग के चारित्र चक्री श्री, आचार्य शांतिसागर गुरुवर।

बीसवीं सदी के प्रथमसूरि, इन पट्टाचार्य वीरसागर।।

ये दीक्षा गुरुवर मेरे हैं, मुझ नाम रखा था ‘ज्ञानमती’।

इनके प्रसाद से ग्रंथों की, रचना कर हुई अन्वर्थमती।।२।।

सिद्धार्थ वृक्ष स्तोत्र लघु, सिद्धों की प्रतिमा भक्तीवश।

यह रोग शोक दारिद्र्य दु:ख, संकट हरने वाला संतत।।

जब तक चौबीसों तीर्थंकर, जिनशासन जग में मान्य रहे।

तब तक यह गणिनी ज्ञानमती, विरचित स्तोत्र जयशील रहे।।३।।

इति समवसरणसिद्धार्थवृक्षस्तोत्रं समाप्तं।

जैनं जयतु शासनम्।

Tags: Stotra
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