जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में कश्मीर नाम का प्रसिद्ध देश है। किसी समय इसमें विजयपुर नाम का एक नगर था। वहा पर जिनमन्दिरों पर ध्वजाएं फहराती हुई मानो भव्य जीवों को धर्माराधना हेतू अपनी ओर बुलाया ही करती थी। इस नगर के राजा का नाम अरिमत था जो कि इन्द्र के समान वैभवशाली, सुन्दर, पराक्रमी, परोपकारी, जिनधर्म भक्त और प्रजावत्सल आदि गुणों से अलंकृत था। उसकी पट्टरानी का नाम सुन्दरी था जो कि पातिव्रत्य आदि गुणों की खान और धर्मपरायणा थी। किसी समय रानी के पुत्र रत्न की उत्पत्ति हुई, राज्य में महामहोत्सव के साथ राजा ने पुत्र का नाम ललितांग रखा चूंकि वह सर्वाग सुन्दर था। सुन्दर शिशु को पाकर माता पिता फूले नही समाते थे, उनका राग भाव पुत्र के लाड़प्यार में अत्यधिक बढ़ गया था। उसकी बाल क्रीड़ायें राजा को बहुत की प्रिय लगती थी। इस पुत्र प्रेम के कारण राजा का राजदरबार मे बहुत ही कम जाना होता था। ललितांग बालक भी माता पिता के असीम स्नेह को प्राप्त करता हुआ द्वितीय के चन्द्रमा के समान वृद्विंगत हो रहा था। धीरे – धीरे बालक ने पृथ्वी पर बैठना, रेंगना, सरकना तथा चलना शुरू कर दिया। वाणी से तोतली भाषा बोलते बोलते कुछ दिन बाद स्पष्ट अक्षरों का उच्चारण करने लगा, तथा कुछ दिनो में ही किशोर अवस्था में आ गया। अत्यधिक लाड़ प्यार के कारण माता पिता ने उस बालक को विद्या अभ्यास में नहीं लगाया। कुछ अक्षर ज्ञान सीखकर ही वह बालक विद्यागुरु के पास नहीं जाता था और माता – पिता भी अत्यधिक प्रेम होने से उसे अपने से अलग नहीं कर पाते थे। यह ललितांग बालक अपने वयस्क मित्रों के साथ शहर बगीचे, सरोवरों और शहर के बाहर खुले स्थानो में क्रीड़ा के लिए निकल जाता था।
धीरे – धीरे उम्र के साथ यह कुमार युवा हो गया किन्तु बहुत से दुर्व्यसनी युवकों की संगति मे रहने लगा। बाल्यकाल मे विधा अध्ययन न करने से तथा विनय आदि गुणों का अभाव होने से यह राजकुमार शहर निवासियो के लिए एक सिर दर्द बन गया। जैसे नीम के पत्तों के संसर्ग से पानी कडुवा हो जाता है, उसी प्रकार राजपुत्र ललितांग भी दुर्जनों की संगति से विवेकहीन बन गया। उसकी बढ़ती हुई चंचलता, धूर्तता, दुष्टता और अनीतिपूर्ण कार्यों को देख- सुनकर भी राजा – रानी उसका विरोध नही करते प्रत्युत् हंसकर टाल देते और प्यार ही करते रहते। फलस्वरुप वह प्रजा को नाना प्रकार के कष्ट देते हुए उनके जीवन के साथ खिलवाड़ करने लगा।
“यौवन धन सम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकताम् ।
सन्त्येकैकेऽप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ।।”
यौवन, धनसम्पति, प्रभुता और अविवेक, इन चारों में से एक – एक भी हो तो अनर्थ के लिए होते हैं। और फिर यदि चारों ही मिल जायें तो क्या कहना। इस राजपुत्र मे इन चारों का मिलना एक साथ हो जाने से तो अब कहना ही क्या था। वह ललितांग अपने मित्रों के साथ खेलते हुए किसी को गाली देता, किसी के बाल पकड़कर खीचंता, किसी के उपर थूक देता, किसी पानी भरने वाली का धड़ा फोड़ देता, किसी को स्वयम् रस्सी से बाध कर कुएँ में लटका देता। इत्यािद प्रकार से शहर के बड़े बड़े पुरुषों को, स्त्रियों को, बालक और बालिकाओं को, सभी को तंग करता रहता था। वह