‘परस्परोग्रहो जीवानाम्’ को मूल मंत्र मानने वाले जैन धर्म एवं दर्शन के सार्वभौमिक एवं सर्वकालिक सत्य सिद्धांतों ने विगत सहस्रों वर्षों में विश्वशांति में अनन्य योगदान दिया है तथा वर्तमान विश्व की ज्वलंत समस्याओं को भी जैन जीवन मूल्यों के द्वारा हल किया जा सकता है। जैन धर्म के अंतिम तीर्थकर महावीर स्वामी ने अहिंसक एवं अनेकांत की जो सूक्ष्म विवेचना की, उसका सम्पूर्ण मानवता पर गहरा प्रभाव पड़ा।
महामानव महात्मा गाँधी ने जैनदर्शन को आत्मसात करके अहिंसक का एक ऐसा प्रायोगिक रूप प्रस्तुत किया जिससे पूरी दुनिया ने परतंत्रता के बंधन तोड़े। वस्तुत: ‘गांधी’ के पूरे जीवन एवं विचारों में जैन सिद्धान्तों के साक्षात् दर्शन होते हैं तथा ‘गांधीवाद’ आज विश्व की सबसे सशक्त, विचारधारा मानी जाने लगी है।
अगर हम दूसरे के पक्ष को उसी के दृष्टिकोण से देखने की कोशिश करें तो कटुता और आंतकवाद दूर हो सकता है जिसके लिये आवश्यक ‘माध्यस्थ भाव’ जैन दर्शन ही सिखा सकता है। सभी जीवों पर दया एवं शाकाहार करने मात्र से खाद्यान्न समस्या, जल समस्या, ग्लोबल र्वािमंग इत्यादि को समूल नष्ट किया जा सकता है।
यह अहिंसक कोई कोरी दार्शनिक अवधारणा मात्र नहीं है बल्कि इसके प्रचुर वैज्ञानिक तथ्य प्रामाणिक रूप से उपलब्ध हैं जिसकी विस्तृत शोधपरक विवेचना प्रस्तुत शोध पत्र में की गई है।
अंतर्राष्ट्रीय अहिंसक दिवस (२ अक्टूबर) महात्मा गाँधी के जन्मदिन को सर्मिपत है अतएव अहिंसक, जैन धर्म एवं विश्वशांति के त्रिभुज को समझने के लिये महात्मा गाँधी के जीवन के एक प्रसंग से ही विवेचन आरंभ करते हैं। ‘एक दिन शाम की प्रार्थना के चलते एक बड़ा सा साँप गांधी जी की पीठ पर चढ़ गया और वही बैठा रहा।
ध्यान में डूबे गाँधीजी ने प्रार्थना खंडित नहीं होने दी। उन्होंने अपनी खादी की चादर के पल्ले को धीरे से खोलकर खुद थोड़े आगे खिसक गये। साँप पीठ पर से उतरा और एक तरफ को चला गया।’ वस्तुत: सन् १९१७ से १९३० तक गाँधीजी की देखरेख में साबरमती का सत्याग्रह आश्रम चला। गांधीजी ने सब साथियों को समझाया कि हम साँपों की बड़ी बस्ती के बीच उनके मेहमान की तरह रहने आये हैं उनके साथ हमारा व्यवहार वैसे ही होना चाहिए जैसे मेहमान का होता है, छोटे से लेकर बड़े तक साँपों को कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए। साँप हमारे मित्र हैं।
इस तरह १६ सालों तक दोनों तरफ से धर्म का परिपूर्ण पालन हुआ। महामानव के उपरोक्त विचार एवं कार्य पर जैनधर्म के प्रभाव को जानने के लिये इस घटना से वर्षों पूर्व गांधीजी को उनके प्रश्नों के उत्तर में दिये गये जैन साधक श्रीमद् राजचंद्र के विचारों को जानते हैं :—
