सब द्वीपों के मध्य में रहने वाले इस जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तर किनारे पर पुष्कलावती नाम का देश है, उसकी पुण्डरीकिणी नगरी में एक मधु नाम का वन है। उसमें पुरुरवा नाम का एक भीलों का राजा रहता था। उसकी कालिका नाम की स्त्री थी। किसी एक दिन दिग्भ्रम हो जाने के कारण सागरसेन नाम के मुनिराज उस वन में इधर-उधर भ्रमण कर रहे थे।
उन्हें देख पुरुरवा मृग समझकर उन्हें मारने को उद्यत हुआ परन्तु उसकी स्त्री ने यह कहकर मना कर दिया कि ‘ये वन के देवता घूम रहे हैं, इन्हें मत मारो’। उस पुरुरवा भील ने उसी समय प्रसन्नचित्त् होकर मुनिराज के पास जाकर नमस्कार किया और गुरु के उपदेश से मद्य, मांस, मधु इन तीनों का त्याग कर जीवनपर्यंत व्रत का पालन कर आयु के अंत में सौधर्म स्वर्ग में एक सागर की आयु वाला देव हो गया।
इसी भरत क्षेत्र की अयोध्या नगरी के प्रथम चक्रवर्ती राजा भरत की अनन्तमती रानी से पुरुरवा भील का जीव मरीचि नाम का ज्येष्ठ पुत्र उत्पन्न हुआ। अपने बाबा ऋषभदेव की दीक्षा के समय स्वयं ही गुरुभक्ति से प्रेरित हो मरीचिकुमार ने कच्छ आदि चार हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली। भगवान के छह महीने के योग के समय आहार की विधि से अनभिज्ञ ये सभी साधु क्षुधा, तृषा आदि परिषहों से भ्रष्ट होकर स्वयं तालाब का जल, वन के फल-फूल ग्रहण करके खाने लगे। यह देख वन-देवताओं ने कहा कि निग्र्रंथ वेश धारण करने वाले मुनियों का यह क्रम नहीं है। इस वेश में तुम ऐसी प्रवृत्ति नहीं कर सकते। तब मिथ्यात्व से प्रेरित मरीचि ने इन वचनों को सुनकर सबसे पहले परिव्राजक दीक्षा धारण कर ली।
जब ऋषभदेव को केवलज्ञान प्राप्त हो गया, तब समवसरण में सभी भ्रष्ट हुए साधुओं ने दीक्षा धारण करके आत्मकल्याण कर लिया किन्तु इस अकेले मरीचि ने तीर्थंकर की दिव्यध्वनि को सुनकर भी सच्चा धर्म ग्रहण नहीं किया। वह सोचता था कि जैसे भगवान ऋषभदेव ने समस्त परिग्रह का त्याग कर तीन लोक में क्षोभ उत्पन्न करने वाली सामथ्र्य प्राप्त की है, उसी प्रकार मैं भी अपने द्वारा चलाये गये दूसरे मत की व्यवस्था करके इन्द्र द्वारा की गई पूजा को प्राप्त करूँगा। इस प्रकार मान कषाय से कल्पित तत्त्व का उपदेश करते हुए आयु के अंत में मरकर ब्रह्मस्वर्ग में देव हो गया।
वहाँ से च्युत हो अयोध्या नगरी के कपिल ब्राह्मण की काली स्त्री से जटिल नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। वहाँ भी संस्कारवश परिव्राजक बनकर प्रकृति पुरुष आदि पच्चीस तत्त्वों का उपदेश देकर आयु के अंत में मरकर सौधर्म स्वर्ग में एक सागर आयु वाला देव हुआ। वहाँ से आकर इसी भरत क्षेत्र के सूतिका नामक गाँव में अग्निभूत ब्राह्मण की गौतम स्त्री से अग्निसह नाम का पुत्र हुआ। वहाँ भी मिथ्या-पाखण्डी साधु होकर मरकर स्वर्ग प्राप्त किया।
