Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

सुदर्शन सेठ काव्य कथानक

December 26, 2022जिनेन्द्र भक्तिShreya Jain

सुदर्शन सेठ की काव्य कथा


रचयित्री-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती


भव्यात्माओं! एक प्राचीन सत्य कथानक की ओर ले चलती हूँ आपको, जिसमें एक ग्वाला एक महामुनिराज की सेवा करके सातिशय पुण्य संचित करता है। जंगल में मुनि ध्यानलीन हैं, तो क्या होता है-


तर्ज-णमोकार णमोकार……….
मुनिराज मुनिराज, आतमध्यानी मुनिराज।
नग्न दिगम्बर मुनि बैठे हैं, इक जंगल में शान्त।……मुनिराज-२…..
गगन गमन ऋद्धिधारी, इक मुनिवर धरा पे आये।
चम्पापुरि नगरी के बाहर, वन में ध्यान लगाये।।
कठिन तपस्या करते थे वे……२, बनने को जिनराज।।मुनिराज…….१।।
भीषण सर्दी में वे ध्यान लगा करके बैठे थे।
जब मानव घर में भी बैठ करके थर थर कंपते थे।।
ऐसे गुरु ही कहलाते हैं, सब मुनियों के नाथ।।मुनिराज-२….।।२।।


बंधुओं! वे मुनिवर ध्यान में लीन थे और उधर से एक ग्वाला शाम को सेठ की गायें चराकर वापस आ रहा था, रास्ते के जंगल में वह नग्न मुनिराज को देखकर बड़ा आश्चर्यचकित हो गया। पुन: वह क्या करता है ?-


तर्ज-ऐसी लागी लगन, मीरा हो गई मगन…….

ऐसी लागी लगन, एक ग्वाले के मन, जब वो जंगल से घर गायें लाने गया।
बहुत ठंडी के दिन, देखा मुनिवर नगन, तब वो गुरु सेवा का मन बनाने लगा।।ऐसी.।।
एक दिन ग्वाला गायें चराने गया।
शाम को सेठ के घर पहुँचाने गया।।
मार्ग में देख मुनि गीत गाने लगा……..ऐसी लागी लगन…….।।१।।
देखा बर्फीली सर्दी में भी वे मुनी।
लीन थे तप में वे श्री दिगम्बर मुनी।।
ग्वाला आँखों से आँसू बहाने लगा……..ऐसी लागी लगन…….।।२।।
उसने सोचा गुरु की मैं सेवा करूँ।
कुछ तो सर्दी भगाने की कोशिश करूँ।।
सूखे पत्ते ला उनको जलाने लगा……..ऐसी लागी लगन…….।।३।।
रात भर गुरु की सेवा वो करता रहा।
अग्नि से मुनि का तन गर्म करता रहा।।
सेवा से मन को पावन बनाने लगा……..ऐसी लागी लगन…….।।४।।
भोर में मुनि ने ध्यान समापन किया।
ग्वाले को दे महामंत्र पावन किया।।
वह णमोकार की धुन लगाने लगा……..ऐसी लागी लगन…….।।५।।


तर्ज-कान खोलकर बात………….
ध्यान लगा कर कथा सुभग ग्वाले की सुन लो….इक ग्वाले की सुन लो
वह तो चम्पापुर का वासी था।।टेक.।।
देकर मंत्र सुभग ग्वाले को, मुनिवर चले गये आगे को।
हर दिन रटता था वह मंत्र, णमो अरिहंताणं-२
वह तो चम्पापुर का वासी था।।१।।
पूछा मालिक सेठ ने उससे, तुझको मंत्र दिया यह किसने।
ग्वाले ने बतलाई बात, गुरुसेवा में बिताई रात-२
वह तो चम्पापुर का वासी था।।२।।
सेठ ने ग्वाले को गले लगाया, उसको महल के पास बुलाया।
दे दिया उसको नया मकान, बोले कर ले धर्मध्यान-२,
वह तो चम्पापुर का वासी था।।३।।
एक दिवस इक घटना घट गई, ग्वाले की अचानक मृत्यु हो गई।
मंत्र को पढ़ते छोड़े प्राण, बन गया सेठ का पुत्र महान-२
वह तो चम्पापुर का वासी था।।४।।
श्रेष्ठी वृषभदास की पत्नी, वह जिनमती थी धर्म की जननी।
उसने सपने देखे पाँच, पाया पुत्र सुदर्शनराज-२,
वह तो चम्पापुर का वासी था।।५।।