मूर्ख राजपुत्र कभी किसी एक मनुष्य के सिर को पकड़ कर रास्ते चलते किसी के सिर से टकराकर फोड़ देता और ताली बजाकर हंसने लगता, कभी अपने दुष्ट मित्रों के साथ मार्ग चलती किसी भी भद्र महिला को घसीट लाता और उसकी इज्जत ले लेता। वह नगर की वेश्याओं को पकड़ कर बलपूर्वक देवी के मंदिर मे लाकर नृत्य कराता और रात भर उनका नृत्य देखता रहता। वह कभी भिक्षा के लिए घूमते हुए भिक्षुओं के पात्र कमंडलु छीन लेता और उन्हे क्रूरतापूर्वक यातनायें देता, उसके इन उपद्रवों से सभी वर्ग के लोग परेशान थे परन्तु किसी में भी इतना साहस नही था कि उसकी शिकायत राजा तक पहुंचा सके। एक बार यह तेलियो के महुल्ले मे घुस गया तो बेचारे सभी तेली सब काम छोड़कर भागने लगे, उनमें से जो भी हाथ लगे उन्हें खूब पीटा और पुनः मनों तेल ले जाकर शहर के बाहर यक्षिणी देवी के मन्दिर में मशाल जलाने लगा, लोग यह दृश्य देखकर घबराने लगे। कभी बाजार मे चला गया तो खूब लूटमार करवाई और दुकानदारों, सर्राफों, जौहरियो को तंग कर दिया, कभी बगीचे मे क्रीडा करने गई हुई शीलवती महिलाओ को पकड़कर लतागृहों मे ले जाकर उनका शील भंग करने लगा। उस समय शहर मे ललितांग राजकुमार का भय इतना व्याप्त हो गया कि कुलीन घरानो की स्त्रियों ने बाहर निकलना ही बंद कर दिया।
ऐसी दुर्दशा को देखकर शहर के कुछ प्रमुख लोगो ने मिलकर मंत्रणा की और एक साथ राजदरबार मे आये और राजा का अभिवादन कर हाथ जोड़कर कहने लगे। “हे राजन् ! हम लोग कुछ समस्या लेकर आये हुए है सो हमें अभय दिया जाय और हमारी प्रार्थना सुनी जाय।” राजा ने कहा- “ठीक है आप लोग निर्भय होकर अपनी बात कहिये, क्योकि राजा वही श्रेष्ठ होता है जोे प्रजा के सुख मे सुखी और दुख होता है।” राजा से आश्वासन प्राप्त कर उन लोगो मे से एक महानुभाव आगे होकर बोले – “हे महाराज ! आपका पुत्र ललितांग निरंकुश हाथी की तरह हम नगरवासियो को कुचल रहा हें, शहर के छोटे बड़े मनुष्यो का जीवन कीड़े मकोड़े के समान बना रखा है। बहू बेटियो की शील का अपरहण दिन दहाड़े हो रहा है। हे धर्मावतार ! राजपुत्र के दुष्कृल्पों का वर्णन करना हम लोगो की शक्ति से परे हो गया है। हर दिन देखो, कही लूटमार, कही अग्निकांड, कही तोड़फोड़ तो कही हाहाकार मच रहा है। हे नरनाथ ! आप स्वामी है अतः अब हम लोग आपकी शरण मे आये है। सो आप कृपा कर राजपुत्र पर अनुशासन करिये, उसे दुष्टों की संगति से छुडाइये यश को सुरक्षित रखते हुए आगे राजवंश को भी डूबने से बचाइये।” प्रजा के इन वचनो को सुनकर राजा एकदम हतप्रभ हो गये और मस्तक पर हाथ रखकर सोचने लगे। अहो ! यह क्या हुआ मेरा इकलौता बेटा, और फिर वह भावी राजा, इस विशाल राज्य की धुरा का वहन करने मे कैसे समर्थ होगा।” पुनः सोचते है- “अरे ! भविष्य कर बात तो अभी जाने दीजिए, वर्तमान मे इसे कैसे सुधारा जायॅ और प्रजा को कैसे खुश किया जाए।” एक क्षण सोचकर प्रजा को कहते है- “हे प्रजाजनों ! आप लोगो ने हमे सूचना देकर बहुत ही अच्छा किया है, अब आप निश्चिनत होइये। इसका उपाय शीध्र ही किया जावेगा।” प्रजा हर्ष से पुलकित हो वापस अपने अपने स्थान पर चली गई। इधर राजा अरिमत प्रधान अमात्य और महारानी के साथ मंत्रशाला मंे बैठकर विचार विमार्श करने लगे। राजा ने पहले ललितांग की