वहाँ से आकर इसी भरत क्षेत्र के मंदिर नामक ग्राम में गौतम ब्राह्मण की कौशिकी ब्राह्मणी से अग्निमित्र नाम का पुत्र हुआ। वहाँ भी उसने वही परिव्राजक दीक्षा धारण कर माहेन्द्र स्वर्ग को प्राप्त किया। वहाँ से च्युत होकर मंदिर नामक नगर में शालंकायन ब्राह्मण की मन्दिरा नाम की स्त्री से भारद्वाज नाम का पुत्र हुआ। वहाँ वह त्रिदण्ड से सुशोभित साधु बना, तदनन्तर माहेन्द्र स्वर्ग को प्राप्त किया।
फिर वहाँ से च्युत होकर कुमार्ग के प्रगट करने के फलस्वरूप मिथ्यात्व के निमित्त से समस्त अधोगतियों में जन्म लेकर उसने भारी दुःख भोगे। इस प्रकार त्रस-स्थावर योनियों में असंख्यात वर्षों तक भ्रमण करता हुआ बहुत ही श्रान्त हो गया। अन्यत्र लिखा है कि भारद्वाज ब्राह्मण त्रिदण्डी साधु होकर माहेन्द्र स्वर्ग को प्राप्त हुआ पश्चात् वहाँ से च्युत होकर मिथ्यात्व के प्रभाव से इतरनिगोद में चला गया, वहाँ सागरोपम काल व्यतीत हो गया। अनन्तर अनेकों भवधारण किये।
इस प्रकार अनेकों भव धारण करते हुए कभी सुपात्र दान के प्रभाव से यह जीव भोगभूमि में गया। अस्सी लाख बार देवपद को प्राप्त हुआ इसलिए आचार्य कहते हैं कि यह मिथ्यात्व बहुत ही बुरा है, तीन लोक और तीन काल में इससे बढ़कर और कोई भी इस जीव का शत्रु नहीं है। बुद्धिमान पुरुषों का कथन है कि यदि मिथ्यात्व और हिंसादि पापों की तुलना की जावे, तो मेरु और राई के समान अन्तर मालूम होगा।
इसके बाद कदाचित् यही जीव कुछ पाप के मंद होने से राजगृह नगर में ‘स्थावर’ नाम का ब्राह्मण हो गया। तदनन्तर मगध देश के इसी राजगृह नगर में वेद पारंगत शांडिल्य नामक ब्राह्मण की पारशरी ब्राह्मणी से ‘स्थावर’ नाम का पुत्र हुआ, वह भी वेद पारंगत, सम्यक्त्व से शून्य पुनरपि परिव्राजक के मत को धारण कर अन्त में मरकर माहेन्द्र स्वर्ग में सात सागर आयु वाला देव हो गया। वहाँ से च्युत होकर इसी राजगृह नगर में विश्वभूति राजा के जैनी नामक रानी से विश्वनंदी नाम का पुत्र हो गया। इसी विश्वभूति राजा का छोटा भाई विशाखभूति था, उसका पुत्र विशाखनन्दी नाम का था। एक दिन विश्वभूति राजा विरक्त हो अपने छोटे भाई को राज्यपद और पुत्र विश्वनंदी को युवराज पद देकर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर कठिन तप करने लगे।
किसी दिन विश्वनन्दी युवराज के मनोहर नामक बगीचे को देखकर चाचा के पुत्र विशाखनन्दी ने अपने पिता से उसकी याचना की। विशाखभूति राजा ने भी मायाचारी से विश्वनन्दी को शत्रुओं पर आक्रमण के लिए भेजकर वह उद्यान अपने पुत्र को दे दिया। विश्वनन्दी को इस घटना का पता लगते ही उसने वापिस आकर विशाखनन्दी को पराजित कर दिया और उसको भयभीत देख विरक्त होकर उसको उद्यान सौंप कर आप स्वयं दैगम्बरी दीक्षा लेकर तप करने लगा।
घोर तपश्चरण करते हुए अत्यन्त कृतशरीरी वह विश्वनन्दी मुनिराज एक दिन मथुरा नगरी में आहार के लिए आये। व्यसनों से भ्रष्ट या विशाखनन्दी उस समय किसी राजा का दूत बनकर वहाँ आया हुआ था और एक वेश्या की छत पर बैठा मुनि को देख रहा था। दैवयोग से वहाँ एक गाय ने मुनिराज को धक्का देकर गिरा दिया। उन्हें गिरता देख क्रोधित हुआ विशाखनन्दी बोला कि ‘‘तुम्हारा पराक्रम हमें मारने को पत्थर का खम्भा तोड़ते समय देखा गया था, वह आज कहाँ गया?’’
