अहिंसा मानसिक पवित्रता का नाम है। उसके व्यापक क्षेत्र में सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सभी सद्गुण समा जाते हैं। इसीलिये अहिंसा को ‘परम—धर्म’ कहा गया है। संसार में जल—थल और आकाश सर्वत्र सूक्ष्म—जीव भरे हुये हैं, इसलिये बाह्य आचरण में पूर्ण अहिंसक होकर रहना सम्भव नहीं है।
परन्तु यदि अन्तरंग में समता हो और बाहर की प्रवृत्तियाँ यत्नाचार पूर्वक नियंत्रित कर ली जायें, तो बाह्य में सूक्ष्म जीवों का घात होते हुये भी साधक अपनी आंतरिक पवित्रता के बल पर अहिंसक बना रह सकता है। अहिंसा का क्षेत्र इतना संकुचित नहीं है जितना लोक में समझा जाता है।
अहिंसा का आचरण भीतर और बाहर दोनों ओर होता है। अन्तरंग में चित्त का स्थिर रहना अहिंसा है। जीव की अपने समता—भाव में संलग्नता ही अहिंसा है। क्रोध—मान—माया—लोभ से रहित पवित्र विचार और संकल्प बने रहना अहिंसा है। अंतरंग में ऐसा आंशिक समत्व लाये बिना अहिंसा की कल्पना नहीं की जा सकती है। अहिंसा केवल एक व्रत नहीं है। अहिंसा एक विचार, एक समग्र—चिन्तन है।
अहिंसा किसी मंदिर में, या किसी तीर्थ पर जाकर सुबह—शाम सम्पन्न किया जाने वाला अनुष्ठान नहीं है। वह आठों याम चरितार्थ किया जाने वाला एक समपूर्ण जीवन—दर्शन है। वह संसार के सभी धर्मों का मूल है। मानवता की परिभाषा यदि एक ही शब्द में करने की आवश्यकता पड़े तो ‘अहिंसा’ के अतिरिक्त कोई दूसरा शब्द है ही नहीं तो उस गरिमा का वहन कर सके।
अहिंसा पर यह आरोप लगता है कि वह एक नकारात्मक विचार है, गृहस्थ जीवन में व्यवहारर्य नहीं हैं परन्तु अहिंसा पर जो अध्ययन हुआ है और समाज में अहिंसा जीवन के जो उदाहरण सामने आये हैं, उनके आधार पर ये दोनों आरोप निराधार सिद्ध होते हैं। यदि हम संतों और मुनियों—आचार्यों की बात छोड़ भी दें, तो भी अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं।
महात्मा गाँधी ने अहिंसा के सकारात्मक प्रयोग करके, रक्त—विहीन क्रान्ति के सहारे, अपने देश को स्वाधीन कराने का अनोखा काम, अभी हमारे सामने ही सम्पन्न किया है। इसी प्रकार अनेक महापुरुषों ने हिंसा—रहित—जीवन जी कर यह भी चरितार्थ कर दिया है कि हिंसा अव्यावहारिक नहीं है।
वह पूर्णत: व्यवहारिक जीवन—पद्धति हैं वह एक निष्पाप, निराकुल, संतुष्ट और अखण्ड जीवन जीने की कला है। अहिंसा में इतनी सामथ्र्य है कि वह बिकार से दहकते हुये चित्त में शान्ति के फूल खिला सकती है। अहिंसा निर्मल चेतना से अनुशासित, विधायक और व्यवहार्य जीवन—विधान है। वह मनुष्य की सबसे बड़ी पूँजी हैं। मनुजता की धुरी है। जैनाचार्यों ने अहिंसा को परम—धर्म और हिंसा को सबसे बड़ा पाप माना है।
उन्होंने स्थापित किया है कि झूठ—चोरी—कुशील और परिग्रह आदि सभी पाप हिंसा के ही रूप हैं। इसीलिये उन्होंने अहिंसा को साध्य तथा सत्य—अचौर्य—ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि शेष व्रतों को उसका साधक माना है। उन्होंने आन्तरिक अहिंसा को ‘निश्चय—अहिंसा’ और बाह्य आचरण में पलने वाली अहिंसा को ‘व्यवहार—अहिंसा’ कहा है। इस प्रकार जैन सिद्धान्त के अनुसार जीव के अपने अविकारी भाव अहिंसा है और विकारी भाव ही हिंसा हैं।
