वैज्ञानिक दृष्टि से अण्डाहार के दुष्प्रभावों की विवेचना के उपरान्त यह प्रतिपादित किया गया है कि अण्डाहार को शाकाहार बताना महज एक दुष्प्रचार है। आलेख में विभिन्न धर्मो में अण्डाहार के निषेध के प्रमाण भी प्रस्तुत किये गये हैं
डॉ. हेग ने लिखा है कि यद्यपि प्रयोगशालीय परीक्षणों में मैं अण्डों में यूरिक अम्लकी विद्यमानता का प्रेक्षण नही कर पाया हूँ तथापि मैंने पाया है कि अण्डों को भोजन में सम्मिलित करने से शरीर (रक्त) में यूरिक अम्ल की मात्रा बढ़ जाती है। इससे यूरिक अम्ल सम्बन्धी अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। अत: मैंने (डॉ. हेग )अपने भोजन में से मांस—मदिरा—मीन के साथ अण्डों को भी हटा दिया है। इससे मैं स्वस्थ रहता हूँ।
सान्द्र प्रोटीन का शरीर के लिये कोई महत्व नहीं है। अण्डों में एल्बुमिन नामक प्रोटीन बहुत अधिक मात्रा में होता है। जल को यदि छोड़ दें तो यह लगभग शत—प्रतिशत प्रोटीन प्रदान करता है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में नाइट्रोजन की एक निश्चित साम्यावस्था होती है, जिसको बदला नहीं जा सकता, जब तक कि मानव शरीर की मशीन की कार्यक्षमता न बदल दी जाये।
अधिक नाइट्रोजन युक्त यौगिक—प्रोटीनयुक्त अण्डा लेने का परिणाम यह होता है कि जब तक अण्डे की सारी प्रोटीन शरीर में पच पाती है, उससे पूर्व ही उसका सड़ना आरम्भ हो जाता है, जिससे शरीर में विषैले पदार्थों की उत्पत्ति होती है। प्रारम्भ में अण्डा लेने के बाद व्यक्ति को कुछ अच्छा—सा लगता है, क्योंकि सान्द्र एल्बुमिन शरीर के नाइट्रोजन—साम्य को कुछ सीमा तक बदलने का प्रयत्न करता है।
क्योंकि साम्य को अधिक सीमा तक बदला नहीं जा सकता , अत: धीरे—धीरे सुखद अनुभूति तिरोहित होती जाती है और अन्त में व्यक्ति उस अवस्था में पहुँच जाता है जो पूर्व की तुलना में कोई अच्छी अवस्था नहीं होती है। इसीलिए हृदयरोग विशेषज्ञ, नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक डॉ. माइकल ऐस ब्राउन एवं डॉ. जोजेफ ऐल गोल्ड्स्टाइन का परामर्श है कि हृदयरोग से बचने के लिये मांस तथा अण्डे का सेवन न करें।
उनका कथन है कि अमेरिका में पचास प्रतिशत मौंते केवल हृदयरोग के कारण होती हैं। उनके अनुसार, अब तक वर्षों से चली आ रही यह धारणा कि बच्चों को अण्डा देने से उन्हें कोई हानि नहीं होती, विपरीत निकली है। भले ही बच्चे ऊपर से हृष्ट—पुष्ट दिखाई दें, किन्तु अन्दर से वे हृदयरोग से ग्रस्त हो जाते हैं।
आधुनिक भौतिक विज्ञान की नवीन खोज के अनुसार, रक्त में पाया जाने वाला पदार्थ लोडेन्सिटी लिपोप्रोटीन है जो कोलेस्टोरेल को अपने साथ प्रवाहित करता है। शरीर में यकृत तथा अन्य भागों के सेलों में एक पदार्थ है जिसको रिस्पेटर कहते हैं, जो एल.डी.एल. तथा केलोस्टेरोल को रक्त में विलीन करता है, जिसके फलस्वरूप रक्त प्रवाह में कोई बाधा नहीं आती।
उपयुत्र्त इन वैज्ञानिक तथ्यों के अनुसार, जो व्यक्ति मांस या अण्डे खाते हैं, उनके शरीर में रिस्पेटरों की संख्या मेें कमी हो जाती है। इसकी कमी से रक्त के अन्दर कोलेस्टेरोल की मात्रा अधिक हो जो जाती है, जिससे यह रक्तवाहिनियों मेें जमना आरम्भ हो जाता है और हृदयरोग आरम्भ हो जाता है।
