आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज द्वारा दीक्षित शिष्यों के संक्षिप्त परिचय
मुनि श्री सन्मतिसागर जी महाराज
श्री १०८ मुनि सन्मतिसागर जी का गृहस्थ अवस्था का नाम मोहनलाल जी था। आप का जन्म आज से करीब ७० वर्ष पूर्व टोडारायिंसह में हुआ। आपके पिता श्री मोतीलाल जी थे। आप खण्डेलवाल जाति के भूषण थे और गोत्र छाबड़ा था। आपकी र्धािमक एवं लौकिक शिक्षा साधारण ही हुई। आपका विवाह भी हुआ था। आपने १०८ आचार्यश्री वीरसागर जी से दीक्षा ली। आपने इन्दौर, औरंगाबाद, फल्टन कुम्भोज, जबलपुर, आरा आदि स्थानों पर चातुर्मास किए। आपके तत्त्वार्थसूत्र का विशेष परिचय था। आप आहार में केवल दूध मात्र ग्रहण करते रहे। आप इसी प्रकार शरीर से आत्मा की दिशा में बढ़ते रहे। सन् १९८१ को उदयपुर में आपने समाधि ग्रहण कर ली तथा भौतिक शरीर का त्याग भी यहीं किया।
आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर जी महाराज
राजस्थान के प्रसिद्ध शहर बीकानेर में फाल्गुन वदी अमावस्या सम्वत् १९६२ में झावक (ओसवाल) गोत्रोत्पन्न श्रीमान् सेठ छोगामलजी, माता श्रीमती गज्जोबाई की कुक्षि से आपका जन्म हुआ था। माता—पिता ने आपक नाम श्री गोविन्दलाल रखा, इकलौते और लाड़ले पुत्र होेन के कारण आपको फागोलाल भी कहा करते थे। आपके पिता कपड़े के अच्छे व्यापारी थे। घर की र्आिथक स्थिति अच्छी सम्पन्न थी। पिता के होनहार, इकलौते लाड़ले पुत्र होने साथ ही सम्पन्न परिवार में होने के कारण आप के पिताजी ने आपकी शिक्षा को विशेष महत्व न देकर प्रारम्भिक शिक्षा मात्र ही दिलाई। प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद आप पिताजी को उनके व्यावसायिक कार्य में सहयोग देते हुए कपड़े का व्यापार करने लगे। कुछ समय बाद आप अपनी कार्य निपुणता के कारण व्यापारी वर्ग में प्रतिष्ठित हुए और आपने व्यापार में प्रचुर सम्पन्नता एवं सम्मान प्राप्त किया। प्रारम्भ में आपके पिताश्री मुंहपट्टी वाले श्वेताम्बर आम्नाय के कट्टर अनुयायी थे। संयोग की बात कि एक रामनाथ नाम का व्यक्ति जो कि जाति का दर्जी था, आपके मकान के नीचे किराए पर रहता था। वह व्यवसाय भी अपनी जाति के अनुसार सिलाई करता था। दर्जी होते हुए भी सुयोग्य एवं दिगम्बर जैन आम्नाय के प्रति गहरी श्रद्धा रखता था। इसने अपनी विवेक—शीलता, निपुणता एवं आत्म श्रद्धा से आपकी माता को दिगम्बर जैन आम्नाय के महत्त्व को बताया और अन्त में आपकी माता के हृदय में दिगम्बर जैनधर्म के प्रति अगाध श्रद्धा का समावेश किया। फलत: आपकी माताजी श्वेताम्बर आम्नाय के बजाय दिगम्बरत्व के प्रति अटूट श्रद्धा रखने लगीं। कुछ समय पश्चात् आपके पिताश्री ने भी अपनी तीक्षण विवेकशीलता के द्वारा दिगम्बरत्व के महत्त्व को आंका और दिगम्बर जैनधर्म के प्रति आस्था रखते हुए आचरण करने लगे। यह नीति है कि ‘‘मातृ—पितृकृताभ्या से गुणताम इति बालक:’’ अर्थात् माता—पिता ही बालकों को गुणवान बनाते हैं क्योंकि बालक माँ के पेट से पण्डित होकर नहीं निकलता। ठीक यही नीति आपके ऊपर भी चरितार्थ हुई। एक