कृषि पशु, जन स्वास्थ्य के लिये एक चेतना प्रदायी क्रिया
अग्निहोत्र क्रिया
इस टिप्पणी के लेखक श्री मन्मथ पाटनी प्रेस्टीज ग्रुप ऑफ कम्पनीज के वाइस प्रेसिडेन्ट हैं, साथ ही FoodTechnology में M.Sc. करने के साथ ही U.S.A. से Low Cost Higher Nutrition Foods में डिप्लोमा प्राप्त हैं। उच्च गुणवत्ता के साथ पदार्थों के निर्माण का आपको दीर्घकालित व्यावसायिक अनुभव है। मंत्र शक्ति से हम सब परिचित हैं। जैनधर्म में मंत्रों का विशेष महत्व है। मंत्र शक्ति से मनुष्य ही नहीं, पशु और कृषि पर भी असर होता है और इसका विशेष उदाहरण है ‘अग्निहोत्र प्रक्रिया’। क्या आज बिना रासायनिक खाद, बिना जैविक खाद, बिना कीटनाशक दवाईयों के भरपूर खेती की फसल प्राप्त की जा सकती है ? क्या बिना किसी प्रकार की दवाईयों के दीर्घ स्थाई, पुराना अस्थमा रोग ठीक हो सकता है? क्या ज्यादा उन्मादी गाय, भैंस इत्यादि जानवर ठीक किये जा सकते हैं ? जी हाँ, यह सब संभव है—कृषि, पशु, जन स्वास्थ्य सभी के लिये चेतना प्रदायी उपयोगी क्रिया प्रतिदिन अग्निहोत्र को करने से। आस्ट्र्रेलिया से आई श्रीमती एन से मैंने पूछा कि आपने अग्निहोत्र को कैसे अपनाया ? श्रीमती एन ने बताया कि उनके पति श्री ब्रुश को बचपन से अस्थमा था और यह अस्थमा खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था।
दुनिया भर के इलाज करवा चुके श्री ब्रुश ने अग्निहोत्र के बारे में सुना और अगले दिन से अग्निहोत्र के समक्ष बैठना शुरू किया। उन्होंने पाया कि कुछ दिनों में ही उनका अस्थमा क्षीण होता चला गया है तीन माह की अवधि में बिल्कुल ही समाप्त हो गया। श्री ब्रुश अब एकदम स्वस्थ होकर जीवन का आनंद ले रहे हैं। अब वे सबकुछ छोड़कर अग्निहोत्र अग्निहोत्र के लिये पूर्णत: सर्मिपत हैं और उन्होंने अपना पूरा जीवन अग्निहोत्र के स्वयंसेवक के रूप में दे दिया है। पहले तो मुझे स्वयं विश्वास नहीं हो रहा था। सोचा, चलो एक प्रयोग करने में क्या नुकसान है। गत वर्ष सोयाबीन की फसल पर देवास व महू स्थित प्रेस्टीज ग्रुप के फार्म पर प्रयोग किया और पाया कि बिना किसी तरह की रासायनिक खाद के, कीटनाशक दवाईयों के या किसी भी तरह के जैविक खाद के उपयोग के सोयाबीन की फसल औसत पैदावार से डेढ़ गुनी हुई। विश्व में इस तरह के प्रयोग कई स्थानों पर किये गये हैं। विभिन्न देशों की सरकारों से, विशेषज्ञों से प्रामाणिकता सिद्ध हुई है। विश्व के पर्यावरण को सुधारने का काम, विश्व में शांति लाने का कार्य और विश्व में अहिंसक खेती का कार्य प्रारम्भ हुआ है। भारत में भी ये प्रयोग कई स्थानों पर किये जा रहे हैंं आइये ! जानें, अग्निहोत्र क्या है ? यज्ञ शास्त्र—प्रकृति में विद्यमान विविध चक्र—ऊर्जा चक्र, ताल चक्र, ऋतु चक्र, जीवन चक्र सृष्टि के नियमानुसार कार्य करते हैं, इसीलिये समस्त विश्व में व्यवस्था बनी हुई है। ऊर्जा न तो निर्मित्त की जा सकती है, न ही नष्ट। केवल विविध स्तरों पर उसके स्वरूप और स्थिति में परिवर्तन किया जा सकता है। उसे आकार, गति एवं दिशा दी जा सकती है। विभिन्न ऊर्जाओं के सन्तुलीकरण, संगतिकरण एवं केन्द्रीकरण के द्वारा जीव सृष्टि में नव—चेतना प्रदान करने की वैज्ञानिक प्रक्रिया को यज्ञ शास्त्र कहा जाता है। भिन्न—भिन्न परिणामों को प्राप्त करने हेतु भिन्न—भिन्न यज्ञों की योजना की जा सकती है। यह प्राण शक्ति को प्रभावित कर अति सूक्ष्म स्तर पर अणुओं की अन्त: रचनाओं पर सुप्रभाव डालने वाला शास्त्र है।
