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०५.धर्म के दश लक्षण से लेकर अभय—दान तक!

July 15, 2017जैनधर्मaadesh

धर्म के दश लक्षण


उत्तम क्षमा, मृदृता, सरलता, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य व ब्रह्मचर्य—ये दशधर्म के लक्षण हैं।
संयम की श्रेष्ठता  कुछ भी दान न देनेवाले संयमी का संयम उस व्यक्ति की अपेक्षा श्रेष्ठ है जो प्रतिमास दश—दश हजार गायों का दान करता है।
धर्म—द्बीप  जरा और मृत्युरूपी जल के प्रवाह में वेग से बहते हुए प्राणियों के लिए धर्म ही द्वीप प्रतिष्ठान, गति और उत्तम शरण है।
धर्म का आचारण कब करें? जब तक बुढ़ापा नहीं सताता, जब तक व्याधियाँ नहीं बढ़तीं और जब तक इन्द्रियाँ अशक्त नहीं होती तब तक धर्म का अच्छी तरह से आचरण कर लेना चाहिए।
अज्ञानी की पश्चाताप जिस तरह कोई गाड़ीवान जान—बूझकर समतल विशाल मार्ग को छोड़कर विषम मार्ग में पड़ जाता है और गाडी की धुरी टूट जाने से पश्चाताप करता है, उसी तरह धर्म के मार्ग को छोड़कर अधर्म में पड़नेवाला अज्ञानी जीवन की धुरी टूट जाने पर मृत्यु के मुख के में पड़ा हुआ पश्चाताप करता है।
असफल रात्रियाँ  जो—जो रात्रियाँ बीत जाती हैं, वे लौटकर नहीं आतीं। अधर्म करने वाले की रात्रियाँ निष्फल जाती हैं।
सफल रात्रियाँ  जो—जो रात्रियाँ बीत जाती हैं, वे लौटकर नहीं आतीं। धर्म करनेवाले की रात्रियाँ सफल जाती हैं
दुर्लभता  विश्व के विमल भोग प्राप्त हो सकते हैं, देवताओं की सम्पत्ति प्राप्त हो सकती है, अच्छे पुत्र व मित्र मिल सकते हैं, किन्तु एक धर्म का प्राप्त होना दुर्लभ है।
सद्गृहस्थ  वही सद् गृहस्थ है जो किसी की बहुमूल्य वस्तु को अल्प मूल्य देकर नहीं ले, किसी की भूली हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करे और अल्प लाभ में संतुष्ट रहे।
वंदनीय स्त्रियाँ  संसार में ऐसी भी शीलगुणसम्पन्न स्त्रियाँ है, जिनका यश सर्वत्र व्याप्त है। वे मनुष्यलोक की देवियाँ और देवों द्वारा वंदनीय है।
वास्तविक आभूषण  नारी का भूषण शील और लज्जा है। बाह्य आभूषण उसकी शोभा नहीं बढ़ाते।
आजीविका वह गृहस्थ धन्य है, जो न्यायपूर्वक अपनी आजीविका का निर्वाह करता है।
प्रज्ञा  प्रज्ञा से ही धर्म को परखो और उसी से तत्त्व का निश्चय करो।
आश्रय  जो अनाश्रित एवं असहाय है, उनको आश्रय तथा सहयोग देने में सदा तत्पर रहना चाहिए।
आदर्श पत्नी पत्नी धर्म में सहायता करने वाली, साथ देने वाली, अनुराग युक्त तथा सुख—दु:ख को समान रूप से बाँटने वाली होती है।
अभिवृद्धि  तुम ज्ञान, दर्शन चारित्र, तप, क्षमा और निर्लोभता की दिशा में निरंतर वद्र्धमान (बढ़ते) रहना।
मूलधन  मनुष्य जन्म मूलधन है। देवगति प्राप्त होना लाभ रूप है।मूलधन के विनष्ट होने पर निश् चय ही नरक व पशुगति रूप हानि प्राप्त होती है।
दया  जिसमें दया की पवित्रता है, वही धर्म है।
सच्चा भिक्षु  जो जाति का, रूप का, लाभ का और श्रुत—ज्ञान का मद नहीं करता, इस प्रकार सब प्रकार के मदों का विवर्जन कर जो धर्म—ध्यान में सद रत रहता है, वह सच्चा भिक्षु है।
श्रमण कौन ?  मात्र शिर मुंडन से कोई श्रमण नहीं होता, सिर्पक ओम् का जाप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता , केवल अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुश का वस्त्र पहनने मात्र से कोई तापस नहीं होता।
समता से श्रमण  व्यक्ति समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य के पालन से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है और तप से तपस्वी होता है।