बार आपके पिता व्यापार के लिए कलकत्ते आए। आप भी पिता के साथ कलकत्ते आये तथा कलकत्ते में चावल पट्टो दिगम्बर जैन पार्श्वनाथ बड़ा मन्दिर के समीप किराए पर रहने लगे। यहाँ जैन भाइयों से आपका अच्छा सम्पर्क हुआ। आपके पिता ने आपको नया मन्दिर चितपुर रोड की जैनशाला में पठनार्थ भर्ती करा दिया। आपने श्री पं. मक्खनलाल जी तथा पं. श्री झम्मनलाल जी से शिक्षा प्राप्त की। आपके र्धािमक संस्कार दृढ़ होने लगे। इस प्रकार आपने अपनी प्रारम्भिक लौकिक शिक्षा र्धािमक शिक्षा के साथ प्राप्त की। आपकी माता विशेष धर्मपरायण व सद्गृहस्थिन के साथ ही अत्यन्त दयालु व योग्य थीं। इसका पूर्णत: प्रभाव आप पर पड़ा। आपके पिताजी भी एक उच्च घराने के आदर्श व्यवसायी होने के साथ ही जिनधर्म के कट्टर अनुयायी व श्रद्धालु थे। व्यापारी वर्ग में आपकी अच्छी प्रतिष्ठा थी। जब आपकी उम्र लगभग १७ वर्ष की थी पिताश्री ने आपका विवाह बीकानेर निवासी व कलकत्ता प्रवासी सेठ जुगलकिशोर जी की शीलरूपा, सुयोग्य सुपुत्री श्रीमती बसन्ताबाई के साथ सम्पन्न करा दिया। लेकिन आपका गृहस्थाश्रम बालपन से ही बहुत वैराग्य युक्त व्यतीत हुआ। आपके सुयोग्य, कर्तव्यशील तीन पुत्रों में से श्री माणिकचंद्रजी एवं श्री पद्मचंद्रजी पैतृक उद्योग के अलावा प्रेस का भी संचालन करते थे। हीरालाल का स्वर्गवास हो चुका है। आपकी सुयोग्य शीलरूपा तीन पुत्रियाँ भी हैं। बड़ी पुत्री उमराबाई है। इनका विवाह पुरालिया में श्री भंवरलालजी के साथ एवं मझली पुत्री श्रीमती ममौलबाई का विवाह कलकत्ता निवासी सेठ उदय चंद्रजी धारीवाल के यहाँ सम्पन्न हो चुका है। आपकी छोटी पुत्री सुश्री सुशीला वर्तमान में आर्यिका श्रुतमती जी हैं तथा गहरी र्धािमक आस्था के साथ त्यागमार्ग की ओर उनकी रुचि है।
साधारण सी बीमारी ने पीड़ित
जब आपकी उम्र लगभग २७ वर्ष की होगी आपके पिता श्री को एक साधारण सी बीमारी ने पीड़ित किया। उनको यह आभास हुआ कि अब हमारा जीवन अंतिम लहर में तैर रहा है। कौन जानता था कि सचमुच यह साधारण सी बीमारी ही इनको प्राणशून्य कर देगी। उन्होंने जीवन को असंभव जान समाधि ले ली और निर्मल आत्मा में अनन्त गुणों से युक्त भगवान जिनेन्द्रदेव का स्मरण करते हुए असमय में ही उनकी आत्मा पार्थिव शरीर को छोड़कर स्वर्ग के सुख में लवलीन हो गई। दुखित हृदया माँ ने संसार की इस नवश्वरता का प्रत्यक्ष दर्शन करते हुए निश्चय किया कि असारता से सारता को जाने के लिए जिनेन्द्र—भक्तिरूपी वाहन का अवलंबन लेना ही श्रेयस्कर है। इसके लिए त्याग–तपस्या की आवश्यकता है। पतिश्री की मृत्यु के बाद ७ वर्ष तक आपने अपनी शक्ति अनुसार जिनेन्द्र भगवान की आराधना करते हुए त्याग और संयम का पालन किया। अंत समय में समाधिमरण लेकर अतुल सुख से परिपूर्ण ऐसे स्वर्गों में, अपने पुत्र—पौत्रों को इस धरातल पर छोड़ कर सदा के लिए चली गई। माता—पिता के स्वर्गारोहण हो जाने से फागोलालजी को संसार की असारता का भाव उद्भाषित हुआ। अपने हृदय में त्याग—तप—साधना ही आत्मकल्याण का हेतु है—ऐसा विचारकर घर पर रहते