श्री रामचन्द्र अपने सिंहासन पर आरूढ़ हैं। सुग्रीव, हनुमान, विभीषण आदि आकर नमस्कार कर निवेदन करते हैं- ‘‘प्रभो! सीता अन्य देश में स्थित है उसे यहाँ लाने की आज्ञा दीजिए।’’ रामचन्द्र गर्म निःश्वास लेकर कहते हैं- ‘‘बंधुओं! यद्यपि मैं उसके विशुद्ध शील को जानता हूँ फिर भी लोकापवाद से त्यक्त हुई सीता का मुख मैं कैसे देख सकूगा? हाँ, यदि वह अपने सतीत्व का विश्वास जनता को करा सके तो आप ला सकते हैं।’’ राम की आज्ञा पाते ही हनुमान आदि पुंडरीकपुर पहुँचकर सीता के महल में प्रवेश करते हैं। पुष्पांजलि बिखेर कर सीता को प्रणाम कर वार्तालाप करते हैं। सीता रो पड़ती हैं और कहती हैं- ‘‘दुर्जनों के वचन रूपी दावानल से जले हुए मेरे अंग इस समय क्षीरसागर के जल से भी शांत नहीं हो रहे हैं।’’ ‘‘हे मनस्विनि! हे भगवति! आप शोक छोड़ो और मन को प्रकृतिस्थ करो। हम लोगों ने ऐसा कह रखा है कि भरत क्षेत्र में जो भी सीता की निंदा करे उसे मार डाला जाये और जो सीता के गुणों का कीर्तन करे उसके घर रत्न वर्षा की जाये। हे देवि! कृषक भी धान्य राशि में आपकी स्थापना करते हैं उनका कहना है कि इससे धान्य अधिक पैदा होता है।’’ पुनः हनुमान कहते हैं- ‘‘हे वैदेहि! यह पुष्पक विमान श्रीराम ने भेजा है अतः अब पति की आज्ञा का पालन करो, उठो और शीघ्र ही अयोध्या चलो।’’ सीता, भाई, पुत्र और पुत्रवधू सहित अयोध्या के लिए प्रस्थान कर देती हैं। अयोध्या में प्रवेश करते ही जय-जयकार और प्रशंसा को सुनते हुए वे राजभवन में प्रवेश करती हैं। श्रीराम को नमस्कार कर पास में खड़ी हो जाती हैं।
उस समय राम सोचते हैं- ‘‘अहो! यह धृष्टा है कि जो वन में छोड़ी जाने पर भी आज यहाँ आकर मेरे सन्मुख खड़ी है। यह बड़ी निर्लज्ज है।’’ पुनः कहते हैं- ‘‘हे सीते! सामने क्यों खड़ी है? दूर हट, मैं तुझे देखने को समर्थ नहीं हूँ। तू रावण के भवन में कई मास तक रही फिर भी तुझे ले आया, क्या यह सब मेरे लिए उचित था?’’ ‘‘हे राम! आपके सदृश निष्ठुर दूसरा कोई नहीं है। जिस प्रकार कोई साधारण मनुष्य उत्तम विद्या का तिरस्कार करता है। वैसे ही आप मेरा तिरस्कार कर रहे हो। हे कुटिल हृदय! दोहला के बहाने वन में भेजकर मुझ गर्भिणी का छोड़ना क्या तुम्हें उचित था? यदि मैं वहाँ कुमरण को प्राप्त होती तो इससे तुम्हें क्या लाभ मिलता? केवल मेरी दुर्गति ही तो होती? यदि मेरे प्रति आपका किंचित् भी सद्भाव था तो मुझे आर्यिकाओं की वसतिका के पास क्यों नहीं छुड़वाया था? वास्तव में अनाथ और अत्यन्त दुःखी को एक जिन-शासन ही परम शरण है। हे देव! अधिक कहने से क्या? इस दशा में भी आप प्रसन्न होइए, मुझे आज्ञा दीजिए मैं क्या करूँ?….’’ इतना कहकर सीता रो पड़ती है। तब राम शांतचित्त हो कहते हैं- ‘‘हे देवि! मैं तुम्हारे निर्दोष शील को जानता हूं फिर भी तुम लोकापवाद को प्राप्त हुई हो अतः इस कुटिलचित्त प्रजा को विश्वास दिलाओ।’’ ‘‘ठीक है, मैं पाँच प्रकार की दिव्य शपथों में से आप जो कहिए उसे देने के लिए तैयार हू।
