अनन्तकाल से जितनी भी मुक्तात्माएं हुयीं, उनमें स्वभावत: भेद नहीं है। जैसे खान से जितना सोना निकाला उसके हजारों आभूषण बने, उन आभूक्षणों के आकार में तो भेद है, कोई अंगूठी है तो कोई माला है पर खास सोने में कोई फर्क नहीं होता है, उसी प्रकार जितनी मुक्तात्मायें हैं उनके जीवन, चारित्र व्यवहारिक बातों में फर्क है, पर मुक्तात्माओं की वीतरागता में, परमात्मत्व में, स्वरूप में कोई फर्क नहीं है।
उनके जन्म स्थान आदि में तो पर्क है, जैसे कृष्ण का जन्म कारागृह में हुआ, जो हनुमान का जंगल में, बीच के जीवनक्रम में फर्क और हो सकता है। जैसे सोने के आभूषणों के आकारों में फर्क है, पर उसकी कांति में कोई फर्क नहीं है वैसे ही वीतरागी आत्माओं व भगवानों में स्वरूपगत कोई भेद नहीं है। भारत देश श्रमणों की जन्मस्थली रहा। अनादि काल से इस देश में ऋषि परम्परा की अक्षुण्णता से धर्म की संतति सतत् प्रवाहित रही। इस श्रमण परम्परा में वर्तमान शासनाधीश तीर्थंकर महावीर के मोक्ष गमन के पश्चात् सत्रहवीं शताब्दी (ईसवी सन् १०७३ से ११७३) में अजितसेन नाम के एक दिग्गज विद्वान् हुए।
भारतीय श्रमण परम्परा में प्राचीन जैन आचार्यों का इतिहास प्राप्त होना अति कठिन कार्य है कारण कि वीतरागी सन्तों ने कहीं भी अपने माता—पिता, जन्मस्थली आदि का परिचय नहीं दिया। इससे उनकी वीतराग, निस्पृह प्रवृत्ति का अनुपम परिचय मिलता है। आचार्यश्री अजितसेन जी के जन्म स्थल, माता—पिता आदि का पूर्ण परिचय अज्ञात रूप सा है।
फिर भी प्राप्त जानकारी के अनुसार विद्वज्जनों ने तमिल प्रदेश के पोलोरु तालुका के तिरुमलै नामक प्राचीन क्षेत्र में आपका जन्म सिद्ध किया है। आपका जन्म नाम औडयदेव था। गद्य चिन्तामणि ‘‘ग्रंथ के पुष्पसेन मुनिनाथ इति प्रणीता’’ इत्यादि पद्य से स्पष्ट होता है कि आप श्री पुष्पसेन मुनि के शिष्य थे। आपका दीक्षा नाम ‘‘अजितसेन’’ है और पाण्डित्योर्पािजत उपाधि (नाम) वादीभसिंह है।
आप तर्क व्याकरण छन्द काव्य अलंकार और कोश आदि के पूर्ण मर्मज्ञ थे। आपके वादित्व गुण की विद्वत्समाज में कितनी प्रसिद्धि थी इस बात का निदर्शन आपकी वादीभसिंह ही पर्याप्त है। आपका जैन समाज में विशेष प्रभुत्व व सम्मान रहा। साधारण श्रावक से लेकर बड़े—बड़े राज्य कर्मचारी व राजा लोग आपके परम भक्त रहे। श्रमण बेलगोल की मल्लिेषण प्रशस्ति से शांतिनाथ और पद्मनाथ नामक आपके दो शिष्यों का उल्लेख पाया जाता है।
पोम्बुज के नं. ३७ सनू ११४७ के एक स्तम्भलेख से यह भी विदित होता है कि पम्पादेवी नामक आपकी एक विदुषी शिष्या भी थी, जो तैलसान्तर की सुपुत्री और राजा बिम्बसार की भगिनी थी। वादीभसिंह आचार्य के नाम से आप जैन साहित्याकाश में प्रसिद्धि को प्राप्त हुए। आपकी दो कृतियाँ आज भी उपलब्ध हैं—
१. क्षत्र चूड़ामणि और दूसरी गद्य चिन्तामणि। इनमें क्षत्र चूड़ामणि तो संस्कृत साहित्य का एक प्रधान नीति ग्रंथ ही कहा जा सकता है। इसके प्रत्येक श्लोक के उत्तरार्ध में नीति कही गई है।