हुए आत्मकल्याण का कारण त्याग, उपवास, संयम आदि र्धािमक क्रियाएँ करने लगे। कलकत्ते में ‘छोगालाल गोविन्दलाल’’ के नाम से आपका कपड़े का थोक का व्यापार होता था। आपका बडा पुत्र भी आपके व्यापार में योग देने लगा, श्रीमान् पं. ब्रह्मचारी सुरेन्द्रनाथजी, श्री ब्रह्मचारी श्रीलाल जी काव्यतीर्थ एवं श्री बद्रीप्रसादजी पटना वालों के साथ आपकी शास्त्रीय चर्चाएँ तथा ज्ञान गोष्ठियाँ होती थी। ज्ञानार्जन के इस अभ्यास के द्वारा आप शास्त्रीय विद्वान् हो गये। आपके अन्तर में गृहत्याग की भावना दिन—प्रतिदिन बढ़ती गई, फलत: आप ४० वर्ष की तरुणवय में आजन्म ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा लेकर ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने लगे। वि. सं. २००९ को उदासीन आश्रम ईसरी में आपने परम पूज्य आचार्यवर श्री वीरसागर जी महाराज के प्रथम दर्शन किये थे। तभी से आपकी आत्म—कल्याण की भावना का प्रबलतम उदय हुआ था और उसी समय से सांसारिक वैभव नीरस एवं जल बुदबुदे के समान प्रतीत होने लगे। फलत: घर पर आकर आप उदासीन वृत्ति से रहने लगे। फिर भी आपको हृदय में पूर्णत: शांति नहीं मिली और सं. २०११ में टोडारयिंसह (राज.) में आचार्यश्री वीरसागरजी महाराज के समीप ७वीं प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर लिए। इन व्रतों के लेने से आपकी आत्मा में अटूट वैराग्य भावनारूपी ज्वाला प्रज्वलित होने लगी। फलत: चार माह बाद ही टोडारायिंसह में र्काितक सुदी १३ सं. २०११ में ही आचार्यश्री वीरसागरजी महाराज से आपने क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण कर ली।
मुनि दीक्षा
क्षुल्लक दीक्षा के बाद आपका ध्यान आगमज्ञान के आलोक में विचरने लगा। अल्प समय में अपनी तीक्ष्ण विवेकशीलता के द्वारा आपका ज्ञान आत्मा में आलोकित हो गया। आपने विचार किया कि आत्मा अनन्त शरीरों में रहा परन्तु एक भी शरीर आत्मा को नहीं रख सका। आत्मा और शरीर का यह दुखदायी संयोग—वियोग का अवसर कैसे समाप्त हो ? जब इस समस्या का समाधान स्वयं की विवेकशीलता के द्वारा जान लिया, तब आपने शीघ्र हजारों नर—नारियों के बीच अपूर्व उत्साहपूर्वक समस्त अंतरंग अहिरंग परिग्रह का त्यागकर भादों सुदी तीज सं. २०१४ में शुभ दिन जयपुर खानियाँ में प्रात: स्मरणीय परम पूज्य आचार्यवर श्री वीरसागरजी महाराज के श्री चरणों में नमनकर आत्मशांति तथा विशुद्धता के लिए दिगम्बर मुनि का जीवन अंगीकार कर लिया। आपकी परम चारित्रशीला, धर्मानुरागिणी पत्नी भी ७वीं प्रतिमा के व्रत अंगीकार कर धर्माराधर द्वारा आत्मकल्याण की ओर अग्रसर बन जीवनयापन कर रहीं हैं। मुनिदीक्षा के बाद आपका प्रथम चातुर्मास व्यावर, दूसरा अजमेर, तीसरा सुजानगढ़, चौथा सीकर, पांचवां लाडनूं, छठवां जयपुर में हुआ। जयपुर चातुर्मास के अवसर पर आपके ऊपर असह्य शारीरिक संकट आ पड़ा था, लेकिन आपने अपने आत्मबल के द्वारा दुखी भौतिक शरीर से उत्पन्न वेदना का परिषह शांतिपूर्वक सहन कर विजय पाई। आपकी पेशाब रुक गई थी। किसी भी प्रकार बाह्य साधनों द्वारा उसका