‘अध्यात्म-रहस्य’ में वर्णित स्वानुभूति का स्वरूप एवं प्रक्रिया
आचार्य कल्प पं. आशाधरजी की अद्वितीय जैन-साहित्य साधना, अगाध बुद्धि कौशल एवं स्वानुभव से परिपूर्ण धर्मामृत रूप जैनागम सार उनकी कृति ‘अध्यात्म-रहस्य’ में सहज ही दृष्टव्य है। पं. जी ने जैन- जैनेत्तर साहित्य का विषद् अनुभव कर सत्ररह अध्यायों में धर्मामृत की रचना की। अपने पिता श्री की प्रेरणा से आपने धर्मामृत के अठारहवें अध्याय के रूप में ‘अध्यात्म-रहस्य’ की रचना की, जो संयोगवश उसकी भावनानुसार धर्मामृत का अंग नहीं बन सकी। योग अर्थात् ध्यान/समाधि विषयक होने के कारण इसका अपर नाम योगोद्दीपन भी हैं। इसकी पुष्टि निम्न समाप्ति सूचक वाक्य से होती है –
’पं. जी ने उक्त वाक्य में सूक्ति-संगह विशेषण लगाया है। यह विशेषण इस तथ्य की पुष्टि करता है कि पं. आशाधर जी ने धर्मामृत में जो लिखा है वह अरहंत देव और उनकी गणधर-आचार्य परम्परा के प्रमाण पुरुषों की अर्थ सूचक सूक्तियों का संग्रह है, जिनागम स्वरूप ही हैं।
‘अध्यात्म-रहस्य’ में संस्कृत भाषा के ७२ श्लोक हैं। इसकी प्रतिपाद्य विषय वस्तु अध्यात्म अर्थात् आत्मा से परमात्मा होने सम्बन्धित रहस्य अर्थात् मर्म का बोध करता है। यह कृति धर्मामृत रूप भव्य प्रासाद का स्वर्ण-कलश है। इसे अध्यात्म योग विद्या भी कही जा सकती है। अध्यात्म-रहस्य का दार्शनिक आधार आचार्यों कृत समयसार, ज्ञानार्णव अमृताशीति, भावपाहुड अमृतकलश, परमात्मप्रकाश, समाधितंत्र, इष्टोपदेश, तत्वार्थसार, योगसार आदि अध्यात्म ग्रंथ हैं। स्व. श्री पं. जुगल किशोर मुख्तार ‘युगवीर’ ने श्रम-साधना पूर्वक व्याख्या लिखकर वीरसेवा मन्दिर दिल्ली से वर्ष १९५७ में प्रकाशित की थी, जो अब अनुपलब्ध है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्षपाहुड में और आचार्य पूज्यपाद ने समाधितंत्र में आत्मा के तीन भेद किये हैं – बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा। पं. आशाधर जी ने इन्हें क्रमश: स्वात्मा, शुद्धस्वात्मा और परब्रह्म के रूप में युक्तिपूर्वक निरूपित किया है। इस प्रकार अनादि अविद्या युक्त स्वात्मा (द्रव्य दृष्टि शुद्धात्मा) से परब्रह्म- परमात्मा रूप पूर्ण विकसित मुक्तात्मा की प्राप्ति ही अध्यात्म-रहस्य का लक्ष्य है, जो जीवात्माओं को इष्ट है। पं. आशाधर जी के अनुसार कर्मजनित शारीरिक दु:ख-सुख में अपनत्व रूप अविद्या का छेदन भेद-विज्ञान जन्य सम्यग्ज्ञान एवं उपेक्षा रूप विद्या से होता है।
इसका प्रारंभ श्रुति, मति, ध्याति और दृष्टि इन चार सोपानों सहित आत्मानुभूति एवं शुद्ध उपयोग से होता है। शुद्ध उपयोग का साधक श्रुताभ्यास, शुद्धात्मा एवं भगवती भवितव्यता की भावना है। आपने रत्नत्रयात्मक शुद्ध-स्वात्मा को ही यथार्थ मोक्ष मार्ग स्वीकार कर व्यवहार एवं निश्चय दोनों को कल्याणकारी घोषित किया है।
मंगलाचरण : भगवान् महावीर एवं गौाम गणधर की वंदना
जो भक्तियोग में अनुरक्त सुपात्र निकट भव्यों को अपना पद (सिद्धत्व) प्रदान करते हैं अर्थात् जिनकी सच्ची-सविवेक-भावपूर्ण भक्ति से भव्यप्राणी उन जैसे ही हो जाते हैं, उन ज्ञानलक्ष्मी के धारक श्री भगवान महावीर और श्री गौतम गणधर को नमस्कार हो (श्लोक १)। यह आराध्य से आराधक होने का सूचक श्लोक है। पुनश्च उन सद्गरुओं को नमस्कार है जिनके वचन रूपी दीपक से प्रकाशित (योग) मार्ग पर आरूढ़ योगी-ध्यानीमोक्ष-लक्ष्मी को प्राप्त करने में समर्थ होता है। (श्लोक २)। सद्गुरु दो प्रकार के होते हैं -पहला व्यवहार…सद्गुरु जिसकी वाणी के निमित्त से योगाभ्यासी को शुद्धात्मा के साक्षात्कार की दृष्टि प्राप्त होती है, और दूसरा निश्चय- सद्गुरु ‘आत्मैव गुरुरात्मन:’ अर्थात् आत्मा ही आत्मा का सद्गुरु हैं जिसका अंतरनाद हो और सुनाई पड़े। अंतरात्मा की आवाज ही सन्मार्ग-दर्शक है (श्लोक ३)।
