मगध देश के अन्तर्गत ‘‘लक्ष्मीनगर’’ नाम का एक सुन्दर गाँव था। वहाँ पर सोमशर्मा ब्राह्मण रहता था, उसकी भार्या का नाम लक्ष्मीमती था। लक्ष्मीमती युवती होते हुए अनन्य सौंदर्य से युक्त भी थी। सुन्दरता के साथ-साथ पतिव्रत धर्म भी उसका विशेष गुण था और भी अनेक गुणों के होते हुए भी उसमें ‘‘जातिमद’’ नाम का एक बहुत बड़ा दोष था। वह उस अहंकार में अपने आगे किसी को कुछ भी नहीं गिनती थी। एक समय एक पक्ष (पंद्रह दिन) का उपवास करके आहार के लिए श्री समाधिगुप्त महामुनि गाँव में प्रवेश करते हैं। सोमशर्मा उन्हें पड़गाहन कर उच्च आसन पर विराजमान करता है पुन: कुछ विशेष कार्यवश बाहर चला जाता है और पत्नी से आहार देने के लिए कह जाता है। उस समय लक्ष्मीमती बैठी हुई काँच में अपना मुख देख रही है। वह पति के वचन सुनकर भी अनसुना कर देती है और अपने रूप-सौंदर्य के अभिमान में उन्मत्त होती हुई उन मुनि को गालियाँ देने लगती हैं..। अरे नग्न! तुझे लज्जा भी नहीं आती? ऐसा अर्धजर्जरित घिनावना शरीर धारण कर रहा है! देख, कभी स्नान न करने से तेरे शरीर पर कितना मैल जम रहा है, तुझे देखकर सभ्य लोगों को ग्लानि आये बगैर नहीं रहती। भाग जा यहाँ से, तू महा अपवित्र है। इत्यादि वचनों को सुनकर मुनिराज मन में अंतराय मानकर वहाँ से चले गये, तब उस मूर्खा ने हँसते हुए अपने घर के दरवाजे बंद कर लिए। अहो! उसे क्या पता कि हमारे घर में आज निधि आई हुई थी, सो आई हुई निधि वापस चली गई। निधि गई सो तो गई ही किन्तु उसकी निंदा से जो महापाप संचित हो गया, उसका फल उसे उसी जन्म में ही भोगना पड़ा, उतने से ही पाप नहीं छूटा, किन्तु कई जन्म तक उसे दुर्गतियों के दु:ख उठाने पड़े। यद्यपि वे मुनिराज परमशांत स्वभावी थे, सबका हित करने वाले थे, अनेक गुण से युक्त थे और उज्ज्वल चारित्र के धारक थे। उनके मन में उस ब्राह्मणी के दुष्ट व्यवहार से किंचित् मात्र भी क्षोभ या क्लेश नहीं हुआ, न उन्होंने उसका अहित ही सोचा किन्तु पाप का फल तो कड़ुवा ही होता है। उस लक्ष्मीमती के सारे शरीर में सात दिन के भीतर महाकुष्ट रोग फूट निकला और ऐसी दुर्गन्धि आने लगी जिसके सहन करने में असमर्थ हुए घर वालों ने उसे घर से निकाल दिया। यह कष्ट वह सहन न कर सकी। वेदना नामक आर्तध्यान से पीड़ित होती हुई वह स्वयं अग्नि में जलकर मर गई।
इस पाप से मरकर वह उसी गाँव में एक धोबी के यहाँ गधी हो गई। इस दशा में भी वहाँ उसे माँ का दूध नहीं मिला। वहाँ से मरकर सूकरी हो गई पुन: दो बार उसने कुत्ती के जन्म को धारण किया। वहाँ पर भी वह कुत्ती वन की दावानल अग्नि में जल गई। उस पर्याय से निकलकर भृगुकच्छ गाँव में एक मल्लाह के यहाँ कन्या हो गई। माता-पिता ने उसको भाग्यहीन देखकर उसका काणा नाम रख दिया। जन्म से ही इसके शरीर से महा दुर्गन्ध निकल रही थी जिससे कि इसके निकट कोई भी बैठने में समर्थ नहीं हो पाते थे। ओह! कहाँ तो वह लक्ष्मीमती देवी? और कहाँ वह निंद्य कन्या? अभिमान का फल कितना बुरा होता है और साथ ही मुनिनिन्दा से बढ़कर तो संसार में अन्य कोई महापाप है ही नहीं। इस घटना को सुनकर बुद्धिमानों को कभी भी जाति, रूप और धन, ऐश्वर्य आदि का घमंड नहीं करना चाहिए और न ही मुनियों के प्रति दुर्वचन निकालने चाहिए। एक दिन यह काणा कन्या लोगों को नदी पार करा रही थी। वह देखती है कि नदी के किनारे एक दिगम्बर मुनि तपस्या में लीन हैं। पास में पहुँचती है और नमस्कार करके पूछती है- ‘‘भगवन्! मैंने आपको कहीं और भी देखा है, ऐसा मुझे स्मरण हो रहा है।’’ मुनिराज बोलते हैं- बेटी! तूने मुझे पाँच भव पूर्व लक्ष्मीमती ब्राह्मणी की पर्याय में देखा है। वह पूछती है- ‘‘गुरुदेव! क्या मैं पाँच भव पूर्व लक्ष्मीमती नाम की ब्राह्मणी थी पुन: मैं इस नीच कुल में कैसे आ गई?’’ ‘‘पुत्रि! तूने घर में आये हुए मुझ साधु को गालियाँ देकर निकाल दिया। जाति के अभिमान में आकर तूने मुनिनिंदा की जिसके पाप से कुष्ट रोग से पीड़ित हो मरकर गधी हो गई, सुअर हुई, दो बार कुत्ती हुई पुन: कुछ कर्म के मंद होने से यह मानव योनि तुझे मिल गई, किन्तु पाप का फल तुझे अभी कुछ और भोगना शेष रहा है जिससे तू नीच कुलीन के यहाँ कन्या हो गई है।’’ इतना सुनते ही उस काणा को अपने पूर्वभवों का जातिस्मरण हो आया। जिससे वह रोने लगी और करुण व्रंदन करते हुए बोली- ‘‘हे भगवन्! मैं महापापिनी हूँ, मैंने आप जैसे महामुनियों की निंदा करके जो पाप उपार्जित किये हैं, उसके फल को अब नहीं भोगना चाहती हूँ। हे कृपा सिंधु! कुछ ऐसा उपाय बतलाइये कि जिससे उस पाप से मेरा छुटकारा हो जावे। हे नाथ! अब मेरी रक्षा करो, मुझे दुर्गतियों में जाने से बचाओ।’’ मुनिराज उसकी दीनवाणी को सुनकर करुणा से प्लावित हो उठे, यद्यपि वे बिना कारण ही परोपकार में निरत हुए रहते थे किन्तु उस समय उसकी करुणामयी पुकार से उसमें विशेषरूप से अनुकंपा जागृत हो गई। वे बोले….
‘‘हे पुत्रि! धैर्य धारण कर , अब तूने गुरु का आश्रय लिया है, तो अब तू नियम से दुर्गतियों के दु:खों से छूट जावेगी।’’ गुरु के अमृततुल्य वचन से उसके मन में शांति हुई, तब गुरु ने उसे अणुव्रत का उपदेश दिया। उसने भी धर्मोपदेश सुनकर यथाशक्ति श्रावक के व्रत ग्रहण किये। अपने योग्य तपश्चर्या को करते हुए कालांतर में उसने शुभभावों से शरीर का त्याग किया और स्वर्ग में उत्तम ऋद्धि की धारक देवी हो गई। वहाँ के दिव्य सुखों को भोगकर वही काणा का जीव कुण्डनगर के राजा भीष्म की महारानी यशस्वती के रूपिणी नाम की बहुत सुन्दर कन्या हो गई। इस कन्या के युवती होने पर इसका विवाह वासुदेव के साथ सम्पन्न हुआ और वासुदेव की आठ महादेवियों में यह भी एक महादेवी हुई है। अनन्तर श्री नेमिनाथ भगवान के समवसरण में प्रभु की दिव्य देशना सुनकर विरक्त होकर स्त्रीपर्याय का छेदकर सम्यग्दर्शन के प्रभाव से महद्र्धिक देवपद को प्राप्त किया है। वास्तव में सम्यग्दर्शन का एक ऐसा ही माहात्म्य है कि जिसके प्राप्त हो जाने के बाद यह जीव स्त्री पर्याय में नपुंसक वेद में, एकेन्द्रिय आदि तिर्यंचयोनि में, नारक योनि में, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियों में तथा हीन, दरिद्रों और नीच कुलीन मनुष्यों में भी जन्म धारण नहीं करता है। उत्तम-उत्तम देवों के सुखों का अनुभव कर पुन: अनुक्रम से उच्च कुलीन मनुष्य पर्याय में आकर राजा-महाराजा-चक्रवर्ती आदि के अभ्युदय को भोगकर पुन: जैनेश्वरी दीक्षा के द्वारा कर्मों को काटकर मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेता है अत: प्रत्येक प्राणी का यह कर्तव्य है कि जाति मद आदि को छोड़कर मुनि-आर्यिका आदि की निंदा से दूर रहते हुए भी अपने में सम्यग्दर्शन को प्रगट करे पुन: ज्ञान की आराधना करते हुए एक देश अणुव्रतों का पालन करे और शक्ति हो तो महाव्रती मुनि या आर्यिका बनकर अपने संसार की परम्परा को घटाने का प्रयत्न करें, यही मानव जीवन का सार है।