निकलना असंभव था। इस विज्ञानवादी विकासोन्मुख युग में ऐसी अनेकों औषधियाँ हैं जिनका सेवन कर या यांत्रिक साधनों द्वारा आपरेशन कर बड़े—बड़े दुख क्षणमात्र में दूर किये जा सकते हैं, लेकिन आपने अपने तपबल, ज्ञानबल से जिस औषधि को पा लिया उसके सामने उपर्युक्त बाह्य औषधियाँ अपना मूल्य नहीं रखतीं, इसीलिए आपने इन औषधियों व यन्त्रों के सेवन का त्याग कर दिया था और यही आपके त्याग की चरम सीमा का उत्कृष्ट एवं अनुपम उदाहरण है। अंत में जब दैव ने अपनी करतूत कर ली और मुनिश्री द्वारा इस कठोर वेदना को आत्म साधना द्वारा शांतिपूर्वक सहन करते हुए देख हार मान गया तो स्वत: अविजयी सा होकर मुँह छिपाकर चला गया।
कठिन परीषह
आपने अनन्त वेदना को सहन कर अपने आत्मतेज एवं कठिन परीषह सहने का उदाहरण प्रस्तुत किया। धन्य है ऐसी तपस्या को, ऐसे त्याग को एवं ऐसी आत्मकल्याण की साधना को जिसमें चाहे सुख हो या दुख, रोग हो या संकट, सभी में समानता रह सके। जब चातुर्मास अवधि समाप्त हो गई और जयपुर से विहार ससंघ बुन्देलखण्ड के पवित्र अतिशय क्षेत्र पपौराजी की वन्दना हुई वह अत्यन्त असह्य और दुखदायिनी थी। पुन: आपकी पेशाब रुक गई। अनेक बाह्य साधन जिनमें किसी भी प्रकार हिंसा न हो, अपनाए गए। किसी में भी सफलता नहीं मिली। एक डॉक्टर ने आचार्यश्री से विनय की कि यदि महाराज को ध्यानावस्था या मूच्र्छावस्था के समय इंजेक्शन लगा दिया जाये तो आराम होने की संभावना की जा सकती है। आचार्यश्री से कहे गये उक्त शब्द मुनिश्री ने सुने और तुरन्त मुस्कराकर बोले ‘‘भइया ! साधुओं से कभी जबरदस्ती नहीं की जा सकती। वे विश्व में किसी भी प्राणी के आधीन नहीं होते। उन्हें तो अपनी आत्मा का कल्याण करना है। यदि आपने इंजेक्शन लगा दिया या आपरेशन कर दिया तो ठीक है क्योंकि यह तो आपको करना है पर यदि मैंने समाधि ले ली तो ?’’ इस प्रश्न का उत्तर कुछ भी नहीं था, अत: डॉक्टर साहब मौन रह अपनी बात का प्रतिकूल उत्तर पाकर एवं आपकी इस महान् साधना को देखकर अवाक् रह गए। अनन्त वेदना के होने से महाराज श्री मौन अवस्था में लेटे हुए थे। उनके चारों ओर विद्वान अत्यन्त वैराग्ययुक्त व समाधिमरण पूर्ण उपदेश व पाठ कर रहे थे। महाराज श्री अपने आत्मध्यान में लीन रहते। जब तीव्र वेदना का अनुभव होता तो मात्र एक दो करवट बदलकर उस घोर दु:ख को सहन कर लेते थे। जो डॉक्टर आये हुए थे आपकी इस महान साधना को देखकर हाथ जोड़े महाराज श्री के सामने बैठे हुए थे। इस सहनशक्ति को देखते हुए अनेकों नर—नारियों की आँखों से आंसू बह रहे थे। लोगों से वह वेदना देखी नहीं जाती थी। अन्त में मुनिश्री ने अपनी आत्मसाधना एवं परीषह क्षमता से रोग से मुक्ति पाई। आचार्यश्री ने जबकि आप इस वेदना से पीड़ित थे आपके समीप बैठ जो वैराग्यपूर्ण एवं संसार की असारता तथा आत्म—कल्याण के उपदेश आपके समक्ष दिये वह अत्यन्त रोमांचकारी एवं हृदयग्राही थे।
