विश्व के धर्मगुरु के रूप में विख्यात यह रत्नगर्भा भारत वसुन्धरा चिरकाल से ही तीर्थंकरों और महापुरुषों की जन्मस्थली रही है। अनादिकाल से प्रवर्तित अहिंसामय जैनधर्म के प्रभावी प्रचारक एवं धर्मतीर्थ के प्रवर्तक अनन्तानंत तीर्थंकर हुए, जिनकी जन्मस्थली भरत क्षेत्र की शाश्वत अयोध्या नगरी रही।
किन्तु हुण्डावसर्पिणी काल दोष के कारण वर्तमान चौबीसी के मात्र पाँच तीर्थंकरों ने अयोध्या नगरी में जन्म लिया शेष उन्नीस तीर्थंकरों ने भारतदेश के विभिन्न स्थानों पर जन्म लिया, जिनका स्पष्ट उल्लेख सर्वज्ञ प्रणीत दिगम्बराचार्यों द्वारा सहस्रों पूर्व लिखित प्राचीनतम ग्रंथ, यथा षट्खण्डागम एवं धवला, जयधवला टीका, तिलोयपण्णत्ति, उत्तरपुराण आदि ग्रंथों में निहित है।
तीर्थंकरों की संख्या, उनके नाम व चित्र, उनकी कल्याणकभूमियाँ, तिथियाँ उनके माता-पिता का नाम उनके प्रमुख गणधर उनकी देशना आदि सभी बातों का ज्ञान हमें दिगम्बराचार्यों द्वारा लिखित ग्रंथों से ही हुआ और मात्र ये ही ग्रंथ हमारे लिए प्रामाणिक हैं,
‘आगम’ शब्द में समाविष्ट तीन अक्षर क्रमश: ‘आ’ आप्त (सर्वज्ञ) द्वारा कथित, ‘ग’ गणधर द्वारा विस्तृत एवं ‘म’ मुनि द्वारा रचित अथवा उनकी ही बात को आधार बनाकर विदुषी गणिनी आर्यिका द्वारा रचित के अभिप्राय को इंगित करते हैं।
इसीलिए सच्चे देव, शास्त्र गुरु को एक ही वर्ग में रखकर, इन पर श्रद्धा रखने को सम्यग्दर्शन कहा गया है। धर्म श्रद्धा का विषय है शोध व तर्व का नहीं। बोध प्राप्ति की भावना से बोध के साथ शोध हो तो शोध के फलस्वरूप अपने प्राचीन ग्रंथों में समाहित धर्म संबंधी अमूल्य धरोहर से वर्तमान पीढ़ी को परिचित कराया जा सकता है।
शोध (खोज) व आविष्कार में अन्तर है। शोध में विद्यमान सत्य की जानकारी दी जाती है, आविष्कार में अपने मस्तिष्क की उपज नई चीज पेश की जाती हैं।
अत: तीर्थंकरों की जन्मभूमियों, निर्वाणभूमियों आदि से संबंधित विदेशी यात्रियों के लेख कतिपय तथाकथित भारतीय इतिहासकारकों के लेखों के आधार पर प्राप्त जानकारी को शोध व खोज न कहकर उनके स्वतंत्र मस्तिष्क की निष्पत्ति या आविष्कार की संज्ञा दी जानी चाहिए,
जो धार्मिकक्षेत्र में कभी मान्यता प्राप्त नहीं कर सकते। तथाकथित शोध/खोज से प्राप्त परिणामों से फैलाये जा रहे भ्रम से कहीं दिगम्बर जैन आगम ग्रंथों की प्रामाणिकता पर ही प्रश्न चिन्ह न लग जायें, कहीं सर्वज्ञ प्रणीत जिनवाणी पर ही जन-जन की अश्रद्धा न हो जावे, इस आशंका ने ही इस अभिनंदन ग्रंथ को प्रकाशित करने को प्रेरित किया।
क्योंकि वर्तमान में कतिपय तथाकथित शोध पत्रिकाओं के विशेषांकों में निहित विषय सामग्री ने तो अपनी माता पर ही प्रश्नचिन्ह लगाने जैसा कार्य कर दिया। हमारे तीर्थंकरों व तीर्थों की निर्णायक जिनवाणी माता ही है।
इस युग के अंतिम तीर्थंकर वर्तमान शासन नायक भगवान महावीर तो उनके जन्म से ही सुरनर द्वारा वन्दनीय रहे हैं और तीर्थंकरों की कल्याणकभूमियाँ भी स्वत: ही वन्दनीय हो जाती हैं।