दूसरे शब्दों में जो प्रसाद से अभिभूत है वह हिंसक और जो अप्रमत्त है उसे अहिंसक कहा गया है। अहिंसा मानव—मन का स्थायी भाव है। राजनीति के कुचक्र में क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिये, कहीं धर्म के नाम पर, कहीं भाषा और वेष के नाम पर, बार—बार हिंसा को उकसाया जाता है। संतो—महात्माओं के द्वारा जगायी गई अहिंसा की ज्योति को बुझाने का प्रयास किया जाता है, परन्तु वह ज्योति केवल काँप कर रह जाती हैं कभी बुझती नहीं।
अहिंसा अनन्त काल तक मानव मन को प्रकाशित करती रहेगी। वह उधार के तेल से जलाया गया दीपक नहीं है जो घड़ी भर में बुझ जाये। अहिंसा तो एक आंतरिक प्रकाश है। वह मानवता की सहज—स्वाभाविक और शाश्वत ज्योति है। उसे कभी बुझाया नहीं जा सकेगा। भावनाओं के भड़का कर इन्सान को कुछ समय के लिये शैतान बनाया जा सकता है वह उसे हमेशा शैतान रखा नहीं जा सकता। हिंसा पर अहिंसा की विजय का यही सबसे बड़ा प्रमाण है।
अहिंसा जैनधर्म का प्राण है। इसलिये जैन आगम में अहिंसा की प्रेरणा के लिये और हिंसा के निषेध के लिये, बहुत लिखा गया है। लगभग एक हजार वर्ष पूर्व अमृतचन्द्रस्वामी प्रसिद्ध दिगम्बर आचार्य हुये हैं। उन्होंने अनेक शास्त्रों की रचना की। हिंसा और अहिंसा की परिभाषा के लिये उन्होंने एक स्वतंत्र—ग्रंथ लिखा। अहिंसा के मार्ग से चारों पुरुषार्थ सिद्ध हो सकते हैं, ऐसा विश्वास करके उन्होंने अपने ग्रंथ का नाम रखा—‘पुरुषार्थ—सिद्धि—उपाय’।
अमृतचन्द्र स्वामी ने इस ग्रंथ में हिंसा और अहिंसा का इतना सूक्ष्म विश्लेषण किया है कि बाद के आचार्यों ने उनके विषय में यह स्वीकार किया कि—‘हिंसा—अहिंसा के विषय में आगम में जहाँ भी, जो कुछ भी उपलब्ध है, वह बीज के रूप में ‘पुरुषार्थ—सिद्धि—उपाय’ में अवश्य है। जो इस ग्रंथ में नहीं है वह अन्यत्र कहीं नहीं है। उनकी विवेचना के कुछ सूत्र हम यहाँ प्रस्तुत करेंगे।
चित्त में क्रोध—मान—माया—लोभ आदि कषायों की उत्पत्ति ही हिंसा है। चित्त की निष्कषाय, निर्मल परिणति ही अहिंसा है। जीव जब राग—द्वेष—मोह रूप परिणामों से प्रेरित नहीं है, तब प्राणों का व्यपरोपण हो जाने पर भी वह अहिंसक है और जब राग आदि कषायों से युक्त है तब किसी के प्राणों का विघात न होने पर भी वह हिंसक है। हिंसा के सन्दर्भ में प्राय: यह समझा जाता है कि दूसरों को पीड़ा पहुँचाना हिंसा है।
कोई व्यक्ति क्रोधित होकर किसी को मारता है तब निश्चित ही पिटने वाले व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक पीड़ा होती है। इसी पीड़ा को प्राय: हिंसा की सीमा समझ लिया जाता है। परन्तु पीटने वाले व्यक्ति की मानसिक या शारीरिक पीड़ा को या उसके प्राणों के विघात को अनदेखा कर दिया जाता है। परन्तु वह सम्पूर्ण सत्य नहीं है। यह तो अधूरा सत्य है। व्यक्ति जब क्रोधित होता है और दूसरे को मारता—पीटता है तब उसके अपने भी तन और मन दोनों विकृत हो जाते हैं। उसका चित्त अशान्त हो जाता है। वह अपने भीतर एक तनाव महसूस करता है।
