गीता छंद
तीर्थंकरों के तीर्थ में अनुबद्ध केवलि जिन हुये।
बहुतेक यतिगण शिव गये बहुतेक अनुत्तर गये।।
बहुतेक मुनि सौधर्म आदिक ग्रैवेयक तक भी गये।
उन सर्व यति की यहां वंदना करते सब सुख भये।।१।।
शंभु छंद
जिस दिन तीर्थंकर मुक्ति गये उस दिन हो केवलज्ञान जिन्हें।
फिर उनके मुक्ती जाते ही जो मुनि उस दिन केवली बनें।।
इस तरह श्रृंखला नहिं टूटे अनुबद्ध केवली होते हैं।
उनके चरणों का वंदन कर हम कर्म कालिमा धोते हैं।।२।।
चामर छंद
आदिनाथ के चुरासि आनुबद्ध केवली।
स्वात्म सौख्य दे सके इन्हों कि भक्ति एकली।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।३।।
आनुबद्ध केवली चुरासि अजितेश के।
मुक्ति वल्लभा वरी सुजात रूप धार के।।इष्ट.।।४।।
संभवेश के चुरासि केवली अनुक्रमे।
देव इंद्र खेचरादि आप पाद में रमें।।इष्ट.।।५।।
नाथ अभीनंदनेश के चुरासि केवली।
एक बाद एक आनुबद्ध पात्रता भली।।इष्ट.।।६।।
नाथ सुमति के चुरासि आनुबद्ध केवली।
पाद धारते जहाँ पे पूज्य हो वही थली।।इष्ट.।।७।।
पद्मनाथ के चुरासि केवली अनुक्रमे।
पादपद्म मैं नमूँ निजात्म सौख्य पावने।।इष्ट.।।८।।
श्री सुपाश्र्व के चुरासि आनुपूव्र्य१ केवली।
वंदते अनंत जन्म की सभी व्यथा टली।।इष्ट.।।९।।
चंद्रनाथ के चुरासि आनुबद्ध केवली।
वंदते निजात्म तत्त्व की कली कली खिली।।इष्ट.।।१०।।
पुष्पदंत के चुरासि आनुपूव्र्य केवली।
पादपद्म के नमें समस्त आपदा टली।।इष्ट.।।११।।
शीतलेश के चुरासी आनुबद्ध केवली।
नाम मात्र लेवते निजात्म संपदा मिली।।इष्ट.।।१२।।
श्री श्रेयांस के नुबद्ध केवली बहत्तरा।
घाति घात के अघाति घातते जिनेश्वरा।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।१३।।
वासुपूज्य के चवालिसों-नुबद्ध केवली।
घाति घातते उन्हें अनंत सम्पदा मिली।।इष्ट.।।१४।।
नाथ विमल के सु चालिसों नुबद्ध केवली।
तीन रत्न पावते हि सिद्धि वल्लभा मिली।।इष्ट.।।१५।।
श्री अनंत के नुबद्ध केवली छतीस हैं।
सर्वकर्म नाश राजते त्रिलोक शीश हैं।।इष्ट.।।१६।।
धर्मनाथ के नुबद्ध केवली बतीस हैं।
धर्म प्राण भव्य जीव से हि पूजनीक हैं।।इष्ट.।।१७।।
शांतिनाथ के नुबद्ध केवली अठाइसे।
नाम लेत ही अपूर्व सौख्य शांति हो वशे।।इष्ट.।।१८।।
कुंथु के नुबद्ध केवली सु चार बीस हैं।
मृत्यु मल्ल मार के बसें त्रिलोक शीश हैं।।इष्ट.।।१९।।
नाथ अरह के नुबद्ध केवली सु बीस हैं।
देव इंद्र चक्रवर्ति वंद्य सर्व ईश हैं।।इष्ट.।।२०।।
मल्लिनाथ के सु सोलहों नुबद्ध केवली।
धर्म अर्थ काम मोक्ष साध के हुये बली।।इष्ट.।।२१।।
सुव्रतेश के हि बारहों नुबद्ध केवली।
संयमादि धार के अनंत वीर्य से बली।।इष्ट.।।२२।।
आनुबद्ध केवली नमीश के सु आठ हैं।
भव्य वृन्द के सदैव सर्व ठाठ बाट हैं।।इष्ट.।।२३।।
नेमिनाथ के सु चार आनुबद्ध केवली।
मैं नमूँ उन्हे सदैव स्वात्म ज्योति हो भली।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।२४।।
पाश्र्वनाथ के नुबद्ध केवली सु तीन ही।
वंदते उन्हें निजात्म भेद ज्ञान हो सही।।इष्ट.।।२५।।
वीरनाथ के सु तीन आनुबद्ध केवली।
गौतमो सुधर्मसूरि जंबुस्वामि केवली।।इष्ट.।।२६।।
दोहा
ग्यारह सौ व्यासी कहे, अनुक्रम केवलि ईश।
या तेरह सौ सत्तरे, नमू नमूँ नत शीश।।२७।।
अनुक्रम केवलि मुक्तिपद, प्राप्त स्वात्म पद प्राप्त।
ज्ञानमती वैवल्य हित, नमूं मिटे भवताप।।२८।।
सोरठा
ऋषभदेव के शिष्य, साठ सहस नौ सौ कहे।
लिया मुक्ति पद नित्य, नितप्रति वंदूं भाव सों।।१।।
अजितनाथ के साधु, रत्नत्रय निधि के धनी।
सतहत्तर सु हजार, इक सौ यतिगण शिव गये।।२।।
संभव के इक लाख, सत्तर सहस सु एक सौ।
मुक्ति गये मुनिनाथ, वंदत समकित निधि मिले।।३।।