पारगामी योगी का स्वरूप
जिसके शुद्धस्वात्मा में निजात्मा की राग-द्वेष-मोह रहित अवस्था में- सद्गुरु के प्रसाद से श्रुति, मति, ध्याति और दृष्टि– ये चार शक्तियाँ क्रमश: सिद्ध हो जाती हैं, वह योगी का परागामी होता है (श्लोक ३)। इस प्रकार आत्मा साक्षात्कार करने वाला योगी और उसकी दृष्टि देने वाला गुरु ही सद्गुरु हैं। श्री पं. आशाधर जी ने आत्मा के तीन भेद किये है : बहिरात्मा स्वात्मा, शुद्ध स्वात्मा अन्तरात्मा शुद्ध स्वातमा औश्र परब्रह्म परमात्मा।
बहिरात्मा स्वात्मा का स्वरूप
जो आत्मा निरंतर हृदय-कमल के मध्य में – उसकी कर्णिका में – अहं शब्द के वाच्य रूप से – ‘‘मैं’ के भाव को लिए हुए पशुओं, मूढ़ों तक को स्वसंवेदन (स्वानुभूति) से ज्ञानियों को स्पष्ट प्रतिभासित होता है, वह स्वात्मा है (श्लोक ४)। पर्याय की दृष्टि से स्वात्मा के शुद्ध और अशुद्ध दो भेद हो जाते हैं।
अंतरात्मा (शुद्ध स्वात्मा) का स्वरूप
स्वात्मा ही जब किसी से राग-द्वेष-मोह नहीं करता हुआ सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप परिणत होता है, शुद्ध-स्वात्मा कहलाता है (श्लोक ५)।
परमात्मा (परब्रह्म) का स्वरूप
जो निरन्तर आनन्दमय-चैतन्य रूप से प्रकाशित रहता है, जिसको योगी जन ध्याते हैं, जिसके द्वारा यह विश्व आत्मा विकास की प्रेरणा पाता है, जिसे इन्द्रों का समूह नमस्कार करता हैं, जिसके जगत की विचित्रता व्यवस्थित होती है, जिसका हार्दिक श्रद्धान आत्म-विकास का मार्ग (पदवी) है और जिसमें लीन होना मुक्ति है, ऐसा वह परमब्रह्म रूप सर्वज्ञ-सूर्य मेरे हृदय में सदा प्रकाशित हो (श्लोक ७२)। केवलज्ञानमय सर्वज्ञ ही परमप्रकाश रूप परब्रह्म है।
योगी की चार सिद्धियों (सोपानों) का स्वरूप
१. श्रुति-श्रुत: जिनेन्द्र देव द्वारा उपदेशित ऐसी गुरुवाणी जो प्रथमत: ज्ञात एवं उपदिष्ट- ध्येय को अर्थात् ध्यान के विषय भूत शुद्धात्मा को धम्र्यध्यान तथा शुक्ल ध्यान में दृष्ट (प्रत्यक्ष) और इष्ट (आगम) के अविरोध रूप आयोजित एवं व्यवस्थित करती है एसका नाम श्रुति है (श्लोक ६)। ऐसी धर्म- देशना जो स्वात्मा को प्रशस्त ध्यान की ओर लगाकर शुद्धात्मा- ध्येय को प्राप्त कराने की दोष रहित विधि है, वह श्रुति है। ‘एकाग्रचिंता निरोधोध्यानं’- एकाग्र में चिंता निरोध को ध्यान कहा है। शुद्धात्मा में चित्तकृति के नियंत्रण एवं चिन्तान्तर के अभाव को ध्यान कहते हैं, जो स्व-संविवत्तिमय होता है।
२. मति- बुद्धि : गुरुवाणी से प्राप्त श्रुति के द्वारा सम्यक रूप से निरूपित शुद्ध- स्वात्मा जिस मति या बुद्धि से युक्तिपूर्वक नय प्रमाण द्वारा सिद्ध किया जाता है – अध्यात्म शास्त्र में मति कही जाती है (श्लोक ७)। जो पदार्थ जिस रूप में स्थित है उसको उसी रूप में देखती हुई धी (मति) जो सदा आत्माभिमुख होती है वह बुद्धि के रूप ग्राह्य है; तब हे बन्धु उस बुद्धि के आत्म-सम्बन्ध को समझो (श्लोक १७)। ऐसी स्व-पर प्रकाशित बुद्धि का नाम सम्यग्ज्ञान है।
३. ध्यान रूप परिणत बुद्धि- ध्याति : जो बुद्धि प्रवाह रूप से शुद्धात्मा में स्थिर वर्तती है– अपने शुद्धात्मा का अनुभव करती है- और शुद्धात्मा से भिन्न के ज्ञान का स्पश्र नहीं करती उस बुद्धि (ज्ञान की पर्याय) को ध्याति कहते हैं (श्लोक ८)। ध्यान रूप परिणत तथा ध्येय को समर्पित बुद्धि ही ध्याति कहलाती है।
४. दृष्टि (दिव्य दृष्टि) :जिसके द्वारा रागादि विकल्पों से रहित ज्ञान शरीरी स्वात्मा अपने शुद्ध स्वरूप में दिखाई दे और जिस विशिष्ट भावना के बल पर सम्पूर्ण श्रुतज्ञान स्पष्टत: अपने में प्रत्यक्ष रूप से प्रतिभासित होता है -वह अध्यात्म-योग-विद्या में दृष्टि-दिव्यदृष्टि कही जाती है (श्लोक ९)। अथवा जो दर्शन-ज्ञान लक्षण से आत्म-लक्ष्य को अच्छी तरह अनुभव करे– जाने वह संवित्ति ‘दुष्टि’ कहलाती है (श्लोक १०)। शुद्ध स्वात्मा का साक्षात्कार कराने वाली वह दृष्टि समस्त दु:खदायी विकल्पों को भस्म करती है, वही परमब्रह्य रूप है और योगीजनों द्वारा उपादेय होकर पूज्य-प्रार्थनीय है (श्लोक ११)।