दक्षिण अफ्रीका में रहते समय गांधीजी १७वां प्रश्न पूछते हैं :— ‘जब मुझे सर्प काटने आये तब उसे काटने देना या मार डालना। उसे दूसरी तरह से दूर करने की शक्ति मुझमें न हो ऐसा मानते हैं। श्रीमद् राजचन्द्र जी उत्तर देते हुए लिखते हैं कि इस आधारभूत देह के रक्षण के लिये जिसे देह में प्रीत हो ऐसे सर्प को मारना आपके लिए कैसे योग्य है। जिसे आत्महित की इच्छा हो उसे तो वहाँ अपनी देह छोड़ देना ही योग्य है।
…..अनार्यवृत्ति हो तो मारने का उपदेश किया जा सकता है। वह तो हमें, तुम्हें स्वप्न में भी न हो यही इच्छा करने योग्य है।’ आज सम्पूर्ण विश्व महात्मा गांधी और उनकी अहिंसक को आदर्श मानती है जबकि महात्मा गांधी के जीवन एवं विचारों से उन पर जैनधर्म का प्रभाव स्पष्टतया परिलक्षित होता है। महावीर से महात्मा तक एवं महात्मा से अब तक और आगे जैनधर्म और अहिंसक से विश्व शांति में अनन्य योगदान दिया है।
इतिहास से लेकर विज्ञान तक के सर्वमान्य तथ्यों के आधार पर अपने विचारों को सबके सामने रखना सबसे श्रेयस्कर है। विचार ही तो आखिर कार्यरूप परिणित होते हैं जैसा कि डायर ने कहा भी है—‘हम ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के द्वारा हर उस वस्तु को प्राप्त कर सकते हैं जिसकी इच्छा हम करते हैं क्योंकि जिसकी इच्छा हम करते हैं वह हमारे भीतर ही होता है और इसका उलट भी सत्य है।’
विश्व इतिहास पर हमारी जहां तक नजर जाती है वहाँ तक हिंसा—प्रतिहिंसा का व्रूर कुचक्र दृष्टिगत होता है। महावीर स्वामी के समयहिंसा अपने चरम पर थी। कमजोरों, पशुओं और महिलाओं पर अत्याचार हो रहे थे। धर्म के नाम पर पाखंड फैला हुआ था। ऐसे समय में महावीर ने तपस्या से ज्ञान प्राप्त किया एवं उस केवलज्ञान से धधकती धरती को शांत किया। जैनधर्म के अंतिम तीर्थंकर महावीर नेहिंसा को किसी भी रूप में किसी भी प्रयोजन में पूर्णत: त्याज्य बताया।
महावीर के प्रभाव से सैकड़ों वर्षों तक अहिंसक तथा शांति का वर्चस्व बना रहा परन्तु एक बार फिरहिंसा का दौर शुरु हुआ तो अहिंसक धर्मग्रथों, आराधना स्थलों तथा चन्द लोगों तक मिनट कर रह गयी। सैकड़ों वर्षों तक मुस्लिम शासकों ने पूरे विश्व में धर्म के नाम पर खून की नदियां बहाई तो फिर व्यापारिक कुटिलता के द्वारा अंग्रेजों ने अधिकांश देशों को अपना गुलाम बना लिया। विश्व की सर्वशक्तिमान शक्ति के खिलाफ अचानक एक आत्मा ने अहिंसक का अचूक अस्त्र सत्याग्रह रखा। इस सत्याग्रह ने मोहन को महात्मा बना दिया।
गांधीजी के अनुसार सत्याग्रह केवल आत्मा का बल है इसलिये जहां और जितने अंश में शस्त्र बल अर्थात् शरीर बल अथवा पशु बल का प्रयोग हो सकता हो अथवा उसकी कल्पना की जा सकती हो वहाँ और उतने अंश में आत्म बल का प्रयोग कम हो जाता है। स्पष्ट रूप से सत्याग्रह की इस अवधारणा पर जैन धर्म की आत्मा और अहिंसक के दर्शन का प्रभाव था। गांधीजी ने एक बार नहीं १६ बार विविध उद्देश्यों के लिये सत्याग्रह करके उसकी शक्ति को निरूपित किया गया है।