दोय लाख अस्सी, सहस एक सौ यतिवरा।
हता मृत्यु हस्ती, अभिनंदन के शिष्य ये।।४।।
सुमतिनाथ के शिष्य, तीन लाख सोलह शतक।
लिया स्वात्मपद नित्य, ज्ञान ज्योति कीजे नमूँ।।५।।
पद्मप्रभू के शिष्य, तीन लाख चौदह सहस।
लिया मुक्ति पद नित्य, वंदत जिन गुण संपदा।।६।।
द्विलाख पच्चासीय, हजार छह सौ मुनिवरा।
जिन सुपाश्र्व के शिष्य, मुक्ति गये मैं नित नमूं।।७।।
चंद्रप्रभु के शिष्य, दोय लाख चौंतिस सहस।
मुक्ति वल्लभा नित्य, पाई वंदत अघ टले।।८।।
सुविाधनाथ के शिष्य, इक लख उन्यासी सहस।
छह सौ शिव परिणीय, वंदत दुख दारिद टले।।९।।
शीतल के मुनिनाथ, अस्सी हजार छै शतक।
सिद्धिवधू के नाथ, नमते संयम निधि मिले।।१०।।
जिन श्रेयांस के शिष्य, पैंसठ हजार छह शतक।
मुक्तिरमा के प्रीय, नमत पुत्र पौत्रादि सुख।।११।।
वासुपूज्य के शिष्य, चौवन हजार छह शतक।
लिया मोक्ष सुख नित्य, नमत मिले धन संपदा।।१२।।
विमलनाथ के शिष्य, सहस इक्यावन तीन सौ।
मुक्ति वधू से प्रीत्य, नमत सर्व व्याधी नशे।।१३।।
जिन अनंत के शिष्य, इक्यावन्न हजार हैं।
शाश्वत सुख रस पीय, नित्य निरंजन सिद्ध हैं।।१४।।
उनंचास हज्जार, सात शतक मुनि शिव गये।
अनवधिगुण भंडार, नमूँ शिष्य प्रभु धर्म के।।१५।।
शांतिनाथ के शिष्य, सहस अड़तालिस१ चार सौ।
लिया शांति सुख नित्य, नमूँ शांतिपद के लिये।।१६।।
कुंथुनाथ के शिष्य, छ्यालिस हजार आठ सौ।
मुक्ति वधू के प्रीत्य, नमत जन्म मृत्यू टले।।१७।।
अरहनाथ के शिष्य, सैंतिस हजार दोय सौ।
पाया शिव सुख नित्य, नमत रोग पीड़ा नशे।।१८।।
मल्लिनाथ के शिष्य, सहस अठाइस आठ सौ।
गये शिवालय नित्य, मृत्यु मल्ल को मार के।।१९।।
मुनिसुव्रत के शिष्य, उन्निस हजार दोय सौ।
लिया स्वात्मपद नित्य, वंदत संतति सुख बढ़े।।२०।।
नमितीर्थंकर शिष्य, नौ हजार छह सौ यती।
लिया मुक्तिपद नित्य, वंदत ही सुख संपदा।।२१।।
नेमिनाथ के शिष्य, आठ हजार तपोधना।
लिया मोक्षपद नित्य, वंदत रत्नत्रय मिले।।२२।।
पाश्र्वनाथ के शिष्य, बासठ सौ मुनिगण भरे।
किया ज्ञान सुख नित्य, वंदत सब संकट हरें।।२३।।
महावीर जिन शिष्य, चवालिस सौ नग्न यति।
प्राप्त किया सुख नित्य, वंदत जिन गुण संपदा।।२४।।
शंभु छंद
वृषभादि शांतिजिन तक सुशिष्य, केवलोत्पत्ति दिन मोक्ष गये।
शेष आठ तीर्थकर ये यतिगण, छह महिने तक में मोक्ष गये।।
कुंथू अर मल्लि सुव्रत के, क्रम से इक दो त्रय छह महिने।
नमि नेमि पाश्र्व वीर जिन के, क्रम से इक दो त्रय छह महिने।।२५।।
दोहा
चौबिस लख चौंसठ सहस, चार शतक परिमाण।
चौबिस जिनके शिष्य शिव, गये नमूं धर ध्यान।।२६।।
दोहा
ऋषभदेव के शिष्य मुनि, बीस हजार प्रमाण।
अनुत्तरों में जा बसे, नितप्रति करूँ प्रणाम।।१।।
अजितनाथ के शिष्य यति, मानें बीस हजार।
विजय आदि में जा बसे, नमूं करें भवपार।।२।।
संभवप्रभु के शिष्य मुनि, बीस हजार प्रमाण।
संयम निधिमय जो नमूं, बसें अनुत्तर जान।।३।।
अभिनंदन के शिष्य मुनि, बारह सहस प्रमाण।
अनुत्तरों में गये हैं, नमूँ नमूँ गुण खान।।४।।
सुमतिनाथ के शिष्य गण, बारह सहस अशेष।
अनुत्तरों में जन्मते, नमत हरूँ भवक्लेश।।५।।
पद्मनाथ के शिष्य ऋषि, बारह सहस गिनेय।
अनुत्तरों में जन्म लिय, नमत सर्वसुख देंय।।६।।
श्री सुपाश्र्व के शिष्य मुनि, हैं बारह हज्जार।
अनुत्तरों में जा बसें, नमूँ करो भवपार।।७।।
चन्द्रनाथ के शिष्यगण, बारह सहस्र मान।
अनुत्तरों में जन्मते, नमत पाप की हान।।८।।
पुष्पदंत के शिष्यगण, ग्यारह सहस प्रसिद्ध।
अनुत्तरों में जन्मते, नमत मिले सब सिद्धि।।९।।
शीतल जिनके शिष्य मुनि, ग्यारह सहस्र अनिंद्य।
अनुत्तरों को पा लिया, सुरनर मुनिगण वंद्य।।१०।।
श्री श्रेयांस के साधुगण, ग्यारह सहस प्रमाण।