श्रुताभ्यास का उद्देश्य : दिव्यदृष्टि एवं शुद्धोपयोग की प्राप्ति
बुधजनों द्वारा श्रुतसागर (शास्त्राभ्यास) के मंथन का उद्देश्य या संवित्ति की प्राप्ति है जिससे अमृत रूप मोक्ष प्राप्त होता है; अन्य सब तो मनीषियों का बुद्धि कौशल नि:सार है (श्लोक १२)। श्रुताभ्यास के द्वारा शुभ-उपयोग का आश्रय करता हुआ शुद्ध-स्वात्मा शुद्ध उपयोग में ही अधिकाधिक स्थिर रहने की भावना एवं श्रेष्ट-निष्ठा धारण करता है (श्लोक ५५)। इसी कारण से स्वाध्याय को परम तप कहा है।
कर्मबंधनरूप संसार दु:ख का कारण : अविद्या
प्रेम (तीन वेदरूप परिणति), रति, माया, लोभ ओर हास्य यह पाँच (वेद सहित सात) राग के भेद हैं। क्रोध, मान, अरित, शोक, भय और जुगुप्सा यह छ: भेद द्बेष हैं। दर्शन मोहनीय के मिथ्यात्व सहित राग ही मोह कहलाता है।राग-द्वेष-मोह बंध का कारण होने से मुमुक्षुओं द्वारा उपेक्षणीय होने पर भी अज्ञानी जीव कर्मों से प्रेरित होकर ‘यह मेरा हित है’ या ‘यह मेरा अहित है’ ऐसा मानता हुआ पदार्थों में राग या द्वेष करता है और कर्म-बंध से पीड़ित होता है (श्लोक २८)। मोह के कारण वह ऐसा मानता है कि सुगति की प्राप्ति से इन्द्रिय-विषयों का बारम्बार सुख और दुर्गति से इन्द्रिय-विषयों की अप्राप्ति रूप दुख होता है। उसकी यह मान्यता अविद्या रूप है और पाप का बीज है (श्लोक २२)। इस अविद्या का छेदन सम्यग्ज्ञान एवं उपेक्षारूप विद्या से शक्य हैं जिसका वर्णन आगे किया है।
उत्तम सुख (मोक्ष) का मार्ग : रत्नत्रय
रत्नत्रय उत्तम सुख (मोक्ष) का मार्ग है। रत्नत्रय अर्थात् समयग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप शुद्ध-स्वात्मा (अंतरात्मा) ही यर्थाथत: मोक्षमार्ग है। अत: मुमुक्षुओं द्वारा वही पृच्छानीय, अभिलाषणीय और दर्शनीय है (श्लोक १४)। अन्यत्र भटकने की आवश्यकता नहीं है। शुद्ध चिदानन्दमय स्वात्मा के प्रति तद्रुप प्रतीत, अनुभूति और स्थिति में अभिमुखता हर क्रमश: गौण (व्यवहार) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है और उस प्रतीति, अनुभूति तथा स्थिति में उपयोग की प्रवृत्ति मुख्य (निश्चय) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र (श्लोक १५)। शुद्धस्वात्मा की प्रतीति दर्शन, अनुभूतिज्ञान और स्थिति चारित्र है। इनकी अभिमुखता व्यवहार रत्नत्रय है और उपयुक्त अर्थात् उपयोग की प्रवृति निश्चय रत्नत्रय है।
निश्चय रत्नत्रय की महत्ता
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप त्रिरत्न को स्वात्मा की बुद्धि में धारण-श्रद्धान कर जब जीव शुद्ध-स्वात्मा का इस तरह संवेदन (अनुभव) करता है कि संवेद्यमान (अनुभव में आने वाली स्वात्मा में स्वयं में लीन हो जाता है तभी त्रिरत्नमय गुणों का उच्च विकास होता है (श्लोक १६)। इसे ही ज्ञानानुभूति कहते हैं।
व्यवहार-निश्चय सम्यग्दर्शन
अपने शुद्ध-बुद्ध-चिद्रूप स्वभाव से भिन्न आत्मा की छ: द्रव्यों तथा सात-तत्त्वों के प्रति अभिरूचि व्यवहार सम्यग्दर्शन है। अपने शुद्ध-बुद्ध-चिद्रूप स्वभाव की ओर प्रवृत्त आत्माभिमुखी रूचि का नाम निश्चय सम्यग्दर्शन है (श्लोक ६४)
व्यवहार-निश्चय सम्यग्ज्ञान : (सविकल्प और निर्विकल्प)
पर-पदार्थों के ग्रहण को गौण कर निर्विकल्प स्वसंवेदन को निश्चय सम्यग्ज्ञान कहते हैं। पर-पदार्थों के ग्रहण रूप सविकल्प ज्ञान को व्यवहार-सम्यग्ज्ञान कहते हैं। भेद विशेष तथा पर्याय को विकल्प कहते हैं, जो इनसे सहित हैं वह सविकल्प और जो इनसे रहित हैं वह निर्विकल्प कहा जाता है (श्लोक ६८)। जो ज्ञान आत्मा से भिन्न पर-पदार्थ से संसर्ग को प्राप्त हो रहा हो तथा वह किसी शब्द समूह का विषय बना हुआ हो, तभी सविकल्प कहलाता है (श्लोक ६९)।