छत्र चूड़ामणि में अन्तिम कामदेव जीवन्धर स्वामी का कथा विषय रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। सम्पूर्ण कथाविषय एकादश लम्बों में विभक्त है।
१. लम्ब शब्द—लम्बस्यार्थं—उपलब्धि, प्राप्ति। किसी भी उद्देश्य को लेकर उपलब्धि ही लम्ब में निबद्ध होती है।
२. लम्बेन तात्पर्य—लम्बयति इत्यपि वर्तते।
३. कथाविषयस्य य: खण्ड जीवनकालस्य एकांशेन सह संबंधित: भवति स एव लम्बेति ख्यातम् प्रसिद्धम् च।
४. लम्ब शब्द मूलप्राकृतेन गृहीत:।
५. स्त्रिया: प्राप्ति अर्थात् एकस्मिन् विवाहे एकस्या: स्त्रिया: प्राप्ति लम्बके गुम्फित: अर्थात् तस्या: उपलब्धे कथा एव लम्बे र्विणता।
यद्यपि स्पष्ट है, कि यहाँ आचार्य श्री वादीभसिंह ने लम्ब शब्द का प्रयोग सर्ग शब्द के पर्यायवाची रूप में किया है, किन्तु साहित्यकारों का सिद्धान्त है कि
‘‘यस्मिन् काव्ये नायकस्य बहुविवाह: र्विणता: तस्मिन् काव्येऽवलम्ब शब्द प्रचलितोऽस्ति।
निष्कर्षत:—
‘‘बहुविवाहविषयकथायां लम्बशब्द इति क्रियते।’’
जिस काव्य का नायक बहुविवाहों से बद्ध होता है, उसके एक—एक विवाह की कथा लम्ब में निबद्ध होती है। वादीभििंसह आचार्य के क्षत्र—चूड़ामणि काव्य के के नायक जीवन्धर स्वामी के आठ विवाह हुए, अत: उन्होंने साहित्य की गरिमा को ध्यान रखते हुए लम्ब शब्द का प्रयोग किया है। पूर्ण काव्य कर्म वैचित्र्य से भरा है।
लौकिक व आध्यात्मिक सैद्धान्तिक तत्त्वों का गहरा निचोड़ काव्य में पाया जाता है। ग्रंथ के कई स्थल हृदय को छूकर अन्त:करण को झकोर देते हैं। पाठक भाव—विभोर हो तल्लीन हो जाता है। कुछ नैतिक व तात्विक स्थलों को यहाँ दर्शाने का प्रयास करती हूँ।
क्व पूज्यं राजपुत्रत्वं, प्रेतावासे क्व वा जनि:।
क्व वा राज्यपुन: प्राप्ति—रहो कर्मविचित्रता।।
तद्भव मोक्षगामी राजपुत्र पदधारी होकर भी जीवन्धर का श्मशान भूमि में जन्म लेना, फिर एक साधारण व्यक्ति के यहाँ पालन—पोषण होना, उधर पिता की मृत्यु और माता का योगिनी रूप में आश्रमों में वास होना। जीवन्धर काष्ठांगार के द्वारा मृत्यु के सम्मुख कराये जाने पर भी उससे बचकर देश—देशान्तरों में घूमते हुए आदर के साथ कई राजकन्याओं का प्राप्त होना और अन्त में माता से मिलाप, राजपुरी आकर अपनी राजलक्ष्मी का पुन: प्राप्त होना, पुन: माता का वियोग—माता द्वारा वैराग्य पाकर दीक्षा लेना अन्त में स्वयं भी जिनदीक्षा लेकर निर्वाण प्राप्त करना। यही कर्म वैचित्र्य इस काव्य की मूल कथा वस्तु है।
जीवन्धर एक पुण्यवान् पुरुष थे। उनके प्रबल पुण्य के प्रभाव से और सेवा भावना से मुनि की भस्मक व्याधि भी शान्त हो गई थी। वह साधु भी लम्बे समय तक विचरने लगे।
‘‘महोपकारिणास्याहं कि करोमीत्यचिन्तयत्’’
इसलिये लिखा है—
‘‘शरण्यं सर्वजीवानां, पुण्यमेव ही नापरम्’’