लिया अनुत्तर सौख्य को, रत्नत्रय की खान।।११।।
वासुपूज्य के साधुगण, ग्यारह सहस बखान।
चरित शील गुण के धनी, बसे अनुत्तर थान।।१२।।
ग्यारह हजार शिष्यगण, विमलनाथ के तीर्थ।
अनुत्तरों में जन्मते, सुरनर खग से कीर्त।।१३।।
अनंत जिनके संयमी, दश हजार मुनिनाथ।
अनुत्तरों में हैं गये, नमूँ जोड़ जुग हाथ।।१४।।
धर्मनाथ के साधुगण, दश हजार विख्यात।
रत्नत्रय गुणमणि भरे, गये अनुत्तर खास।।१५।।
शांतिनाथ के शिष्य यति, दश हजारगुणधाम।
स्वात्मसिद्धि हित मैं नमूँ, लिया अनुत्तर धाम।।१६।।
कुंथुनाथ के शिष्य मुनि, दश हजार विख्यात।
अनुत्तरों में राजते, नमत करें सुख सात।।१७।।
अरजिनवर के साधुगण, दश हजार जगसिद्ध।
अनुत्तरों को पावते, वंदत सौख्य समृद्ध।।१८।।
मल्लिनाथ के साधु सब, अट्ठासी सौ मान्य।
अनुत्तरों में जा बसे, नमत भरें धन धान्य।।१९।।
मुनिसुव्रत के शिष्यगण, अट्ठासी सौ ख्यात।
महाव्रतों से पूर्ण हो, किया अनुत्तर वास।।२०।।
नमिनाथ के साधुगण, अट्ठासी सौ सिद्ध।
यम नियमों को पूर्णकर, लिया अनुत्तर इष्ट।।२१।।
नेमिनाथ के साधुगण, अट्ठासी सौ जान।
शील गुणों को पूर्णकर, लिया अनुत्तर थान।।२२।।
पाश्र्वनाथ के साधुगण, अट्ठासी सौ मान्य।
अनुत्तरों को प्राप्त कर, हुये सर्वजन मान्य।।२३।।
वर्धमान के शिष्यगण, अट्ठासी सौ सिद्ध।
अनुत्तरों में जा बसे, भरें सर्वनिधि ऋद्धि।।२४।।
चौबोल छंद
विजय वैजयंता जयंत अपराजित अरु सर्वारथसिद्ध।
पाँच अनुत्तर ये माने हैं, इन्हें लहें रत्नत्रय इद्ध।।
दोय लाख सु हजार सतत्तर, आठ शतक निज पर ज्ञानी।
चौबीसों जिनवर के मुनिगण, गये अनुत्तर सुखदानी।।२५।।
दोहा
वर्ण गंध रस स्पर्श से, शून्य स्वात्म का ध्यान।
किया नित्य उनको नमूँ, करें सर्व कल्याण।।२६।।
(सौधर्मादि से ग्रैवेयक तक प्राप्त हुये मुनि स्तोत्र)
रोला छंद
ऋषभदेव के शिष्य, तीन हजार सु इक सौ।
सौधर्मादिक स्वर्ग, प्राप्त किया मुनिपद सों।।
वंदूं शीश नमाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय, पेर न भव में आऊँ।।१।।
अजितनाथ के शिष्य, उनतिस सौ गुणधारी।
सौधर्मादिक स्वर्ग, प्राप्त किया सुखकारी।।वंदूं.।।२।।
संभव जिनके शिष्य, निन्यानवे शतक हैं।
स्वर्गादिक सुख दिव्य, प्राप्त किया गुणभृत हैं।।वंदूं.।।३।।
अभिनदंन के शिष्य, उन्यासी सौ मानो।
गुणमणि भूषित नित्य, पाया दिव सरधानो।।वंदूं.।।४।।
सुमतिनाथ के शिष्य, चौंसठ सौ तपधारे।
ध्यानाध्ययन सुप्रीति, पाया दिवपद सारे।।वंदूं.।।५।।
पद्मप्रभू के शिष्य, चार हजार मुनी हैं।
स्वर्गादिक सुख दिव्य, पाया ज्ञान धनी हैं।।वंदूं.।।६।।
श्री सुपाश्र्व के शिष्य, चौबिस सौ मुनिपद में।
जातरूप धर दिव्य, सुख पाया स्वर्गन में।।वंदूं.।।७।।
चंद्रनाथ के शिष्य, चार हजार बखाने।
नग्नरूप धर दिव्य, सुख पाया मनमाने।।वंदूं.।।८।।
पुष्पदंत के शिष्य, चौरानवे शतक हैं।
धर्मध्यान से सिद्ध, प्राप्त किया दिवपद है।।वंदूं.।।९।।
शीतल जिनके शिष्य, चौरासी सौ कहिये।
समकित गुण से दिव्य, पद पाया सरदहिये।।वंदूं.।।१०।।
जिन श्रेयांस के शिष्य, चौहत्तर सौ जानो।
रत्नत्रय से दिव्य, पद पाया सुख ठानो।।
वंदूं शीश नवाय सब दुख शोक नशाऊँ।
आतम निधि को पाय,फेर न भव में आऊँ।।११।।
वासुपूज्य के शिष्य, चौंसठ सौ गुणभृत हैं।
नमूँ नमूँ मैं नित्य, प्राप्त किया दिवपद है।।वंदूं.।।१२।।
विमलनाथ के शिष्य, सत्तावन सौ मुनि हैं।
विमल गुणों से कीत्र्य, स्वर्ग विभूति फलत है।।वंदूं.।।१३।।
प्रभु अनंत के शिष्य, पाँच हजार कहाये।
अठरह हजार शील, भेद धरें दिव पायें।।वंदूं.।।१४।।
धर्मनाथ के शिष्य, तेतालिस सौ गिनये।
दश धर्मों के ईश, करें प्राप्त दिव सुख ये।।वंदूं.।।१५।।
शांतिनाथ के शिष्य, छत्तिस सौ संयत हैं।