इस प्रकार खोटे वाक्यों को सुनकर मुनिराज के मन में भी क्रोध आ गया और बोले कि इस हँसी का फल तुुझे अवश्य मिलेगा और अन्त में निदान सहित सन्यास से मरण कर महाशुक्र स्वर्ग में देव हुए और विशाखभूति (चाचा का जीव) भी तप करके वहाँ पर देव हुआ। चिरकाल तक सुख भोगकर वे दोनों वहाँ से च्युत होकर सुरम्य देश के पोदनपुर नगर में प्रजापति महाराज की जयावती रानी से विशाखभूति का जीव ‘विजय’ नाम का बलभद्र पदवी धारक पुत्र हुआ और उन्हीं की दूसरी मृगावती रानी से विश्वनन्दी का जीव, नारायण पदधारक त्रिपृष्ठ नाम का पुत्र हुआ एवं विशाखनन्दी का जीव चिरकाल तक संसार में परिभ्रमण कर विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी के अलकापुर नगर में मयूरग्रीव विद्याधर की नीलांजना रानी से अश्वग्रीव नाम का प्रतिनारायण पद का धारक पुत्र हुआ।
पूर्व जन्म के संस्कार से त्रिपृष्ठ नारायण ने अश्वग्रीव प्रतिनारायण को मारकर चक्र-रत्न प्राप्त किया। चिरकाल तक राज्य सुख भोग कर अन्त में भोगासक्ति से मरकर सातवें नरक को प्राप्त किया। वहाँ के दुःखों को सागरोंपर्यन्त सहकर इसी भरतक्षेत्र की गंगा नदी तट के समीपवर्ती वन में सिंहगिरि पर्वत पर सिंह हुआ, वहाँ भी तीव्र पाप से पुन: प्रथम नरक को प्राप्त किया। वहाँ एक सागर तक दुःख भोगकर जम्बूद्वीप में सिंहवूâट की पूर्व दिशा में हिमवन पर्वत के शिखर पर सिंह हो गया।
सिंह का उत्थान
किसी समय यह सिंह किसी एक हरिण को पकड़ कर खा रहा था, उसी समय अतिशय दयालु ‘अजितंजय’ नामक चारण मुनि, अमितगुण नामक मुनिराज के साथ आकाश में जा रहे थे। उन्होंने उस सिंह को देखा, देखते ही के तीर्थंकर के वचनों का स्मरण कर दयावश आकाशमार्ग से उतरकर उस सिंह के पास पहुँचे और शिलातल पर बैठकर उच्चस्वर से सिंह को सम्बोधन कर धर्ममय वचन कहने लगे।
उन्होंने कहा कि हे मृगराज! तूने पहले त्रिपृष्ठ नारायण के भव में इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होकर मरकर नरक पर्याय प्राप्त की। वहाँ के दुःख भोगकर वहाँ से निकलकर सिंह पर्याय पाकर व्रूâरकर्मी होकर पुन: नरक गया, अब वहाँ से निकलकर पुनरपि सिंह पर्याय को प्राप्त हुआ। अरे मृगराज! अब१ इस भव से तू दसवें भव में अंतिम तीर्थंकर होगा। यह सब मैंने श्रीधर तीर्थंकर के मुख से सुना है। हे बुद्धिमान! अब तू आज से संसाररूपी अटवी में गिराने वाले मिथ्यामार्ग से विरक्त हो और आत्मा का हित करने वाले मार्ग में रमणकर।
इस प्रकार से उस सिंह ने मुनिराज के वचन हृदय में धारण किये तथा उन दोनों मुनिराजों की भक्ति के भार से नम्र होकर बार-बार प्रदक्षिणाएं दीं, बार-बार प्रणाम किया, काल आदि लब्धियों के मिल जाने से शीघ्र ही तत्त्वश्रद्धान धारण किया और मन स्थिर कर श्रावक के व्रत ग्रहण किये।
इस प्रकार संयमासंयम के व्रतों का पालन करते हुए अंत में संन्यास धारणकर वह एकाग्रचित्त से मरा और शीघ्र ही सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु नाम का देव हुआ। वहाँ दो सागर पर्यन्त दिव्य सुखों का अनुभव कर वहाँ से च्युत होकर धातकीखण्ड के पूर्व विदेह की मंगलावती देश के विजयार्ध पर्वत की उत्तम श्रेणी में अत्यन्त श्रेष्ठ कनकप्रभ नगर के राजा कनकपुंख विद्याधर और कनकमाला रानी के गर्भ से कनकोज्ज्वल नाम का पुत्र हुआ।