सत्य और अहिंसक का राजनीति प्रयोग करके महात्मा गांधी ने वस्तुत: जैनत्व को भी अभिनव ऊँचाई दी हैं जैन धर्म कहता है कि जब तक वह धर्म मन में अतिशय निवास करता है तब तक प्राणी अपने मारने वाले को भी घात नहीं करता है।
सत्याग्रह के संबंध में बापू कहते हैं— ‘इसमें प्रत्यक्ष गुण या प्रगट अथवा मनसा, वाचा या कर्मणा किसी भी प्रकार कीहिंसा की गुंजाइश नहीं है। विरोधी का बुरा चाहना या उसका दिल दुखाने के इरादे से उसे या उसके प्रति कठोर वचन कहना सत्याग्रह की मर्यादा का उल्लंघन है।’
अपने समकालीनहिंसा और व्रूरता के प्रतिमान एडोल्फ हिटलर को अहिंसक के अवतार महात्मा गांधी ने अपने पत्र में जो लिखा वह मुझे विश्वशांति के लिये मील का पत्थर लगता है— ब्रटिश सत्ता संसार की सबसे अधिक संगठितहिंसात्मक सत्ता है और इसका मुकाबला करने के लिये हम किसी सही उपाय की तलाश कर रहे थे।
हमें अहिंसक के रूप में एक ऐसी शक्ति प्राप्त हो गई है जिसे यदि संगठित कर लिया जाए तो संसार भर की सभी प्रबलतमहिंसात्मक शक्तियों के गठजोड़ का मुकाबला कर सकती है।
महात्मा गाँधी वर्धा से २४ दिसम्बर १९४० को लिखे अपने इस पत्र में भविष्यवाणी करते हैं कि ‘मुझे देखकर आश्चर्य होता है कि वह यह भी नहीं देख पाते कि विनाशकारी यंत्रों पर किसी का एकाधिकार नहीं है। अगर ब्रिटिश लोग नहीं तो कोई और देश निश्चय ही आपके तरीकों से ज्यादा बेहतर तरीका ईजाद कर लेगा और आपके ही तरीकों से आपको नीचा दिखयेगा।
इस युगपुरुष के कथनानुसार ही अगस्त १९४५ में हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराकर अमेरिका ने हिटलर को हरा दिया। १६ दिसम्बर १९४७ को गांधीजी ने फिर लिखा ‘एटम बम के इस युग में केवल विशुद्ध अहिंसक ही वह शक्ति है जिससे हिंसा की किसी भी चाल को ध्वस्त किया जा सकता है।’
गांधीजी ने अन्तत: न केवल भारत को आजाद करा दिया बल्कि सारे विश्व में एक ऐसी लहर पैदा की जिससे कि ब्रिटिश साम्राज्य आगे चलकर पूरी तरह ध्वस्त हो गया। जैन धर्म एवं महात्मा गांधी की अहिंसक में कोई अंतर नहीं है बल्कि कतिपय कारणोंवश महत्मा जैन धर्म की अहिंसक का पूरी तरह प्रयोग कर ही नहीं पाये। आत्मा और अहिंसक के परिप्रेक्ष्य में ही हम आगे चलकर जैन धर्म तथा वर्तमान समस्याओं की विवेचना का प्रयास करते हैं।
‘तुम तो बिल्कुल मूर्ख हो’ यह सुनते ही अच्छे से अच्छे विचारक का मन रोष से भर जाता है, अत: अगर कोई भी व्यक्तिहिंसा एवं प्रतिहिंसा के द्वारा अपना लक्ष्य प्राप्त करना चाहता है तो हमें अचरज नहीं होना चाहिए। अगर कोई आतंकवादी अपनी जान देकर भी दूसरों को मारता है अथवा कोई अलगाववादी अपने आप को क्रांतिकारी समझकर कत्लेआम करता है तो आम जनमानस भी इन्हें खत्म करने की ही वकालत करता है। जिस साधन के द्वाराहिंसा की प्रचण्ड शक्ति ब्रिटिश सत्ता को मजा चखाया जा सकता है…….क्या उसी अहिंसक जैन साधन के द्वारा आतंकवाद और अलगाववाद को दूर नहीं किया जा सकता है। हिंसा के द्वारा विश्वशांति कभी नहीं पायी जा सकती।