कोलेस्ट्राल अण्डों में सबसे अधिक मात्रा में पाया जाता है, जिसके फलस्वरूप चर्मरोग हो जाते हैं। अण्डों से कुछ व्यक्तियों को एलर्जी भी होती है कुछ दिन पूर्व ‘इण्डियन काउन्सिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च’ द्वारा किये सर्वेक्षण से पता चला है कि फल, सब्जियाँ, अण्डे तथा मांस में डी डीटी के अंश पाये जाते हैं।
अण्डों में डी. डीटी के अंश अधिक मात्रा में होता है, क्योंकि ‘पॉल्ट्री फार्मिंग में मुर्गियों को महामारी से बचाने के लिये डीडीटी आदि दवाईयों अंश जा जाते हैं। इन दवाईयो का धड़ल्ले से प्रयोग होता है। फलस्वरूप अण्डे खाने वाले व्यक्ति के पेट में दवाईयों के अंश आ जाते हैं। इन दवाईयों के भयंकर परिणाम हो सकते हैं।
अब तक अण्डोें को सुपाच्य समझा जाता था, क्योंकि इनके प्रयोग पशुओं पर किये गये थे। कुछ वैज्ञानिकों ने जब इनका प्रयोग मनुष्यों पर किया तब पाया गया कि अण्डे सुपाच्य नहीं होते, ये दुष्पाच्य होते हैं। अण्डे आठ डिग्री सेल्सियस से ऊपर के ताप पर खराब होने आरम्भ हो जाते हैं। इनको खराब होने से बचाकर रखने के लिये भारत में इतना नीचा ताप रखना कठिन हैं। विदेशों में भी आजकल अण्डे न खाने का परामर्श दिया जा रहा है।
अण्डा , गेहूँ, दाल, सोयाबीन से प्राप्त होने वाले एक ग्राम प्रोटीन का मूल्य क्रमश: १४, ४, ३, व २ पैसे तथा सौ कैलोरी पर व्यय क्रमश: १०, ९, ८, व ५ पैसे हैं। इससे स्पष्ट है कि अण्डों की अपेक्षा दालों और अनाज से बहुत कम व्यय में (सस्ता) प्रोटीन और ऊर्जा प्राप्त होती है।
अण्डो में शक्तिदायक तत्व शर्करा तथा विटामिन सी बिल्कुल नहीं होते और केल्सियम तथा बी—काम्पलेक्स विटामिन भी नगण्य मात्रा में होते हैं। इन तत्वों की कमी के कारण तथा विषैले तत्वों से युक्त होने के कारण अण्डे आंतड़ियोें में सड़ान (putrafaction) उत्पन्न कर कई रोगों को बढ़ाने में सहायक होते हैं। इसके अतिरिक्त दूध की तुलना में अण्डे आसानी से नहीं पचते हैं।
आज विज्ञान यह सिद्ध कर चुका है कि मांस की भांति अण्डा मनुष्य के शरीर के अनुकूल नहीं है क्योंकि इनसे शरीर में अनेक भयंकर रोग उत्पन्न होेते हैं। अण्डे खाने से रक्त में कोलेस्ट्राल की मात्रा बहुत बढ़ जाती है, जिससे पित्ताशय में पथरी (देहा) हो जाती है। इससे दिल का दौरा पड़ने लगता है।
इनके सेवन से त्वचा कठोर हो जाती है। इनसे रक्त अशुद्ध हो जाता है। शरीर में यह उत्तेजना बढ़ाता है। इनसे सात्विक बुद्धि नष्ट हो जाती है इनके सेवन से शरीर में से दुर्गन्ध आने लगती है। इनसे रक्त दाब बढ जाता है। इनसे दाँत गुर्दों के अनेक रोग हो जाते हैं। इनसे कैंसर हो जाता है। इनसे दाँत शीघ्र रोगग्रस्त हो जाते हैं। इनसे पाचन क्रिया विकृत हो जाती है। इनसे श्वास की गति व हृदय की धड़कन बढ़ जाती है। इनसे मस्तिष्क में अशान्ति बढ़ जाती है।
इनसे अतिनिद्रा का रोग हो जाता है और शरीर थका—थका सा रहता है। इनसे मनुष्य निर्दयी तथा हिंसक बन जाता है। मांस की भाँति, अण्डों से शरीर में अनपेक्षित मौन—विचार उत्पन्न होते हैं और मन में विक्षेप और क्रोध का आविर्भाव होता है।
जिन अण्डों से बच्चे नहीं निकलते, उन्हे पॉल्ट्री फार्मिंग वाले शाकाहारी अण्डे कहकर समाज में एक मिथ्या भ्रम पैदा करते हैं। अण्डे कभी किसी पेड़ पर नहीं लगते, अत: वे शाकाहारी नहीं हो सकते।
तथाकथित शाकाहारी अण्डे क्या हैं? किसी प्राणी के देह में चार प्रकार के पदार्थ बनते हैं—
(अ) वे जो उसके शरीर का वास्तविक अंग हैं।