किसी दिन मंदर पर्वत पर प्रियमित्र मुनिराज से दीक्षा लेकर अंत में समाधि से मरणकर सातवें स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ से च्युत होकर इसी अयोध्या नगरी के राजा वङ्कासेन की शीलवती रानी से हरिषेण नाम का पुत्र हुआ। यहाँ भी राज्यभार को छोड़कर श्री श्रुतसागर मुनिराज के समीप दीक्षा लेकर आयु के अंत में महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ से च्युत होकर धातकीखण्ड के पूर्व विदेह संबंधी पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा सुमित्र और उनकी मनोरमा रानी से प्रियमित्र नाम का पुत्र हुआ, इन प्रियमित्र ने चक्रवर्ती पद के वैभव को प्राप्त किया था।
अनन्तर क्षेमंकर तीर्थंकर से दीक्षा लेकर आयु के अंत में सहस्रार स्वर्ग में देव सुख का अनुभव कर जम्बूद्वीप के छत्रपुर नगर में नन्दिवर्धन महाराज की महारानी से ‘नन्द’ नाम का पुत्र हुआ। यहाँ पर भी अभिलक्षित राज्य सुख को भोग कर ‘प्रोष्ठिल’ नाम के गुरु के पास दीक्षा लेकर उग्र तपश्चरण करते हुए ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया और दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं का चिंतवन करके तीर्थंकर नामकर्म का बंध कर लिया। आयु के अंत में सब प्रकार की आराधानाओं को प्राप्त कर अच्युत स्वर्ग के ‘पुष्पोत्तर’ विमान में श्रेष्ठ इन्द्र हुआ।
भगवान का गर्भावतरण
जब इस इन्द्र की आयु छह महीने बाकी रही थी, तब इसी भरतक्षेत्र के विदेह नामक देश संबंधी ‘कुण्डलपुर’ नगर के राजा ‘सिद्धार्थ’ के भवन के आँगन में सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर के द्वारा की गई प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ रत्नों की मोटी धारा बरसने लगी। आषाढ़ शुक्ला षष्ठी की रात्रि के पिछले प्रहर में सिद्धार्थ महाराज की रानी प्रियकारिणी ने सोलह स्वप्न देखे एवं प्रभात में अपने पतिदेव से उन स्वप्नों का फल सुनकर संतोष प्राप्त किया। अनन्तर देवों ने आकर भगवान का गर्भ कल्याणक उत्सव मनाते हुए माता-पिता की विधिवत् पूजा की अर्थात् माता त्रिशला के गर्भ में अच्युतेन्द्र का जीव आ गया।
भगवान महावीर का जन्म उत्सव
नवमास व्यतीत होने के बाद चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन माता त्रिशला ने पुत्र को जन्म दिया। उस समय सारे विश्व में हर्ष की लहर दौड़ गई। देवों के स्थान में बिना बजाये वाद्य ध्वनि होने लगी। सौधर्म इन्द्र का आसन कम्पायमान हो गया। अवधिज्ञान के बल से तीर्थंकर महापुरुष के जन्म को जानकर इन्द्र ऐरावत हाथी पर चढ़कर अपने वैभव के साथ आकर कुण्डलपुर नगर की प्रदक्षिणा करके जिन बालक को लेकर सुमेरु पर्वत पर गये और वहाँ क्षीरसागर के जल से भरे हुए १००८ कलशों द्वारा पांडुक शिला पर जिन भगवान का अभिषेकोत्सव मनाया पुन: उत्तमोत्तम आभूषणों से विभूषित करके इन्द्र ने ‘वीर’ और ‘वर्धमान’ ऐसे दो नाम रखे और वापस लाकर माता-पिता को देकर स्वस्थान को चले गये।
भगवान की बाल्यकाल की विशेषताएँ