व्यवहार निश्चय सम्यक् चारित्र
आत्मा की सर्व-सावद्य-योग (मन-वचन-काय) से हिंसादि कार्यों से निवृत्ति गौण (व्यवहार) सम्यकचारित्र है और कर्म-छेदन से उत्पन्न आनन्द-परमानन्दमय वृत्ति मुख्य (निश्चय) सम्यकचारित्र हैं (श्लोक ७०)।
उभय रत्नत्रय की कल्याणकारिता की घोषण
पूर्ण आत्म विकास में उभय रत्नत्रय कल्याणकारी है तो अपूर्णतया अल्पशुद्धि से पूर्ण शुद्धि की ओर ले जाता है और साधन-साध्य का कार्य करता है। पं. जी के अनुसार जो जीव काललब्धि आदि के वश से तत्वार्थ के अभिनिवेश रूप-श्रद्धात्मक शुद्धि को, तत्त्वार्थ निर्णयरूप सम्यग्ज्ञानात्मक शुद्धि को तथा तपश्चरणमयी सम्यक्चारित्र रूप शुद्धि को, विकल व्यवहार रूप अपूर्ण है, धारण करते हैं। वे स्वात्म प्रत्यय-निजात्म प्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन, स्वात्म वित्ति-निजात्मज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान और तल्लीनतामय-निजात्म निमग्नतारूप सम्यक् चारित्रमयी पूर्ण आत्मा-शुद्धि को प्राप्त करने वाले भव्य सिंह हैं (श्लोक ७१)।
आत्माभिमुखी स्वात्मा की भावना एवं धारणा का स्वरूप
१.अकत्र्ता-उपभोक्ता स्वरूप की भावना : स्वात्मा को अपने शुद्ध में स्थिर तथा दृढ़ करने हेतु साधक भावना भाता है कि ‘मैं ही मैं हूूं’, इस आत्मज्ञान से भिन्न अन्य में, ‘यह मैं हूूँ, मैं यह करता हूँ’, इस प्रकार की चेतना-विचार को त्यागता है (श्लोक १८)। आत्मज्ञान से भिन्न अन्य कार्य को चिरकाल तक बुद्धि में धारण नहीं करता, यदि प्रयोजनवश कुछ समय के लिए वचन और काय से करना भी पड़े तो अनासक्ति भाव से करना चाहिए (समाधितंत्र श्लोक ५०)। इससे कर्तृव्य-भोत्तृâत्व भाव विसर्जित होता है।
२.रागादिक विभावों के विनाश की भावना : राग-द्वेष-मोह आत्मा के अतीव उग्र शत्रु हैं उनकी अनुत्पत्ति और विनाश के लिए स्वात्मा बड़ी तत्परतापूर्वक नित्य ही अपने शुद्ध-बुद्ध-चिद्रूप-स्वात्मा की भावना भाता है (श्लोक २६)। इससे रागादि के प्रति स्वामित्व भाव विसर्जित होता है।
३.भाव-द्रव्य-नोकर्म के त्याग की भावना : कर्म और कर्म-फल से आसक्ति घटाने एवं उनसे निवृत्ति हेतु स्वात्मा भावना भाता है कि रागादिक भाव कर्म, ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्म और शरीरादिक नोकर्म मेरा स्वरूप नहीं है, मुझ्से भिन्न बाह्य पदार्थ हैं – मैं उन्हें त्यागता हूँ और उनसे उपेक्षा धारण करता हूँ (श्लोक ६०)। आत्मा द्वारा निरन्तर अनुभव किये जाने वाले राग-द्वेष क्रोधादि भाव, (कार्य में कारण के उपचार से) भाव-कर्म है तथा कर्मरूप परिणत पुद्गलपिण्ड में जो अज्ञान तथा रागद्वेषादिक फलदान की शक्ति है, जिसके वश संसारी जीव राग-द्वेष करता है, वह भाव कर्म है (श्लोक ६१)। जिस ज्ञानावरणादिक रूप पुद्गल कर्म के द्वारा चैतन्य स्वरूप आत्मा विकारी होकर कर्म-अनुरूप-अवस्था धारण करता है, द्रव्य-कर्म है (श्लोक ६२)। तथा जीव में जो अंगादिक है उनकी वृद्धि-हानि के लिये जो पुद्गल-समूह कर्मोदयवश तद्रूप विकार को प्राप्त होता है, वह नोकर्म है (श्लोक ६३)। ‘नो’ शब्द अल्प लघु या किंचित अर्थ का सूचक है। इससे ममत्व भाव विसर्जित होता है।