सारी शिकायतों का स्पष्टीकरण किया, पुनः बोले- “हे देवी ! जिस प्रकार वर्षा का मिठा पानी समुद्र मे पड़कर खारा हो जाता है उसी प्रकार यह अपना प्यारा पुत्र भी अधिक लाड़ प्यार मे रहने से कुसंगति मे पड़कर दुष्ट बन गया हे। यदि हम लोग इसे विधाध्ययन कराते तथा मुनियो के निकट ले जाते तो अवश्य ही यह उत्तम राजवंश की धुरा को धारण करने मे समर्थ युवकरत्न बन गया होता। अस्तु ! अब पछताने से क्या होगा? अब तो प्रजा के सुख के लिए इस कुमार को देश के बाहर निकाल देना ही हमारा कर्तव्य है।” इत्यादि बाते सुनकर अमात्य ने कहा- “हे नरनाथ ! यधपि आपने सही निर्णय लिया है फिर भी मेरी प्रार्थना से एक बार आप स्वंय उसे उपदेश देकर दंखिए, यदि कदाचित् वह मान लेता है तो आगे की परंपरा सुरक्षित रहती है।” म्ंत्री के आग्रहपूर्ण वचनो से राजा ने कुमार को बुलवाया और उसे बड़े प्रेम से अपने पास बिठाकर उसके मस्तक पर प्यार से हाथ फैरते हुए बोले-
प्रिय पुत्र ! तुमने दुष्ट जनों की संगति से अपनी प्रजा के साथ जो अनुचित व्यवहार किया हे उसका हमं तथा हमारी प्रजा को आज बहुत ही दुख हो रहा है। हे कुमार! भला तुम्हारे राज्य मे क्या कमी है जो तुम दूसरो के धर, दुकान लूटते फिरते हो, देखो, किसी की बहू बेटी को छेड़ने से उनके धर की इज्जत जाती है और तुम्हे लोग बदमाश समझते है। पुत्र ! आगे चलकर इस सारी राज्य संपति के तुम्हें तो मालिक हो। और सोचो तो सही इस नगर की सारी प्रजा के तुम स्वामी हो अतः तुम स्वंय सोचो प्रजा को सताना चाहिए या उसकी रक्षा करनी चाहिये। इसलिए तुम अब अपनी दुष्टप्रवृत्तियो को छोड़ो और अच्छे योग्य बनो। इत्यादि उपदेश सुनकर ललितांग ने अपनी गलती मंजूर की पुनः ऐसा न करने का वचन दिया और माता पिता को संतुष्ट कर दिया। पुनः दो चार दिन बाद फिर वैसे का वैसा ही हो गया। ऐसा देखकर राजा अरिमत बहुत ही दुखी हुए। अंत मे पुत्र मोह छोड़कर राजनीति का पालन करते हुए प्रजा के सुख के लिए प्रिय पुत्र ललितांग को अपने देश से बाहर निकाल दिया।
(२)
राजा द्वारा पुत्र ललितांग को देश निकाला का दण्ड देना तथा उसकी अंजन चोर के नाम से प्रसिद्धि होना।
संस्कृत की पंक्तियों में देखें क्षमा धर्म की व्याख्या राजपुत्र ललितांग पिता द्वारा निकाला दण्ड मिलने पर बहुत ही दुख से आहत हो कश्मीर देश छोड़कर नेपाल देश मे आ गयां। समानशीलेषु व्यसनेषु मैत्री इस सूत्ति के अनुसार वहा पर भी उसने अपने समान उम्र, स्वभाव और दुव्र्यसन वाले मित्रों से मित्रता कर ली और धूर्तों का सरदार बन गयां। व्यसनों मे पारगंत यह ललितांग चोरी करने मे अतीव निपुण हो गयां। चैर्यकला मे विशेष सफलता प्राप्त करने के लिए इसने एक “अंजनवटी” नाम की विधा को सिद्व कर दिया। जिससे अदृष्य होकर मनमानी चोरी करने लगा। अर्थात् एक प्रकार की विधा से सिद्व हुआ अञजन आंख मे लगा लेने से वह चोर किसी को भी नही दिखता था और वह स्वंय सबको देखता रहता था। इस अंजनवटी विधा के कारण यह सर्वसाधारण मे अज्जनचोर के नाम से प्रसिद्व हो गया। अब यह देष देषान्तरो मे भ्रमण कर अपनी विधा के बल से लाखों का माल चोरी मे लाने लगा। चोरी मे सिद्वहस्त यह कुमार जुआ खेलना, मदिरा पीना, शिकार खेलना, वेष्यागमन करना और परस्त्रीसेवन करना, इन सातो व्यसनो से