यह रूस ने भी देखा और अमेरिका, ईराक और अफगानिस्तान में आकर देख ही रहा है। वस्तुत: हमारे पास अहिंसक के अलावा और कोई चारा ही नहीं बचा है। हम सब अन्याय को तो समाप्त करना चाहते हैं परन्तु हमारीहिंसा में ही बनी हुई है। हम दरअसल, दूसरे के पक्ष को सुनना ही नहीं चाहते हैं। हम अपने निकट से निकट व्यक्ति के प्रति भी दुर्भाव से भर जाते हैं जब वह हमारे मन के विपरीत कोई आचरण करता है। जबकि जैन धर्म कहता है किमाध्यस्थ भावं विपरीत वृत्तौ अर्थात् दुर्जन क्रूर कुमार्ग रतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे। परन्तु हम तो अक्सर अपनों के प्रति भी क्षोभ से भर जाते हैं।
एक सच्च जैन जानता है कि अगर वह छह माह से अधिक समय तक क्रोध, मान, माया अथवा लोभ का भाव बनाये रखता है तो उसका पतन सुनिश्चित है। अगर हम किसी भी घटना के बारे में ठंडे दिमाग से उसके विभिन्न पक्षों को समझें तो हमारा आक्रोश स्वयमेव कम हो जाता है।
इसे ही जैन दर्शन अनेकांत कहता है। क्या हमने कभी विरोधी पक्ष को समझने का प्रयास किया है। जो व्यक्ति काल स्वरूप साँप को नहीं मारने की वीरता रखता है वही अत्याचार होने पर अहिंसक सत्याग्रह कर सकता है। जरा—जरा सी बातों पर झगड़ने वाले हम लोग तोहिंसा को सहारा ही देते रहते हैं।
व्यक्ति से ही समष्टि का सुधार संभव है यह जैन धर्म की मूल अवधारणा है। आतंकवाद या अलगाववादहिंसा को ऐसी शक्तियां हैं जिनके विरुद्ध संसार की समस्त सत्ताधारी शक्तियाँ कई गुनी शक्तिशाली हैं। परन्तुहिंसा कभी किसी समस्या को मिटा नहीं सकती यह हम जितनी जल्दी समझ जायें उतनी जल्दी विश्वशांति की स्थायी व्यवस्था बनने लगेगी। दुनिया को सुधारने के लिये हमें शुरुआत स्वयं से करनी होगी।
बिन लादेन और बराक ओबामा को समझने से पहले हमें एक दूसरे के संबंधों एवं विचारों को समझना होगा। अलगाववाद को कोसने के पहले पारिवारिक सामाजिक विखराव की विवेचना करनी होगी।
विचारों में अनेकांत होने पर वाणी में स्याद्वाद और आचरण में अहिंसक आती है और विचारों में अनेकांत अर्थात् प्रतिपक्षी के प्रति माध्यस्थ भाव जैन कर्म सिद्धान्त को जानने और मानने से सहजता में आ जाता है। हिंसा का मूल क्रोध है। प्रतिपक्षी के प्रति क्रोध आना कषाय है और इसका लगातार बना रहना पाप के बंध का कारण है अत: सच्चा जैन अपनी गलती नहीं होने पर भी अपनी गलती मानकर क्षमा भाव धारण करता है और इस तरह सेहिंसा से बच जाता है।