एक बार संजय और विजय नामक दो चारण मुनियों को किसी पदार्थ में संदेह उत्पन्न हुआ था परन्तु भगवान के जन्म के बाद ही वे उनके समीप आए और उनके दर्शन मात्र से ही उनका संदेह दूर हो गया। इसलिए उन्होंने बड़ी भक्ति से कहा था कि यह बालक ‘सन्मति’ तीर्थंकर होने वाला है अर्थात् उन्होंने उनका ‘सन्मति’ नाम रखा।
किसी समय भगवान देव बालकों के साथ वन में खेल रहे थे। संगम नामक देव उनके धैर्य की परीक्षा करने के लिए सौ जिह्वाओं से सहित अत्यन्त भयंकर सर्प का रूप लेकर वृक्ष की जड़ से स्वंâध तक लिपट गया। सब बालक भय से काँप उठे किन्तु भगवान वीर बालक निर्भय होकर उसके फण पर पैर रखकर उतर गये और उसके साथ क्रीड़ा करने लगे, तब संगम देव ने भक्तिवश भगवान की स्तुति करके ‘महावीर’ यह नाम घोषित किया था।
भगवान महावीर का दीक्षा महोत्सव
इस प्रकार से तीस वर्ष का कुमार काल व्यतीत हो जाने के बाद एक दिन स्वयं ही भगवान को जातिस्मरण हो जाने से वैराग्य हो गया। उसी समय स्तुति पढ़ते हुए लौकांतिक देवों ने आकर उनकी पूजा की। देवों द्वारा लाई गई ‘‘चन्द्रप्रभा’’ पालकी पर भगवान को विराजमान करके उस पालकी को पहले भूमिगोचरी राजाओं ने, फिर विद्याधर राजाओं ने और फिर इन्द्रों ने उठाया और वे ‘षण्ड’ नामक वन में ले गए।
वहाँ रत्नमयी बड़ी शिला पर उत्तर की ओर मुँह करके बेला का नियम लेकर विराजमान हो गये और आभरणों का त्याग कर पंचमुष्टि लोंच करके ‘ॐ नम: सिद्धं’ कहते हुए जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। वह मगसिर वदी दशमी का दिन था। उस दिन देवों ने दीक्षा कल्याणक उत्सव मनाया। उसी समय संयम ने उन भगवान को केवलज्ञान के बयाने के समान चौथा मन:पर्यय ज्ञान भी समर्पित किया था।
अनन्तर पारणा के दिन वे भगवान आहार के लिए वूल ग्राम में पहुँचे। राजा वूल ने तीन प्रदक्षिणा देकर नवधाभक्ति से भगवान को खीर का आहार देकर पंचाश्चर्यों को प्राप्त किया था।
भगवान का उपसर्ग विजय
किसी एक दिन अतिशय धीर-वीर भगवान वर्धमान उज्जयिनी नगरी के अतिमुक्तक नामक श्मशान में प्रतिमायोग से विराजमान थे। उन्हें देखकर महादेव नामक रुद्र ने अपनी दुष्टता से उनके धैर्य की परीक्षा करनी चाही। उसने रात्रि के समय ऐसे अनेक बड़े-बड़े वेतालों का रूप बनाकर भयंकर उपसर्ग किया। जब वह भगवान को ध्यान से चलायमान करने में समर्थ नहीं हुआ, तब अन्त में भगवान का ‘महति महावीर’ यह नाम रखकर अनेक प्रकार से स्तुति की, पार्वती के साथ नृत्य किया और सब मत्सर भाव को छोड़कर वह वहाँ से चला गया।
चन्दना के द्वारा भगवान का आहार
किसी एक दिन राजा चेटक की पुत्री चन्दना क्रीड़ा में आसक्त थी कि उसे कोई विद्याधर उठा कर ले गया। पीछे अपनी स्त्री के डर से उसे भयंकर वन में छोड़ दिया। वहाँ किसी भील ने देखकर उसको साथ ले जाकर धन की इच्छा से वृषभदत्त सेठ को दे दी।
उस सेठ की पत्नी सुभद्रा ने ‘इसका सेठ से संबंध न हो जावे’ इस आशंका से उसे मिट्टी के सकोरे में काँजी से मिला हुआ कोदों का भात दिया करती थी और क्रोधवश उसे सांकल में बांधे रहा करती थी।