धर्मामृत को पीय, प्राप्त किया दिवपद है।।वंदूं.।।१६।।
कुंथुनाथ के शिष्य, बत्तिस सौ संयत हैं।
दु:ख भवार्णवतीर्य, प्राप्त करें दिवपद हैं।।वंदूं.।।१७।।
अरहनाथ के शिष्य, अट्ठाइस सौ जानो।
गुणधर गणधर प्रीत्य, उनकी पूजा ठानों।।वंदूं.।।१८।।
मल्लिनाथ के शिष्य, चौबिस सौ संयत हैं।
मूल गुणट्ठाईस, धरें लहें दिवपद हैं।।वंदूं.।।१९।।
मुनिसुव्रत के शिष्य, दो हजार मुनि मणि हैं।
सर्व गुणों से पूज्य, लहें स्वर्ग सुखमणि हैं।।वंदूं.।।२०।।
नमि प्रभु के मुनि शिष्य, सोलह सौ गिन लीजे।
करके गुरुवर भक्ति, दु:ख जलांजलि दीजे।।वंदूं.।।२१।।
नेमिनाथ के शिष्य, बारह सौ परिमाणे।
उनकी श्रद्धा भक्ति, भव भव के दुख हाने।।वंदूं.।।२२।।
पाश्र्वनाथ के शिष्य, एक हजार कहाये।
सब गुणमणि से पूर्ण, भव भव भ्रमण मिटायें।।वंदूं.।।२३।।
वर्धमान के शिष्य, मुनी आठ सौ गाये।
उनकी नितप्रति भक्ति, करके सौख्य बढ़ाये।।वंदूं.।।२४।।
शंभु छंद
सब मूलोत्तर गुण से पूरित, यम नियम शील श्रुत विनय धरें।
ये भावलिंग मुनिगण नित ही, तप संयम से शिव निकट करें।।
इक लाख पाँच हज्जार आठ सौ, अंत समाधी करते हैं।
सौधर्म स्वर्ग से लेकर के, ग्रैवेयक तक सुर बनते हैं।।
दोहा
इनकी श्रद्धा भक्ति से, संयम रत्न लभेय।
नमूँ नमूँ गुरु प्रीति से, आतम सुख विलसेय।।२५।।
प्रत्येक तीर्थकर तीरथ में, दश दश मुनि घोर उपसर्ग सहें।
उसमें ही केवलज्ञान पाय, तत्क्षण मुक्ती पद सौख्य लहें।।
श्री वीरतीर्थ में नमि मतंग, सोमिल व रामसुत सूदर्शन।
यमलीक बलीक सु किष्बिल पालंब अष्टसुत दुखभंजन।।
दश दशांतकृत केवली, दो सौ चालिस सर्व।
नमूँ नमूँ मुझको मिले, गुण सहिष्णु सर्वस्व।।२६।।
प्रत्येक तीर्थ में दश दश मुनि, दारुण उपसर्ग सहन करके।
पंचानुत्तरों में जन्म लहें, दशनाम सु अंतिम जिनवर के।।
ऋषिदास धन्य सु नक्षत्रमुनि, कार्तिकेय आनंद नंदन।
गुरु शालिभद्र मुनिअभय वारिषेण चिलात सुत का अभिवंदन।।
दश दश मुनि उपसर्ग सह, अनुत्तरों में जांय।
दो सौ चालिस मुनि नमूँ, सर्वोपसर्ग नशाय।।२७।।
दोहा
तीर्थंकर शिष्यत्व का, जिन्हें मिला सौभाग्य।
नमूँ नमूँ उनको सदा, उन्हें मुक्ति सुखसाध्य।।१।।
शखरिणी छंद
नमूँ अर्हन्मुद्रा नगनतन दिग्वस्त्र धरते।
नमूँ तीर्थंकर के निकट व्रत दीक्षादि धरते।।
नमूँ संयम शील प्रभृति बहुयोगादि धरते।
सदा ध्याते आत्मा समरस सुधास्वाद चखते।।२।।
अहो स्वात्मा नंते दरश सुख ज्ञानादि सहिता।
अनादी से शुद्धा करम मल दोषादि रहिता।।
नहीं ध्याते ऐसे विमल गुण पूरित स्वयम् को।
दुखी वे ही होते भ्रमत जग में भूल पथ को।।३।।
मुनी सच्चे वो ही धरत अठविस मूलगुण जो।
तपें बारह तप जो परिषह सहें बाइसहिं जो।।
सदा स्वाध्यायी भी सतत निज को शुद्ध समझें।
सदा ज्ञानी ध्यानी स्वपर विद हों स्वात्म निरखें।।४।।
खड़े भूभृत् चोटी गरम ऋतु में आतपन में।
नदी तीरे तिष्ठें शरद ऋतु में स्वात्म सुख में।।
तरू नीचे बैठें जलद बरसें बूँद टपवें।
धरें त्रै योगों को मगन बहुतें साम्यरस में।।५।।
सहें उपसर्गों को क्षपक श्रयणीं माहिं चढ़के।
सभी घाती घातें उदित रवि कैवल्य चमके।।
सुबोधे भव्यों को मधुर हित पीयूष वच से।
अघाती को घातें समय इक में मोक्ष पहुँचें।।६।।
मुनी धर्मध्यानी विविध गुण रत्नों सहित हों।
अनुत्तर में जन्में, इक द्वय भवों लेय शिव हों।।
कदाचित् स्वर्गों में जनम धरतें फेर क्रम से।
वरें मुक्ती कन्या अधिक भव में ना भ्रमत वे।।७।।
जहाँ ऐसे साधु विचरण करें प्रेम सब में।
न हों दुर्भिक्षादी सतत शुभ क्षेमादि जग में।।
फलें सबही खेती छह ऋतु फलें एक पल में।
महा व्रूरादी भी पशु गण धरें प्रीति सब में।।८।।
जयो साधू सर्वे नमहुँ कर जोड़े सतत में।