प्रवृत्त हो गयां। सदाचार को भूलकर निंरतर दुराचार मे ही प्रवृत्त रहने लगा। धूर्त चोर, डाकू आदि अनाचारियो के साथ रहकर मनमाना पाप करने लगां। अहो! क्संगति के प्रभाव को तो देखो, जो राजपुत्र राजधराने मे इतने अधिक लाड़ प्यार से पाला गया था। सोचो, भला उसके यहा भोग सामग्रियो मे किस चीज की कमी थी युवावस्था मे विवाह होने पर एक नही सैकड़ो राजपुत्रियो से विवाह कर सकता था, परंतु आश्चर्य है कि वह इन दुष्टां के साथ रात दिन दुव्र्चसनों मे ही फॅसा रहता हैं। फिर भी देखो, उसे रंचमात्र भी प्रतिक्षण आकुलता बनी रहती है कि मुझे कोई चोरी करते, परस्त्री सेवन करते पकड़ न ले मुझे राजा के द्वारा कही फांसी की सजा का हुक्म न हो जावे।
इस प्रकार प्रसिद्वि को प्राप्त होता हुआ यह अज्जन चोर नाना देशे मे भ्रमण करते करते अपने साथियें के साथ राजगृह नगर की अप्रतिम सौर्दंयशाली “अनंगसुंदरी” नाम की वेश्या को देखकर मोहित हो गया और वही पर रहने लगा। वेश्या की इच्छा पूर्ति के लिए वह रातभर चोरी करता और दिन मे वेश्या के धर मे ही पड़ा रहता। उसके द्वारा चोरी मे लाए हुए सामान से थोड़े ही दिनो मे वेश्या का धर भर गया। अनंग सुंदरी इतने सारे बहुमूल्य जेवरात आदि द्रव्यो को देखकर आष्चर्य मे पड़ गई और सोचने लगी- “अहो ! इतना वैभव इन्द्र के यहा भी नही होगा, किसी राजा, महाराजा, चक्रवर्ती के यहा भी इतनी विपुल संपति नही हो सकती है। मेरा यह पति महान् है तीन लोक मे भी ऐसा पुरुष नही मिलेगा। मेरे धर मे देश विदेश की सारी विभूतिया मोजूद है। मुझे किसी भी वस्तु का अभाव नही है। मै चाहू तो इतने सारे वैभव से राज्य ही खरीद लू।”ऐसा सोचते हुए उस वेश्या ने ललितांग कुमार की खूब प्रशंसा की, पुनः उस पर अपना अगाध प्रेम प्रदर्षित करते हुए उसने उस अज्जन चोर को इतना वष मे कर लिया कि धीरे धीरे उसने भी वेश्या को अपनी सब कुछ समझ कर उसे अपना सारा रहस्य बता दिया। “मुझे चैर्य कला मे कैसे सफलता मिलती है मुझे अंजनवटी विधा सिद्व है।” इत्यादि सर्व बाते बता दी।अंजन चोर की इतनी विशेषता देखकर वह अनंगसुंदरी फूली नही समाई और नाना प्रकार की कल्पनाओ को मन मे संजोते हुए सुख से रहने लगी।
एक दिन राजगृह का राजा अपने अंतपुर और परिवार सहित जलक्रीड़ा के लिए जा रहा था। रानी भी राजा के साथ हाथी पर बैठी हुई अपने नगर की शोभा देख रही थी। उसके गले मे ज्योतिः प्रभा नामक नील मणियो का हार चमक रहा था। इधर वेश्या भी अपनी छत पर खड़ी होकर राजा के प्रस्थान को देख रही थी। अकस्मात् उसकी दृष्टि रानी के गले मे पड़े हुए हार पर पड़ी वह देखते ही सोचने लगी -“अरे ! मेरे धर मे सब कुछ होते हुए यदि यह हार नही है तो क्या है कुछ नही।” इसके बाद वह अञजन चोर की प्रतीक्षा मे बैठ गई। उसके आते ही उसने कहा- “यदि आपका मुंझ पर सच्चा प्रेम है तो यहा की रानी के गले का हार लाकर मुझे दीजिए। अन्यथा आज से आपका और हमारा कोई सम्बन्ध नही है।” इतना सुनते ही अज्जन चोर बोला – “प्रिये ! तुझे मेरे प्राणो से भी मोह नही है अरे राजा के यहा इतना कड़ा पहरा और फिर राजा के पास मे सोती हुई रानी के गले का हार भला मे कैसे ला सकता हू। हा, भण्डार मे रखी हुई वस्तु लाना तो सहज है, सेध लगा कर कुछ ले आता हू किन्तु रानी के गले मे पड़ा