‘‘किसी दूसरे दिन वत्सदेश की उसी कौशाम्बी नगरी में आहारार्थ भगवान महावीर स्वामी आये। उन्हेें नगरी में प्रवेश करते देख चन्दना उनके सामने जाने लगी। उसी समय उसके सांकल के सब बंधन टूट गये, मुुँडाए हुए सिर पर केश आ गए, वह वस्त्राभरण से सुन्दर हो गई और भक्तिभार से झुकी हुई नवधाभक्ति समेत आहार देने को तत्पर हुई। शील के माहात्म्य से उसका मिट्टी का सकोरा सुवर्ण पात्र बन गया और कोदों का भात शाली चावलों की खीर हो गया। उस बुद्धिमती चन्दना ने विधिपूर्वक पड़गाहन करके भगवान को आहार दान दिया, इसलिए उसके यहाँ पंचाश्चर्यों की वर्षा हुई और भाई-बन्धुओं के साथ उसका समागम हो गया।’’
भगवान का केवलज्ञान
जगद्बन्धु भगवान के छद्मस्थ अवस्था में बारह वर्ष व्यतीत हो गये। किसी एक दिन वे जृंभिक ग्राम के समीप ऋजुवूâला नदी के किनारे मनोहर नामक वन में रत्नमयी शिला के ऊपर सालवृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर प्रतिमायोग से विराजमान हुए। वैशाख शुक्ला दशमी के दिन अपराह्न काल में हस्त और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के बीच में चन्द्रमा के आ जाने पर परिणामों की विशुद्धता को बढ़ाते हुए वे क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हुए। उसी समय उन्होंने शुक्लध्यान के द्वारा चारों घातिया कर्मों को नष्ट कर अनंत चतुष्टय प्राप्त किये और चौंतीस अतिशयों से सुशोभित होकर परमात्मा बन गये।
उसी समय सौधर्म इन्द्र ने चारों प्रकार के देवों के साथ आकर समवसरण की रचना करके केवलज्ञान कल्याणक की विधिवत् पूजा की। भगवान महावीर के समवसरण का प्रमाण एक योजन का था। पूर्ववत् ऋषभदेव के समवसरण के सदृश अगणित महिमाशाली वैभवों से युक्त इस समवसरण में बारह सभा में मनुष्य, देव, तिर्यंच आदि बैठे थे किन्तु भगवान की दिव्यध्वनि नहीं खिरी।
गौतम स्वामी का आगमन
तदनन्तर इन्द्र केवलज्ञान के बाद दिव्यध्वनि के न खिरने के कारण को जानकर युक्ति से गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ब्राह्मण को वहाँ लाया। वे इन्द्रभूति काललब्धि के निमित्त से पाँच सौ शिष्यों के साथ भगवान के चरणों में दीक्षित हो प्रथम गणधर बन गये और तत्क्षण ही उन्हें सात ऋद्धियाँ प्राप्त हो गर्इं। उस दिन श्रावण कृष्णा प्रतिपदा तिथि को पूर्वाह्न काल में भगवान की दिव्यध्वनि प्रगट हुई और रात्रि के पूर्वभाग में श्री गौतम गणधर ने ग्यारह अंगों की एवं पश्चिम भाग में चौदह पूर्वों की रचना की थी। इनके बाद वायुभूति, अग्निभूति, सुधर्म, मौर्य, मौन्द्रय, पुत्र, मैत्रेय, अकम्पन, अन्धवेला तथा प्रभास ये दश गणधर और हुए।
इस प्रकार से भगवान महावीर स्वामी की सभा में गणधर ११, ग्यारह अंग-चौदह पूर्वों के धारक मुनि ३११, शिक्षक मुनि ९९००, अवधिज्ञानी १३००, केवलज्ञानी ७००, विक्रिया ऋद्धि धारक मुनि ९००, मन:पर्यय ज्ञानी ५००, अनुत्तरवादी मुनि ४००, इस प्रकार सब मिलाकर १४००० मुनि, चन्दना आदि को लेकर ३६००० आर्यिकाएं, श्रावक १०००००, श्राविकाएं ३०००००, असंख्यातों देव-देवियाँ और संख्यातों तिर्यञ्च थे।
भगवान महावीर का निर्वाण गमन
भगवान तीस वर्ष तक भव्य जीवों को धर्म का उपदेश देकर पावापुरी से कार्तिक कृष्णा अमावस्या की प्रत्यूष बेला में सिद्धपद को प्राप्त हो गये।
प्रथम तीर्थंकर तृतीय काल में