सभी जीवों को पुण्य ही शरण है।
विपद: परिहारय शोक: कि कल्पते नृणाम्।
पावके न हि पात: स्या—दातप क्लेशशान्तये।।१।३० क्ष. चू.।।
मानव जीवन विपत्तियों का घर है। विपत्ति के आने पर जीव शोक करता है उसको सम्बोधन कर आचार्य कहते हैं—विपत्ति को दूर करने के लिये शोक क्यों करते हो ? गर्मी का दुख शान्त करने के लिये अग्नि में नहीं गिरा जाता’’।
विषयासक्ति— विषयासक्तचित्तानां गुण: को वा न नश्यति।
न वैदुष्यं न मानुष्यं नाभिजात्यं न सत्यावाक्।। १ लं. श्लो. १०।।
विषयों में आसक्त जीव के विद्वता, कुलीनता, मानवता आदि सभी गुण नष्ट हो जाते हैं।
सच्चा तप— तत्तपो यत्र जन्तुनां, सन्तापो नैव जातुचित्।
तच्चारम्भ निवृत्तौ, स्यान्नह्यारम्भो वििंहसन:।।क्ष. लं. ६—१४।।
जिसमें अन्य प्राणियों को जरा भी क्लेश नहीं होता वही वास्तविक तप है। ऐसा तप स्नान और पंचाग्नि आदि आरम्भ के त्याग करने पर ही हो सकता है क्योंकि आरम्भ में हिसा का होना अनिवार्य है।
तत्वज्ञानं च जीवादि तत्त्वयाथात्म्यनिश्चय।
अन्यथा धीस्तु लोकेस्मिन् मिथ्याज्ञानं तु कथ्यते।।
जीवादि सप्त तत्वों का सत्यार्थ निश्चय सम्यग्यान है इससे भिन्न सर्वज्ञान मिथ्या कहा गया है।
सम्यक् चारित्र—आप्तागमपदार्थख्य—तत्वेदन—तद्रुची।
वृत्तं च तदद्वयस्यात्मन्नयस्खलद्वृत्ति धारणम्।।क्ष. ६—२०।।
देव—शास्त्र गुरु व सत्यार्थ सप्त तत्वों का यथार्थ श्रद्धान व ज्ञान व उसी में अटल रूप से धारण सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र हैं।
शान्तरस—नैग्र्रंथ्यं हि तपो न्यत्तु, संसारस्यैव साधनम्।
मुमुक्षूणां हि कामोऽपि, हेय: किमपरं पुन:।।क्ष. ६—१६।।
निश्चय से परिग्रह का त्याग ही तप है, इससे भिन्न सब तप संसार का ही कारण है। मुमुक्षु के लिये स्वशरीर भी त्याज्य कहा गय है फिर अन्य का कहना ही क्या है ?
गुरुभक्ति—गुरुभक्ति: सती मुक्त्यै, क्षुद्रं कि वा न साधयेत्।
त्रिलोकीमूल्यरत्नं न, दुर्लभ: कि तुषोत्कर:।।२—३२।।
जैसे बहुमूल्य रत्न से भूसे का ढेर खरीदना ना कुछ बात है वैसे ही जब निष्कपट भाव से विहित गुरु भक्ति से भी जब परम्परा से मुक्ति प्राप्त हो सकती है तो अन्य लौकिक कार्यों की र्पूित होना तो ना कुछ बात है।
धनान्ध मनुष्य की दशा—न शृण्वन्ति न बुध्यन्ति, न प्रयाति च सत्पथम्।
प्रयान्तोऽपि न कार्यान्तं धनान्धा इति चिन्त्यन्ताम्।।२—५६।।
धन से उन्मत्त मनुष्य कल्याण मार्ग को न सुनता है न समझता है न उस पर चलता है, चलता हुआ भी कार्य की पूर्णता को प्राप्त नहीं होता।
सत्संगति—सदसत्संगमादेव, सदसत्वे नृणामपि।
तस्मात्सत्संगता: सन्तु, सन्तो दुर्जन दूरगा:।।६६।।
मनुष्य सत्संगति से सज्जन व कुसंगति से दुर्जन हो जाता है अत: आत्महितैषियों का कर्तव्य है कि वे सत्संगति करें और कुसंगति से दूर रहें।
व्रूरवृत्ति—व्रूरा कि कि न कुर्वन्ति।।४/४।।
दुष्ट क्या क्या नहीं करते हैं ?