हुआ हार तो लाना असम्भव है।” अञजन चोर का उत्तर सुनते ही उसने स्वांग शुरु किया। वह जाकर एक तरफ लेट गई। जब वह चोर मनाने पहुचा और उसकी अनुनय विनय करने लगा तब वह बोली – “ओह ! अब मेरे जीवन की आशा नही है तो उस हार को पहने बिना एक क्षण भी नही रह सकती। मुझे तो आपके विधा बल पर बहुत ही विश्वास था और यह क्या हुआ। हाय, मैने अपनी माॅ की बात न मानी और तेरे जैसे अकर्मण्य को अपना सर्वस्य मान लिया। आज तक मै तेरे मोह मे अपने को रानी से भी बढ़कर गिन रही थी और जब उसके गले का हार ही मुझे नही मिल सकता तब मै जीवित रहकर क्या करुगी।”वेश्या की इन बातो को सुनकर अज्जन चोर बहुत ही दुखी हुआ और पुनः उसे सान्तवना देते हुए बोला- “प्रिये ! तुम उठो, स्नान करो, भोजन करो और प्रसन्न होओ। मै तुम्हे यह हार अवश्य ही लाकर दूगा। थोड़े दिन धैर्य धरो मेरी यह अज्जन गुटिका विधा शुक्ल पक्ष मे काम नही करती है। कृष्णपक्ष की अष्टमी को आने दो। मै तुम्हें निश्चित ही रानी के गले का हार लाकर पहनाउॅगा।”
इतना कहने पर भी जब वेश्या प्रसन्न नही हुई तब उसने कहा- “प्रिये ! उठो, मैं आज ही रात्रि में तुम्हें हार लाकर पहनाऊंगा। इतना कहने पर वेश्या ने प्रसन्नता जाहिर की । अपने वायदे के अनुसार वह ललितांग उसी दिन रात्रि मे अंजनवटी विद्या के बल से छिपकर राजमहल मे घुसकर रानी के गले से हार लेकर भागा। उस ज्योतिः प्रभा हार के प्रकाश की चकाचौंध देखकर कोतवाल ने हल्ला मचा दिया तथा उस भागते हुए प्रकाश की दिशा की और ही चोर को पकड़ने के लिए प्रकाश का पीछा कर दिया। चांदनी रात के कारण अज्जन गुटिका भी अपना पूरा प्रभाव नहीं कर पाती थी। अतः कोतवाल को पीछे से आते देख अंजन चोर घबरा कर हार वही फेंक कर जी तोड़कर भागने लगा। कोतवाल ने हार तो दूसरे को संभलाया और आप स्वंय उस चोर के लिए उसके पैर के चाप के सहारे उसका पीछा नहीं छोड़ा। चोर शहर की चार दीवारी को लांघकर श्मशान भूमि की ओर बढ़ गया ।
वहा पर एक वृक्ष के नीचे दीपक जलते हुए देखकर वह उस पेड़ के नीचे पहुचा और उपर की और देखने लगा। वहा पर 108 रस्सियो का एक सींका लटक रहा था, उसके नीचे भाला, बर्छी, तलवार, फर्सा, शूल चक्र आदि नुकीले नुकीले अनेक प्रकार के शस्त्र गाड़े हुए थे। एक व्यक्ति वहा पूजा कर णमोकार मंत्र पढ़ता हुआ रस्सी काटने का पुरुषार्थ कर रहा था किन्तु पुनः पुन नीचे देखकर धबराता था कि- “यदि मुझे विधा नही सिद्व हुई और मै नीचे गिर पड़ा तो निश्चित ही इन शस्त्रों से कटकर मर जाउॅगा।” सो वह बेचारा बार बार नीचे आ जाता पुनः विधा सिद्व करने के लोभ से उपर चढ़ता। ऐसे ही चढ़ उतर कर रहा था। तभी इस चोर ने पूछा-“अरे भाई ! तुम कौन हो ? और यह क्या कर रहे हो ?”उसने कहा -“मेरा नाम वारिषेण है। मै आकाशगमिनी विधा सिद्व कर रहा हू। मुझे यह मंत्र जिनदत्त सेठ ने दिया है। किन्तु नीचे के शस्त्रों को देखकर मेरे मन मे संशय हो रहा है ।” उसकी बात पूरी भी नही हो पाई कि इस अञजन चोर ने सारी स्थिति समझ ली। उसने उसी क्षण मन मे सोचा- “जिनदत्त सेठ परम धर्मात्मा, जैनधर्मी है, सम्यगदृष्टि है। उसका दिया हुआ मंत्र गलत नही हो सकता है। अस्तु ! जो भी हो मेरे पीछे कोतवाल लगे है। वे पकड़ कर मृत्यु-दण्ड ही देगे। यदि कदाचित् विधा सिद्व हो गई तो मरने से तो बच ही जाउॅगा और यदि नही सिद्व हुई तो गिरकर मर जाउॅगा। फिर भी सेठ जिनदत्त का मंत्र सही ही होगा उस पर शंका नही करना चाहिए।”