हे राम! मैं कालकूट विष को पी सकती हूँ, मैं तुला पर चढ़ सकती हू, अथवा अग्नि में प्रवेश कर सकती हूँ।’’ कुछ क्षण राम विचार कर कहते हैं- ‘‘हाँ, ठीक है, अग्नि में प्रवेश करो।’’ सीता प्रसन्न हो कहती हैं- ‘‘ठीक है, मैं अग्नि में प्रवेश करूँगी।’’ इतना सुनते ही हनुमान, विभीषण, लव-कुश आदि काँप उठते हैं। लव कहता है- ‘‘ओह! माता ने मृत्यु स्वीकार कर ली है।’’ कुश कहता है-‘‘भाई! जो गति माता की होगी वही अपनी होगी।’’ उस समय सिद्धार्थ क्षुल्लक अपनी भुजा ऊपर उठाकर श्रीराम से कहते हैं- ‘‘हे राम! मेरु पाताल में प्रवेश कर सकता है, समुद्र सूख सकते हैं किन्तु सीता के शील में कुछ भी चंचलता नहीं आ सकती है। मैं विद्याबल से समृद्ध हूँ तीनों काल में मेरु की वंदना करके आता हूँ। पाँचों मेरुओं के समस्त शाश्वत जिन प्रतिमाओं की मैंने वंदना की है। हे रामचन्द्र! मैं जोर देकर कहता हॅूं कि सीता के शील में किंचित् भी कमी हो तो वह मेरी वंदना निष्फल हो जाये। मैंने वस्त्रखंड धारण कर कई हजार वर्ष तक तपश्चरण किया है सो मैं उस तप की शपथ पूर्वक कहता हूँ कि ये दोनों कुमार तुम्हारे ही पुत्र हैं। इसलिए हे बुद्धिमन् राम! इस भयंकर अग्नि में सीता को प्रवेश न कराइये।’’ क्षुल्लक की बात सुनकर आकाश में स्थित विद्याधर और भूमिगोचरी राजा लोग जोर-जोर से आवाज लगाते हुए कहने लगे- ‘‘बहुत अच्छा कहा, बहुत अच्छा कहा, हे देव! प्रसन्न होओ, प्रसन्न होओ, हे नाथ! हे राम! हे राम! सीता महासती, महासती है आप मन में भी अग्नि का विचार मत करो।’’ उस समय तीव्र शोक से सभी लोग जोर-जोर से रोने लगते हैं- तब राम सबकी उपेक्षा करते हुए कहते हैं- ‘‘हे मानवों! यदि इस समय आप लोग दया करने में तत्पर हैं तो पहले अपवाद क्यों किया था?’’ उसी समय राम किंकरों को आज्ञा दे देते हैं। सेवकगण दो पुरुष प्रमाण गहरी और तीन सौ हाथ प्रमाण चौड़ी चौकोर बावड़ी खोद कर उसमें अगुरु, चंदन आदि की बड़ी-बड़ी लकड़ियाँ लेकर भर देते हैं और अग्नि प्रज्ज्वलित कर देते हैं। अग्नि की उठती हुई ज्वालाओं को देखकर सारी अयोध्यापुरी ही अश्रुओं की वर्षा से दुर्दिन उपस्थित कर देती है।
श्रीराम अग्नि की लपटों को देखकर व्याकुल हो उठते हैं और सोचने लगते हैं- ‘‘ओह! मैंने यह क्या कर डाला? यह मालती के पुष्प सदृश कोमलांगी अग्नि का स्पर्श होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जायेगी। हाय! पुनः गुणों की पुंज शील शिरोमणि इस कांता का मुख कमल मैं कैसे देख सकूगा? इसके वियोग में मैं अब कैसे जीवित रह सकूगा? निश्चिन्त हृदया सीता ने भी ऐसे मरना कैसे स्वीकृत कर लिया है? ओह!….वह क्षुल्लक भी अब चुपचाप है अतः इसे रोकने के लिए अब मैं क्या बहाना करूँ?…..’’ पुनः सोचते हैं- ‘‘अथवा जिनका जैसा मरण निश्चित है वैसा ही होगा। उसे अन्यथा करने में कौन समर्थ है?’’ पुनः उठती हुई ज्वालाओं की भीषण गर्मी को देखते हुए सोच रहे हैं- ‘‘अरे! दुष्ट रावण ने इसे लंका में मृत्यु के घाट क्यों नहीं उतार दिया था?…..