कर्म से ब्राह्मण अपने—अपने कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र बनता है।
आगम की आँख अन्य सब प्राणी इन्द्रियों की आँख वाले हैं, किन्तु साधु आगम की आँख वाला है।
दीक्षा-  तिनके और सोने में जब सम बुद्धि रहती है, तभी उसी दीक्षा (प्रव्रज्या) कहा जाता है।
कष्ट—सहन एक मैं ही इन कष्टों से पीड़ित नहीं हूँ किन्तु दुनिया में अन्य प्राणी भी पीड़ित हैं यह सोचकर ज्ञानी पुरुष कष्ट पड़ने पर अम्लान भाव से उन्हें सहन करे।
साधक  सुव्रती साधक कम खाये, कम पिये और कम बोले।
त्यागी कौन ?  जो व्यक्ति वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री और शय्या का उपभोग (उनके नहीं प्राप्त होने से) नहीं करता, वह त्यागी नहीं है। किन्तु जो मनोहर और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर भी उनकी ओर से पीठ फैर लेता है और स्वयं इच्छा से भोगों को छोड़ देता है, वही सच्चा त्यागी है।
धर्म के द्वार  क्षमा, संतोष, सरलता और नम्रता—ये चार धर्म के द्वार हैं।
धर्म की धुरा  धर्म की धुरा को खींचने के लिए धन की क्या आवश्यकता है? वहाँ तो सदाचार की जरूरत है।
श्रावक—धर्म  श्रावक धर्म के बारह प्रकार हैं—पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षा—व्रत।
पाँच अणुव्रत हिंसा, असत्य वचन, चोरी, अब्रह्मचर्य तथा परिग्रह—इन पाँच पापों से सीमित मात्रा में विरति अणुव्रत है।
धर्म कहाँ करें?  धर्म गाँव में भी हो सकता है और वन में भी। क्योंकि वस्तुत: धर्म का सम्बन्ध न गाँव से है और वन से ही, वह तो अंतरात्मा से है।
सात कुव्यसन  परस्त्री—गमन, जुआ, शराब, शिकार, कठोर—वचन, कठोर दंड और चोरी—ये सात कुव्यसन हैं, जो एक गृहस्थ के लिए त्यागज हैं।
जुआ  आँखों से अंधा मनुष्य बाकी सब इन्द्रियों से जानता है, किन्तु जुए में अंधा मनुष्य सभी इन्द्रियों के होने पर भी कुछ नहीं जान पाता।
माँसाहार  माँसाहार से व्यक्ति में दर्प से शराब पीने की इच्छा होती ही है औरा फिर वह जुआ खेलता है। इस प्रकार एक माँसाहार से ही वह सारे दोष प्राप्त कर लेता है।
अविरोधी  धर्म, अर्थ और काम को भले ही अन्य कोई परस्पर विरोधी मानते हों किन्तु जिनवाणी के अनुसार यदि वे मर्यादानुकूल व्यवहार में लाये जाते हैं, तो वे अविरोधी हैं।
जीवन सबको प्रिय  सभी प्राणियों को आयुष्य प्रिय है, सुख अनुकूल है, दु:ख प्रतिकूल है, वध अप्रिय है, जीवित रहना प्रिय है। सब लम्बे जीवन की कामना करते हैं। प्रत्येक को अपना जीवन प्रिय होता है।
अहिंसा  ज्ञानी के ज्ञान का सार यही है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करे। अहिंसा और समता— यही शाश्वत धर्म है। इसे समझें।
मैत्री—भाव  सब जीवों के प्रति मैत्री—भाव रखना चाहिये।
सत्यवादी  सत्यवादी व्यक्ति माता की तरह विश्वनीय, गुरु की तरह पूज्य और स्वजन की भाँति सबको प्रिय होता है।
असत्य—वचन  इस लोक में असत्य—वचन सभी सत्पुरुषों द्वारा निंदित है। सभी प्राणियों के लिए वह अविश्वसनीय है। इसलिए असत्य का त्याग करें।
चोरी  लोभ के बढ़ने पर मनुष्य उचित—अनुचित का विचार—नाहीं करना मौत की भी परवाह नहीं करते हुए चोरी करता है।
ब्रह्मचर्य  स्त्रियों के सब अंगों को देखते हुए भी जो उनके प्रति मोहित या आसक्त नहीं होता, वही वास्तव में अत्यन्त कठिन व्रत का पालन करता है।
चोरी के रूप परधन की इच्छा, उनमें आसक्ति, तृष्णा, गृद्धि, असंयम, परधनहरण, कूटतोल—माप और बिना दी हुई वस्तु लेना—ये सब चोरी के ही रूप हैं।