ऐसा सोचकर उसने कहा-भाई ! यदि तुझे भय लग रहा हे तो ला, यह मंत्र मुझे बता दे। वारिषेण ने तत्काल ही सेठ जिनदत्त द्वारा बताई गई विधि उसे बताकर मंत्र दे दिया। अञजन चोर ने जिनदत्त सेठ पर विश्वास रखकर मन मे उसे प्रणाम किया, पुनः दृढ़ता से सींके मे बैठकार पंत्र का उत्तचारण किया और तलवार से रस्सिया काट डाली। रस्सियो के कटने से वह नीचे गिरने वाला ही था कि बीच मे ही विधा देवता ने आकर उसको उपर उठा लिया और कहा-“मै जिनदत्त सेठ के दर्शन करना चाहता हू मुझे और कुछ भी नही चाहिये।” जिनदत्त सेठ उस समय सुमेरु पर्वत पर नंदन वन मे जिनमंदिर मे पूजा कर रहा था। विधा देवता ने तत्क्षण ही उसे वहा पहुचा दिया।
अञजन चोर सुमेरु पर्वत पर पहुच कर नंदनवन के चैत्यालय मे प्रविष्ट हुआ। तब सोचने लगा। “अहो ! जिनदत्त के मंत्र पर विश्वास करने से मुझे तत्क्षण ही आकाशवाणी विधा सिद्व हो गई है। और मै उस विधा के बल से इस महामहिम सुमेरु पर्वत के जिन मंदिर मे आ गया हू। आज मेरा कितना बड़ा भाग्यउदय हुआ है कि जो मै ऐसे पवित्र स्थान पर आ गया हू। कहा तो मै कोतवाल के हाथो मरने वाला था और कहा यह सुयोग मिल गया।” इत्यदि सोचते हुए पुलकित मना उसने पूजा करते हुए जिनदत्त सेठ को नमस्कार किया। पुनः भक्ति भाव से श्री जिनेन्द्र की प्रतिमाओ के दर्शन करता हुआ स्तुति करने लगां। वह ललितांग बार बार उन अकृत्रिम जिनमदिरो की शोभा निहार रहा था और तृप्त नही हो रहा था। वहा पर सर्वत्र इन्द्रनील मणि, कर्केतन मणि, पघरागमणि, मरकत मणि आदि जड़ी हुई थी। रत्नो की अतिशय सुन्दर जिनप्रतिमाओ का दर्शन करते हुए मानेा उसे आज कोई अद्भुत निधि ही मिल गई हो ओर है भी तो यह अद्भुत निधि का ही लाभ, जो कि महाचोर महापापी को अनायास ही सुमेरु पर्वत के जिनमंदिरो के दर्शन का मिल जाना, यह साधाराण बात तो नही थी। इतने मे ही जिनदत्त सेठ पूजा पूर्णकर उसकी ओर देखकर सोचने लगा-“अरे ! यह अञजन चोर, पापी, दुरात्मा इसे आकाशगामी विधा कैसे सिद्व हो गई।”सेठ को अपनी और देखते हुए देखकर तत्काल ही वह चोर उनके चरणो मे गिर पड़ा और बोला – हे महानुभाव ! आपके प्रसाद से ही आज मुझे यह सौभाग्य मिला है। सेठ ने पूछा -“सो कैसे ”तत्काल ही अञजन चोर ने सारी धटना सुना दी। सुनकर सेठ ने कहा- “भद्र ! बहुत ही अच्छा हुआ, तुम्हारे प्राणो की रक्षा हो गई, अब तुम्हे समस्त पापो का त्याग कर देना चाहिये।” तभी अञजन चोर ने कहा -“हे महानुभाव ! आप जिनंद्रदेव के परम भक्त है, सम्यग्दृष्टि है, अन्यथा नही बोलते है। ऐसी दृढ़ श्रद्वा करके ही मैने यह आकाशगामिनी विधा पाई है और मृत्यु के मुख से बच गया हू फिर भला अब मै इस धर्म को कैसे छोड़ दूगा अहो! जिस धर्म ने आज मेरी रक्षा की है, अब मेरे लिए इस जन्म मे वो ही एक शरण है। अब मुझे एक जिनधर्म के सिवाय और कुछ भी नही चाहिए। अब मे श्री जिनंद्रदेव के मार्ग का ही अनुसरण करके इस संसार समुद्र को पार करुगा।” सेठ जिनदत्त अञजन चोर की दृढ़ता को देखकर मन मे बहुत ही प्रसन्न हुआ और नाना प्रकार की धर्मकथाओ से उसे धर्म मे और भी प्रोत्साहित करने लगा। सेठ के