ऋषभदेव के शिष्य मुनि, बीस हजार प्रमाण।
अनुत्तरों में जा बसे, नितप्रति करूँ प्रणाम।।१।।
अजितनाथ के शिष्य यति, मानें बीस हजार।
विजय आदि में जा बसे, नमूं करें भवपार।।२।।
संभवप्रभु के शिष्य मुनि, बीस हजार प्रमाण।
संयम निधिमय जो नमूं, बसें अनुत्तर जान।।३।।
अभिनंदन के शिष्य मुनि, बारह सहस प्रमाण।
अनुत्तरों में गये हैं, नमूँ नमूँ गुण खान।।४।।
सुमतिनाथ के शिष्य गण, बारह सहस अशेष।
अनुत्तरों में जन्मते, नमत हरूँ भवक्लेश।।५।।
पद्मनाथ के शिष्य ऋषि, बारह सहस गिनेय।
अनुत्तरों में जन्म लिय, नमत सर्वसुख देंय।।६।।
श्री सुपाश्र्व के शिष्य मुनि, हैं बारह हज्जार।
अनुत्तरों में जा बसें, नमूँ करो भवपार।।७।।
चन्द्रनाथ के शिष्यगण, बारह सहस्र मान।
अनुत्तरों में जन्मते, नमत पाप की हान।।८।।
पुष्पदंत के शिष्यगण, ग्यारह सहस प्रसिद्ध।
अनुत्तरों में जन्मते, नमत मिले सब सिद्धि।।९।।
शीतल जिनके शिष्य मुनि, ग्यारह सहस्र अनिंद्य।
अनुत्तरों को पा लिया, सुरनर मुनिगण वंद्य।।१०।।
श्री श्रेयांस के साधुगण, ग्यारह सहस प्रमाण।
लिया अनुत्तर सौख्य को, रत्नत्रय की खान।।११।।
वासुपूज्य के साधुगण, ग्यारह सहस बखान।
चरित शील गुण के धनी, बसे अनुत्तर थान।।१२।।
ग्यारह हजार शिष्यगण, विमलनाथ के तीर्थ।
अनुत्तरों में जन्मते, सुरनर खग से कीर्त।।१३।।
अनंत जिनके संयमी, दश हजार मुनिनाथ।
अनुत्तरों में हैं गये, नमूँ जोड़ जुग हाथ।।१४।।
धर्मनाथ के साधुगण, दश हजार विख्यात।
रत्नत्रय गुणमणि भरे, गये अनुत्तर खास।।१५।।
शांतिनाथ के शिष्य यति, दश हजारगुणधाम।
स्वात्मसिद्धि हित मैं नमूँ, लिया अनुत्तर धाम।।१६।।
कुंथुनाथ के शिष्य मुनि, दश हजार विख्यात।
अनुत्तरों में राजते, नमत करें सुख सात।।१७।।
अरजिनवर के साधुगण, दश हजार जगसिद्ध।
अनुत्तरों को पावते, वंदत सौख्य समृद्ध।।१८।।
मल्लिनाथ के साधु सब, अट्ठासी सौ मान्य।
अनुत्तरों में जा बसे, नमत भरें धन धान्य।।१९।।
मुनिसुव्रत के शिष्यगण, अट्ठासी सौ ख्यात।
महाव्रतों से पूर्ण हो, किया अनुत्तर वास।।२०।।
नमिनाथ के साधुगण, अट्ठासी सौ सिद्ध।
यम नियमों को पूर्णकर, लिया अनुत्तर इष्ट।।२१।।
नेमिनाथ के साधुगण, अट्ठासी सौ जान।
शील गुणों को पूर्णकर, लिया अनुत्तर थान।।२२।।
पाश्र्वनाथ के साधुगण, अट्ठासी सौ मान्य।
अनुत्तरों को प्राप्त कर, हुये सर्वजन मान्य।।२३।।
वर्धमान के शिष्यगण, अट्ठासी सौ सिद्ध।
अनुत्तरों में जा बसे, भरें सर्वनिधि ऋद्धि।।२४।।
विजय वैजयंता जयंत अपराजित अरु सर्वारथसिद्ध।
पाँच अनुत्तर ये माने हैं, इन्हें लहें रत्नत्रय इद्ध।।
दोय लाख सु हजार सतत्तर, आठ शतक निज पर ज्ञानी।
चौबीसों जिनवर के मुनिगण, गये अनुत्तर सुखदानी।।२५।।
वर्ण गंध रस स्पर्श से, शून्य स्वात्म का ध्यान।
किया नित्य उनको नमूँ, करें सर्व कल्याण।।२६।।