मिले सम्यक्त्वादी निजगुण मुझे एक क्षण में।।
नहीं होवे मेरा जनम धरना पेर जग में।
यही माँगू केवल ज्ञानमति हो नाथ मुझ में।।९।।
(तीर्थंकर आयु स्तोत्र)
शंभु छंद
तीर्थंकर प्रभु अंतिम नरायु, पाकर आयू का अंत करें।
फिर काल अनंतानंतों तक, परमानंदामृत पान करें।।
जो प्रभु की आयु नमें वे क्रम से, नर सुर की पूर्णायु धरें।
छ्यासठ हजार त्रयशत छत्तिस, भव क्षुद्र सभी निर्मूल हरें।।१।।
श्री आदिनाथ सुकुमार काल, है बीस लाख वर्ष पूरव।
है त्रेसठ लाख पूर्व का राज्य, समय छद्मस्थ सुहजार बरस।।
केवली काल हज्जार बरस, कम एक लाख पूरब माना।
चौरासीलाख पूर्व आयु को, वंदत सुख संपति नाना।।२।।
जिन अजित अठारह लाख पूर्व, कौमार काल, पुनि राज्य काल।
पूर्वांग एक युत त्रेपन लाख, सुपूर्व पुन: छद्मस्थ काल।।
यह बारह वर्ष पुन: सु बारह, वर्ष एक पूर्वांग शून्य।
केवली काल इक लाख पूर्व, पूर्णायु बहत्तर लाख पूर्व।।३।।
संभव जिनका कौमार काल, है पंद्रह लाख पूर्व माना।
अरु राज्य चवालिस लाख पूर्व, पूर्वांग चार युत सरधाना।।
छद्मस्थ सु चौदह वर्ष केवली, एक लाख पूरब में कम।
चौदह सु वर्ष पूर्वांग चार, पूर्णायु साठ लख पूर्व नमन।।४।।
अभिनंदन का कौमार्य पूर्व, बारह सु लाख पच्चास सहस।
है राज्य आठ पूर्वांग छत्तीस, लाख पूर्व पच्चास सहस।।
छद्मस्थ अठारह वर्ष केवली, एक लाख पूरब में कम।
अठरह सुवर्ष पूर्वांग आठ, पूर्णायु पचास लख पूर्व नमन।।५।।
श्रीसुमति कुमार पूर्व दसलख, अरुराज्य द्विदश पूर्वांग सहित।
उन्तीस लाख वर्ष पूरब, छद्मस्थ बीस ही वर्ष कथित।।
इक लाख पूर्व में बीस वर्ष, बारह पूर्वांग कम केवलि का।
पूर्णायू चालिस लाख पूर्व, वंदत नशती अपमृत्यु घटा।।६।।
पद्मप्रभु का कौमार पूर्व, लख सात पचास हजार कहा।
इक्किस लख सहस पचास पूर्व, सोलह पूर्वांग तक राज्य रहा।।
छद्मस्थ माह छह पुनि केवलि, इक लाख पूर्व में कम जानो।
छह माह, सोलह पूर्वांग पूर्ण, आयु लख तीस पूर्व मानो।।७।।
सूपारस जिन कौमार्य पांच, लख पूर्व राज्य पूर्वांग बीस।
चौदह लख पूर्व तथा छद्मस्थ, काल नौ वर्ष हुआ व्यतीत।।
नौ वर्ष बीस पूर्वांग हीन, इक लाख पूर्व केवलि जानो।
पूर्णायु बीस लख पूर्व नमूं, दीर्घायु स्वास्थ्य मिलता मानो।।८।।
चंदा प्रभु का कौमार्य दोय, लाख सहस पचास पूर्व जानो।
छह लाख पचास हजार पूर्व, चौबिस पूर्वांग राज्य मानो।।
छद्मस्थ मास त्रय केवलि में, त्रिमास चौबिस पूर्वांग हीन।
इक लाख पूर्व है पूर्णायू, दश लाख पूर्व नमते प्रवीण।।९।।
जिन पुष्पदंत कौमार्य पूर्व, पच्चास सहस पुनि राज्य काल।
पच्चास सहस पूरब अट्ठाइस, पूर्वांग पुन: छद्मस्थ काल।।
चउ वर्ष बाद केवलि चउ, वर्ष अट्ठाईस पूर्वांग हीन।
इक लाख पूर्व पूर्णायु द्विलख, पूरब वंदत ही दु:ख क्षीण।।१०।।
शीतल जिनका कौमार्य पूर्व, पच्चीस सहस पुनि राज्य काल।
पच्चास हजार पूर्व नंतर, छद्मस्थ वर्ष त्रय तप: काल।।
त्रय वर्ष हीन पच्चीस हजार, पूर्व केवलि का समय कहो।
इक लाख पूर्व पूर्णायु नमत, दीर्घायु मिले तनु स्वस्थ लहो।।११।।
श्रेयांसनाथ कौमार्य वर्ष, इक्कीस लाख पुनि राज्य काल।
ब्यालिस लख वर्ष पुन: दो वर्ष, मात्र तप का छद्मस्थ काल।।
केवली समय दो वर्ष न्यून, इक्कीस लाख ही वर्ष कहा।
पूर्णायु चुरासी लाख वर्ष, वंदत आकस्मिक दु:ख दहा।।१२।।
जिन वासुपूज्य कौमार्य अठारह, लाख वर्ष नहिं राज्य किया।
प्रभु बाल ब्रह्मचारी छद्मस्थ, काल इक वर्ष व्यतीत किया।।
इक वर्ष हीन चौवन लाख, वर्षों तक केवलि भगवान रहे।
पूर्णायु बहत्तर लाख वर्ष, वंदत ही आधी व्याधि दहें।।१३।।
जिन विमलनाथ कौमार्य वर्ष, पंद्रह लख नंतर राज्य काल।
वह तीस लाख वर्ष नंतर, त्रय वर्ष मात्र छद्मस्थ काल।।