मुख से नाना प्रकार की धर्म कथाओ को सुनकर अञजन चोर धर्म के र समे ओतप्रोत हो गयां। और पुनः सुमेरु पर्वत के संपूर्ण जिनालयो की वंदना करके वही पर विराजमान देवर्षि नामक चारण ऋद्विधारी मुनि के पास गया, उन्हे साष्टांग नमस्कार कर उनके चरणो के निकट बैठ गयां। विनयपूर्वक अपनी आत्मकथा निवेदन करके गुरु के पादमूल मे अपने पापो की निंदा करने लगा और बोला “हे दयानिधे ! अब आप मुझे इन समस्त पापो को नष्ट करने के लिए उत्तम उपाय बतलाइये कि जिससे मेरी आत्मा इस अथाह संसार समुद्र मे न डूब जाए।”
मुनिराज ने उसे धर्म का उपदेश् दिया और कहा-“हे भव्य ! संसार समुद्र से पार होने के लिए यह जैनेश्वरी दीक्षा ही जहाज है। इस पर बैठकर ही यह पाप अगाध भववारिधि तिरा जा सकता है।”अञजन चोर ने मन मे विचार किया-“यह प्राणी संसार मे जितने दुःख भोगता है उसके आगे जैनेश्वरी दीक्षा मे क्या कष्ट है। यदि धर्म भावना से शरीर से निर्मम होकर तपश्चरण किया जायेगा, गर्माी, सर्दी, भूख, प्यास और उपसर्ग आदि के कष्ट झेले जायेगे तो पुनः संसार मे न जन्म लेना पड़ेगा और न मरना ही पड़ेगा।”ऐस सोचकर उसने कहा-“हे भक्तजल वत्सल ! अब आप मुझे कर्मों को मूल से नष्ट करने वाली ऐसी दैगंबरी दीक्षा प्रदान कीजिसे।”मुनिराज ने भी उसे निःशंकित अंग का धारी, दृढ़ सम्यकत्वी जानकर मुनि दीक्षा प्रदान कर दी। अब वह अञजन चोर महाव्रती बन गया। अतः अब वह चोर नही रहा प्रत्युत् महा साधु हो गया और इन्द्रो के द्वारा भी वंध हो गया।हिसा, झूठ चोरी, कुशील ओर परिग्रह इन पांचो पापो को सर्वथा त्याग कर अहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, अचैर्य महाव्रत, ब्रहाचर्य और अपरिग्रह महाव्रत इन पांचो महाव्रतो से सहित होने से महान् हो गयां। इस प्रकार से मुनियो के 28 मूलगुणो का पालन करते हुए वह ललितांग राजकुमार सारे विश्व मे पूज्यपने को प्राप्त हो रहा था। धोरातिधोर तपश्चरण करते हुए उन मुनिराज ने अपने कुछ दिनो के उपरांत इन ललितांग मुनिराज को चारणऋषि प्राप्त हो गई। जिसके निमित्त से वो पुनः सुमेरु पर्वत आदि के अकृत्रिम जिनमंन्दिरो की वंदना करने जाने लगा।
किसी समय कैलाश पर्वत पर पहुच कर शुक्लध्यान मे आरुढ़ हो गये। तभी इनके धातिया कर्मों का नाश होकर केवलज्ञान प्रगट हो गया। तत्क्षण ही देवो ने आकर गंधकुटी की रचना करके महामुनि ललितांग के केवलज्ञान की पूजा की। अब ये ललितांग अर्हत केवली हो गये और तमाम भव्यों को मोक्षमार्ग का दिव्य उपदेश दिया। अनंतर अधातिया कर्मो को भी नष्ट कर निर्माण धाम को प्राप्त कर लिया। सिद्व, शुद्ध निरज्जन परमात्मा हो गयें। धर्म और धर्मात्मा के वचनों मे शंका न करके निःशंकित अंग के प्रभाव से ये अञजन चोर संपूर्ण कर्म अज्जन से रहित होकर निरंज्जन सिद्व हो गये। ऐसा समझ कर जिनेंद्रदेव के वचनो मे निःशक होकर अपने सम्यकत्व को निर्मल बनाना चाहिये। जो व्यक्ति तमाम दिन सम्त व्यसनो के सेवन मे लीन रहा, उसने भी जब धर्म की शरण ले ली तब संपूर्ण कर्मों को काटने मे समर्थ हो गया और उसी भाव से अपनी आत्मा को परमात्मा बना कर शाश्वत सुख का भोक्ता बन गया। इसलिए तो धर्म पक ‘पतित पावन’ कहा है।
