इस मध्यलोक में असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। उनमें सर्वप्रथम द्वीप का नाम जम्बूद्वीप है। इसमें दक्षिण दिशा में भरतक्षेत्र के छह खण्डों में एक आर्य खण्ड है। इसमें अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के द्वारा छह काल तक परिवर्तन होते रहते हैं। सुषमा, सुषमा, सुषमा और सुषमा-दु:षमा इन तीन कालों में उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। आगे के दु:षमासुषमा, दु:षमा और दु:षमादु:षमा इनमें अर्थात् चौथे, पांचवें और छठे कालों में कर्मभूमि की व्यवस्था रहती है।
इस चालू अवसर्पिणी में कुछ अघटित घटनाओं के हो जाने से इसे ‘ हुण्डावसर्पिणी ’ नाम दिया है। यह असंख्यातों अवसर्पिणी के बाद आती है। जब तृतीय काल में पल्य का आठवां भाग शेष रह गया था, तब क्रम से
प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान, यशस्वी, अभिचंद्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित् और नाभिराज
ये चौदह कुलकर हुए हैं। भोगभूमि में युगलिया जन्म लेते हैं और वे ही पति-पत्नी का जीवन व्यतीत करते हैं। बारहवें मरुदेव कुलकर के प्रसेनजित् नाम के अकेले पुत्र हुए थे। पुन: पिता ने अपने पुत्र का कुलवती कन्या के साथ विवाह किया था। ऐसे ही प्रसेनजित् के एक अकेले नाभिराय हुए थे। इन्द्र ने नाभिराय का विवाह मरुदेवी कन्या के साथ कराया था।
हरिवंशपुराण में मरुदेवी को शुद्धकुल की कन्या माना है।हरिवंशपुराण सर्ग ७।
जब कल्पवृक्ष का अभाव हो गया, तब नाभिराय और मरुदेवी से अलंकृत पवित्र स्थान में इन्द्र ने एक नगरी की रचना करके उसका नाम ‘‘अयोध्या’’ रख दिया। इसके ‘‘साकेता, विनीता और सुकौशल’’ ऐसे तीन नाम और हैं।महापुराण पर्व १२।
वैदिक ग्रंथों के रुद्रयामल ग्रंथ में इसे विष्णु भगवान का मस्तक माना हैएतद् ब्रह्मविदो वदन्ति मुनयोऽयोध्यापुरी मस्तकम्। हरिवंशपुराण के अनुसार महाराज नाभिराय का कल् कल्पवृक्ष प प्रासाद-भवन बना रह गया। यह इक्यासी खन का ऊंचा था। इसका नाम ‘‘सर्वतोभद्र’’ था। इसी भवन में भगवान ऋषभदेव ने जन्म लिया था।