प्रदूषण एक संकट—
अज्ञानवश, मनुष्य प्रकृति के ऊर्जा क्षेत्र में हस्तक्षेप एवं उथल—पुथल करता है, जिसके फलस्वरूप प्रकृतिचक्र अस्त—व्यस्त हो जाता है। इसी कारण जीव—सृष्टि का विनाश होता है। प्रदूषण ऐसी ही एक मानव—निर्मित समस्या है। प्रदूषण के कारण जीव सृष्टि की आधारभूत चैतन्यदायी प्राणमयी ऊर्जा क्षीण होने लगी है, फलस्वरूप जीव सृष्टि में दुर्बलता आने लगी है। पदार्थों के अणुओं की अन्त: रचना स्थित शक्ति क्षेत्र दुर्बल होने के कारण अणु में स्थित गतिमान इलेक्ट्रॉन अणु गर्भ की कक्षा के शक्ति क्षेत्र से बाहर निकलकर अन्य अणुओं की व्यवस्था में तत्काल प्रवेश करते हैं फलस्वरूप इन अणुओं का मूल स्वरूप बिलकुल बदल जाता है। इस प्रक्रिया में एक बहुत बड़ी विध्वंसक ऊर्जा उत्सर्जित होती है तथा इधर—उधर प्रक्षेपित होती है जिसका विपरीत परिणाम जीव सृष्टि के विनाश का कारण बन जाता है। प्रदूषण के कारण मनुष्य का शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य खराब होता है, वनस्पति, सूक्ष्मजीव एवं प्राणी व पक्षियों का जीवन संकट में आ जाता है। भूकंप, ज्वालामुखी प्रस्फुटित होना, अतिवृष्टि, अकाल, बाढ़, संसर्ग जन्य रोग या नई—नई प्राणघातक बीमारियों का तेजी से फैलना, मनोविकारों की प्रबलता बढ़ने से अपराधी मनोवृत्ति को बढावा मिलना, मद्य एवं मादक पदार्थों के प्रति आकर्षण होना, अशान्ति तथा कलह का बढ़ना आदि दुष्परिणाम प्रदूषण के कारण ही चारों ओर दिखाई दे रहे हैं। पृथ्विी लोक पर मानव आज संकट काल से गुजर रहा है। मानव वंश समूल नष्ट होने जैसी स्थिति निर्मित हो रही है। अग्निहोत्र का प्रयोग कैसे करें ?—पिरामिड के आकार के ताम्र पात्र में गाय—बैल (गोवंश) के गोबर के बने कण्डों में अग्नि प्रज्जवलित कर सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय चुटकीभर अखंडित चावल को थोडा सा गाय के दूध से बना शुद्ध घी लगाकर उस मिश्रण को दाहिने हाथ का अंगूठा, बीच वाली अंगुली (मध्यमा) एवं अनामिका से पकड़कर (मृगमुद्रा) हृदय के पास स्थित अनाहत चक्र के निकट ले जाकर विशिष्ट मंत्रोच्चार के साथ धुँआ रहित प्रज्जवलित अग्नि में मंत्र के ‘स्वाहा’ शब्द के उच्चार के साथ सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय सर्मिपत करें। मंत्रों के बारे में लेखक से सम्पर्क कर सकते हैं। सम्पूर्ण वर्ष का सूर्योदय एवं सूर्यास्त का समय गाँव के अक्षांश/रेखांश के आधार पर ज्ञात किया जा सकता है। अग्निहोत्र का परिणाम—प्रज्जवलिज अग्नि में चॉवल, घी तथा मंत्र का मिश्रण तत्काल अतिसूक्ष्म ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है। परिणाम स्वरूप ताम्रपात्र के आसपास विद्युत चुम्बक के सामन आकर्षण क्षेत्र का निर्माण हो जाता है।
