पुत्र- पिताजी!आज मैंने मुनिराज के मुख से उपदेश में सुना है कि जो अकाल में अध्ययन करते हैं,वे ज्ञानावरण के क्षयोपशम के बजाए उसका बन्ध कर लेते हैं | तो क्या ऐसा भी हो सकता है कि धार्मिक ग्रन्थों का पठन-पाठन और स्वाध्याय ज्ञान को घटाने में कारण बन जाय ?
पिताजी- हाँ बेटा! हो सकता है ” सुनो,मैं तुम्हेँ एक ऐतिहासिक घटना सुनाता हूँ | एक शिवनन्दी नाम के मुनिराज थे | गुरु ने उन्हें बतलाया था कि रात्रि में श्रवण-नक्षत्र का उदय हो जाने पर स्वाध्याय का समय होता है,उसके पहले अकाल है |उन्हें ऐसा मालूम होते हुए भी वे अपने तीव्र ज्ञानावरणकर्म के उदय से उस गुरु-आज्ञा की अवहेलना करके आकर में स्वाध्याय किया करते थे ” फलस्वरूप अंत में असमाधि से मरण करके पाप कर्म के निमित्त से गंगा नदी में महामत्स्य हो गये “आचार्यो ने ठीक ही कहा है कि-
जिनेन्द्र देव की आज्ञा का लोप करने पर यह प्राणी दुर्गति में चला जाता है | पुनः उस नदी के तट पर स्थित एक महामुनि उच्च स्वर से स्वाध्याय कर रहे थे | इस मत्स्य ने उस पाठ को सुना तो इससे जातिस्मरण हो गया-ओहो! में भी इन्ही के सदृश ही मुनिवेश में ऐसे ही स्वाध्याय करता रहता था पुनः मैं इस तिर्यन्चयोनि में कैसे आ गया? हाय!हाय! मैं जिनागम की और गुरु की आज्ञा को कुछ न गिनकर अकाल में भी स्वाध्याय करता रहा,जिसके फलस्वरूप मुझे यह निकृष्ट योनी मिली है | सच में आगम के पढ़ने का फल तो यही है कि उसके अनुरूप प्रवृत्ति करना ” अब मैं क्या करूँ?” कुछ क्षण सोचकर वह मत्स्य किनारे पर आकर गुरु के समुख पड़ गया | गुरु ने उसे भव्य जीव समझकर सम्यक्त्व ग्रहण कराए तथा पंच अणुव्रत दिए | उस मत्स्य ने भी सम्यक्त्व के साथ-साथ अणुव्रतों को पालते हुए जिनेन्द्र भगवान के चरणकमलों को अपने हृदय में धारण किया और आयु पूर्ण करके मरकर स्वर्ग में महद्धि॔क देव हो गया |
पुत्र-पिताजी ! यह घटना तो रोमांच उत्पन्न कर देती है | वे महामुनि ज्ञान की वृद्धि के लिए ही तो काल-अकाल का लक्ष्य न देखकर स्वाध्याय कर रहे थे,फिर भी देखो,वे तिर्यंच योनी में चले गए | सचमुच में आगम की और गुरु की आज्ञा पालन करना ही सम्यक्त्व है | पिताजी! तो जो लोग आजकल आगम और गुरु की आज्ञा को कुछ ना समझकर मनमानी प्रवृत्ति से धर्म क्रियायें करते हैं या स्वेच्छा प्रवृत्ति से विधि-विधान करते हैं सो वह भी अशुभ फल का कारण हो सकता है क्या ?
पिताजी–हाँ बेटा ! कदाचित् वह अल्पफल देगा और कदाचित् जिनागम की अवहेलना के निमित्त से वह अशुभ फल भी दे सकता है “उपर्युक्त उदाहरण के देखने से इसमें संशय ही क्या है?
पुत्र-पिताजी! स्वध्याय के लिये काल और अकाल कब-कब होते हैं ? पिताजी- प्रात:, सायं, मध्याह्न और अर्धरात्रि के मध्य के डेढ़-डेढ़ घण्टे का समय अकाल है। ऐसे ही दिग्दाह, उल्कापात, दुर्दिन, संक्रांति का दिन आदि भी अकाल है। इनसे अतिरिक्त काल सुकाल है। यह व्यवस्था सिद्धान्त ग्रंथादिकों के लिये बताई गई है किन्तु आराधना ग्रन्थ, कथा ग्रन्थ या स्तुति ग्रन्थों को अकाल में पढ़ने का निषेध नहीं है। इस काल और अकाल का विशेष वर्णन मूलाचार, अनगारधर्मामृत एवं धवला की नवमी पुस्तक से देख लेना चाहिये।
पुत्र – ठीक है, अब मैं सभी ग्रन्थों का यथासमय स्वाध्याय करके आगम के वचनों पर पूर्ण श्रद्धा रखूँगा।