त्रय वर्ष हीन पंद्रह सु लाख, वर्षों तक केवलि काल आप।
पूर्णायु वर्ष है साठ लाख, मैं वंदूं नाशूँ सकल ताप।।१४।।
जिनवर अनंत कौमार्य वर्ष है, सात लाख पच्चास सहस।
है राज्य वर्ष पंद्रह सु लाख, छद्मस्थ तपस्या दोय बरस।।
लख सात उनंचास सहस नवसौ, अट्ठानवे वर्ष केवलि का।
पूर्णायु वर्ष है तीस लाख, वंदत पाऊँ भवदधि नौका।।१५।।
श्री धर्मनाथ कौमार्य काल, दो लाख पचास हजार बरस।
है राज्य काल पण लाख बरस, छद्मस्थ तपस्या एक बरस।।
दो लाख उनचास हजार नौ सौ, निन्यान्वे बरस केवली का।
पूर्णायु है दश लाख बरस, मैं वंदत पाऊँ फल नीका।।१६।।
श्री शांतिनाथ कौमार्य काल, पच्चीस हजार बरस सुखप्रद।
मंडलेश्वर पच्चिस सहस बरस, चक्रित्व पचीस हजार बरस।।
तप सोलह वर्ष पुन: चौबीस, हजार सु नवसौ चौरासी।
केवली काल के वर्ष नमूं, आयू इक लाख बरस तक की।।१७।।
जिन कुंथुनाथ कौमार्य सु तेइस, सहस सात सौ पचास वर्ष।
इनते ही बरस मंडलेश्वर, फिर इतने ही चक्रीश बरस।।
तप सोलह वर्ष पुन: तेईस, हजार सात सौ चौंतिस तक।
इनते वर्षों केवली नमूं, पूर्णायु पंचान्वे सहस बरस।।१८।।
अरनाथ प्रभू कौमार्य सहस, इक्कीस वर्ष पुन राज्य काल।
इतना ही समय मंडलेश्वर, पुन: इतना ही चक्रित्व काल।।
तप सोलह वर्ष केवली बीस, हजार सु नवसौ चौरासी।
ये वर्ष पुन: पूर्णायु चुरासी, हजार सहस गुण की राशी।।१९।।
श्री मल्लिनाथ कौमार्य काल, सौ वर्ष न उनने राज्य किया।
ब्रह्मचारी रह दीक्षा लेली, छद्मस्थ काल छह दिवस लिया।।
फिर चौवन सहस आठ सौ, निन्यानवे वर्ष ग्यारह महिने।
चौबिस दिन तक केवली आयु, पचपन हजार बरस गिनने।।२०।।
मुनिसुव्रत जिन कौमार्य सात, हज्जार पाँच सौ वर्ष कहा।
पुनि राज्य काल पंद्रह हजार, वर्षों तप ग्यारह माह रहा।।
केवली काल चौहत्तर सौ, निन्यान्वे वर्ष माह इक है।
पूर्णायू तीस हजार वर्ष, वंदत मनुष्य दीर्घायुष हैं।।२१।।
नमिनाथ कुमारकाल पच्चिस, सौ वर्ष राज्य पण सहस वर्ष।
तप नौ बरस केवली दो, सहस चउसों इक्यानवे वर्ष।।
पूर्णायू दश हज्जार वर्ष, जो जिन आयुष को नमते हैं।
वे सब दुर्घटना अपमृत्यू को, टाल चिरायू बनते हैं।।२२।।
जिन नेमिनाथ कौमार्य तीन, सौ वर्ष पुन: नहिं राज्य किया।
ब्रह्मचारी रह दीक्षा ले ली, छप्पन दिन तक तप घोर किया।।
छह सौ निन्यान्वे वर्ष मास, दस चार दिवस केवली रहे।
पूर्णायू एक हजार वर्ष, हम वंदे शोक विषाद दहें।।२३।।
प्रभु पाश्र्वनाथ कौमार्य काल, बस तीस बर्ष नहिं राज्य किया।
प्रभु बाल ब्रह्मचारी दीक्षित, चउ महिने मौन विहार किया।।
उनहत्तर वर्ष आठ महिने, केवलि प्रभु धर्मुपदेश दिया।
सौ वर्ष आयु मैं वंदूं नित, जिससे प्रभु ने शिव सौख्य लिया।।२४।।
महावीर प्रभू कौमार्य काल, बस तीस बरस नहिं राज्य किया।
प्रभु बाल ब्रह्मचारी दीक्षा, लेकर तप बारह वर्ष किया।।
पुनि तीस वर्ष केवलज्ञानी, प्रभु समवसरण में उपदेशा।
पूर्णायु बहत्तर वर्ष नमूँ, नमते मृत्युंजय पद होता।।२५।।
तीर्थकर पुण्य माहात्म्य मुनि गावते।
इंद्र नागेंद्र चक्रेंद्र शिर नावते।।२६।।
नाथ का काल कौमार्य जो वंदते।
देव बालक बनें संग उन खेलते।।तीर्थ.।।२७।।
राज्य का काल जो वंदते भाव से।
इंद्र आज्ञा उन्हों की सदा पालते।।तीर्थ.।।२८।।
जो नमें आप छद्मस्थ के काल को।
वे हि दीक्षा स्वयं ग्राह्य पद प्राप्त हों।।तीर्थ.।।२९।।
केवली काल नमते उन्हों के पुरा।
पग तले स्वर्ण पंकज खिलाते सुरा।।तीर्थ.।।३०।।
पूर्ण आयू प्रभू की सदा जो नमें।
मृत्यु को हन सदा काल तक जीवतें।।तीर्थ.।।३१।।
मल्लि वसुपूज्य सुत नेमि जिनपाश्र्वजी।
वीर जिन पाँच ये ब्रह्मचारी यती।।तीर्थ.।।३२।।
बालयति पाँच तीर्थेश जो वंदते।
ब्रह्म२ ऋषिदेव हों मुक्तिवर होवते।।तीर्थ.।।३३।।