जब वन में छोड़ी गई थी तभी इसे किसी हिंसक पशु ने क्यों नहीं खा लिया था?….अब मैं इसकी ऐसी दशा कैसे देख सकूगा?…..’’ राम चिंतातुर हो रहे हैं। लक्ष्मण, हनुमान आदि अश्रु की बूँदें गिरा रहे हैं। लव-कुश मूचर्छत हो-होकर गिर रहे हैं किन्तु सीता किसी की परवाह न कर वहाँ आती हैं और प्रसन्नमना हुई खड़ी हो जाती हैं। क्षणभर के लिए कायोत्सर्ग करती हैं पुनः श्री जिनेन्द्रदेव की स्तुति करती हैं- ‘‘ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों को मेरा नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, श्री मुनिसुव्रतनाथ को बारम्बार नमस्कार हो, सर्वजन हितैषी, प्राणिवत्सल आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को मेरा मन-वचन-काय से बारम्बार नमस्कार हो।’’ पुनः श्री रामचन्द्र को नमस्कार करके कहती हैं- ‘‘हे अग्निदेवते! राम के सिवाय यदि स्वप्न में भी मैंने किसी अन्य पुरुष को मन से भी चाहा हो तो तू मुझे भस्मसात् कर दे अन्यथा तू शीतल हो जा।’’ इतना कह कर वह उस अग्नि कुंड में कूद पड़ती है। इसी बीच सर्वत्र हाहाकार मच जाता है। ‘‘अरे रे रे! क्या हुआ? क्या हुआ? हे जिनशासन देवते।’’…..इसी बीच वहीं अयोध्या के महेंद्रोदय उद्यान में सकलभूषण केवली के केवलज्ञान उत्सव को मनाने के लिए इन्द्रगण आ रहे थे। इस दृश्य को देखते ही इन्द्र ने मेषकेतु देव को कहा कि- ‘‘जाओ, जाओ! शीघ्र ही शील का माहात्म्य दिखाकर सीता की रक्षा करो।’’ वह देव निमिष मात्र में उस अग्नि की बावड़ी को जल से लबालब भर देता है। जल बावड़ी से ऊपर आकर चारों तरफ फैल जाता है। लोग डूबने लगते हैं। उधर सीता जल के मध्य सहस्र-दल कमल के ऊपर सिंहासन में विराजमान हैं। जल बढ़ता ही चला जा रहा है। लोग जोर-जोर से आवाज लगाते हैं- ‘‘हे देवि! रक्षा करो, रक्षा करो। हे मान्ये! हे सरस्वती!हे महाकल्याणि! हे लक्ष्मी! हे सर्वप्राणिहितैषिणि! रक्षा करो।
हे महा पतिव्रते! हे मुनि मानस निर्मले! दया करो, दया करो! वह जलरूपी वधू जब अपने तरंगरूपी हाथों से श्रीराम के चरण युगल का स्पर्श कर लेती है तब वह उसी क्षण सौम्य दशा को प्राप्त हो जाती है। तब जल को रुका हुआ देख सभी जनता सुखी हो जाती है। उस बावड़ी में चारों तरफ कमल खिल रहे हैं। सीता के दोनों तरफ देवियाँ चंवर ढोर रही हैं। महिलाएँ सीता के शील की प्रशंसा करते हुए और तरह-तरह से आशीर्वाद देते हुए नहीं अघाती हैं। देवतागण दुंदुभि बाजे बजा रहे हैं, पुष्प वर्षा रहे हैं। किन्नरियाँ नृत्य कर रही हैं और मधुर गीत गा रही हैं। आकाश से, भूतल से सब ओर से एक ही ध्वनि आ रही है- ‘‘हे जनकनंदिनी, हे शीलशिरोमणि! तुम्हारी जय हो, जय हो। हे बलभद्र श्रीराम की पट्टरानी! तुम्हारी जय हो, जय हो।’’ माता के स्नेह से खिंचे हुए लव-कुश जल में तैरते हुए वहाँ आकर सीता को प्रणाम करते हैं। वह बेटों के मस्तक पर हाथ फिराकर अनेक आशीर्वाद देती हैं पुनः दोनों पुत्र सीता के आजू-बाजू में खड़े हो जाते हैं। उसी समय मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम बहुत भारी अनुराग से युक्त हो सीता के समीप आते हैं और कहते हैं- ‘‘हे देवि! प्रसन्न होओ, तुम सभी लोक में पूजित कल्याणवती हो। हे सति! मेरा सब दोष क्षमा करो, पुनः आगे फिर कभी भी मैं ऐसा अपराध नहीं करूँगा। हे प्राणवल्लभे! तुम आठ हजार रानियों की भी परमेश्वरी हो और तो क्या अब मुझ पर भी तुम अनुशासन करो। हे कान्ते! जो-जो स्थान तुम्हें प्रिय हों मुझे आज्ञा देवो, मैं तुम्हारे साथ वहाँ-वहाँ विचरण करते हुए इच्छानुसार क्रीड़ा करूँगा। हे प्रशंसनीय मनस्विनि! मैं इस समय दोष सागर में निमग्न हूँ अतः तुम्हारे समीप आया हूँ सो क्रोध का परित्याग करो और प्रसन्न होओ।’’ तब सीता कहती हैं- ‘‘हे नाथ! आप इस तरह विषाद क्यों कर रहे हैं? मैं किसी पर भी कुपित नहीं हूँ।
इसमें न तुम्हारा ही कुछ दोष था न देश के अन्य लोगों का। यह तो मेरे पूर्व संचित कर्म का ही विपाक था जो मैंने भोगा है। हे बलदेव! मैंने तुम्हारे प्रसाद से देवों के समान अनुपम भोग भोगे हैं। इसलिए अब उनकी इच्छा नहीं है। अब तो मैं वहीं कार्य करूँगी कि जिससे पुनः मुझे स्त्री पर्याय प्राप्त न हो। अब मैं समस्त दुःखों का क्षय करने के लिए जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करूँगी…..।’’
सीता की आर्यिका दीक्षा
इतना कहते हुए सीता कोमल हाथों से अपने काले-काले केश उखाड़कर राम के सम्मुख डाल देती हैं। उन केशों को देख रामचन्द्र धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं और र्मूिच्छत हो जाते हैं। जब तक रामचन्द्र सचेत हों तब तक सीता शीघ्र ही उद्यान में जाकर सकलभूषण केवली यहाँ पृथ्वीमती र्आियका के पास दीक्षा ले लेती हैं। इधर रामचन्द्र शीतोपचार से जब होश में आते हैं तब वे मोह और शोक में पागल हो बकने लगते हैं- ‘‘ओह! मेरी प्राण वल्लभा सीता कहाँ गई? यदि उसे दीक्षा ही दिलाना था तो देवों ने ऐसा उसका प्रातिहार्य क्यों किया? मैं देखता हूँ उसे कौन ले जाता है? मैं देवों को भी अदेव कर दूँगा।’’ उस समय लक्ष्मण उन्हें संभाल कर अनेक उपाय से सांत्वना दे रहे हैं। पुनः सभी लोग महेन्द्रोदय उद्यान में पहुँचते हैं। वहाँ सर्वभूषण केवली के समवसरण में प्रवेश कर शांत हो जाते हैंं। वंदना, पूजा, स्तुति करके सीता को भी नमस्कार कर सब अपने-अपने कोठे में बैठ जाते हैं। तब ‘अभयनिनाद’ नामक महामुनि भगवान् से प्रश्न करते हैं- ‘‘हे भगवन् ! संसार में यह जीव क्यों भ्रमण कर रहा है?’’ ‘‘हे भव्यजीवों! संसार का मूल कारण मोह ही है जब तक यह जीव इसके वश में है तभी तक संसार है।’’ इत्यादि प्रकार से दिव्य उपदेश सुनकर सभी लोग अपने-अपने भव-भवान्तर पूछते हैं। अनन्तर कृतांतवक्त्र सेनापति श्रीराम से कहता है- ‘हे नाथ! अब मैं इस अनादि संसार से निकलना चाहता हूँ। अतः मुझे दीक्षा के लिए आज्ञा प्रदान कीजिए।’ रामचन्द्र अनेक उपायों से भी जब उसे नहीं रोक पाते हैं। तब कहते हैं- ‘‘भद्र! यदि तुम इस जन्म से निर्वाण प्राप्त न कर सको और देव होवो तो जब कभी मैं संकट में होऊँ तो मुझे सम्बोधन अवश्य करना। यदि तुम मेरा किंचित् भी उपकार मानते हो तो यह प्रतिज्ञा करो।’’ ‘‘जैसी आपकी आज्ञा, मुझे यह सहर्ष स्वीकृत है।’’ इतना कहने के बाद राम से आज्ञा प्राप्त कर वह सेनापति दिगम्बर मुनि हो जाता है। केवली भगवान् का विहार हो जाता है। तत्पश्चात् रामचन्द्र यथाक्रम से आर्यिकाओं की वंदना करते हुए सीता के समीप पहुँचते हैं तब उनका हृदय फटने लगता है वे बोलते हैं- ‘‘ओह! मेरी भुजाओं का आलिंगन प्राप्त करने वाली यह सीता इस कठोर आर्यिका व्रत को कैसे पालेगी? मेघ की गर्जना से भी डरकर जो मुझे चिपट जाती थी वह वनों में सिंह, व्याघ्र के भयंकर शब्द कैसे सुनेगी? नीरस आहार कैसे करेगी? और कंकरीली पृथ्वी पर कैसे सोयेगी? मैंने यह क्या किया? विवेक शून्य हो लोकापवाद के डर से मैंने ऐसी सती सीता को कैसे खो दिया?’’ जैसे-तैसे अश्रु रोककर स्वाभाविक दृष्टि से सीता के पास जाकर भक्ति और स्नेह से युक्त हो ‘वंदामि’ कहकर नमस्कार करते हैं और कहते हैं- ‘‘हे भगवति! तुम धन्य हो, तुमने संसार समुद्र से पार होने के लिए जिन मार्ग का आश्रय ले लिया है। एक मैं हूँ जो मोह में फसा हूँ। हे शान्ते! गार्हस्थ्य जीवन में मेरे द्वारा ज्ञात-अज्ञात में जो भी अपराध हुआ हो उसे क्षमा करो। हे मनस्विनि! इस समय मेरे विषाद युक्त मन को भी आप आनन्दित कर रही हैं आप मेरे द्वारा भी पूज्यता को प्राप्त हो गई हैं।’’ लक्ष्मण, लव-कुश आदि भी नमस्कार करते हैं। वियोग के दुःख से व्याकुल हुए पुत्रों को आगे कर श्रीराम वापस अयोध्या में प्रवेश कर रहे हैं-उस समय प्रजा के लोग अनेक प्रकार से वार्तालाप कर रहे हैं- ‘‘हे भाई! सीता के बिना राम शोभा नहीं पा रहे हैं।’’ ‘‘अरे! राम ने सीता को कैसे गंवा दिया?’’ ‘‘ओह! सीता ने यह क्या किया? उसका ऐसा कठोर हृदय कैसे हो गया।’’ ‘‘अरे! राम को ऐसी कठोर परीक्षा लेना उचित था क्या?’’ ‘‘बहन! सर्वप्रथम राम को गर्भिणी हालत में उसे वन में नहीं भेजना था।’’ ‘‘हाँ बहन! उसी समय इन्होंने ‘यह अग्नि परीक्षा’ क्यों नहीं ले ली थी?’’ ‘‘इसी का नाम संसार है। अरे! जब सीता को पूर्व संचित कर्म भोगना ही था तो राम को भी उस समय ऐसी बुद्धि कैसे आती? क्या तुमने नहीं सुना? केवली भगवान् ने बताया है कि इस सीता के जीव ने पूर्व भव में किसी मुनि-आर्यिका को झूठा दोष लगाया था पुनः प्रायश्चित्त भी किया था किन्तु गुरु-निंदा का पाप बिना भोगे नहीं छूटता है।’’ ‘‘हाँ, हाँ, बहन! इसलिए सती सीता को इस पर्याय में अपवाद का दुःख सहना पड़ा।’’ ‘‘ओह! देखो! अपने दूध से पुष्ट किये इन लव-कुश को छोड़ कर सीता ने कैसे दीक्षा ले ली?’’ ‘‘बहन! उसने बहुत ही अच्छा किया है स्त्री पर्याय से छूटने का एक यही उपाय है।’’ सीता घोर तपश्चरण करते हुए अपने जीवन के बासठ वर्ष व्यतीत कर देती हैं। अंत में तैंतीस दिन की सल्लेखना लेकर मरण करके स्त्री पर्याय को छेदकर अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र हो जाती हैं। वहाँ पर वह इन्द्र आज भी दिव्य सुखों का अनुभव कर रहा है।
