हाल में ही इन्दोर से प्रकाशित ‘तीर्थंकर (मासिक पत्र) के अक्टूबर’ ९६ का अंक हस्तगत हुआ, उसमें ‘नग्नता शुचिता का दर्पण है’ – यह वाक्य विशेषत: ध्यानाकर्षक प्रतीत हुआ। यद्यपि नाग्न्य भी ‘द्विजन्मा’ होता है; अर्थात् एक तो व्यक्ति जन्मत: ही नग्न पैदा होता है, तथा जब तक उसके विषय-विकारों का परिचय प्राप्त नहीं होता है, वह सहजरूप में नि:संकोच नग्न रह लेता है। किन्तु ज्यो-ज्यों मनुष्य को विषय-विकारों का परिचय मिलता जाता है, वासनायें मन में अंगड़ाईयाँ लेने लगती है; तब शर्म और संकोच का कृत्रिम शिष्टाचार उस नाग्न्य को वस्त आदि आच्छाादानों से आवृत्त करने को विवश कर देता है। तथापि कर्द पुण्यात्माओं के जीवन में ऐसा सुअवसर भी आता है, जब वे आत्मबल के द्वारा अपनी विषय-वासनाओं को जीत लेते हैं; तब उनके लिए वस्त आदि के आवरण का कोई औचित्य नहीं रह जाता, तथा वे बालकवत् निर्विकार होकर यथाजातरूप अंगीकार कर लेते हैं। यद्यपि नाग्न्य के दोनों रूप शुचिता के प्रतिबिम्ब हैं, तथापि नाग्न्य का यह द्वितीय जन्म अत्यन्त पावन तथा आत्महित एवं लोककल्याण के निमित्त अनुपम वरदान होता है। जैन साधना में सांसारिक व्यामोह एवं बन्धनों को तोड़ सकनेवाला आत्मबली निग्र्रन्थ अचेलक श्रामण्य को अंगीकार करता है। चूंकि वह ‘अपरिग्रह महाव्रत’ का संकल्प लेता है, अत: वस्त्राभूषण आदि भी स्वत: छूट जाते हैं। इसलिये आभ्यान्तर मूच्र्छा किंवा ममत्व की ग्रंथ छूट जाने से स्वत: ही बाह्य वस्त्रादि के बन्धन भी छूट जाने के कारण जैनश्रमण ‘णिग्गंठ’ अथवा ‘निग्र्रन्थ’ कहे जाते थे। प्राचीन वैदिक साहित्य में इसके पोषण-प्रमाण मात्रा में मिलते हैं-1. ‘‘यथाजातरूपधरो निर्ग्रन्थो निष्परिग्रह: ।’’ (जाबालोपनिषद्, पृ. १३०) 2. ‘‘यथाजातरूपधरो निग्र्रन्थ: ।’’ (तैत्तिरीय आरण्यक, १०/६३) 3. ‘‘श्रमणा: दिगम्बरा: श्रमणा वातवसना इति।’’ (निघण्टू) 4. ‘‘नग्नो मुण्ङ …..’’ (मनुस्मुति, ८/९३) इन्हें भारतीय साहित्य में ‘श्रपणक’ संज्ञा भी दी गयर है; वहाँ भी इन्हें नग्न दिगम्बर ही माना गया है – 1. ‘‘दिगम्बर: स्यात् क्षपणे नग्ने।’’ (मेदिनी कोश, पृ० २६७) 2. ‘‘नग्नाटो दिग्वासा: क्षपण: श्रमणश्च जीवको जैन: ।’’ (हलायुध कोश, २/१९०) 3. ‘‘नग्न: क्षणपक:’’ (‘गीता’ का शांकरभाष्य १८/२२) 4. ‘‘नग्नो विवाससि मागधो च क्षपणके’’ (श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रसूरि)यहाँ तक कि घोर नास्तिक चार्वक ने भी ’क्षपणक साधु को नग्न’ कहा है।तत्त्वोपप्लवसिंह, ५/५/१, पृ. ७९ जैनेतर वर्ग में जब जैनमत का रिसन करने का प्रसंग आया, तो उन्होंने इसका उल्लेख ‘निवस्त्र मत’ या ‘निवस्त्र सम्प्रदाय’ के रूप में किया है; यथा- ‘ब्रह्मसूत्र’ के ‘शांकरभाष्य’ में आद्य शंकराचार्य लिखते हैं –‘‘विवसनसमय इदानीं निरस्यते ….।’’ब्रह्मसूत्र-शांकरभाष्य, २/२/३३अर्थात् अब विवसनमत-निर्वस्त्रमत (दिगम्बर सिद्धान्त) का निवारण करते हैं। संस्कृत-हिंदी कोशकार वामन शिवराम आप्टे भी ‘विवसन’ शब्द का अर्थ करते समय इसका एक अर्थ ‘नग्न जैन साधु’संस्कृत हिन्दी कोश, पृ. ९५३ भी करते हैं। एक अन्य उल्लेख में भी जैनसाधु या भगवान् को ‘नग्न’ कहा गया है –‘‘शान्तमनसो नग्नान् जिनानां विदु:।’’ (वराहमिहिर)इतना ही नहीं विश्व की प्राचीनतम सभ्यता के अवशेषों के रूप में परिगणित ‘मो-अन-जो-दड़ा के पुरातात्त्विक अवशेषों से भी यह सिद्ध होता है कि उस समय भी जैन श्रमण नग्न दिगम्बर ही होते थे। इस तथ्य को स्वीकार करते हुये वर्तमान काल के प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य नथमल मुनि (आचार्य महाप्रज्ञ) जी लिखते हैं कि ‘‘मो-अन-जो-दड़ो’ की खुदाई से प्राप्त मूर्तियों की यह विशेषता है कि वे कायेत्सर्ग अर्थात् खड़ी मुद्रा में हैं, ध्यानलीन हैं और नग्न हैं।’’‘अतीत का अनावरण’ (भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन), पृ. १६ प्रख्यात पुरातत्त्ववेता प्रो० प्राणनाथ ने ‘मो-अन-जो-दड़ो’ की एक मुद्रा पर ‘जिनेश्वर’ शब्द पढ़ा है। जिससे यह प्रमाणित होता है कि वह नग्न मूर्तियाँ जैनों के आराध्य देव की ही हैं। जैनश्रमणों की महिमा जैनेतरों में भी अतिप्राचीन काल से रही है, और उन्होंने इसका मुक्तकंठ से बान भी किया है-
अर्थ – श्रमणजन सन्तोषी-वृत्तिवाले, करुणाहृदय, प्राणिमात्र के साथ मैत्रीभाव रखने वाले, शान्तचित्त, इन्द्रियजयी, आत्मतत्त्व में ही मग्न रहने वाले एवं समदृष्टिवान् (समताभावी) होत हैं। संभत: जैन श्रमणों की इसी महत्ता को स्वीकार करते हुये महामनीषी भर्तृहरि ने भी भावना भायी है कि –
अर्थ –हे शम्भु ! मैं समस्त कर्मों के निर्मूलन में सक्षम, एकाकी, निस्पृह, शान्तचित्त, करतल-भोजी दिगम्बर (निग्र्रंथ जैनश्रमण) कब बन पाऊंगा ? उनके इन शब्दों में दिगम्बर जैन-श्रासमण्य को अंगीकार कर सकने योग्य सामथ्र्य मिलने की उत्कंठा एवं व्यग्रता अतिमुखरित है। गोविंदराजीय ‘रामायण-भूषण’ में भी जैन श्रमणों को ‘दिगम्बर’ कहा गया है। लगभग इसी की पुष्टि करते हुये ‘दंसणपाहुड’ के टीककार आचार्य श्रुतसागर सूरि स्पष्टत: लिखते हैं- ‘‘श्रमणो दिगम्बरो भवति’’‘दंसण्मपाहुड़’ गाथा २६ की टीका अर्थात् जैनश्रमण दिगम्बर होते हैं। इसके बारे में युक्तिप्रदर्शन करते हुये ‘यशस्तिलक-चम्पू’ के कत्र्ता लिखते हैं –
अर्थात् लोक में जो सहत धर्म है, वह नाग्न्य है; तथा विकारोत्पत्ति होने पर वस्त्रों को ओढ़ा जाता है। अत: वस्त्र-वेष्टन विकारों की उपस्थिति का सूचक है। संभवत: इन्हीं सब तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुये आचार्य कुन्दकुन्द ने दो हजार वर्षों से भी अधिक पहिले घोषणा कर दी थर कि ‘शृंगार एवं परिग्रह की भावना से रहित दिगम्बरत्व ही लोक में पूज्य है’ –
‘‘णिब्भूसणं णिग्गंथं, अच्चेलक्कं जगदि पूज्जं ।’’मूलाचार, ३०