पालने में भि प्रभु ज्ञान महिमा धरें।
साधु दर्शन करत तत्त्व३ शंका हरें।।तीर्थ.।।३४।।
गर्भ में आवते मास छह पूर्व ही।
इंद्र गण खूब उत्सव करें नित्य ही।।तीर्थ.।।३५।।
धन्य हो धन्य हो हे पिता धन्य हो।
धन्य विश्वेश्वरी मात जगवंद्य हो।।तीर्थ.।।३६।।
धन्य तुम रूप सौंदर्य अद्भुत खनी।
तीन जग में किसी से न उपमा बनी।।तीर्थ.।।३७।।
धन्य तुम जन्म कौमार्य अरु राज्य भी।
धन्य छद्मस्थता केवली काल भी।।तीर्थ.।।३८।।
धन्य हैं द्रव्य अरु क्षेत्र शुभ काल भी।
धन्य हैं भाव प्रभु आज तत्काल भी।।तीर्थ.।।३९।।
मैं नमूँ मैं नमूँ आपको भाव से।
‘ज्ञानमती’ पूर्ण हो आप गुण गावते।।तीर्थ.।।४०।।
दोहा
तीर्थंकर के पुण्य की, महिमा अपरंपार।
गणधर गुरु नहिं कह सके, मैं क्या कहूँ अबार।।४१।।
मृत्युंजय स्तोत्र यह, पढ़ो पढ़ावो भव्य।
ज्ञानमती वैवल्य हो, पावो निजपद नव्य।।४२।।
(तीर्थप्रवर्तनकाल साधु स्तोत्र)
तीर्थंकरों के धर्म प्रवर्तन काल धर्म बरसे है।
केवलज्ञानी मुनी आर्यिका होते ही रहते हैं।।
तीर्थ प्रवर्तन काल मैं नमूं ऋषि मुनिगण को वंदूं।
मन वच तन से वंदन करके सर्व दुखों को खंडूं।।१।।
सागर पचास सुलाख कोटी, तथा इक पूर्वांग है।
पुरुदेव जिनका तीर्थ वर्तन काल शास्त्र प्रमाण है।।
इस काल में बहुकेवली श्रुतकेवली मुनिगण हुये।
निज आत्म संपद प्राप्त हेतु नमूं उनको नत हुये।।१।।
शुभ तीस लाख करोड़ सागर और त्रय पूर्वांग है।
श्री अजित जिनका तीर्थ वर्तन काल भविजन त्राण है।।इस.।।२।।
दश लाख कोटी सागरोपम तथा चउ पूर्वांग है।
संभव जिनेश्वर तीर्थ वर्तन काल शिव पथ दान है।।इस.।।३।।
नव लाख कोटी सागरा पूर्वांग चार प्रमाण है।
अभिनंदनेश्वर तीर्थ वर्तन काल सब जग त्राण है।।इस.।।४।।
नब्बे हजार करोड़ सागर और चउ पूर्वांग है।
श्री सुमतिजिन का तीर्थ वर्तन काल मुक्ति निदान है।।इस.।।५।।
नव सहस कोटी सागरा पूर्वांग चार प्रमाण है।
श्रीपद्म जिनका तीर्थ वर्तन काल मुक्ति प्रदान है।।इस.।।६।।
नौ सौ करोड़ सुसागरा पूर्वांग चार प्रमाण है।
सूपाश्र्व जिनका तीर्थ वर्तन काल मोक्ष निदान है।।इस.।।७।।
सागर सुनब्बे कोटि चउ पूर्वांग काल प्रमाण है।
श्री चंद्रप्रभु का तीर्थ वर्तन चतु: संघ निधान है।।
इस काल में बहुकेवली श्रुतकेवली मुनिगण हुये।
निज आत्म संपद प्राप्त हेतु नमूं उनको नत हुये।।८।।
नवकोटी सागर में पूर्वांग अठाइस पल्यका चतुर्थांश।
कम कीजे पुन: मिला दीजे इक लाख पूर्व का वर्ष अंक।।
श्री पुष्पंदत का तीर्थ प्रवर्तन काल धर्म युग माना है।
पाव पल्य तक इसमें धर्म तीर्थ विच्छेद बखाना है।।
धर्म तीर्थ विच्छेद में, चतु: संघ नहिं होय।
शेष काल के केवली, मुनी नमूँ नत होय।।९।।
इक कोटी सागर में सौ सागर आधा पल्य हीन करिये।
छ्यासठ लख छब्बिस सहसवर्ष कम पच्चिस सहस पूर्व धरिये।।
शीतल जिनका यह तीर्थ प्रवर्तन काल चार संघ से राजे।
इसमें जिन धर्मतीर्थविच्छित्ती आधा पल्य शास्त्र भाषें।।
तीर्थ प्रवर्तन काल में, नग्न दिगंबर साधु।
मोक्ष सतत जाते रहें, नमूँ साम्यरस स्वादु।।१०।।
चौवन सागर इक्कीस लाख वर्षों में पौन पल्य कम हैं।
श्रेयांसनाथ का तीर्थकाल इसमें केवलिगण मुनिगण है।।
इनके तीरथ में पौन पल्य जिनधर्म तीर्थ व्युच्छिन्न रहा।
धर्मामृत इच्छुक मुनि ने ही इस तीर्थ काल को वंद्य कहा।।
रत्नत्रयनिधि के धनी, केवलज्ञानी साधु।
नमूँ नमूँ उनको सदा, मिटे जन्म की व्याधि।।११।।
शुभ तीस सागरा चौवन लाख बरस में एक पल्य कम है।
श्रीवासुपूज्य का तीर्थकाल यह मोक्षमार्ग का साधन है।।
इस एक पल्य कम में ही तीर्थ का छेद बखाना है।
इन दिनों न होवें जैन साधु शिवद्वार बंद ही माना है।।