परिग्रह  जीव परिग्रह के निमित्त हिंसा करता हैं, असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है और अधिक आसक्ति करता है। इस प्रकार परिग्रह पापों की जड़ है।
मूच्र्छा– मूच्र्छा ही परिग्रह है।
अनाशक्ति  जिस प्रकार कीचड़ में पड़ा हुआ सोना कीचड़ से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार ज्ञानी संसार के पदार्थों में आसक्त नहीं रहने के कारण कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता। किन्तु जिस प्रकार लोहा कीचड़ मेंं पड़कर जंग—ग्रस्त हो जाता है, वैसे ही अज्ञानी राग—भाव के कारण कर्म करता हुआ लिप्त हो जाता है।
तटस्थ भाव  साधक न जीने की आकांक्षा करे और न मरने की कामना करे। वह जीवन और मरण दोनों में ही किसी तरह की आसक्ति न रखे, तटस्थ भाव से रहे।
सही अनशन—तप  वास्तव में वही अनशन—तप सही है, जिससे मन में अमंगल की चिंता उत्पन्न न हो, इन्द्रियों की हानि (शिथिलता) न हो तथा मन, वचन, व काया रूप योगों की हानि (गिरावट) न हो।
सर्वश्रेष्ठ यज्ञ  तप ज्योति है, जीव ज्योेतिस्थान है, मन, वचन व काया के योग कड़छी है, शरीर कारीषांग (गोबर के कंडे) है, कर्म जलाया जानेवाला र्इंधन है, संयम—योग शान्ति पाठ है। मैं इस प्रकार का यज्ञ करता हूँ जिसे ऋषियों ने श्रेष्ठ बताया है।
कर्मों की निर्जरा  जैसे एक विशाल तालाब में पानी आने के मार्गों के रोक दिये जाने पर, उसमें संचित जल उलीचने से समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार एक संयमी पुरुष के नवीन पाप—कर्मों के प्रवाह के रोक दिये जाने पर, करोड़ोें भवों के संचित कर्म तप द्वारा विनष्ट हो जाते हैं।
सहनशीलता  सज्जन पुरुष दुर्जनों के निष्ठुर अपमानजनक एवं कठोर वचन भी समभाव पूर्वक सहन करते हैं।
धैर्यसम्पन्न  वह कौन सा कठिन कार्य है जिसे धैर्यशील व्यक्ति सम्पन्न नहीं कर सकता?
समता भाव  तिनके और सोने में, शत्रु और मित्र में समभाव रखना ही सामन्यिक है।
उत्तम क्षमा  देव, मनुष्य और पशुओं द्वारा घोर व भयंकर उपसर्ग पहॅुंचाये जाने पर भी जो क्रोध से तप्त नहीें होता, उसके उत्तम क्षमाधर्म साधित होता है।
क्षमा—भावना  मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ। सब जीव मुझे क्षमा करें। मेरा सब प्राणियों के प्रति मैत्री —भाव है। मेरा किसी से भी वैर नहीं है। ==क्षमा== क्रोध को जीत लेने से क्षमा—भाव जाग्रत होता है।
सारल्य जो चित्त में कुटिल विचार नहीं लाता, कुटिल कार्य नहीं करता, कुटिल वचन नहीं बोलता और अपने दोषों को नहीं छिपाता, उसके आर्जव—धर्म (सारल्य सिद्ध होता है।
धीर पुरुष!  हे धीर पुरुष! आशा, तृष्णा और स्वच्छंदता का त्याग कर।
अभिमानी अभिमानी पुरुष सबका वैरी हो जाता है। वह इस लोक और परलोक में निश्चय ही कलह, वैर भय, दु:ख और अपमान को प्राप्त होता है।
गोपनीय बात  किसी की कोई गोपनीय बात हो, तो उसे नहीं कहना चाहिए।
नम्रता  अभिमान को जीत लेने से मृदुता (नम्रता) उत्पन्न होती है।
संतुष्ट  जो अपने प्राप्त लाभ में संतुष्ट रहता है, और दूसरों के लाभ की इच्छा नहीं करता, वह सुख पूर्वक सोता है।
अभय—दान
मृत्यु—भय से भयभीत जीवों की रक्षा करना अभय—दान है। यह सब दानों का शिरोमणि है।
दान दान चार प्रकार का है— आहार, औषध, शास्त्र—ज्ञान और अभय।यह चार प्रकार का दान गृहस्थों के लिए देने योग्य कहा गया है।
 
 
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