(आ) वे जो मल के रूप में और विभिन्न मार्गों से मल—मूत्र के रूप में निकलते हैं।
(इ) वे जो शरीर में रसोल (ऊल्स्दल्) आदि रोग बनने का कारण बनते हैं।
(ई) वे जो माता के शरीर में सन्तान का शरीर निर्माण करते हैं जैसे गर्भ का अण्डा ।
निर्जीव अण्डा पहली कोटि में इसलिये नहीं आ सकता, क्योंकि निर्जीव होने से तथा पिता से उत्पन्न न होने के कारण सन्तान का शरीर नहीं है। अब, या तो वह मुर्गी के शरीर का मल है या रोग का अंश है। वस्तुत: जिसे एक शाकाहारी अण्डा कहते हैं वह तो मुर्गी का रज:स्राव होता है, जो गन्दगी से लिप्त होता है।
साधारण व्यक्ति शाकाहारी और अशाकाहारी अण्डे में पहचान नहीं कर सकता। तथा कथित शाकाहारी अण्डों के सेवन से भी वे सभी हानियाँ हैं जो अन्य अण्डों के सेवन से होती है। अण्डा और विभिन्न धर्म
श्रीमद्भगवद्गीता में भोजन की तीन श्रेणियाँ बताई गई हैं।
(अ) सात्विक भोजन — फल, सब्जी, अनाज, दाले, मेवे, दूध—मक्खन आदि जो आयु, बुद्धि,बल, बढ़ाते हैं और सुख—शान्ति, दयाभाव, अहिंसा व एकरसता प्रदान करते हैं और हर प्रकार की अशुद्धियों से शरीर,दिल व मस्तिष्क को बचाते हैं।
(आ) राजसिक भोजन — इसमें गर्म, तीखे, कड़वे खट्टे, मिर्च—मसाले आदि जलन उत्पन्न करने वाले तथा रूखे पदार्थ सम्मिलित हैं। इस प्रकार का भोजन उत्तेजक होता है और दु:ख, रोग व चिन्ता उत्पन्न करने वाला होता है
(स) तामसिक भोजन — जैसे बासी, रसहीन, अद्र्धपके, दुर्गंध वाले, सड़े अपवित्र, नशीले पदार्थ, मांस— अण्डे आदि जो मनुष्य को कुसंस्कारों की ओर ले जाने वाले,बुद्धि भ्रष्ट करने वाले,रोग व आलस्य आदि दुर्गण देने वाले होते हैं।
भारतीय ऋषि—मुनि—कपिल, व्यास, पाणिनि, पतंजलि, शंकराचार्य, आर्यभट, महावीर स्वामी, महात्मा बुद्ध गुरू नानकदेव, महात्मा गांधी आदि सभी शाकाहारी थे और सभी ने अण्डा , मांस, मदिरा का विरोध किया है क्योंकि शुद्ध बुद्धि और आध्यत्मिकता अण्डा — मांस आहार से सम्भव नहीं है। अथर्ववेद१० में मांस खाने व गर्भ ( अण्डों में पलने वाले भावी पक्षी) को नष्ट करने की मनाही की गई है।
इस्लाम के सभी सूफी—सन्तो ने नेक जीवन, दया, गरीबी व सादा भोजन तथा अण्डा —मांस न खाने पर जोर दिया है। शेख, इस्माइल, ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती, हजरत निजामुद्दीन औलिया, बू अली कलन्दर, शाह इनायत, मीर दाद, शाह अब्दुल करीम आदि सूफी सन्तों का मार्ग नेकरहमी, आत्मसंयम, शाकाहारी भोजन व सबके प्रति प्रेम का था।
उनका कथन है कि — त्ता बयाबीं दर बहिश्ते अदन् जा शफ्फते बनुभाए व खल्के खुदा’’ अर्थात् अगर तू सदा के लिये स्वर्ग मेें निवास पाना चाहता है तो खुदा की सृष्टि के साथ दया व हमदर्दी का बर्ताव कर। ईरान के दार्शनिक अलगजाली का कथन है कि रोटी के टुकड़ों के अतिरिक्त हम जो कुछ भी खाते हैं वह केवल हमारी वासनाओं की पूर्ति के लिये होता है।
लंदन की मस्जिद के शाकाहारी इमाम अल हाफिज बशीर अहमद मसेरी ने अपनी ने अपनी पुस्तक के पृष्ठ १८ पर हजरत मुहम्मद साहब का कथ्न इस प्रकार दोहराया है—‘यदि कोई इन्सान किसी बेगुनाह चिड़िया तक को भी मारता है तो उसे खुदा को इसका जवाब देना पड़ेगा और जो किसी परिन्दा (पक्षी) पर दयाकर उसकी जान बख्शता है तो अल्लाह उस पर कयामत के दिन रहम करेगा।’