प्रश्न- यदि बहुत दिनो तक पापाचरण करके भी अंत मे धर्म कर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है तो फिर बचपन से ही धर्म ग्रहण की क्या जरुरत है। अज्जन चोर के उदाहरण से यह बात स्पष्ट ही हे।
उत्तर- अञजन चोर के उदाहरण का ऐसा अर्थ कदपि नही करना चाहिये। क्योकि दुव्र्यसनो मे फॅस कर व्यक्ति प्रायः उनसे अपने को छुड़ा नही पाता हे और पुनः पापाचरण से मर कर नरक निगोदो मे चले जाते है। अज्जन चोर को कोतवाल के डर से भागना और उसी क्षण आकाशगामिनी विधा का मिल जान, पुनः उसके प्रभाव से सुमेरु पर्वत के जिन मंदिर का दर्शन होना, वहा पर सेठ का और महामुनि का उपदेश मिलना, ये सब चीजे सबके लिए सुलभ नही है। आज देखा जाता है कि यदि कोई युवक शराब पीता है तो वह गुरु के पास दर्शन करने भी नही आता हैं कदाचित् आ भी गया तो वह शराब छोड़ने को तैयार नही होता है। और यदि त्याग भी कर दे तो पुनः पीने लगता है। जैसे कफ मे फॅस कर मक्खी का निकलना बहुत ही कठिन हो जाता है। वैसे ही दुव्र्यसन मे फॅस कर व्यक्ति का निकलना बहुत ही कठिन है। अतः प्रारंभ से ही दुव्र्यसनो से दूर रहकर धर्म का सेवन करते हुए पुण्य और यश का संपादन करते रहना चाहिये। तथा पुण्य से प्राप्त अनेक सांसारिक सुखो का भी अनुभव कर धर्म के प्रसाद से स्वर्ग मोक्ष को प्राप्त कर लेना चाहिये। मनुष्य जन्म पाने का यही सार है।
प्रश्न- पुनः यह अञजन चोर का उदाहरण किसके लिए दिया जाता है ?
उत्तर- इस अञजन चोर के उदाहरण से अनेक शिक्षाये मिलती है। यथा माता पिता को अपने पुत्र के लाड़ प्यार मे विधा और सुशिक्षा भी देनी चाहिये। भले ही ताडि़त भी करनी पड़े। अपनी संतान पर प्रारंभ से ही सुसंस्कार डालते रहना चाहिये ओर कुसंगति से रोकते रहना चाहिये।
2. जिन वचनो मे कभी भी शंका नही करनी चाहिये। अञजन चोर का उदाहरण तो निःशंकित अंग मे श्री समंतभद्र स्वामी ने रखा है इसलिये यह कथा अत्यधिक प्रसिद्वि को प्राप्त हो गई है । क्यांकि निःशंकित अंग के बिना सम्यकत्व मोक्ष को प्राप्त कराने मे समर्थ नही होता है। व्यवहार मे भी देखा जाता है कि कोई भी अच्छा काम करना हो उसमे आत्म विश्वास और दृढ़ता अवश्य होनी चाहिये तभी सफलता मिलती है।
3. यदि कोई व्यक्ति कुसंगति से दुव्र्यसनी हो भी गया है तो यदि वह गुरु के उपदेश से या किसी भी धर्मात्मा की प्रेरणा से धर्म ग्रहण कर लेता है तो वह अपना कल्याण कर लेता है और सुख तथा यश का भागी बन जाता है। अतः दुव्र्यसनी लोगो को भी धर्म का उपदेश देते रहना चाहिये पता नही कब उनका उद्वार हो जाये।
प्रश्न- पुनः आज साधुगण पापी, चांडाल, शूद्र आदि को मांसाहार आदि त्याग कराकर उन्हे जैन मानकर उनसे आहार क्यो नही लेते है?
उतर- उच्च गोत्री और नीच गोत्री को पापाचरण छोड़ देने के बाद कितना कितना धर्म ग्रहण करने का अधिकार है ? कौन आहार दे सकता है कौन नही ? यह विषय सूक्ष्म है, इसको गुरुजनो से ही समझना चाहिये। हा, जैनधर्म मे आत्म कल्याण करने का अधिकार तो सभी प्राणियो को प्राप्त है। किंतु मुनियो को आहार दान देने का, जिनंद्रदेव की पूजा करने का और दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण करने का अधिकार उच्च गोत्री त्रैवर्णिक को ही है। यहा पर ललितांग क्षत्रिय पुत्र राजकुमार था। अतः उसने दीक्षा लेकर मोक्ष पद प्राप्त कर लिया। यह ध्यान रखना चाहिये।