बंधुओं! आप समझ गये होंगे कि जिस सेठ के घर में सुभग ग्वाला गायें चराने का काम करता था, उन्हीं सेठ की पत्नी सेठानी जिनमती के गर्भ में ग्वाले का जीव आ गया और नव माह के बाद जनम लेने पर उसका नाम सुदर्शन रखा गया। उस पुण्यवान बालक के जन्म लेते ही सेठ की सम्पत्ति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी और बाल्यावस्था से युवावस्था को प्राप्त करने तक उसके गुण और रूप-सौंदर्य की खूब प्रशंसा पूरे चम्पापुर शहर में होने लगी। समयानुसार सुदर्शन का विवाह वहीं के एक श्रावक की पुत्री मनोरमा के साथ हो जाता है। पुन: आगे की कथा जानें…..


तर्ज-सारे जग में तेरी धूम………..
चम्पापुरि में जय जयकार, हो रही सेठ सुदर्शन जी की।
हो रही सेठ सुदर्शन जी की, उनके शील व सुन्दर तन की।।टेक.।।
वह बालक सुदर्शन है सुन्दर बड़ा।
सेठ का पुत्र वह लाडला है बड़ा।।
बालक किलकारी भरता है, सबको हर्षित वह करता है,
खुशियों की वर्षा करता है।…….चम्पापुरि में……।।१।।
दूज के चांद सम वह तो बढ़ने लगा।
फिर युवावस्था में पग को धरने लगा।।
माता-पिता ने ब्याह रचाया, मनोरमा को बहू बनाया,
पुत्र सुदर्शन भी हरषाया।…….चम्पापुरि में……।।२।।
उनका दाम्पत्य जीवन शुरू हो गया।
फिर तो इक पुत्र का भी जनम हो गया।।
मानो उनको नजर लगी है, घटना अनहोनी सी घटी है,
इक नारी ने कथा गढ़ी है।…….चम्पापुरि में……।।३।।
चम्पापुरि नगरी के धात्री वाहन राजा।
उनकी रानी अभयमती का षड्यंत्र था।।
ध्यान मगन थे सेठ सुदर्शन, इक शमशान भूमि के अंदर,
त्याग का मन में भरा समन्दर।…….चम्पापुरि में……।।४।।
धाय से उनको उठवा लिया रात्रि में।
फिर मनाने लगी विषय सुख के लिए।।
शील धुरंधर नहीं डिगा जब, रानी ने ही शोर किया तब,
बोली व्यभिचारी है यह नर।…….चम्पापुरि में……।।५।।
राजा भी रानी की बातों में आ गया।
फिर सुदर्शन को शूली का दण्ड दे दिया।।
जल्लादों की उठी तलवारें, फूल की माला बन गईं सारी,
देवों ने महिमा दिखला दी।…….चम्पापुरि में……।।६।।


बंधुओं! यह है सेठ सुदर्शन के शील की महिमा। अर्थात् ज्यों ही जल्लादों ने उन्हें मारने के लिए तलवारें गर्दन पर चलायीं, तभी उस वनदेवता का आसन कम्पायमान हो गया और उसने आकर चमत्कार दिखाया तो सुदर्शन के गले में फूलों की मालाएं पड़ गईं तथा जल्लादों को देवता ने कीलित कर दिया।
सारे चम्पापुर नगर में यह खबर तुरंत फैल गई, राजा धात्रीवाहन भी वहाँ आ गये। वनदेवता ने उन्हें अपने दिव्यज्ञान से जानी हुई सारी बात बता दी कि आपकी रानी ने अपना स्वार्थ सिद्ध न होने पर सुदर्शन को झूठा दोष लगाया है और आपने इस निर्दोष को इतना कठोर मृत्युदण्ड दिया है, इसीलिए मैं इनकी रक्षा करने आया हूँ……..आदि।
राजा सच्ची बात जानकर लज्जित होते हैं और सुदर्शन से क्षमा माँगते हैं, किन्तु सेठ सुदर्शन को संसार से वैराग्य हो जाता है, वे जिनमंदिर में जाकर मुनिराज विमलवाहन से जैनेश्वरी दीक्षा की याचना करते हैं-२


