अकृत्रिम –अनादिनिधन-शाश्वत जिनमंदिर तीनों लोकों के असंख्यात हैं। उन मंदिरों की रचना कैसी है ? वे मंदिर बड़े से बड़े कितने बड़े हैं और छोटे से भी छोटे कितने छोटे हैं ? इसे ही आप इस पुस्तक में पढ़ेंगे। उत्कृष्ट मंदिर सौ योजन लंबे, पचास योजन चौड़े और पचहत्तर योजन ऊँचे हैं। मध्यम जिनालय पचास योजन लंबे, पचीस योजन चौड़े और ३७ १/२ योजन ऊँचे हैं। जघन्य मंदिर पचीस योजन लम्बे, १२ १/२ योजन चौड़े, १८ ३/४ योजन ऊँचे हैं। एक योजन में चार कोश, एक कोश में-दो मील होने से ये उत्कृष्ट मंदिर १०० यो., १०० ८ मील से गुणा करने से आठ सौ मील लंबे हैं, अर्थात् ८०० मील के किलोमीटर करने से बारह सौ अस्सी १२८० कि. मी. लंबे हैं। सुदर्शन मेरु आदि पाँचों मेरु के भद्रसाल, नंदनवन के मंदिर, नंदीश्वरद्वीप व वैमानिक देवों के मंदिर उत्कृष्ट प्रमाण वाले हैं। मेरु के सौमनसवन के, कुण्डलगिरि व रुचकगिरि, वक्षार, इष्वाकार मानुषोत्तरपर्वत और हिमवान आदि कुलाचलों के मंदिर मध्यम प्रमाण वाले हैं। पांडुकवन के मंदिर जघन्य प्रमाण वाले हैं। विजयार्ध पर्वत के मंदिर, जंबूवृक्ष व शाल्मलीवृक्ष के मंदिर एक कोश लंबे, १/२ कोश चौड़े व पौन कोश ऊँचे हैं। प्रत्येक मंदिर के चारों तरफ तीन परकोटे हैं। प्रथम व द्वितीय परकोटे के अंतराल में चैत्यवृक्ष हैं। जिनके परिवार वृक्ष एक लाख, चालीस हजार एक सौ उन्नीस हैं। इन सभी वृक्षों की कटनी पर चारों दिशाओं में एक-एक जिनप्रतिमाएँ हैं। इसी ग्रंथ में त्रिलोकसार से दिए गए गाथाओं के विवरण में गाथा १०००, १००१ व १००२ में देखिए। किसी एक विद्वान ने एक चित्र बनाकर दिखाया कि चैत्यवृक्ष के पत्ते-पत्ते व डाल-डाल पर प्रतिमाएँ हैं। यह गलत है। चैत्यवृक्ष की [[कटनी]] पर ही जिनप्रतिमाएँ हैं जो कि प्रत्येक दिशा में एक-एक हैं ऐसी एक-एक चैत्यवृक्ष में चार-चार प्रतिमाएँ हैं। इन अकृत्रिम जिनमंदिरों को एवं उनमें प्रत्येक में विराजमान १०८-१०८ जिनप्रतिमाओं को तथा मानस्तंभ, स्तूप व चैत्यवृक्षों में विराजमान जिनप्रतिमाओं को मेरा कोटि-कोटि नमन है।