अर्थ –भूषण (शृंगार-भावना) उपं ग्रंथ (परिग्रह भावना) से रहित आचेलक्यधर्म (निग्र्रंथ दिगम्बर जैन श्रामण्य) नोक में पूजनीय है। वस्तुत: जैनश्रमण का मूलस्वरूप ही दिगम्बर किंवा अचेलक है। इस तथ्य को मतभेद के बावजूद श्वेताम्बराचार्यों ने भी स्वीकार किया है। आचार्य हरिभद्रसूरि लिखते हैं – ‘‘निग्र्रन्थ-एतेन मूलसंघादि-दिगमबरा:’’प्रशमरतिप्रकरण, ८/१४२ अर्थात् ‘निर्ग्रन्थ’ (प्राकृतरूप ‘णिग्गंठ) का अर्थ ही दिगम्बरत्व कर दिया है। चूंकि तीर्थंकर महावीर आदि के लिये उनके ग्रंथों में भी ‘निग्र्रन्थ’ (णिग्गंठ) विशेषण प्राप्त होता है; जिससे स्पष्ट है कि वे महावीर-पर्यन्त समपूर्ण जैन तीर्थंकर-परम्परा एवं उनकी परम्परा के ‘निग्र्रन्थ श्रमणों’ की मूलधारा को निस्संकोच ‘दिगम्बरत्व नहीं था, अर्थात् वे वस्त्र-धारण करते थे; तथा महावीर की परम्परा में दिगम्बरत्वआयाा।’’द्रष्टव्य, पं० सुखलाल जी सिंघवी-कृत ‘दर्शन और चिंतन’ द्वितीय खंड, पृ. ८८-९० इसके पोषण में वे बोद्ध ग्रन्थां में आगत एक उल्लेख देते हैं-
‘‘लोहिताभिजातानांनिगण्ठा एकसाटिका’ ति वदति।’’अंगुत्तरनिकाय, भ० १,६/६/३१
अर्थ – निग्र्रन्थों के लाल रंग की एक साटिका (दीर्घ, बिना सिला वस्त्र) होती है- ऐसा कथन है। -यह इस वाक्य का जैन सन्दर्भ में अधूरा अर्थ है। वास्तविकता यह है कि निग्र्रन्थ जैनश्रमण बनने की प्रारम्भिक अवस्था में ‘श्रावक’ को भी उपचार से ‘निग्र्रन्थ’ संज्ञा प्रयोग होती रही है। बौद्धग्रंथ ‘चुल्निद्देश’ में कथन मिलता है-
अर्थात् निग्र्रन्थ श्रावकों के आराध्य देव भी पूण्र निग्र्रन्थ होते थे। आचार्य कुन्दकुन्द भी श्रावक के लिए उपचारत: ‘निग्र्रन्थ’ शब्द का प्रयोग करते हैं।मूलाचार, ११७४ (‘‘णिग्गंथ सावयाणं उववदो अच्चुदं जाव’’) इस कथन से स्पष्ट है कि निग्र्रन्थ-परम्परा के श्रावकों को भी सवस्त्र होते हुये भी उपचारत: ‘निग्रन्थ’ संज्ञा व्यवहृत एवं स्वीकृत थी। दिगमबर-परम्परा में वर्णित ‘श्रावकधर्म’ में ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन आता है, उनमें ग्यारह प्रतिमाधारी ‘क्षुल्लक’ एक लाल वर्ण का बिना सिला साड़ी-सदृश वस्त्र धारण करते हैं। यह कथन उन्हीं के लिये है, न कि निग्र्रन्थ जैनश्रमण (साधु) के लिये। दिगम्बर-परम्परा के ‘प्रतिकमण सूत्र’ में भी स्पष्टत: उल्लेख मिलता है –
‘‘वत्थेगधरो पढमो’’प्रतिक्रमण-सूत्र १२, नित्यपाठ-संग्रह ५, पृ. २४८
अर्थात् प्रथम त्यागी यानि क्षुल्लक एक वस्त्र धारण करते हैं। किन्तु जैनश्रमणों के वस्त्र-धारण की परम्परा कदापि नहीं रही है। यदि ऐसा रहा होता, तो जैनेतर ग्रन्थों में कही तो जैनश्रमणों के लिए वस्त्र-धारण का उल्लेख मिलता। किन्तु वैदिक-ग्रंथो एवं बौद्ध-ग्रन्थों में जैन श्रमण के लिये वस्त्र धारण का कहीं भी कोई उल्लेख न मिलने से सिद्ध है कि जैन श्रमणपरम्परा निग्र्रन्थ अचेलकत्व की ही रही है। तथा प्राचीन सांस्कृतिक-प्रमाणों एवं पुरातात्तिवक- अवशोषों में भी समस्त जैन श्रमण- परम्परा निर्वस्त्र दिगम्बरत्व का ही निदर्शन रही है। नाग्न्य इस परम्परा का गौरवशाली परिचय-चिह्न था। इसीलिये श्रावक शिरोमणि चामुण्डराय (गोम्मटेश्वर के ऐतिहासिक दिगम्बर जिनबिम्ब के निर्माता) लिखते हैं – ‘‘परममांगल्यं नाग्ग्न्यमभ्श्रयुपगतस्य।’’ द्र० चारित्रसा अर्थात् नग्नता परम मंगलस्वरूप है; इसको जिन्होंने प्राप्त किया, वे ही जैनश्रमण हैं।