उसी क्रम में इस युग के अंतिम तीर्थंकर महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा-बिहार) तो शाश्वत अभिवन्दनीय रही है और चिरकाल तक श्रद्धालुओं द्वारा वन्दनीय रहेगी।
मिथ्यादृष्टि या अन्य मतावलम्बी तो तीर्थंकरों को भी न मानें, उनके सिद्धान्तों को न माने उनकी कल्याणक स्थलियों, तिथियों को न माने तो उनके मनाने, उनकी अनर्गल बात का प्रतीकार करने में हमें अपना अमूल्य समय नहीं लगाना चाहिए।
ऐसे व्यक्तियों का अस्तित्व तो तीर्थंकर के काल में भी रहा था। तत्कालीन क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति हेतु, आर्थिक सहायता की प्राप्ति हेतु, प्रसिद्ध शिक्षण संस्थान में प्रवेश पाने के लिए या नौकरी प्राप्ति हेतु तो अपनी जाति (वर्ग) या आय के संबंध में असत्य प्रमाणपत्र लगाने की घटनाएं तो वर्तमान में दृष्टिगोचर होती हैं
किन्तु जो दिगम्बर जैनागम के ज्ञाता कहलाते हैं, उनके द्वारा भी सरकार से प्राप्त आर्थिक अनुदान से मनोवांछित क्षेत्र को विकसित करने हेतु प्राचीन दिगम्बर जैनागम में वर्णित स्पष्ट तथ्यों की उपेक्षा करके उस स्थान को तीर्थंकर की जन्मभूमि होने की पुष्टि करना वास्तव मेें असह्य कृत्य इसलिए है कि एक भी तथ्य दिगम्बर जैन ग्रंथ का अमान्य हो जाये तो सर्वज्ञ प्रणीत दिगम्बर जैनागम संदेह के घेरे में आ जायेगा।
वर्तमान वैज्ञानिक युग में खोज के आधार पर प्राप्त निष्कर्षों को ही प्रचारित किये जाने के कारण धर्मग्रंथों में उल्लिखित केवली भगवान की वाणी पर से श्रद्धान कम न होने लगे
तथा जिनवाणी की शाश्वता, सत्यता, अकाट्यता सर्वकालीन मान्य रहे, इसी पुनीत भावना से जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी बीसवीं सदी की प्रथम बालसती, रत्नत्रय चन्द्रिका, जिनशासन प्रभाविका सिद्धान्तकल्पतरुकलिका, आर्ष परम्परा की संरक्षिका, सरस्वती की प्रतिमूर्ति, विपुल साहित्य की सृजनकत्र्री, महान तीर्थोद्धारिका परमपूज्य गणिनीप्रमुख १०५ आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी ने वर्तमानकालीन तीर्थंकरों से संबंधित कल्याणक भूमियों के विकास की सद्प्रेरणा की।
उसी क्रम में सन् १९७२ में दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान की स्थापना हुई। पौराणिक नगरी एवं दानतीर्थ हस्तिनापुर में ‘जम्बूद्वीप’ की विश्व प्रसिद्ध रचना आपकी प्रेरणा व आशीर्वाद से पूर्ण हुई जिसका विकसित रूप देखकर सभी आश्चर्यान्वित होते हैं।
जैनागम में वर्णित भौगोलिक रचना के विषय में जिनने संदेह व्यक्त किया, उनके लिए यह महान रचना आगम सम्मत समाधान है। इस रचना को ‘मानव निर्मित स्वर्ग’ की संज्ञा दी जाती है।
तीन पद के धारी तीन तीर्थंकरों शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ व अरहनाथ की जन्मभूमि के विकास के उपरान्त पूज्य माताजी की प्रेरणा व आशीर्वाद से शाश्वत जन्मभूमि अयोध्या में समवसरण मंदिर और त्रिकाल चौबीसी मंदिर निर्मित हुआ और अयोध्या भगवान ऋषभदेव की जन्मभूमि के रूप में विश्वविख्यात हुई।