४. हेय-उपादेय विवेक भावना : सिद्धि अर्थात् स्वात्मोपलब्धि के लिये हेय-उपादेय, सत-असत का ज्ञान और तदनुसार भावना अपेक्षित है। व्यवहारनय की अपेक्षा बाह्य विषयक मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र हेय हैं, असत् है और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र उपादेय (ग्राह्य) हैं और सत हैं। निश्चयनय की दृष्टि से मिथ्यादर्शनादिक हेय और असत् हैं तथा अध्यात्म विषयक सम्यग्दर्शनादिक उपादेय हैं, जो कि सत् हैं (श्लोक ६५)। परमशुुद्ध निश्चयनय से मेरे लिए न कुछ हेय है और न कुछ उपादेय (ग्राह्य) है। मुझे तो स्वात्मोपलब्धि रूप सिद्धिचाहिए, चाहे वह यत्नसाध्य हो या अयत्नसाध्य, उपाय करने से मिले या बिना उपाय के मिले (श्लोक ६५)। जो निष्ठाात्मा-स्वात्मस्थित कृत-कृत्य हो गया है उसके लिए बाह्य-अभ्यंतर त्याग-ग्रहण का प्रश्न नहीं उठता।
५.भवितव्यता आधारित अहंकार- विर्सजन की भावना : जीवन में अहंकार और ममकार के संकल्प-विकल्प दारुण आकुलता के निमित्त बनते हैं, इनका विर्सजन भगवती भवितव्या का आश्रय लेने से होता है। कर्तृत्व के अहंकार के त्याग हेतु कहा है कि ‘यदि स–सद्गुरु के उपदेश से जिनशासन के रहस्य को आपने ठीक निश्चय किया है, समझा है- तो ‘मैं करता हूँ’ इस अहंकार पूर्ण कर्तृत्व की भावना को छोड़ो और भगवती- भवितव्यता का आश्रय ग्रहण करों (श्लोक ६६)। कोई कार्य अंतरंग और बहिरंग अथवा उपादान और निमित्त, नियति (काललब्धि) पुरुषार्थ और भवितव्यता (होनहार) इन पाँच समवायपूर्वक होता है। अत: कर्तृत्व के अहंकार के विसर्जन हेतु पुरुषार्थपूर्वक कार्य करना इष्ट हैं किन्तु फल की एषणा (अभिलाषा) भवितव्यता पर छोड़ना चाहिए। इसीलिए जैन आगम में स्वामी समन्तभद्र ने स्वयंभूस्तोत्र में भवितव्यता को अलंध्य-शक्ति कहा है जिसे यहाँ ‘भगवती’ शब्द से सम्बोधित किया है। स्मरणीय है कि यहाँ कार्य में कर्तृत्व के अहंकार के त्याग की बात कही है न की कार्य के त्यगाने की।
बिना कार्य के भवितव्यता का लक्षण ही नहीं बनता। अत: पद की भूमिकानुसार कार्य करना अपेक्षित है। निष्क्रियता का आश्रय भवितव्यता का उपहास है। श्री पं. जुगलकिशोर मुख्तार, युगवीर ने अध्यात्म-रहस्य हिन्दी व्याख्या में स्पष्ट है कि ‘‘भगवान सर्वज्ञ के ज्ञान में जो कार्य जिस समय, जहाँ पर, जिसके द्वारा जिस प्रकार से होना झलका है वह उसी समय, वहीं पर, उसी के द्वारा और उसी प्रकार से सम्पन्न होगा, इस भविष्य-विषयक कथन से भवितव्यता के उक्त आशय में कोई अन्तर नहीं पड़ता; क्योंकि सर्वज्ञ के ज्ञान में उस कार्य के साथ उसका कारण-कलाप भी झलका है, सर्वथा नियतिवाद अथवा निर्हेतु की भवितव्यता, जोकि असम्भाव्य है, उस कथन का विषय नहीं है। सर्वज्ञ का ज्ञान ज्ञेयाकार है न कि ज्ञेय ज्ञानाकार (पृ. ८३-८४)। भगवती -भवितव्यता के रहस्य को समझने से चित्त में समता-भाव जाग्रत होता है जो साक्षात्कार के लिये सहायक है। अत: इसकी भावना भाना श्रेष्ठ है।
६. स्व-समर्पण हेतु आत्मा के अद्वैत-सच्चिदानंद स्वरूप की भावना : वस्तु स्वरुप के प्रति अहं भाव आये बिना आत्मा-समर्पण नहीं होता। इसी दृष्टि से स्वात्मा विचार करता है कि ‘निश्चय से आत्मा सत्, चित् और आनन्द के साथ अद्वैत रूप ब्रह्म है वह मैं ही हूँ, इस प्रकार निरन्तर अभ्यास से ही मैं अपने निर्मल आत्मा में लीन रहता हूँ (श्लोक ३०)। जो आत्मा को कर्मादिक से सम्बख देखता है वह द्वैत रूप है जबकि जो भव्य- आत्मा अन्य पदार्थों से विभक्त भिन्न अपने को देखता है वह अद्वैत रूप परमब्रह्म को देखता है। अत: अद्वैत स्वरूप की भावना भाओ।
(अ) सत् स्वरूप :
आत्मा स्वचतुष्टय रूप द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की दृष्टि से प्रतिक्षण ध्रौव्य-उत्पत्ति-व्ययात्मक सत् स्वरूप हैं, सत्तावान है। पर-चतुष्टय की दृष्टि से असत् स्वरूप हैं (श्लोक ३१)। जैसा जगत है वैसा मैं कभी नहीं हूँ और जैसा मैं हूँ वैसा जगत कभी नहीं रहा; क्योंकि कथंचित् सर्व पदार्थों की परस्पर विभिन्नता का अनुभव होता है (श्लोक ३२)। पुद्गल में रूपादि गुण, धर्मद्रव्य में गति सहकारिता, अधर्म द्रव्य में स्थिति सहकारिता, कालद्रव्य में परिमणत्व और आकाश द्रव्य में, अवगाहनत्व गुण हैं। सर्वद्रव्यों की अर्थ पर्याय सूक्ष्म और प्रतिक्षण नाशवान है (श्लोक ३८)। जीव और पुद्गल की व्यंजन पर्याय वचन गोचर, स्थिर और मूर्तिक है। प्रत्येक द्रव्य अर्थ-व्यजंन पर्यायमय हैं और वे पर्यायें द्रव्यमय हैं (श्लोक ३९)।