इसके बाद ही वह दूसरे के साथ मार—पीट करता है। जैन व्याख्या के अनुसार हिंसा के पूर्व, हिंसक के तन और मन की विकृति भी हिंसा है। वह उसके अपने प्राणों का व्यपरोपण है और पहले वही हिंसा घटित होती है। इस तरह हिंसक व्यक्ति, बाहर को हिंसा के पूर्व, मन में हिंसा की भावना आते ही अपनी स्व का हिंसा का अपराधी हो जाता है और उसके दण्डक स्वरूप पाप—बन्ध कर लेता है।
अहिंसा की मान्यता
अहिंसा को प्राय: सभी विचारकों ने ‘परम—धर्म’ कहा है। गोस्वामीजी ने तो श्रुतियों और संहिताओं की साक्षी—पूर्वक मन—वचन और काया की अहिंसा को निराले ही ढंग से निरूपित किया है—परम धरम श्रुति विदित अहिंसा, पर निन्दा सम अघ न गरीसा।
—रामचरित मानस/उत्तरकाण्ड/१२०—ख
किन्तु मानस में ही उन्होंने सत्य को भी परम—धरम कह दिया— धरमु न दूसर सत्य समाना, आगम निगम पुरान बखाना।
— अयोध्याकाण्ड/९४
आगे चलकर गोस्वामीजी ने परम—धरम की एक और परिभाषा कर दी। उन्होंने परोपकार को भी परम—धरम कह दिया—परहित सरसि धरम निंह भाई, पर पीड़ा सम निंह अधमाई।।
—उत्तरकाण्ड / ४०
यदि इन तीनों पंक्तियों को एक साथ पढ़ा जाये तो मन में एक उलझन पैदा होती है। एक प्रश्न उठता है कि परम—धरम तो एक ही होना चाहिए, वह तीन प्रकार का कैसे हो सकता है ? हर कहीं मुख्य या प्रधान, एक ही होता है। दो तो परम हो ही नहीं सकते। यह प्रश्न बहुत दिन तक मन में अनुत्तरित पड़ा रहा।
एक दिन सुधी रामायणी, मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री शिवदयाल जी के सामने, चर्चा—वार्ता में प्रसंग पाकर मैंने यह प्रश्न रखा। उन्होंने सुगमता पूर्वक इसका समाधान कर दिया उनका चिन्तन था— ‘हमारे पास कुछ करने के लिये मन, वाणी और शरीर, ये तीन ही साधन हैं। धर्म तो वही हो सकता है जो इन तीनों में बस जाये, इन तीनों को पवित्र करे। वास्तव में परम—धर्म तो एक ही है और वह है ‘अहिंसा’।
अहिंसा अपने आप में एक परिपूर्ण जीवन—दर्शन है। मन का सारा सोच विचार और मन के सारे संकल्प, अहिंसा पर आधारित होने चाहिए और अहिंसामय होने चाहिए।
अत: चिन्तन के स्तर पर अहिंसा ही परम धर्म है। हमारे कृत्य भर नहीं, हमारे भाव भी अहिंसामय हों, यह अहिंसा की अनिवार्य शर्त है।’ ‘मन की वह अहिंसा जब वाणी में उतरती है तब सत्य को परम—धर्म की संज्ञा मिलती है। इसी प्रकार शरीर तथा साधनों के माध्यम से जब अहिंसा की साधना की जाती है तब परोपकार या परहित को ही परम—धर्म कहना होगा। परन्तु वाणी और शरीर के ये दोनों परम—धर्म मिलकर अहिंसा को ही श्रेय देगें। उसी की प्रतिष्ठ करेंगे।
संसार के सभी जीव दुखों से बचना चाहते हैं और सुखों की कामना करते हैं। दुखी होना कोई नहीं चाहता। हिंसा ऐसा पाप है जो मरने वाले और मारने वाले दोनों के लिये दुखद है, दुख का मूल है। इसीलिए स्वभावत: सभी हिंसा से बचना चाहते हैं।