जिसके फलस्वरूप प्राणमय शक्ति गतिशील होकर १८ किलोमीटर की ऊँचाई पर स्थित सौर—मण्डल की ओर बढ़ने लगती है। ऊर्जा के इस प्रचण्ड तूफान का शोर इतना प्रबल होता है कि इसका मनुष्य के मन पर तत्काल प्रभाव होकर मन शान्ति अनुभव करने लगता है। प्राणमयी शक्ति एवं मन मानों एक ही सिक्के के दो पहलू के समान होने से मानवी विकारों का कुप्रभाव कम होने लगता है और मन शनै:—शनै: शान्त एवं प्रेममय बनने लगता है। इस कल्याणकारी वातावरण से शरीर एवं मन पर होने वाले इष्ट परिणाम प्राप्ति हेतु हमें चाहिये कि हम अग्निहोत्र समाप्ति के पश्चात् ताम्रपात्र के निकट अधिक से अधिक समय तक बैठे रहें। त्वचा के लक्षावधि रन्ध्रों (छिद्रों) से यह ऊर्जा शरीर की असंख्य नाड़ियों का शुद्धिकरण करते—करते शरीर में स्थित दस चक्रों तक पहुँचती है तथा शरीर की विविध व्यवस्थाओं में व्याप्त असन्तुलन एवं अव्यवस्था को धीरे—धीरे समाप्त करने लगती है, साथ ही वायुमण्डल का संतुलन भी ठीक हो जाता है। धारणा एवं मौन की प्रक्रिया इससे लाभान्वित होने से हम ध्यानावस्था की ओर अग्रसर होने लगते हैं। २०० मीटर की परिधि में स्थित वनस्पति की सूक्ष्म काया इस ऊर्जा को ग्रहण करने हेतु क्षणमात्र में अग्निकुण्ड की ओर बढ़ती है। पालतू प्राणी पक्षी भी इस दिव्य क्षण की आतुरता से प्रतीक्षा करते हैं एवं स्वास्थ्य के लिये हानिकारक जीवाणु, रोगाणु वहाँ से पलायन कर जाते हैं।
प्राणमय ऊर्जा, श्वसन संस्था, रक्तभिसरण संस्था, पाचन संस्था, मज्जा संस्था, प्रजोत्पादन संस्था, नाड़ी व्यवस्था की सूक्ष्म संरचना आदि को चैतन्यमय, पुष्ट एवं निरोग बनाती है। इसके कारण मज्जर पेशियों के नवीनीकरण की प्रक्रिया व हड्डी, माँस, खून आदि पेशियों का विकास होता है। अग्निहोत्र वातावरण में वनस्पतियों को जीवनदान मिलता है, गमलों में लगे पौधों का अच्छा विकास होता है ऐसा अनुभव है। इसी कारण से देशी, विदेशी कृषक अपनी खेती को समृद्ध बनाने हेतु अग्निहोत्र प्रक्रिया की ओर आकृष्ट हो रहे हैं। अग्निहोत्र वातावरण में बोयी गई साग—सब्जियाँ सेवन करने से अनेक रोगों का निवारण होने लगता है। अग्निहोत्र प्रक्रिया के साथ अग्निहोत्र भस्म का भी रोग नाश करने मिट्टी का कस बढ़ाने तथा कम्पोस्ट खाद की प्रक्रिया को प्रभावी बनाने में उपयोग किया जा सकता है। कपड़े से छने अग्निहोत्र भस्म के अग्निहोत्र के समय गाय के घी के साथ चुटकी भर मात्रा में सेवन करने से अनेक बीमारियाँ दूर हो जाती हैं। गाय के घी में भस्म मिलाकर बनाये गये मल्हम का उपयोग त्वचा रोग निवारण का प्रभावी इलाज है। पश्चिमी वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अग्निहोत्र के यह अनाकलनीय परिणाम स्पन्दात्मक प्रतिध्वनि (रेझोन्स) के सिद्धानतों के कारण होते हैं। अग्निहोत्र भस्म के सूक्ष्मकणों से निरन्तर शक्तिशाली ऊर्जा निरन्तर उत्सर्जित होती रहती है। सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय भस्मकणों में स्थित ऊर्जा बार—बार कृति प्रवण (एक्टिवेट) होते रहने से भस्म की परिणामकारकता चिरन्तन बनी रहती है। अग्निहोत्र के प्रणेता श्री बंसत परांजपे जी को विश्वास है कि अग्निहोत्र ही एकमात्र रास्ता है जिससे विश्व अहिंसक खेती की ओर अग्रसर होगा और विश्व का पर्यावरण ठीक किया जा सकेगा और इससे विश्वशांति लाई जा सकती है, विश्व को बचाया जा सकता है। इस आन्दोलन में भारत विश्व का प्रतिनिधित्व करेगा।
मन्मथ पाटनी
‘मनकमल’, १०४, नेमीनगर, इन्दौर, ४५२ ००९
(श्री परांजपे कुन्दकुंद ज्ञानपीठ में चर्चा हेतु पधारे थे,