उन्हें सुनकर जन—साधारण के ऐसे भाव होते थे कि धन्य हैं यह मुनि अवस्था और धिक्कार है इस संसार को, भगवन् ! मैं भी इस अवस्था को पाऊँ। धन्य है जिन्होंने मुनिपद धारणकर लेने पर भावों और क्रिया से पंच पापों का त्याग कर दिया, क्रोध, मान, मायारूपी पतनकारी कषायों से पिण्ड छुड़ाया, तथा बहिरात्म—बुद्धि के बदले अन्तरात्म—बुद्धि से आत्मा को निर्मल बना लिया। इस प्रकार आत्म—कल्याण करते हुए आप अनेक आत्माओं को इस पथ का अवलोकन कराने में तत्पर हुए। इस प्रकार मुनि जीवन यापन करने में आपको अनेक आपत्तियों, उपसर्गों और परीषहों का सामना करना पड़ा लेकिन आपश्री सदा अपने आत्मकल्याण के लक्ष्य में इस प्रकार लवलीन रहे कि इन आपत्तियों से आपके तपोतेज में वृद्धि ही हुई। धन्य है उस माँ को जो मानवों के कल्याणकत्र्ता ऐसे इकलौते पुत्र को जन्म देकर महाभाग्यशालिनी हुई। इस क्षणिक जीवन में आपने जब से इस पथ का अवलंबन लिया तब से अतुल ज्ञान ग्रहण करते हुए चारित्र के क्षेत्र में भी अनवरत अग्रणी रहे हैं। आपके दैनिक जीवन का अधिक उपयोग शास्त्र—स्वाध्याय में ही होता था। आपका स्वाध्याय स्थायी और शुभोपयोगी होता था। आप अपने उपदेश में जिन बातों का निरूपण करते थे वह विद्वानों को भी आश्चर्यकारी होती थीं। मुनिश्री के दिव्य व्यक्तित्व में एक अनोखी प्रभावोत्पादक शक्ति थी जिसका अनुभव उनके सम्पर्क में आने पर ही हो पाता था। जैनागम के दुरूह और गूढ़तम रहस्यों तक उनकी जिज्ञासु दृष्टि पहुँचती थी और वे तत्त्व विवेचन में आठों याम एक परिश्रमी विद्यार्थी की तरह रुचि लेते थे। एवं कठोर अध्यवसाय करते थे। समाज में आजकल अनेकान्तवाद तथा स्याद्वाद की उपेक्षा करके किसी भी एकान्त दृष्टि से पक्ष समर्थन किये जाने के कारण जो अनर्थकारी ऊहापोह मच रही है उसके प्रति भी आपकी दृष्टि अत्यन्त स्पष्ट और आगम सम्मत थी। आपका कहना था कि हमारे पूज्य आचार्यों ने तत्त्वज्ञान की कठोर साधना के उपरान्त जो विवेचन किया है वह यदि हमारी दृष्टि में ठीक नहीं बैठता तो यह हमारे ज्ञान क्षयोपशम की कमी है अथवा हमने बात को उस अपेक्षा से समझने का प्रयास नहीं किया है।
ऐसी स्थिति में हमें अपनी बुद्धि के अनुरूप तोड़—मरोड़ करना या एकान्त दृष्टि के पोषण के लिए अर्थ का अनर्थ करना उचित नहीं है और यह हमारा अधिकार भी नहीं है। आपके द्वारा आचार्यश्री धर्मसागर अभिवन्दन ग्रंथ का विमोचन २ मार्च १९८२ को भिण्डर में २५ हजार की जनसंख्या में किया गया था। उसी अवसर पर एक गोष्ठी का आयोजन भी किया गया था। जो ‘‘दिगम्बर जैनाचार्य एवं आचार्य परम्परा’’ के नाम से हुई थी। आप में वात्सल्य भाव भी कूट—कूटकर भरा था। आचार्यश्री के प्रति विनय और संघ के अन्य साधु—साध्वियों के प्रति आपका व्यवहार वात्सल्य और कल्याण—भावना से ओत—प्रोत रहता था। उनके लिए आपका कथन था कि हम सब छद्मस्थ हैं अत: त्रुटियाँ हमसे हो सकती हैं, इसलिए निन्दक की बात सुनकर भी हमें रोष नहीं करना चाहिए वरन् आत्म—शोधन करके अपने आपको त्रुटिहीन बनाना चाहिए। ‘‘जो हमारा है सो खरा है’’ ऐसा कहना ठीक नहीं होगा। हमें तो हमेशा सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए और कहना चाहिए कि—‘‘जो खरा है सो हमारा है।’’ आपने १२ वर्ष की सल्लेखना धारण कर ६ मई, १९८८ ज्येष्ठ वदी पंचमी को लूणवा (राज.) में ९ उपवास पूर्ण कर बड़ी शान्तिपूर्वक इस नश्वर शरीर का त्याग किया। ऐसी परम पवित्र आत्मा के प्रति कोटिश: नम है।