अहिंसा सभी के लिये सुखद है, अत: सभी जीव स्वभावत: अहिंसक ही रहना चाहते हैं। महाभारत में अहिंसा का उपदेश पग—पग पर मिलता है। शान्तिपर्व में एक जगह कहा गया है कि—‘अध्ययन, यज्ञ, तप, सत्य, इन्द्रिय—संयम एवं अहिंसा—धर्म का पालन जिस क्षेत्र में होता हो, वही व्यक्ति को निवास करना चाहिय’—यत्र वेदाश्च यज्ञाश्च: तप: सत्यं दमस्तथा। अहिंसाधर्मसंयुक्ता: प्रचरेयु: सुरोत्तमा: स वो देश: सेवितव्यो मा वो धर्म:पदास्पृश्यते।
—महाभारत/ शान्तिपर्व/३४०/-८८-८९ अहिंसा को महाभारत में नैतिक तथा र्धािमक दोनों दृष्टियों से सर्वोच्च प्रतिष्ठा दी गई है— ‘अहिंसा परम धर्म है। अहिंसा ही परम तप है। अहिंसा ही परम सत्य है और अहिंसा ही धर्म का प्रवर्तन कराने वाली है। यही संयम है, यही दान है, यही परम ज्ञान है और यही दान का फल है। जीव के लिये अहिंसा से बढ़कर हितकारी, मित्र और सुख देने वाला दूसरा कोई नहीं हैं’—अहिंसा परमो धर्म:, अहिंसा परमो तप:।
अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्म: प्रवर्तते।। अहिंसा परमो धर्म: अहिंसा परमो दम:। अहिंसा परमं दानं अहिंसा परमं तप:।। अहिंसा परमो यज्ञ: अहिंसा परमो फलम्। हिंसा परमं मित्रं अहिंसा परमं सुखम्।।
अनुशासन पर्व में ही कहा गया—‘देवताओं और अतिथियों की सेवा, धर्म की सतत् आराधना, वेदों का अध्ययन, यज्ञ—तप—दान, गुरु और आचार्य की सेवा तथा तीर्थों की यात्रा, ये सब मिलकर अहिंसा की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हैं, अहिंसा इन सबसे श्रेष्ठ है’—देवतातिथि—सुश्रूषा सततं धर्मशीलता। वेदाध्ययन—यज्ञाश्च तपो दानं दमस्तथा।। आचार्या—गुरु—सुश्रूषा तीर्थभिगमनं तथा। अहिंसा वारारोहे कलां नार्हन्ति षोडशीम्।।
पुराणों में अहिंसा को सर्व धर्मों में श्रेष्ठ धर्म बताते हुये कहा गया—चार वेदों के अध्ययन से या सत्य बोलने से, जितना पुण्य प्राप्त होता है, उससे कहीं अधिक पुण्य—प्राप्ति अहिंसा के पालन से होती है।’—चतुर्वेदेषु यत् पुण्यं यत् पुण्यं सत्यवादिषु। अहिंसायान्तु यो धर्मो गमनादेव तत् फलम्।।
नारद—पुराण में भी अहिंसा की महिमा गाई गई है—‘हे राजन् ! वह अहिंसा सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाली तथा पापों से छुड़ाने वाली है।’—अहिंसा सा नृप प्रोक्ता सर्वकामप्रदायिनी। कर्म—कार्य—सहायत्वमकार्य परिपन्थता।।
ब्रह्म पुराण में देवी पार्वती द्वारा यह पूछने पर कि मुक्ति के पात्र कौन होते हैं, शिव ने उत्तर में कहा—‘मन, वचन और काया से जो पूरी तरह अहिंसक रहते हैं और जो शत्रु और मित्र दोनों का समान दृष्टि से देखते हैं, वे कर्म—बन्धन से छूट जाते हैं। सभी जीवों पर दया करने वाले, सब प्राणियों में क्षमा भाव धारण करते हुए, सभी जीवों में आत्मा का दर्शन करने वाले और मन से भी किसी जीव की हिंसा न करने वाले स्वर्गों के सुख भोगते हैं’—कर्मणा—मनसा—वाचा ये न हिंसन्ति किंचन। तुल्यद्वेष्य—प्रियादान्ता मुच्यन्तें कर्मबन्धनै:।। सर्वभूतदयावन्तो विश्वास्था सर्वजन्तुषु। त्यक्तिंहस—समाचारास्ते नरा: स्वर्गगामिन:।।