जब तृतीय काल में चौरासी लाख वर्ष पूर्व, तीन वर्ष साढ़े आठ मास प्रमाण काल शेष रह गया था तब अंतिम कुलकर महाराजा नाभिराय की महारानी ‘मरुदेवी’ ने प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को जन्म दिया। जब ऋषभदेव युवावस्था को प्राप्त हो गये, तब उनके पिता ने इन्द्र की अनुमति से ऋषभदेव का विवाह यशस्वती और सुनन्दा नाम की कन्याओं के साथ कर दिया। भगवान ऋषभदेव के भरत, बाहुबली आदि एक सौ एक पुत्र और ब्राह्मी-सुन्दरी नाम से दो कन्याएँ हुईं । भगवान ने सर्वप्रथम ब्राह्मी को ‘अ आ’ आदि लिपि और सुन्दरी को इकाई, दहाई आदि गणित विद्या सिखाई। अनन्तर सभी पुत्रों को भी सम्पूर्ण विद्याओं में, शास्त्रों में और शस्त्र कलाओं में निष्णात कर दिया।
प्रजा को असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य एवं शिल्प इन षट् क्रियाओं से आजीविका का उपाय बतलाने से भगवान प्रजापति कहलाये। उस समय जैसी व्यवस्था विदेह क्षेत्र में थी, वैसी ही व्यवस्था भगवान ने यहाँ पर स्थापित की, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नाम से तीन वर्णों की स्थापना की, ‘विवाह-विधि’ आदि प्रचलित की। ‘अकम्पन’ आदि चार महापुरुषों को राज्यव्यवस्था बताकर ‘‘महाराज’’ पद पर उन्हें नियुक्त किया, इसीलिए भगवान ऋषभदेव आदिब्रह्मा, युगादिपुरुष, विधाता आदि कहलाने लगे।
अनन्तर मोक्षमार्ग की स्थिति प्रगट करने के लिए वे दिगम्बर मुनि हो गये। उस समय चार हजार राजा उनकी देखा-देखी मुनि हो गये और भूख-प्यास की बाधा न सहन कर सकने से वे सब के सब भ्रष्ट हो गये। तब उन सभी ने मिलकर अनेक पाखण्ड मतों की स्थापना की। कुछ दिन बाद सम्राट भरत ने ब्राह्मण वर्ण नाम से एक वर्ण और स्थापित कर दिया।
भगवान ऋषभदेव के अनन्तर अजितनाथ आदि महावीरपर्यंत चौबीस तीर्थंकर हुए हैं। इस हुण्डावसर्पिणी काल के दोष से भगवान ऋषभदेव तृतीय काल में हुए हैं, शेष तीर्थंकर चतुर्थकाल में हुए हैं।
चतुर्थकाल प्रारंभ
भगवान ऋषभदेव के मोक्ष जाने के बाद तीन वर्ष, साढ़े आठ माह व्यतीत होने पर दुःषमासुषमा नामक चतुर्थ काल प्रविष्ट होता है। उस काल के प्रथम प्रवेश में उत्कृष्ट आयु एक पूर्वकोटि, पृष्ठ भाग की हड्डियाँ अड़तालीस और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष प्रमाण थी। यह चतुर्थकाल ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण है।
भगवान ऋषभदेव के मुक्त हो जाने के पश्चात् पचास लाख करोड़ सागरों के व्यतीत हो जाने पर अजितनाथ तीर्थंकर ने मोक्षपद प्राप्त किया।
अजितनाथ के मुक्त होने के बाद तीस लाख करोड़ सागरों के व्यतीत हो जाने पर संभवनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद दस लाख करोड़ सागर व्यतीत हो जाने पर अभिनंदननाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद नौ लाख करोड़ सागरों के चले जाने पर सुमतिनाथ भगवान सिद्धि को प्राप्त हुए।
इसके पश्चात् नब्बे हजार करोड़ सागरों के बीत जाने पर पद्मप्रभ जिन सिद्धि को प्राप्त हुए।
इसके अनन्तर नौ हजार करोड़ सागरों के चले जाने पर सुपार्श्वनाथ भगवान मोक्ष को प्राप्त हुए।
इसके बाद नौ सौ करोड़ सागरों के चले जाने पर चन्द्रप्रभ देव मोक्ष को प्राप्त हुए।
इसके बाद नब्बे करोड़ सागरों के बीत जाने पर पुष्पदन्तनाथ जिन सिद्धि को प्राप्त हुए।