क्योंकि वह जानता है कि अगर इस समय मेरी गलती नहीं भी दिख रही है तो आशय ही इसमें मेरे पूर्व जन्म के कर्मों का दोष है और इस तरह से वह समता का भाव बनाता है। महात्मा गाँधी कहते हैं‘शुद्धमन से सहन किया गया सच्चा दुख, पत्थर जैसे हृदय को भी पिघला देता है। इस दु:ख सहन की अथवा तपस्या की ऐसी ही ताकत है और यही सत्याग्रह का रहस्य है।’अगर हम भी महात्मा गाँधी की भाँति जैनधर्म के अनुसार आत्मा की अनंत शक्तियों को समझें और माने तो ना केवल हम अपने व्यक्तिगत जीवन को सुखी बना सकते हैं, बल्कि विश्वव्यापी समस्याओं को दूर करके विश्वशांति में अपना अमूल्य योगदान दे सकते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता वर्ष २०१० में एक और सुन्दर संयोग बना। अक्टूबर २०१० में जापान के नगोया शहर में १७० देशों के प्रतिनिधि एकत्रित हुए। दुनियाभर के वैज्ञानिक पर्यावरण विनाश, ग्लोबल, र्वािमंग, प्रजाति विलुप्तीकरण इत्यादि से आज अत्यधिक चिंतित है। पूरा पर्यावरण विज्ञान जैन धर्म के घोष वाक्य परस्परोग्रहो जीवनाम् तथा जियो और जीने दो के आसपास ही घूमता है।
भारत सरकार के पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश कहते हैं कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने के लिये गो मांस (बीफ) खाना रोकना होगा (श्री रमेश शुद्ध शाकाहारी है)। वर्ष २००८ में संयुक्त राष्ट्र के अध्ययन में पाया गया था कि विश्व में ग्रीन हाउस गैसों का लगभग पांचवां भाग मांस उत्पादन से होता है। वस्तुत: अहिंसक आहार शाकाहार के द्वारा विश्व की विभिन्न समस्याओं खाद्यान्न समस्या, जल समस्या, अपराध, रोगों को समूल नष्ट किया जा सकता है जिसके पक्ष में प्रचुर वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध हैं।
परन्तु मैं आलेख के आरंभ की भाँति समापन में भी सांप से संबंधित एक वैज्ञानिक आलेख के अंश रख रहा हूँ :— साँपों की अब तक २४०० से अधिक प्रजातियाँ खोजी जा चुकी हैं जिनमें से २० प्रतिशत साँप भी जहरीले नहीं है लेकिन उसका खौंफ इतना है कि व्यक्ति दहशत के मारे ही दम तोड़ देता है।
भारत में पाई जाने वाली २०० से अधिक प्रजातियाँ में से केवल चार प्रजातियाँ ही जहरीली है।… चूहों को खाकर सर्प अनाज की रक्षा करते हैं। अधिकांश लोग सांप को अपना दुश्मन मानते हैं और उसे देखते ही मारने लगते हैं। यह जीव हत्या पाप है। उन्हें भी हमारी तरह जीने का अधिकार है सर्पों का मुँह बार—बार दूध में जबरदस्ती डूबाने से कई सांप दम घुटने से भी मर जाते हैं।
दूध से साँप की अंतडियाँ में गहरे जख्म हो जाते हैं जिससे वह दो महीने के भीतर मर जाता है। साँप पालना जुर्म है और ऐसे व्यक्तियों को तीन महा की सजा व ५०० रुपये जुर्माना हो सकता है।
संदर्भ— १.गाँधी मार्ग की विश्वव्यापकता, समाज विज्ञान संकाय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नईदिल्ली ४९, पृ. १४५ २.
Shrimad Raichandra’s Reply to Gandghiji’s Question’s, Shrimad Raj Chandra Ashram Agas, Via Anand, Boria 388130 Gujarat ३.गाँधी मार्ग की विश्व व्यापकता, पृ. १७ ४.वही,२४ ५.वही, ४६ ६.वही,७८—७९ ७.वही , ३६ ८. AWBI, News letter Nov. 2009 13/1 Third seaward Road Valmiki Nagar Thiruvanviyour Chennai-41 ९.