शान्तिपर्व में अन्तिम निष्कर्ष निकालते हुये हिंसा को सबसे बड़े अधर्म और अहिंसा को सबसे बड़े धर्म के रूप में रेखांकित किया गया है। उसी प्रसंग में यह भी लिखा गया है कि—‘जीवों के लिये अहिंसा से बड़ा कोई धर्म नहीं है, क्योंकि इसके द्वारा प्राणियों की रक्षा होती है और किसी को भी कोई कष्ट नहीं होता।’—अहिंसा सकला धर्मोऽहिंसाधर्मस्तथाहित: न भूतानामहिंसाया ज्यायान् धर्मोऽस्ति कश्चन। यस्मान्नोद्विजते भूतं जातु किंचित् कथंचन।।
जैन मुनि के आचरण में दोनों प्रकार की हिंसा का त्याग अनिवार्य बताया गया है। राग—द्वेष के सम्पूर्ण अभाव में ही पूर्ण अहिंसा का पालन सम्भव होता है। दौलतराम जी ने मुनियों की जीवन पद्धति दर्शाते हुये कहा—‘सूक्ष्म एक इन्द्रिय से लगाकर संज्ञी—पंचइन्द्रिय तक छहों प्रकार के जीवों की हिंसा का त्याग होने से मुनि जन द्रव्य—हिंसा से विरत रहते हैं, और राग—द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया लोभ आदि विकारी भावों से रहित होने के कारण वे भाव—हिंसा से विरत हैं। इस प्रकार वही सच्चे और परिपूर्ण अहिंसक होते हैं।—षटकाय जीव न हनन तैं सब विधि दरब—हिंसा टरी, रागादि भाव निवारतैं हिंसा न भावति अवतरी।
द्वादस—अनुप्रेक्षा और दसलक्षण धर्म— इस प्रसंग में जैन—उपासना में द्वादस—अनुप्रेक्षा और दस लक्षण धर्मों पर विशेष जोर दिया गया है। अनित्य—अशरण—संसार आदि अनुप्रेक्षाओं के द्वारा संसार की क्षण—भंगुरता का चिन्तन किया गया है। एकत्व और अन्यत्व भावना में जीव की असहाय, एकाकी, निराश्रय स्थिति पर विचार किया गया है। अशुचि और आस्रव भावना में देह की दशा पर विचार करते हुए कर्मों के आने और आत्मा के साथ बँधने के कारण तलाशे गये हैं। संवर और निर्जरा अनुप्रेक्षाएँ चिन्तक को मुक्ति के उपाय बताती हैं। संवर और निर्जरा अनुप्रेक्षाएँ चिन्तक को मुक्ति के उपाय बताती हैं। लोक—भावना भूत—भविष्य और वर्तमान के संदर्भों में उसे उसकी वास्तविकता से परिचित कराती है। बोधि—दुर्लभ—भावना में यथार्थ ज्ञान की दुर्लभता का विचार है तथा अंत में धर्म—भावना के द्वारा जीव को अपने स्वभाव की ओर या यों कहें कि उसके निज—धर्म की ओर प्रेरित किया जाता है।
इसी प्रकार दसलक्षण धर्म में क्षमा—मार्दव—ऋजुता और शुचिता आदि के द्वारा साधक को क्रोध—मान—माया—लोभ के त्याग से लेकर आिंकचन्य और ब्रह्मचर्य के माध्यम से ब्रह्म में लीन हो जाने तक का यात्रा—पथ प्रर्दिशत किया गया है। ध्यान देने की बात यह है कि बारह—भावनाओं में और दशलक्षण धर्मों में कहीं अहिंसा का नाम नहीं है। अहिंसा इन सबसे ऊपर, इन सबका अंतिम लक्ष्य मानी गई है। अहिंसा को साधन नहीं, साध्य माना गया है। अहिंसा की चरम और परम स्थिति प्राप्त करने के ही ये सब उपाय हैं। अहिंसा से बड़ा कोई धर्म है ही नहीं।