(ब) चित् स्वरूप :
आत्मा ने अनादिकाल से अपने चैतन्य स्वरूप को जाना है, आज भी जान रहा है और अनन्तकाल तक अन्य किसी प्रकार से जानता रहेगा। जानने वाला ध्रुव चेतन द्रव्य मैं हूँ (श्लोक ३३)। प्रत्येक द्रव्य पूर्व पर्याय में नष्ट होता हुआ वर्तमान पर्याय में उत्पनन होता हुआ सत्रूप से सदा स्थिर रहता हुआ ‘यह वही है’ इस प्रकार ज्ञान में लक्षित होता है उसी प्रकार सारा द्रव्य समूह त्रि-गुणात्म्क अनुभव किया जाता है। मैं भी एक चेतन द्रव्य हूँ अत: अनादि संतति से उसी प्रकार अपनी चेतन पर्यायों के द्वारा परिवर्तित हो रहा हूँ और सदा से चेतनामय बना हुआ हूँ (श्लोक ३४-३५) द्रव्य गुण-पर्यायवान हैं। जो सहभावी हैं वे गुण हैं और जो क्रमभावी हैं वे पर्याय हैं। जीवात्मा असाधारण चैतन्य गुण हैं। जो जीव के साथ सदा रहता है और कभी उससे अलग नहीं हो सकता (श्लोक ३६)। स्वात्मा यह भावना भाता है कि जिस प्रकार मुक्ताहार में हार-मोती-शुक्लता पृथक-पृथक होते हुए भी प्रतीति में सभी हार गए हैं उसी प्रकार आत्म द्रव्य में ‘मैं चेतन हूँ, मुझमें चैतन्य हैं और चेतन-पर्यायों में चैतन्य गुण रहता है’, इस प्रकार मैं आत्म द्रव्य में तन्मय हो रहा हूँ, आत्म द्रव्य इनके साथ तन्मय हो रहा है। ऐसी प्रतीत-भावना निरन्तर बनी रहे (श्लोक ४०)।
(स) आनन्द स्वरूप :
चैतन्य गुण के समान आनन्द गुण भी आत्मा का है जो अन्य द्रव्य में नहीं पाया जाता। शुद्ध-स्वात्मा अपने में ही उस शाश्वत आनंद गुण का चिन्तन करता हुआ यह अनुभव करता है कि ऐसा आनंद चक्रवर्ती, इन्द्र, अहमिन्द्र और धरणेन्द्र को भी कभी प्राप्त नहीं होता। यह आनंद गुण अतीन्द्रिय तथा स्वाधीन है जिसके समक्ष सभी लौकिक सुख फीके पड़ते हैं (श्लोक ४१)। ७. हृदय में परब्रह्य स्वरूप के स्फुरण की भावना : आत्मानुभव के लिए उत्सुक स्वात्मा आनन्दमय चैतन्य रूप से प्रकाशित परमब्रह्म की भावना भाता है कि वह इसके मन में सदा स्फुरायमान हो। उसकी इस प्रबल भावना के फल स्वरूप त्रिकर्म से रहित देह-देवालय में विराजमान आत्म प्रभु का साक्षात्कार हो पाता है (श्लोक ७२ भावार्थ)। ८. अन्तर्जल्प के परित्याग एवं आत्म-ज्योति-दर्शन की भावना : स्वात्मा साधक को प्रेरणा दी गयी है कि वह उक्तानुसार भाव-भूमि में ‘मैं ही मैं हूँ’ इस प्रकार के अंतरजल्प से सम्बद्ध आत्मज्ञान की कल्पना में ही न उलझा रहे किन्तु इसका भी त्याग कर-वचन अगोचर अविनाशी-ज्योति का स्वयं अवलोकन करना चाहिए। (श्लोक १९) यहाँ विकल्प-रहित स्वात्म-दर्शन की भावना गायी है।
आत्मदर्शन का उपाया : विकल्प त्याग
‘मैं ही मैं हूँ’ इस अतंरजन्य के त्याग के पश्चात् हृदय जिस-जिसका उल्लेख करता -चित्र खिंचता है, उस-उस को अनात्मा की दृष्टि से- यह आत्मा नहीं है, ऐसा समझ कर छोड़ना चाहिए। उस प्रकार के विकल्पों के उदय न होने पर आत्मा अपने स्वच्छ चिन्मयरूप में प्रकाशमान होता है (श्लोक २०)। इस प्रकार हृदय में विकल्पों के न उठने पर आत्मदर्शन होता है। यह आत्मदर्शन की एक पद्धति है। वह आत्म ज्योति अनन्त पदार्थों के आकार-प्रसार की भूति होने से विश्व रूप हैं और छद्मस्थों के लिये अदृश्य-अलक्ष्य होती हुई भी केवल चक्षुओं से देखी जाती हैं (श्लोक २१)। यह आत्म-ज्योति स्वभाव से विश्वरूपा है।
आत्म ज्योति का लक्षण- अंतरवर्ती एवं उपयोग एवं उसके भेद