लक्ष्मण की मृत्यु
देवों की सभा लगी हुई है। सौधर्म इन्द्र अपने सिंहासन पर आरूढ़ हैं। अर्हंतदेव की भक्ति का उपदेश दे रहे हैं। उपदेश के अनन्तर इन्द्र चिंता निमग्न हो सोच रहे हैं- ‘‘अहो! यहाँ की आयु पूर्ण कर मैं मनुष्य पर्याय कब प्राप्त करूँगा? तप के द्वारा कर्मों को नष्ट कर जिनदेव की गति को कब प्राप्त करूँगा?’’ यह सुन एक देव बोलता है- ‘‘जब तक यह जीव स्वर्ग में रहता है तभी तक उसके ऐसे भाव होते हैं किन्तु जब मनुष्य पर्याय को पा लेते हैं तो भोगों में निमग्न हो सब कुछ भूल जाते हैं। यदि विश्वास नहीं है तो ब्रह्मलोक से च्युत हुए श्रीरामचन्द्र को क्यों नहीं देख लेते?’’ तब इन्द्र कहते हैं- ‘‘सच में सभी बंधनों में स्नेह का बंधन अत्यन्त दृढ़ है। जो हाथ-पैरों से बँधा है वह तो मोक्ष को प्राप्त कर सकता है किन्तु स्नेह बंधन से बँधा हुआ प्राणी मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकता। लक्ष्मण, राम में इतना अनुरक्त है कि वह प्राण देकर भी उनका कार्य करना चाहता है और पलभर भी जिसके दूर होने पर राम बेचैन हो उठते हैं। अहो! उन दोनों का स्नेह अपूर्व ही है।’’ सभा विसर्जित हो जाती है। रत्नचूल और मृगचूल नाम के दो देव इन दोनों के स्नेह की परीक्षा के लिए अयोध्या आ जाते हैं। राम के भवन में दिव्य माया से रुदन मचा देते हैं और विक्रिया से बनाये हुए मंत्री पुरोहित आदि को लक्ष्मण के पास भेज देते हैं वे वहाँ पहुँच कर कहते हैं- ‘‘हे नाथ! राम की मृत्यु हो गई।’’ इतना सुनते ही लक्ष्मण के मुख से निकलता है- ‘‘हाय! यह क्या…..’’ इस अर्ध वाक्य के उच्चारण के साथ ही साथ वे सिंहासन पर बैठे ही बैठे प्राण रहित हो जाते हैं। सहसा लक्ष्मण की मृत्यु देख दोनों देव आश्चर्य और विषाद से युक्त हो चुपचाप अपने स्थान को चले जाते हैं। उधर लक्ष्मण की स्त्रियाँ आकर इस दुर्घटना से छाती पीट-पीट कर रोने लगती हैं। राम को समाचार मिलते ही वे वहाँ आ जाते हैं। वे लक्ष्मण को निश्चेष्ट देख रहे हैं यद्यपि लक्ष्मण में मृतक के चिह्न दिख रहे हैं फिर भी राम स्नेह से परिपूर्ण हो उन्हें जीवित ही समझ रहे हैं। उनका बार-बार आलिंगन करते हुए कहते हैं- ‘‘हे भाई! क्या कारण है? तुम क्यों ऐसे हो रहे हो, बोलो-बोलो, मेरे से वार्तालाप करो, बोलो तुम्हें किसने सताया है?’’ लक्ष्मण की ऐसी दशा देख राम बार-बार र्मूिच्छत हो जाते हैं। वैद्यों के द्वारा परीक्षा हो जाने पर भी वे उसे मृतक नहीं मान रहे हैं। मोह और शोक में पागल हो रोते हैं, विलाप करते हैं और तो क्या उस मृत शरीर को नहलाते हैं, वस्त्र पहनाते हैं और भोजन खिलाने की कोशिश करते हैं। इस दृश्य को देख अति दुःखी हो लव-कुश अनेक उपाय से पिता को समझाने का पुरुषार्थ करते हैं।