तीर्थ काल के केवली, साधु सुरासुर वंद्य।
नमूँ नमूँ उनके चरण, हरूँ जगत का पंद।।१२।।
नव सागर पंद्रह लाख बरस में पौन पल्य कम कर दीजे।
यह विमलनाथ का तीर्थ प्रवर्तन काल इसे वंदन कीजे।।
यह पौन पल्य का धर्म तीर्थ व्युच्छेद शास्त्र में गाया है।
जिनशासन के केवल ज्ञानी मुनियों को शीश नमाया है।।
बहिरातमता छोड़कर, निज शुद्धात्म स्वरूप।
ध्याते परमात्मा बनें, चिदानंद चिद्रूप।।१३।।
यह सात लाख पच्चास सहस है बरस चार सागर माना।
बस आधा पल्य घटा दीजे यह तीर्थ विछेद काल माना।।
जिनवर अनंत के शासन में केवलज्ञानी बहुतेहि मुनी।
रस वर्ण गंध स्पर्श शून्य निज आत्म ध्यान करते सुगुणी।।
भव्य जहां दीक्षाभिमुख, नहीं हुये वह काल।
धर्मतीर्थ विच्छेद का, कहें यति१ वृषभ कृपालु।।१४।।
दो लाख पचास हजार वर्ष त्रय सागर में इक पल्य हीन।
यह धर्मनाथ का तीर्थकाल इसमें करते मुनि कर्म क्षीण।।
जिनधर्म ध्वजा फहराती है भवि ज्ञान ज्योति से जग देखें।
हम वंदें उन सब मुनियों को जो भव्य कमल विकसाते थे।।
पाव पल्य विच्छेद था, धर्मतीर्थ इस काल।
तीर्थ प्रवर्तन काल को, नमूँ नमूँ नत भाल।।१५।।
बारह शतक सुपचास वर्ष व अर्ध पल्य प्रमाण है।
श्रीशांतिजिन का तीर्थ वर्तन काल जिनमत प्राण है।।
श्रीशांतिजिन से आज तक औ दुषम कालावधी तक।
निरबाध चउविध संघ है होता रहेगा अंत तक।।१६।।
नवसौ निन्यावे कोटि निन्यानवे लक्ष सत्तानवे।
हजार द्विशत पचास वर्ष कम पल्य के चतुर्थांश में।।
यह तीर्थ वर्तन काल कुंथूनाथ का सुरवंद्य है।
मुनि केवली होते रहें वंदूं उन्हें वे वंद्य हैं।।१७।।
नौ अरब निन्यानवे कोटि निन्यानवे ही लाख हैं।
छ्यासठ सहस सौ वर्ष अरजिन तीर्थ वर्तन काल है।।
ऋषि मुनि यती अनगार केवल ज्ञान प्राप्ती कर रहें।
इनकी करें हम वंदना ये ताप त्रय मेरे दहें।।१८।।
जिन तीर्थ चौवन लाख सैंतालिस सहस चउशत बरस।
यह मल्लि प्रभु का सुरगणों के आगमन से जिनसदृश।।
मुनिराज जिन मुद्रा धरें विहरें सदा मंगल करें।
हम वंदतें इन साधुओं को विघ्न बाधा परिहरें।।१९।।
छह लाख पांच हजार वर्षों धर्म वर्तन काल है।
प्रभु मुनीसुव्रत नाथ का शासन महान उदार है।।
जो केवली मुनिगण हुये हैं मैं उन्हें वंदन करूँ।
निज आत्म सौरभ प्राप्त करके जगत को सुरभित करूँ।।२०।।
पण१लाख अठरह सौ वरस नमिनाथ तीरथ काल है।
अर्हंतमुद्रा धारि मुनिगण करें भविक निहाल हैं।।
मैं आत्मरस पीयूष अनुभव प्राप्ति हेतू नमत हूँ।
सम्यक्त्व क्षायिक होय मेरा आश यह मन धरत हूँ।।२१।
चौरासि सहस्र सु तीन सौ अस्सी बरस तक धर्म है।
श्री नेमि जिनका तीर्थ वर्तन करत भवि को धन्य है।।
सज्जाति सद्गार्हस्थ्य पारिव्राज्य और सुरेंद्रता।
साम्राज्य अरु आर्हन्त्य परिनिर्वाण वंदत हों स्वत:।।२२।।
दो सौ अठत्तर वर्ष तक प्रभु पाश्र्व का शासन चला।
इसमें सतत सुरगण यहां जिन भक्त का करते भला।।
मैं पूजहूँ निज सात परम स्थान पाने के लिये।
हे नाथ! अब करके दया मुझ थान मुझको दीजिये।।२३।।
इक्किस सहस ब्यालिस बरस तक वीर का शासन यहाँ।
तब तक चतुर्विध धर्म चलता ही रहेगा नित यहाँ।।
त्रय वर्ष साढ़े आठ महिने पूर्व पंचम काल तक।
यह अविच्छिन्न परंपरा मुनि की सभी को नमूँ नत।।२४।।
श्री ऋषभदेव से लेकर के अंतिम वीरांगज मुनि तक भी।
जिन मुद्राधारी रत्नत्रय निधि३ धरा धरत धारेंगे भी।।
निश्चय व्यवहार रत्नत्रय युत निज आत्मतत्त्वविद इन सबको।
नित शत शत मेरा वंदन है मैं भक्ती से वंदूँ गुरु को।।२५।।
ब्राह्मी सुंदरि से लेकर के, अंतिम साध्वी सर्वश्री तक।
संयतिका जिनकी हुई हो रहीं होवेंगी आरजखंड तक।।
दो साड़ी मात्र परिग्रह धर उपचार महाव्रतिका मानीं।
इन सबको मेरा वंदन है प्रतिवंदन है ये गुणखानी।।२६।।