ईसामसीह को आत्मिक ज्ञान जॉन दि बैप्टिस्ट से प्राप्त हुआ था जो अण्डे —मांस के धोर विरोधी थे। ईसामसीह की शिक्षा के दो प्रमुख सिद्धान्त है—जीव हत्या नहीं करोंगे तथा अपने पड़ोसी से प्यार करो इनसे अण्डा —मांसाहार का निषेध हो जाता है।
अहिंसा जैन धर्म का सबसे मुख्य सिद्धान्त है। जैन ग्रन्थों में हिंसा के १०८ भेद किये गये हैं। भाव हिंसा, द्रव्य हिंसा, स्वयं हिंसा करना, दूसरे के द्वारा हिंसा करवाना अथवा सहमति प्रकट करके हिंसा कराना आदि सभी वर्जित हैं। हिंसा के विषय में सोचना तक पाप माना है। हिंसा मन, वचन व कर्म द्वारा की जाती है।
अत: किसी को ऐसे शब्द कहना जो उसको पीड़ित करे, वह भी हिंसा मानी गई है। ऐसे धर्म में जहाँ जानवरों को बांधना, दु:ख पहूँचाना, मारना—पीटना व उनपर अधिक भार लादना तक पाप माना जाता है, वहाँ अण्डा —माँसाहार का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। इसी प्रकार बौद्ध मत में अहिंसा पर बल देते हुए अण्डा —मांसाहार की मनाही है।
भोजन से मनुष्य का उद्देश्य मात्र उदरपूर्ति या स्वादपूर्ति नहीं है अपितु स्वास्थ्य—प्राप्ति, निरोग रहना व मानसिक और चारित्रिक विकास करना भी है। आहार का हमारे स्वास्थ्य आचार, विचार व व्यवहार से सीधा सम्बन्ध है। मनुष्य की विभिन्न प्रकार के भोजन के प्रति रूचि उसके आचरण व चरित्र की पहचान कराती है। ‘जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन’। अत: आहार का उद्देश्य उन पदार्थों का सेवन करना है जो शारीरिक, नैतिक, सामाजिक व आध्यमिक उन्नति करने वाले, रोगों से बचाव करने वाले तथा स्नेह, प्रेम, दया, अहिंसा, शान्ति आदि गुणों को बढ़ावा देने वाला हो।
प्राय: देखने में आता है कि दुष्कर्म, बलात्कार, हत्या, निर्दयतापूर्ण कार्य करने वाले व्यक्ति साधारण स्थिति में ऐसे दुष्कर्म नहीं करते अपितु इन कुकर्मों के करने से पहले वे शराब, अण्डा — में मांसाहार आदि का सेवन करते हैं ताकि उनका विवेक, मनवीयता व नैतिकता नष्ट हो जाये और वे इन्हें इन कुकर्मों को करने से रोके नहीं। डॉ. धनंजय के अनुसार— अण्डे ४०० सेंटिग्रेड से अधिक ताप पर १२ घंटे से अधिक समय तक रहें तो उनके भीतर सड़ने की क्रिया आरम्भ हो जाती है। भारत एक उष्णकटिबंधीय देश है। यहाँ का तापमान ३०० से ४०० तक रहता है।
पॉल्ट्री फार्म से बाजार में लाकर बेचने तक प्राय: २४ से २८ घंटे तक का समय लगता है। प्राय: अधिकांश अण्डे भीतर ही भीतर सड़ जाते हैं और रोगों की उत्पत्ति का कारण बनते हैं। जर्मनी के प्रो.एग्नबर्ग का निष्कर्ष है—‘ अण्डा ५१—८३³ कफ पैदा करता है। वह शरीर के पोषक तत्वों को असंतुलित कर देता है। अमेरिका के डॉ. इ. बी. एमारी तथा इंग्लैण्ड के डॉ. इन्हों ने अपनी विश्वविख्यात पुस्तक ‘षोषण का नवीनतम ज्ञान और रोगियों की प्रकृति’ में साफ—साफ माना है कि अण्डा मनुष्य के लिये विष है।
१८ इंग्लैण्ड के डॉ. आर. जे. विलियम का निष्कर्ष है— सम्भव है अण्डा खाने वाले आरम्भ में अधिक चुस्ती का अनुभव करें, किन्तु बाद में उन्हें हृदयरोग, ऐक्जीमा, लकवा जैसे भयानक रोगों का शिकार होना पड़ता है। भारतीय चिकित्सक डॉ. योगेशकुमार अरोड़ा के अनुसार— अण्डों में डीडीटी नामक विष पाया गया है जिससे पुरानी कब्ज, आंतों का कैंसर, गठिया, बवासीर एवं अल्सर आदि रोग उत्पन्न होते है
१. डॉ. जगदीश प्रसाद, अर्हंत् वचन, १४ (४), अक्टूबर—दिसम्बर २००२, पृ.४५