अंत मे असफल हो जाते हैं तब विरक्तमना हुए पिता को नमस्कार कर वन में जाकर अमृतस्वर महामुनि के समीप दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। राम पुत्रों की दीक्षा का समाचार सुनकर अतीव दुःखी हुए लक्ष्मण से कहते हैं- ‘‘हे लक्ष्मण! जल्दी उठो, चलो चलें, जब तक लव-कुश दीक्षा नहीं ले लेते हैं उन्हें समझाकर वापस ले आवें।….’’ ‘‘हे भाई! मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ?’’ कुछ क्षण बाद कहते हैं- ‘‘देख! अब मैं अकेला हूँ तू मुझे जल्दी से अपने मन की बात बता दे।’’ समाचार को प्राप्त करते ही विभीषण आदि राजा आकर समझाते हैं- ‘‘प्रभो! यह मृतक शरीर है इसे छोड़ो, इसका दाह संस्कार करो।’’ राम कहते हैं- ‘‘अरे दुष्टों! तुम मेरे प्यारे भाई को मरा समझ रहे हो? जावो, जावो।’’ पुनः आप स्वयं भाई को कंधे पर लेकर वन में चले जाते हैं। सभी विद्याधर किंकर्तव्यविमूढ़ हैं कि क्या करना चाहिए? श्रीराम की इस पागल जैसी स्थिति में एक दिन कम ६ महीने व्यतीत हो जाते हैं। तब अकस्मात् आसन के कम्पित होने से दो देव स्वर्ग से वहाँ आते हैं और वे विपरीत क्रियायें प्रारंभ करते हैं। एक देव मनुष्य के वेष में सूखे वृक्ष को सींच रहा है, दूसरा दो मृतक बैलों के कंधों पर हल रखकर पत्थर पर बीज बोने का प्रयत्न करने लगता है। पुनः एक मनुष्य मटकी में जल डालकर मथने लगता है तो दूसरा घानी में रेत डालकर पेलना शुरू कर देता है। तब राम कहते हैं- ‘‘अरे मूर्खों! इस सूखे ठूँठ को क्यों सींच रहे हो? अहो! इन मृतक बैलों पर हल रखने से क्या होगा? पत्थर पर बीज उगेंगे क्या? कहीं पानी से मक्खन निकलता है? अरे बालक, बालू से कहीं तेल निकलता है?’’
तब वे कहते हैं- ‘‘हे नाथ! आप भी तो मृतक कलेवर को लिए घूम रहे हो।’’ राम कुपित होकर कहते हैं- ‘‘अरे, अरे! तुम पुरुषोत्तम लक्ष्मण को मृतक क्यों कह रहे हो?’’ राम आगे बढ़ जाते हैं तब एक देव अपने कंधे पर मृतक शरीर को लेकर उनके आगे-आगे हो लेता है। तब पुनः राम कहते हैं- ‘‘अरे रे! आप इस मुर्दे को कंधे पर क्यों रखे हुए हैं?’’ तब वह वृद्ध कहता है- ‘‘आज आपको देखकर हम लोगों को बहुत ही प्रेम हो रहा है क्योंकि समान में ही प्रेम होता है। स्वामिन्! हम सब पिशाचों के आप सर्वप्रथम मनोनीत महाराजा हैं।’’ इन वचनों के निमित्त से राम का मोह शिथिल हो जाता है और वे सोचने लगते हैं- ‘‘ओह! कहाँ मैं विद्वत् शिरोमणि राम? और कहाँ मेरी यह चेष्टा? धिक्कार हो इस मोह को!’’ राम के मोह को शिथिल हुआ देख दोनों देव अपने सुन्दर रूप में हो जाते हैं। तब राम पूछते हैं- ‘‘हे महानुभावों! आप कौन हैं?’’ दोनों परिचय देते हैं- ‘‘हे नाथ! हम जटायु पक्षी के जीव हैं और यह कृतांतवक्त्र सेनापति का जीव है। हे देव! इतने दिन से आप पर विपत्ति आई थी किन्तु हम अज्ञानियों को पता ही नहीं था। हे राम! जब आपकी विपत्ति का अन्त आ गया तब आपके कर्मोदय ने मुझे इस ओर ध्यान दिलाया है।’’ ‘‘अहो भद्र पुरुषों! तुम दोनों ने इस समय मेरा बहुत बड़ा उपकार किया है।’’ अनन्तर राम सर्व परिजनों के साथ सरयू नदी के किनारे लक्ष्मण का दाह संस्कार कर देते हैं।
श्रीरामचन्द्र की जैऩेशवरी दीक्षा