वह आत्म- ज्योति क्या है, इसक समाधान में पं. आशाधरजी कहते हैं कि ‘इस आत्म-ज्योति का लक्षण अहंता-दृष्ट के लिये उसका अंतरवर्ती उपयोग है: (श्लोक २२) उपयोग का ‘अन्तर्वर्ती’ विशेषण आत्मा के साथ उसके तादात्म्य-आत्मभूतजा का सूचक है। इसी तथ्य को मुनि रामसिंह ने दोहा पाहुड गाथा १७७ में कहा है कि ‘जैसे नमक पानी में विलीन हो जाता है यदि चित्त निज शुद्धात्मा में विलीन हो जायें तो जीव समरसरूप समाधिमय हो जाये (दोहा पाहुड पुष्ठ २०७)। वस्तु-भेद के न्याय के अनुसार जिन दो में परस्पर लक्षण-भेद होता है वे दो एक-दूसरे से भिन्न होते हैं जैसे जल और अनल (अग्नि)। स्वात्मा और राग-द्वेष-मोह व शरीरादिक में यह लक्षणभेद युक्ति-सिद्ध हैं (श्लोक २३)। चिन्मय आत्मा के स्व और पर अर्थ ग्रहण व्यापार को उपयोग कहते हैं। आत्मा दर्शन और ज्ञान-उपयोग रूप हैं। श्रुति की दृष्टि शब्दगत को दर्शनापयोग और अर्थगत को ज्ञानापयोग कहते हैं (श्लोक २४)। भाव या अनुष्ठान के अनुसार उपयोग के तीन भेद हैं – अशुभ, शुभ और शुद्ध उपयोग। राग-द्वेष-मोह के भाव के द्वारा आत्मा की जो क्रिया-परिणति होती है, वह अशुभ उपयोग है। केवली-प्रणीत धर्म में अनुराग रखने रूप जो आत्मा की परिणति होती है, वह शुभ उपयोग है तथा अपने चैतन्य स्वरूप में लीन होने रूप आत्मा की जो परिणति बनती है, वह शुद्ध उपयोग है (श्लोक ५६)। शुभ-अशुभ से परे शुद्ध उपयोग परम समाधि रूप है।
आत्मा-शुद्धि का सूत्र: शुद्ध उपयोग
राग-द्वेष-मोह से आत्मा का उपयोग मलिन और अशुद्ध होता है। शुद्ध-उपयोग से आत्मा की शुद्धि होती है। शुद्ध उपयोग वह कहलाता है जो राग-द्धेष-मोह रहित होता है। इसी की पुष्टि में कहते हैं कि ‘जो ध्यानी पुरुष स्वयं अपने शुद्ध आत्मा में राग, द्वेष तथा मोह से रहित शुद्ध उपयोग को धारण करता है वह शुद्धि को प्राप्त होता है (श्लोक २५)।
रागादि अविद्या के नाश का सूत्र : उपेक्षा-विद्या
संसार-दुख का मूलकारण पर-वस्तुओं से सुख प्राप्ति की कामना रूप अविद्या है जो राग-द्वेष-मोह रूप हैं। इस अविद्या का छेदन रूप विद्या से होता है। उपेक्षा रागादि के अभाव को कहते हैं। उपेक्षा भाव की वृद्धि के साथ अविद्या का हस और आत्म गुणों का विकास उत्तरात्तर होता है। इसकी पुष्टि में कहते है कि ‘मुझ में जो अविद्या विद्यमान है उसे उपेक्षा नाम की विद्या से निरंतर काटते हुए मुझमें मेरे स्वरूप की प्रकटता होती है और यह प्रकटता क्रम-२ से चरम सीमा को प्राप्त हो जाती है (श्लोक ४२)।’ अत: उपेक्षा-भाव धारण करना इष्ट है। समत्व और उपेक्षा एकार्थी हैं।
आत्मानुभूति की प्रक्रिया
स्वात्मा विचार करता है कि पर्याय दृष्टि से समस्त वस्तुओं के विस्तार-आकार से पूर्ण होता हुआ भी मैं द्रव्यदृष्टि से एक ही हूँ और निश्चयत: किसी भी शब्द का वाच्य नहीं होकर अनिर्वचनीय हूँ (श्लोक ४३)। अतएव इस अनिर्वचनीय परब्रह्म-परमोत्कृष्ट आत्मपद की प्राप्ति के लिये इस सूक्ष्म शब्द-ब्रह्म के द्वारा- सोऽहं इस प्रकार अन्तर्जल्प से -मैं इन मन को संस्कारित करता हूूँ (श्लोक ४०)। पश्चात् आठ पत्रों वाले अधोन्मुख (उलटा) द्रव्यमन रूप कमल में, योग (ध्यान) रूप सूर्य के तेज से विकसित हृदय-कमल के भीतर स्पुâरायमान परंज्योति-स्वरूप मैं हूँ, उसका अनुभव करना चाहिए (श्लोक ४५)। उक्त प्रक्रिया में मोहान्धकार के नष्ट होने और इन्द्रिय तथा मनरूप वायु का संचार रुकने पर यह पर-पदार्थों से शून्य तथा समयग्दर्शनादि आत्मगुणों से अशून्य मैं ही अन्तर्दृष्टि से मेरे द्वारा दिखाई दे रहा हूँ (श्लोक ४६)। इस प्रकार से अपने आपको ही देखता हुआ मैं परम-एकाग्रता को प्राप्त होता हूँ और संवर-निर्जरा दोनों से प्राप्त होने वाले अनंद को भोगता हूँ – और इस दृष्टि से संवर और निर्जरा रूप मैं ही हूँ (श्लोक ४७)। इस प्रकार स्वरूप में लीन योगी अपने में ही अपना दर्शन करता हुआ परम एकाग्रता को प्राप्त होता है, आत्माधीन आनंद को भोगता है। इससे पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा और नवीन कर्मों का आगमन (आस्रव) रुक जाता है और सहज आत्म-विकास साधता है।