तर्ज-चल दिया छोड़………
सब छोड़ कुटुम्ब परिवार, अथिर संसार, धरा मुनि बाना,
नहिं सेठ सुदर्शन माना।।टेक.।।
संसार को उनने देख लिया।
उसे त्याग के शुभ संदेश दिया।।
आत्मिक सुख शास्त्रों में अविनश्वर माना,
नहिं सेठ सुदर्शन माना।।१।।
मनोरमा ने बहुत विलाप किया।
बोली मुझको क्यों त्याग दिया।।
घर चलो नाथ! यह तो है दुष्ट जमाना,
नहिं सेठ सुदर्शन माना।।२।।
राजा ने क्षमायाचना की।
गल्ती स्वीकार प्रार्थना की।
हे राजश्रेष्ठि! तुमने यह नियम क्यों ठाना,
नहिं सेठ सुदर्शन माना।।३।।
मुनिराज विमलवाहन जी से।
दीक्षा ली सेठ सुदर्शन ने।।
घोरातिघोर तप कर निज को पहचाना,
नहिं सेठ सुदर्शन माना।।४।।
यह दृश्य देख राजा ने भी।
निज राज्य त्याग दीक्षा ले ली।।
कर पुत्र को राजतिलक धारा मुनिबाना,
नहिं सेठ सुदर्शन माना।।५।।


आप सबको यहाँ जानना है कि शील धुरंधर सुदर्शन सेठ को राजा ने जब शूली की सजा सुनाई थी, उसी समय सुदर्शन ने नियम कर लिया था कि यदि मैं इस उपसर्ग से बच गया तो दीक्षा ग्रहण कर लूँगा। अत: उन्होंने अपने नियम का पालन करते हुए जैनेश्वरी मुनि दीक्षा धारण कर ली और गुरुसंघ के साथ विहार करके एक बार पटना के उद्यान में पहुँचकर तपस्या में-ध्यान में लीन हो गये। अचानक एक दिन आकाशमार्ग से जाता हुआ एक देव विमान वहाँ आते-आते रुक गया। उसमें रानी अभयमती का जीव जो आत्र्तध्यान से मरकर व्यन्तर देवी हो गई थी उसने नीचे सुदर्शन को देखकर पहचान लिया और अब उनसे प्रतिशोध का बदला लेने के लिए नीचे उतर पड़ी। उसने सुदर्शन मुनिराज पर पुन: उपसर्ग करना शुरू कर दिया।
तब क्या होता है ? जानियेगा कि वह व्यंतरनी कैसे उन पर उपसर्ग करते हुए कहती है-


तर्ज-रेल चली भई रेल चली………
काम बना अब काम बना, मेरा तो अब काम बना।
मुझे इसने सताया, अब ध्यान लगाया,
लगता है इसे अभिमान बड़ा। काम बना भई….।।टेक.।।
ओले-पत्थर बरसा करके, मैं उपसर्ग करूँगी।
नाच-नाच कर इसे रिझाकर ध्यान न करने दूँगी।
इसे मार गिराऊँ, इसे सबक सिखाऊँ, लगता है इसे अभिमान बड़ा,
काम बना भई काम बना, मेरा तो अब काम बना।
मुझे इसने सताया, अब ध्यान लगाया, लगता है इसे अभिमान बड़ा।
काम बना भई….।।१।।