राजसभा में बैठे हुए श्रीराम शत्रुघ्न से राज्य संभालने को कहते हैं किन्तु जब वह दीक्षा के भाव व्यक्त करता है तब अनंगलवण के पुत्र अनन्तलवण का राज्याभिषेक कर देते हैं। इसी बीच अर्हदास सेठ प्रवेश करते हैं। राम पूछते हैं- ‘‘भद्र! मुनि संघ में कुशल है ना?’’ ‘‘हे नाथ! आपके इस कष्ट से पृथ्वी तल पर मुनि भी परम व्यथा को प्राप्त हुए हैं और आपके स्नेह से खिंचकर श्री सुव्रताचार्य गुरु स्वयं यहाँ पधारे हैं।’’ राम हर्ष से रोमांचित हो मुनि के समीप पहुँचते हैं उनकी प्रदक्षिणा देकर वंदना करते हैं, स्तुति पूजा करते हैं पुनः कहते हैं- ‘हे भगवन्! मुझे संसार समुद्र से पार करने वाली निर्ग्रंथ दीक्षा प्रदान कीजिए।’’ गुरु की आज्ञा पाकर जब राम वस्त्रालंकार त्याग कर केशलोंच करते हैं, उस समय देवगण रत्नवृष्टि आदि पंचाश्चर्य करने लगते हैं। विभीषण, सुग्रीव आदि भी दीक्षा ले लेते हैं। उस समय कुछ अधिक सोलह हजार राजा मुनि हो जाते हैं और सत्ताईस हजार प्रमुख स्त्रियाँ ‘श्रीमती’ आर्यिका के पास साध्वी हो जाती हैं। गुरु की आज्ञा लेकर राम एकाकी विहार करते हुए वन में जाकर प्रतिमा योग धारण कर लेते हैं। रात्रि में ही उन्हें अवधिज्ञान प्रगट हो जाता है। पाँच दिन के उपवास के बाद योगी श्रीराम पारणा के लिए नंदस्थली नगरी में आते हैं। उनके रूप सौन्दर्य को देखते ही लोग पागल के समान हो जाते हैं। शहर की गलियों में बेशुमार भीड़ हो जाती है। श्रावक-श्राविकायें पड़गाहन करने में तत्पर हो उच्च स्वर से बोलते हैं- ‘‘हे स्वामिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ। ‘‘हे मुनीन्द्र! जय हो, जय हो, यहाँ आइये, आइये, ठहरिये, ठहरिये।’’ महिलाएं तरह-तरह की वस्तुएं मँगाने लगती हैं- ‘‘अरी सखी! गन्ना ले आ’’ ‘‘अरी वह सुवर्ण की झारी लाओ।’’ ‘‘अरी चतुरे! खीर ले आ! अच्छा, मिश्री और ले आ।’’ इत्यादि प्रकार से इतना हल्ला हो जाता है कि हाथी घोड़े भी अपने-अपने बंधन को तोड़कर उपद्रव मचाते हुए इधर-उधर भागने लगते हैं। इतना कोलाहल देख राजा प्रतिनंदी अपने कर्मचारियों को भेजता है। वे आकर पड़गाहन करने वालों को तितर-बितर करके मुनि से कहते हैं- ‘‘प्रभो! राजा के यहाँ पधारिये, वहाँ उत्तम भोजन कीजिए।’’ मुनिराज अन्तराय समझकर वन में वापस चले जाते हैं और पुनः पाँच उपवास के बाद ऐसा वृत्तपरिसंख्यान लेते हैं कि- ‘‘यदि कोई वन में ही पड़गाहेगा तो आहार करूँगा अन्यथा नहीं।’’ अकस्मात् शत्रु द्वारा हरे जाने पर राजा प्रतिनंदी वन में ही रानी के साथ भोजन विधि करने को तैयार होते हैं कि सामने से श्रीराम मुनि को देखकर भक्ति से पड़गाहन करके नवधा भक्ति से आहार कराते हैं। देवों के द्वारा पंचाश्चर्य वृष्टि होने लगती है। राम को अक्षीण महानस ऋद्धि भी हो गई थी अतः उस दिन राजा के यहाँ अन्न अक्षय हो जाता है। श्रीरामचन्द्र महामुनि वन में ही आहार का नियम लेते रहते हैं। देवांगनाएं उनकी पूजा करती रहती हैं। कई एक वर्ष बाद श्रीराम कोटिशिला पर पहुँचकर रात्रि में प्रतिमायोग से स्थित हो ध्यान में लीन हो जाते हैं।