प्रीतविहार-दिल्ली में ऋषभदेव कमल मंदिर, मांंगीतुंगी (महा.) मेंं सहस्रकूट कमल मंदिर, अहिच्छत्र में ग्यारह शिखर वाला तीस चौबीसी मंदिर और इस युग के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की दीक्षा एवं केवलज्ञान कल्याणक भूमि प्रयाग में ‘तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली’ का भव्य निर्माण पूज्य माताजी की ही प्रेरणा के सुफल हैं।
सम्पूर्ण भारत में अनेकानेक धर्मायतनों का निर्माण पूज्य माताजी की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से सम्पन्न हुए हैं और हो रहे हैं। पूज्य माताजी सर्वज्ञ की वाणी की दृढ़ श्रद्धानी हैं, ज्ञान वैदुष्य की धनी हैं।
लगभग ४०० धार्मिक ग्रंथों का उनकी अनवरत चलने वाली दिव्य लेखनी से प्रसूत होना उनके असीम आगम ज्ञान, अनुपम काव्य प्रतिभा व अद्भुत अभिव्यक्ति कौशल को दर्शाता है। किन्तु पूज्य माताजी की यह विशेषता रही कि उन्होंने दिगम्बराचार्यों द्वारा प्रणीत प्राचीन ग्रंथों में निहित तथ्यों को यथावत् रखा।
उन्होंने अपना मत कभी नहीं थोपा। पूज्य माताजी दिगम्बर जैन संस्कृति, इतिहास व आगम की सजग संरक्षिका हैं। पांच दशक से भी अधिक दीक्षित काल में आपने सदैव जिनागम, जैनधर्म, धर्मायतन व तीर्थों के विकास की, संरक्षण की प्रबल प्रेरणा की और यह सर्वमान्य है
कि जिस कार्य की आप प्रेरणा करती हैं, वह अल्पावधि में ही आशातीत सफलता के साथ आपके आशीर्वाद से इसलिए पूर्ण हो जाता है क्योंकि उसके साथ धार्मिकजनों का सहयोग सहज में प्राप्त हो जाता है।
तीर्थोद्धार की इसी पुनीत शृंखला में चतुर्थकाल की अंतिम रत्नगर्भा, इस युग के अंतिम तीर्थंकर वर्तमान शासन नायक भगवान महावीर की दिगम्बर जैनागमोक्त, सदियों से जन-जन की आराध्य व आस्था का केन्द्र रही जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा-बिहार) का विकास पूज्य माताजी की प्रेरणा से इतना द्रुतगति से हुआ कि भिन्न मत रखने वाले भी यह मानने को विवश हो गये कि साक्षात् तीर्थंकर की जन्मभूमि होने का ही यह चमत्कार है
कि काल के थपेड़े से वैभवहीन बनी यह पावन भूमि, इतने अत्यल्प समय में प्राचीन गौरव को प्रदर्शित करने वाली बन गई।
उन्नत शिखरयुक्त शताधिक फुट उत्तुंग भगवान महावीर जिनमंदिर जिसमें सात हाथ ऊँची सफेद संगमरमर की नयनाभिराम मनोज्ञ अतिशयकारी भगवान महावीर की खड्गासन मूर्ति दर्शनार्थियों के मनोरथ को पूर्ण करती हैं।
यहाँ पर निर्मित भगवान ऋषभदेव जिनमंदिर, श्रीनवग्रहशांति जिनमंदिर, त्रिकाल चौबीसी मंदिर, राजकुमार महावीर का शाही निवास नंद्यावर्त महल एवं शांतिनाथ जिनालय के दर्शन कर उन दर्शनार्थियों को अपनी ही आँखों पर विश्वास नहीं होगा जो इस शाश्वत महावीर जन्मभूमि पर दीर्घकाल तक तो अपनी परम्परागत आस्था व्यक्त करने आते रहे किन्तु किसी कारण वहाँ पिछले दो वर्षों में यहाँ नहीं आ पाये।
महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा-बिहार) में सदियों पूर्व निर्मित प्राचीन मंदिर परिसर में भी पूज्य माताजी की प्रेरणा से ३६ फुट ऊँचे कीर्तिस्तंभ का निर्माण भी सम्पन्न हुआ।
महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर के विकास के साथ-साथ यहाँ के प्रवास में ही पूज्य माताजी ने भगवान महावीर की निर्वाणस्थली पावापुर एवं देशनास्थली राजगृही, गौतम स्वामी की निर्वाणस्थली गुणावां एव शाश्वत सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर जी में भी मंदिरों का निर्माण करवाकर तीर्थों को विकसित करवाया।
परमपूज्या माताजी की प्रेरणा व आशीर्वाद से सम्पन्न इन कार्यों का अवलोकन कर सभी धर्मनेता, विद्वज्जन, राजनेता, श्रेष्ठीगण, ग्रामीणजन सहज भाव से कहते हैं कि इतना आश्चर्यकारी कार्य दैवी शक्ति से ही संभव है अत: पूज्य गणिनीप्रमुख १०५ श्री ज्ञानमती माताजी मात्र जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी ही नहीं वरन् उनमें एक दैवी शक्ति विद्यमान है।
भगवान महावीर और उनकी जन्मस्थली कुण्डलपुर तो विगत २६०० वर्षों से सर्वजन वन्दनीय रहा है और रहेगा, किन्तु इस जन्मभूमि को विकसित करने की प्रबल प्रेरणादात्री परमपूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी भी युगों-युगों तक श्रद्धा से स्मरण की जाती हरेंगी।
वर्तमान युग में पूज्य माताजी की प्रेरणा से सम्पन्न जनहित व राष्ट्रहित व विश्व शान्त्यर्थ सम्पन्न विविध कार्यों से प्रभावित होकर ही भारत के राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. कलाम, प्रधानमंत्री आदि सर्वोच्च नेताओं ने माताजी की प्रेरणा से निष्पन्न कार्यों और योजनाओं की प्रशंसा की और आशीर्वाद प्राप्त किया।
पूज्य माताजी द्वारा प्रेरित सभी कार्यों व योजनाओं को साकार करने में उन्हीं की सुशिष्या अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी प्रज्ञाश्रमणी १०५ आर्यिका श्री चंदनामती माताजी व उनके ही शिष्य क्षुल्लकरत्न पीठाधीश १०५ श्री मोतीसागर जी महाराज के सामयिक समायोजन व निर्देशन का लाभ प्राप्त होता रहा है।
अल्पावधि में वृहद् निर्माणकार्य पूरा कराने का श्रेय कर्मयोगी ब्रह्मचारी श्री रवीन्द्र कुमार जी जैन (अध्यक्ष-दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान एवं वर्तमान पीठाधीश रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी ) की कर्मठता, अहर्निश सक्रियता, धर्मस्थलों के निर्माण का विशद अनुभव, अद्वितीय प्रशासनिक क्षमता व संगठनशक्ति व्यवहार माधुर्य आदि को ही है।
मैं तीर्थंकर भगवान महावीर, उनकी जन्मभूमि-कुण्डलपुर व उसके पुर्नरुद्धार की प्रेरणादात्री पूज्य गणिनी प्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ससंघ का बारम्बार वंदन, अभिनंदन करता हूँ।