भव्यात्माओं! सब मिलकर बोलिए-
उपसर्ग सहिष्णु महामुनि श्री सुदर्शन जी महाराज की जय।
वे मुनिराज धैर्यपूर्वक व्यंतरनी के भयंकर उपसर्ग को सहन कर रहे हैं, तभी पुन: वहीं वनदेवता प्रगट होकर उस देवी को ललकारता है जिसने चम्पापुर में सुदर्शन की रक्षा की। दोनों का परस्पर में युद्ध होता है और यक्षदेव उस व्यन्तरनी को भगा देता है।
इधर महामुनि सुदर्शन धर्मध्यान से शुक्लध्यान में पहुँचकर घातिया कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं तब उनकी गंधकुटी बन जाती है और धरती से २०००० हाथ ऊपर अधर आकाश में वे गंधकुटी के अंदर केवली सुदर्शन के रूप में विराजमान हो जाते हैं।


जय मुनिराज बोलो जय जय जिनराज-२
केवलज्ञानी जय जिनराज।।
सारे उपसर्गों को जीता, जीवन संघर्षों में बीता।
प्रभु बन गंधकुटी में विराजे, सेठ सुदर्शन प्रभु बन राजें।।
चार घातिया कर्म विनाश, जय मुनिराज बोलो जय जय जिनराज।।१।।
व्यन्तरनी ने भी देखी महिमा, सेठ सुदर्शन की तप महिमा।
पश्चाताप किया तब उसने, आई प्रभु का प्रवचन सुनने।।
व्यन्तरनी का झुक गया माथ, जय मुनिराज केवलज्ञानी भगवान।।२।।
दिव्यध्वनि अब खिर गई प्रभु की, जिनवर सेठ सुदर्शन जी की।
जाति विरोधी जीव परस्पर, मैत्री भाव युक्त थे वहाँ पर।।
नमन ‘‘चन्दनामति’’ करे आज, जय मुनिराज केवलज्ञानी जिनराज।।३।।


इस प्रकार भव्यों को दिव्यध्वनि का पान कराते हुए केवली सुदर्शन एक दिन योगनिरोध करके ध्यानस्थ हो गये और पौष शुक्ला पंचमी तिथि के पवित्र मुहूर्त में अघातिया कर्मों का नाश कर मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त कर लिया। पटना का ‘गुलजार बाग’’ आज भी सेठ सुदर्शन का निर्वाणधाम सिद्धक्षेत्र कहलाता है।
उन सिद्धपरमेष्ठी सुदर्शन भगवान को अनन्तश: नमन करते हुए यही भावना भाते हैं कि सेठ सुदर्शन के समान हमें भी ब्रह्मचर्य व्रत-शीलव्रत के पालन की दृढ़ता प्राप्त हो तथा उपसर्ग सहन की क्षमता प्राप्त होवे। अन्त में सब मिल करके बोलें-


तर्ज-एक परदेशी………….
सुदर्शन जिनराज को निर्वाण हो गया।
आत्मा परमात्मा भगवान हो गया।।
ग्वाले ने मुनि की सेवा करके, सेठ सुदर्शन का पद पाया था। पद…
वहाँ पर अनेकों उपसर्ग सह करके, गृह त्याग मुनिपद अपनाया था।। अपनाया……..
ध्यान करके उनको केवलज्ञान हो गया।
नभ में गंधकुटी का निर्माण हो गया।। सुदर्शन…….।।१।।
पौष शुक्ल पंचमी को उनने, कर्म अघाति नाश किया था…..।।नाश किया था
भव-भव भ्रमण समापन करके, सिद्धशिला पर वास किया था।। वास किया था…
‘‘चन्दनामती’’ उन प्रभु का नाम हो गया।
आत्मा परमात्मा भगवान हो गया।।सुदर्शन….।।२।।

निर्वाण प्राप्त सुदर्शन महामुनि की पूजन

Tags: kavya Katha
Previous post तत्त्वार्थसूत्र ( मोक्षशास्त्र ) Next post श्री महावीराष्टक स्तोत्र ( हिंदी पद्यानुवाद)
Privacy Policy