जैनाचार पद्धति में गृह—निवास करने वाले गृहस्थों और गृह त्याग कर तपस्या करने वाले मुनियों के लिये धर्म के दो भेद किये हैं। गृहस्थों के लिये ‘‘सागार—धर्म’’ और मुनियों के लिये ‘‘अनगार—धर्म’। इसी आधार पर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शील और अपरिग्रह इन पांच व्रतों को भी दो प्रकार से कहा गया है। पांच पापों का आंशिक त्याग, जो गृहस्थों के लिये साध्य है, उसे ‘पंच—अणुव्रत’ रूप में निर्देशित किया गया है और इन्हीं पांच पापों का सम्पूर्ण त्याग जो केवल मुनियों के द्वारा साध्य है, पांच—महाव्रतों के नाम से कहा गया है।
भाव हिंसा और द्रव्य—हिंसा— हिंसा मन—वाणी और शरीर तीनों के माध्यम से होती है। परन्तु जब हिंसा की बात आती है तब प्राय: वाणी और शरीर के माध्यम से होने वाली हिंसा को रोकने पर जोर दिया जाता है। मन के माध्यम से होने वाली हिंसा को रोकना अनावश्यक या असम्भव मानकर उसकी चर्चा छोड़ दी जाती है। जैनाचार्यों ने मन के माध्यम से होने वाले पापों को रोकने पर अपेक्षाकृत अधिक जोर दिया है।
उनकी मान्यता है कि मन के पाप रोके बिना वचन और तन के पाप नहीं रोके जा सकते। उन्होंने यह भी माना है कि जीव को अपनी करनी से जो कर्म बन्ध होता है उसमें फल देने वाली शक्तियाँ उसके मानसिक व्यापार के आधार पर ही उत्पन्न होती हैं। इस चिन्तन के आधार पर जैन संतों ने हिंसा को ‘भाव—हिंसा’ और ‘द्रव्य—हिंसा’ के रूप में दो प्रकार से कहा है। प्राणियों को पीड़ा पहुँचाने का, या उनके घात का विचार करना—‘भाव हिंसा’ है।
प्राणियों को पीड़ा पहुँचाने वाली और उनका घात करने वाली क्रिया ‘द्रव्य—हिंसा’ है। मूल में भाव—हिंसा अनिवार्य रूप से मौजूद रहती है। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि जहाँ भाव—हिंसा हो वहाँ उसके फल—स्वरूप द्रव्य—हिंसा होइसका कारण यह है कि किसी का विघात केवल हमारे सोचने से या हमारे कुछ करने मात्र से नहीं हो जाता। जीव का विघात होने में, उसका अपना प्रारब्ध तथा अन्य अनेक बाहरी कारण भी महत्व रखते हैं।
यह निश्चित है कि किसी का विघात हो या न हो, हिंसा के परिणाम करने वाले जीव को उस विघात का पाप लगता है। उसका फल भी उसे भोगना पड़ता है। इस प्रकार हमारे कर्म—बन्ध में द्रव्य—हिंसा से अधिक भाव—हिंसा से अधिक भाव—हिंसा का महत्त्व है। इससे एक तथ्य यह भी प्रगट होता है कि अपने मन की मलिनता के कारण हम ऐसे अनगिनत पापों का फल भोगते हैं जो हमने कभी किये ही नहीं होते। केवल चित्त की चंचलता के कारण और राग—द्वेष की तीव्रता के कारण, तरह—तरह के कुत्सित विचार हमारे मन में उठते रहते हैं।
उनके दुखद परिणाम भोगने के लिये हम मजबूर हैं। भाव—हिंसा और द्रव्य—हिंसा की तरह सभी पाप—वृत्तियों को मानसिक स्तर पर और भौतिक या स्थूलता के स्तर पर, दो प्रकार से समझा जाना चाहिये। झूठ भी ‘भाव—झूठ’ और ‘द्रव्य—झूठ’ के प्रकार से दो तरह का है। चोरी और कुशील भी इसी तरह दो—दो प्रकार के हैं। इसी प्रकार परिग्रह को भी मानसिक और भौतिक स्तर पर बांटकर समझना होगा। लौकिक न्याय—पद्धतियों में भी भाव—हिंसा को द्रव्य—हिंसा से अधिक महत्व दिया जाता है। विश्व की सारी न्याय—व्यवस्था इसी आधार पर अवलम्बित है। इसे एक उदाहरण से समझेंगे।