पाण्डित्यस्यवैभव—पाण्डित्यं हि पदार्थानां गुणदोष विनिश्चय:।।४/२०।।
पदार्थों के गुण दोष का निश्चय करना पाण्डित्य का वैभव है।
शठानां दुष्चरितं—पन्नगेन पय: पीतं विषस्येव हि वर्धनम्।।५/६।।
सर्प को पिलाया गया दूध विष को ही बढ़ाता है वैसे ही दुष्टों के साथ किया गया सदूव्यवहार भी बैर का ही कारण बनता है। नारीणां प्रकृति—(नारी का स्वभाव)
अंगारसदृशीनारी, नवनीत समानरा।
तत्तत्सानिध्यमात्रेण, द्रवेत्पुंसां हि मानसम्।।६/२८।।
नारी अंगार के समान है, और पुरुष मक्खनवत् है। नारी के सानिध्य मात्र से पुरुष का मानस मक्खन समान पिघल जाता है। क्षत्र—चूड़ामणि काव्य ग्रंथ में लौकिक व नैतिक सैद्धांतिक नीतियां दृष्टव्य है इसी प्रकार अनेक नीतियों से भरा यह नीति का अमर काव्य है। कुछ नीतियाँ और भी दृष्टव्य हैं—
(१) दीपनाशे तमोराशि किमाव्हानमपेक्षते।
दीप के बुझते ही तमोराशि स्वयं आती है बुलाने की आवश्यकता नहीं वैसे ही पुण्य का नाश होते ही पाप को बुलाना नहीं पड़ता।
प्रदीपैर्दीिपते देशे न ह्यस्ति तमसो गति:।
जिस देश में दीप का प्रकाश हो गया है वहाँ अंधकार नहीं ठहरता, उसी प्रकार जहाँ धर्म का प्रकाश है वहाँ अधर्म नहीं आ सकता है।
‘‘र्धािमकाणां शरण्यं हि र्धािमका’’
धर्मात्माओं के सहायक धर्मात्मा ही होते हैं दुर्जन नहीं। दुर्जन तो जिस प्रकार नेवला स्वभाव से ही सर्प का वैरी होता है उसी प्रकार धर्मात्माओं का स्वाभाविक वैरी होता है। आचार्यश्री ने इस महाकाव्य नीति ग्रंथ में एक—एक नीति को स्वर्ण में पुखराज की तरह मानो जड़ दिया है। स्वर्ण में पुखराज की कीमत तो आंकी जा सकती है पर रत्न जड़ित इस स्वर्ण काव्य की एक—एक नीति का मूल्य चुकाना अति दुर्लभ है। आचार्यश्री की दूसरी प्राप्त कृति है—‘‘गद्य चिन्तामणि’’ ! गद्य चिन्तामणि की विवेचनशैली तो महाकवि बाण की रचना पद्धति को भी परास्त करती है।
अष्टसहस्री ग्रंथ के मंगलाचरणगत पद्य पर प्रदत्त ‘‘तदेव महाभागै:’’ इत्यादि टिप्पण से यह भी ध्वनित होता है कि आचार्य समन्तभद्र की आप्त मीमांसा पर भी वादीभसिंह जी आचार्य ने कोई टीका अवश्य बनायी थी जो आज संभवत: उपलब्ध न हो। निष्कर्षत: प्राचीन आचार्यो ने देश—धर्म व समाज तथा आत्मकल्याणार्थ जन—जन के उपकार की भावना को सामने रखकर हमें जिनागम का सच्चा रहस्य लिपिबद्ध कर समझाने का महान् कार्य किया वर्तमान में हम उनके ऋणी हैं तथा आचार्यों के पदचिह्नों पर चलकर मोक्षमार्ग को प्रशस्त बनाने की भावना से उनके चरणारविन्द में सिद्ध—श्रुत—आचार्य भक्तिपूर्वक नमोस्तु।