इसके अनन्तर नौ करोड़ सागरों के चले जाने पर शीतलनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके बाद छ्यासठ लाख छब्बीस हजार सौ सागर कम एक करोड़ सागर अर्थात् तैंतीस लाख तेहत्तर हजार नौ सौ सागर के
व्यतीत हो जाने पर श्रेयांसनाथ भगवान मोक्ष को प्राप्त हुए।
इसके अनन्तर चौवन सागर के बीत जाने पर वासुपूज्य भगवान मोक्ष को प्राप्त हुए।
इसके बाद तीस सागर व्यतीत हो जाने पर विमलनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके बाद नौ सागर व्यतीत हो जाने पर अनंतनाथ मुक्त हुए।
इसके बाद चार सागर चले जाने पर धर्मनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद पौन पल्य कम तीन सागर के बीत जाने पर शांतिनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके अनन्तर अर्द्ध पल्य काल के बीत जाने पर कुंथुनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद एक करोड़ वर्ष कम पाव पल्य के बीत जाने पर अरहनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके बाद एक हजार करोड़ वर्षों के बाद मल्लिनाथ जिन सिद्ध हुए।
इसके पश्चात् चौवन लाख वर्षों के बीत जाने पर मुनिसुव्रतनाथ सिद्ध हुए।
इसके पश्चात् छः लाख वर्ष बीत जाने पर नमिनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद पाँच लाख वर्षों के बीत जाने पर नेमिनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके पश्चात् तेरासी हजार सात सौ पचास वर्षों के बीत जाने पर पार्श्वनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके पश्चात् दो सौ पचास वर्षों के बीत जाने पर वीर भगवान सिद्ध हुए। उस समय पंचम काल के प्रवेश होने में तीन वर्ष साढ़े आठ माह शेष थे।
धर्मतीर्थ व्युच्छित्ति का काल
पुष्पदंतनाथ भगवान को आदि लेकर धर्मनाथपर्यंत सात तीर्थंकरों के तीर्थों में धर्म की व्युच्छित्ति (अभाव) हुई थी और शेष सत्रह तीर्थंकरों के तीर्थों में धर्म की परम्परा निरन्तर अक्षुण्णरूप से चलती रही है।
अर्थात् पुष्पदंतनाथ के तीर्थ में पाव पल्य तक धर्म का अभाव रहा है अर्थात् उस समय दीक्षा के अभिमुख होने वालों का अभाव होने पर धर्मरूपी सूर्यदेव अस्तमित हो गया था। इसी प्रकार शीतलनाथ के तीर्थ में अर्द्ध पल्य तक, श्रेयांसनाथ के तीर्थ में पौन पल्य तक, वासुपूज्यदेव के तीर्थ में एक पल्य तक, विमलनाथ के तीर्थ में पौन पल्य तक, अनन्तनाथ के तीर्थ में अर्द्ध पल्य तक और धर्मनाथ के तीर्थ में पाव पल्य तक धर्मतीर्थ का उच्छेद रहा था। हुंडावसर्पिणी के दोष से यहाँ सात बार धर्म के विच्छेद हुए हैं।
पंचम काल
वीर भगवान के मोक्ष जाने के बाद तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष काल व्यतीत हो जाने के बाद ‘दुःषमा’ नामक पंचम काल प्रवेश करता है। इस पंचम काल के प्रथम प्रवेश में मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक सौ बीस वर्ष, ऊँचाई सात हाथ और पृष्ठ भाग की हड्डियाँ चौबीस होती हैं।
वर्तमान में इस धरती पर पंचम काल चल रहा है ।इसे दुःषमा काल कहते हैं ।
इस काल में यहाँ साक्षात् मोक्ष कोई प्राप्त नहीं कर सकता है , किन्तु श्रावक और मुनि धर्म के रूप में मोक्ष का मार्ग सदैव खुला हुआ है ।तथा पंचम काल के अंत तक मोक्ष का मार्ग चलेगा ।