किसे कितनी सजा— हमारे नगर में एक दिन तीन घटनायें घट जाती हैं। तीनों में एक—एक व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। एक व्यक्ति को लूटने के लिये कोई डाकू उसके सीने में छूरी भोंक देता है। दूसरी जगह किसी वाहन दुर्घटना में एक व्यक्ति कुचल कर मर जाता है। तीसरी घटना में एक मरीज ऑपरेशन की टेबिल पर शान्त हो जाता है। तीनों घटनाओं में एक—एक व्यक्ति के निमित्त से एक—एक व्यक्ति का जीवन समाप्त हो जाता है।
इस प्रकार स्थूल दृष्टि से तीनों घटनाओं का प्रतिफल एक होते हुए भी तीनों व्यक्तियों की मानसिकता में बहुत अन्तर है। उनके अभिप्राय एकदम अलग—अलग हैं। इसीलिए पुलिस डायरी में और न्यायालय के फैसले में, डाकू, ड्राइवर और डॉक्टर, इन तीनों के लिये जुदी—जुदी व्यवस्था होगी। उनका अपराध घटना के प्रतिफल से नहीं, उनके मानसिक संकल्पों से तौला जायेगा। डाकू को व्यक्ति की हत्या का दोषी ठहराया जायेगा और मृत्यु दण्ड जैसा कठोर दण्ड दिया जायेगा। उसके द्वारा आहत व्यक्ति यदि एक बार बच भी जाये तब भी डाकू को हत्या के प्रयास के लिये दण्डित किया जायेगा।
ड्राइवर को हत्या का दोषी नहीं ठहराया जा सकता। उसे घटना के तथ्यों के अनुरूप या तो अयोग्य वाहन चलाने अथवा असावधानी से वाहन चलाने का दोषी मानकर कुछ हल्का दण्ड दिया जायेगा। परन्तु डॉक्टर को अन्तिम साँस तक रोगी को बचाने के उपाय करने के लिये सराहा जायेगा।
पुलिस और कानून तो उसे कुछ बोलेगे ही नहीं, रोगी के सम्बन्धी भी उसका उपकार ही मानेंगे कि—‘आपने तो अन्त—अन्त तक प्रयत्न किया परन्तु उसकी आयु समाप्त हो गई थी, या हमारा भाग्य ही ऐसा था।
लोक—परलोक की व्यवस्था, कर्म—बन्ध और कर्म—फल का गणित भी लौकिक कानून के अनुरूप, पूरी तरह ऐसे ही प्राकृतिक न्याय पर आधारित है। भौतिक—हिंसा का स्वरूप चाहे जैसा हो उसमें संलग्न सभी लोगों को अपनी—अपनी भाव—हिंसा के अनुसार कर्म—बन्ध होता है।
इसीलिये तो कभी—कभी दूर बैठा हुआ व्यक्ति उस पाप का भागीदार होता है जबकि साक्षात् संलग्न दिखाई देने वाला व्यक्ति उतना भागीदार नहीं होता। कोई करता नहीं है फिर भी उसे कर्म का फल भोगना पड़ता है। भावों की ऐसी ही विचित्रता है। इसीलिये पाप में जाते मन को अंकुश लगाने की आवश्यकता है। मानसिक पाप ही भाव —हिंसा है।
विचित्र हैं हिंसा के समीकरण— द्रव्य—हिंसा और भाव—हिंसा के ऐसे—ऐसे समीकरण बनते रहते हैं कि कई बार हिंसा और अहिंसा का गणित कुछ विचित्र सा लगने लगता है। जैसे कहीं हिंसा एक व्यक्ति करता है और उससे होने वाला पाप—बंध अनेकों को होता है। या हिंसात्मक कार्य अनेक लोग मिलकर करते हैं परन्तु उसका फल एक ही व्यक्ति को भोगना पड़ता है।
करें एक : भोगे अनेक— कुछ लोग पशु—पक्षियों को लेकर व्रूर खेलों का प्रदर्शन करते हैं। इन खेलों में अनेकों पशु—पक्षियों का निर्दयता—पूर्वक घात कर दिया जाता है। खेल का आयोजन या दिखाने का कार्य कुछ लोग करते हैं। वे तो पाप के भागी होते ही हैं परन्तु हजारों लोग जो उन खेलों को देखने जाते हैं, उन्हें प्रोत्साहित करते हैं और उनकी प्रशंसा—अनुमोदना करते हैं, वे सब भी उस हिंसा के भागीदार होते हैं। यहाँ करने वाला एक होता है या कुछेक होते हैं, परन्तु उसका फल भोगने वाले अनेक या बहुत अधिक लोग होते हैं।