आत्मानुभवी योगी की सहज विचार परिणति : भेद-विज्ञान द्वारा अविद्या से समत्व की ओर भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्म से रहित शुद्ध-आत्मा का अनुभव करने वाला भव्य जीव विचार करता है कि ‘शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से अनन्तानंत चैतन्य शक्ति के चक्र का स्वामी होकर मैं अनादि अविद्या के संस्कार से इन्द्रिय एवं शरीर को अपना स्वरूप मानकर की उसकी वृद्धि-हानि में अपनी वृद्धि-हानि मानता रहा (श्लोक ४८-४९)। इसी प्रकार स्व-स्त्री, पुत्रादि के शरीर को अपना मान कर उनके सुख-दुख को अपना सुख-दुख समझ कर भोगा है (श्लोक ५०)। अब मुझे अपनी भूल का ज्ञान हुआ और अब मैं भेद-विज्ञान से अपने तथा दूसरों के आत्मा को आत्म रूप से तथा देह को देह रूप से जानता हुआ निर्विकार साम्य सुधा का आस्वादन कर रहा हँ (श्लोक ५१)।
आत्मयोगी की इन्द्रियदशा
आत्मानुभवी योगी का चित्त वस्तुतत्व के विज्ञान से पूर्ण और वैराग्य से व्याप्त रहता है, तब इन्द्रियों की अनिर्वचनीय दशा हो जाती है। उसकी इन्द्रियाँ न मरी हैं, न जीती हैं, न सोती हैं और न जागती हैं (श्लोक ५२)। जाग्रत रहकर भी वे इन्द्रिय विषयों में प्रवृत्त नहीं होती और विषय अ-ग्रहण में निद्रा जैसी परवशता का कोई कारण नहीं होता। आत्मयोगी का उपयोग तत्त्व-ज्ञान और वैराग्य के सन्मुख बना रहता है। पुरातन संस्कारों के जाग उठने से चित्त में संकल्प-विकल्प जाग्रत होने पर भी अंतरंग में विषद् ज्ञान रूप शुद्ध उपयोग की अविच्छिंन धारा प्रवाहित होती रहेगी और क्या वह कल्पना स्थिति स्मृति किसी वस्तु का स्मरण करेगी? अर्थात् नहीं करेगी ? (श्लोक ५३)।
स्वानुभूति वृद्धि की भावना
आत्मयोगी अपनी स्वानुभूति की वृद्धि की उत्तरोत्तर भावना भाता है और अपने आपको अनुभव करता हुआ राग-द्वेषाादि हेय को छोड़कर आदेय, जो निजरूप है, को ग्रहण कर रत्नत्रयात्मक निज भाव का भोक्ता बना रहे, ऐसी भावना करता है (श्लोक ५४)। शुद्धोपयोग वैâसे होता है किस क्रम से होता है ? शुद्ध-आत्मा सर्वप्रथम अशुभ उपयोग के त्याग सहित श्रुताभ्यास के द्वारा शुभ उपयोग का आश्रय करता है, पश्चात् शुद्ध उपयोग में ही अधिकाधिक स्थिर रहूँ, ऐसी श्रेष्ठ-निष्ठा, भवना भाता है और उसे धारण करता है (श्लोक ५५)। इस प्रकार अशुभ भावों के त्याग और शास्त्राभ्यास (स्वाध्याय) रूप शुभ भावों की प्रवृत्ति सहित शुद्ध उपयोग होता है। अशुभ से निवृत्ति और व्रत-समिति-गुप्ति शुभ में प्रवृत्ति का नाम व्यवहार चारित्र है। शुद्ध उपयोग शुद्धात्मा के आश्रयपूर्वक होता है। अत: शुद्ध उपयोग हेतु शुद्धात्मा की भावना भाना इष्ट है।
शुद्धात्मभावना का फल: ध्यान द्वारा शुद्धात्मा की प्राप्ति
जो शुद्ध स्वरूप परमात्मा है, ‘वही शुद्ध स्वरूप मैं हूूं’, इस प्रकार बारम्बार भावना करने वाले आत्मा के शुद्ध स्वात्मा में जो लय बनता है, वह अनिवर्चनीय योग या समाधि रूप ध्यान कहलाता है (श्लोक ५७)। शुद्ध स्वात्मा के अनुभव काल में राग-द्वेषादि की कल्लोंलें नहीं उठती अन्यथा आत्मदर्शन नहीं हो पाता। इस प्रकार शुद्धात्मा-भावना का फल शुद्धात्मा की प्राप्ति है। शुद्ध-बुद्ध-स्वचिद्रूप परमानन्द में लीन योगी किसी भी भय को प्राप्त नहीं होता। वह निभर्य हुआ परमानन्द का ही अनुभव करता है (श्लोक ५८)। ऐसा योगी परम एकाग्रता को प्राप्त हुआ तथा अशुभ आस्रव को रोकता हुआ और उपार्जित पाप का क्षय करता हुआ, जीवित रहता हुआ भी निर्वृत्त -जीवन्मुक्त है (श्लोक ५९)। जीवन्मुक्त- अवस्था को प्राप्त कराने वाली यह परम-एकाग्रता शुक्लध्यान की एकाग्रता है जिससे चार घातिया कर्म जलकर भस्म हो जाते हैं। ध्यान की यह एकाग्रता अभिनंदनीय है।