करें अनेक : भोगे एक— एक राज्य का स्वामी दूसरे राज्य पर आक्रमण करके उसके साथ युद्ध छेड़ देता है। हजारों सैनिक एक दूसरे को मारते हुये मर जाते हैं। यहाँ हिंसा का कारण सिर्फ युद्ध छेड़ने वाला व्यक्ति ही है। वही वास्तव में हिंसक है और उस पूरी हिंसा का जिम्मेदार है। सैनिक तो केवल अपनी आजीविका के लिये शस्त्र चलाते हैं। उन्होंने ऐसी नौकरी चुनी या मजबूरी में उन्हें ऐसी नौकरी स्वीकार करनी पड़ी, जिसमें दूसरी के हित के लिये किसी को मारना पड़ता है या स्वयं मरना पड़ता है। उतनी दूर तक वे उसका फल भी भोगेंगे, परन्तु यहाँ करने वाले अनेक होते हैं और उसका फल भोगने वाला एक होता है।
करें थोड़ा : भोगें बहुत— हिंसा के तीव्र परिणामों में यदि हिंसा अल्प भी होगी तो भी उस हिंसा का तीव्र फल भोगना पड़ेगा। किसी के परिणाम तो अधिक तीव्र—हिंसा के नहीं हैं परन्तु अचानक उसके हाथ से हिंसा अधिक हो गई, ऐसी हालत में अधिक हिंसा होते हुए भी फल अल्प ही भोगना पड़ेगा। कभी—कभी ऐसा हुआ है कि बालक की आदतें सुधारने के लिये माँ ने उसे एक—दो चाँटे मारे और कहीं मर्म—स्थल पर चोट लगने के कारण बालक की मृत्यु हो गई। ऐसी घटना में माँ को हत्यारिन नहीं कहा जाता। उसे हत्या का पाप भी नहीं लगेगा।
करें समान : भोगे हीनाधिक— कभी कई लोग मिलकर हिंसा का कोई कार्य करते हैं। ऐसा समझना ठीक नहीं होगा कि उसका फल भी उन्हें एक सा लगेगा। कार्य करते समय उसे लेकर सबकी भावनाएं जुदी—जुदी हैं। किसी के मन में तीव्रता है, किसी के मन में मंदता है हो सकता है उस समय किसी के मन में उस कार्य के प्रति अरुचि भी हो। कार्य सम्मिलित प्रयत्नों से हुआ है फिर भी अपनी—अपनी भावनाओं के अनुरूप किसी को हिंसा का अधिक फल भोगना पड़ेगा और किसी को कम फल ही भोगना होगा।
करें बाद में : भोगें पहले— हिंसा के संकल्प में और हिंसा की क्रिया में समय भेद होता है। पाप—बंध तो संकल्प के साथ ही हो जाता है। हिंसा बाद में होती रहती है। ऐसे में कई बार हिंसा होने के साथ ही साथ हिंसक को उसका फल भी मिल जाता है। कई बार फल पहले मिल जाता है, हिंसा बाद में होती रहती है।
करे कोई : भरे कोई— कई बार अनजान व्यक्ति को या भोले बालकों को फुसलाकर किसी को गोली का निशान बनवा दिया जाता है। कई बार किराये के हत्यारों के माध्यम से अपनी राह का रोड़ा हटाया जाता है। ऐसी हालात में जिसके हाथ से प्राणि—घात होता है उसे उतनी हिंसा नहीं लगती जितनी उसे प्रेरित करने वाले को लगती है। पाप के लिये प्रेरणा देने वाला ही वास्तविक पापी माना जाता है। इस प्रकार हिंसा की योजना और हिंसा की क्रिया के अनुसार उसके समीकरण बदल जाते हैं। परन्तु यह अटल नियम है कि हिंसा के अपराधी को भाव—हिंसा के अनुरूप फल भोगना ही पड़ता है। कर्म की अदालत में प्राकृतिक न्याय होता है। वहाँ कोई छल—कपट नहीं चलता।