मुनिश्री पद्मसागर जी महाराज
मुनिश्री १०८ पद्मसागर जी का गृहस्थावस्था का नाम धूलचन्द जी था। आपका जन्म आज से लगभग ६० वर्ष पूर्व टोंक (राज.) में हुआ था। आपके पिता श्री गट्टूमल जी पंडित व माताजी श्रीमती भोलीबाई थी। आप खण्डेलवाल जाति के भूषण व बाकलीवाल गोत्रज थे। आपकी लौकिक एवं र्धािमक शिक्षा साधारण ही हुई। आपके पिताजी गोटे का व्यापार करते थे। आपने विवाह नहीं कराया। बाल ब्रह्मचारी ही रहे। परिवार में एक भाई और है। संसार की नश्वरता को जानकर आपने स्वयं आचार्यश्री १०८ वीरसागर जी महाराज से खानियाँ, जयपुर में मुनिदीक्षा ले ली। आपने इन्दौर आदि में चातुर्मास कर धर्म प्रभावना की। पदमपुरी में सन् १९८१ में आपने चातुर्मास किया था। यहीं पर आचार्य कल्प श्री श्रुतसागर जी के सानिध्य में आपने समाधिमरण किया।
मुनिश्री आदिसागर जी महाराज
आपका जन्म खण्डेलवाल जातीय अजमेरा गोत्र में हुआ था। आप मूलत: दांता (सीकर) राज.के निवासी थे। आपकी दीक्षा प्रतापगढ़ में वि. सं. १९९० फाल्गुन सुदी ग्यारस की हुई थी। आप आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज के प्रथम सुशिष्य थे। छोटों के प्रति वात्सल्य भाव और बड़ों के प्रति विनम्रता का व्यवहार आपका स्वभाव था। आपकी गुरुभक्ति अद्वितीय रही। आप हमेशा कहा करते थे कि बड़ा बनने की चेष्टा मत करो, बड़ा बनना सरल नहीं है। आप निरन्तर आध्यात्मिक ग्रंथों का स्वाध्याय कर उनका सार प्राप्त कर आत्मा का सच्चा अनुभव भी करते थे। जब भीषण ज्वर से आपका शरीर क्षीण हो गया और शरीर में तीव्र वेदना थी, तब भी आप ध्यान में लीन परम शान्त और गम्भीर थे। पूज्य महाराज श्री की भावना का सार उनको प्राप्त हुआ। प्रात:काल चार बजे स्वयमेव उठकर पद्ममासान लगाकर बैठ गये, जिससे ऐसा प्रतीत होता था मानों निर्भीक होकर यमराज का सामना कर रहे हों। आपने भव भवान्तर से प्राणियों के पीछे लगने वाली ममता की जंजीर को समतारूपी शस्त्र से क्षीण कर दिया और यमनाशक संयम को स्वीकार किया। ख्याति, लाभ, पूजा के लिए जिसकी भावना है वह समाधिमरण नहीं कर सकता। परन्तु आपने हंसते—हंसते णमोकार मन्त्र का जाप्य करते हुए अन्त:समाधि में लीन होकर गुरुवर्य १०८ आचार्यश्री वीरसागर जी के सानिध्य में अनन्तानन्त सिद्धों की सिद्धि के क्षेत्र परम—पावन सम्मेदशिखर पर भौतिक शरीर का परित्याग कर देव पद प्राप्त किया। सुमेरु पर्वत की दृढ़ता, सागर को गम्भीरता, वसुधा की क्षमाशीलता, व्यामोह की विशालता, शशि की शीतलता और नवनीत की कोमलता जिनके समक्ष सदैव श्रद्धा से नत रहती थी, ऐसी अध्यात्म र्मूित थे श्री आदिसागर जी महाराज।
मुनिश्री सुमतिसागर जी महाराज
आपका जन्म औरंगाबाद जिले के अन्तर्गत पिपली ग्राम में हुआ। आपके पूर्वज डेह गांव के खण्डेलवाल जातीय काशलीवाल गोत्र में उत्पन्न हुये थे। आपने नागौर में वि. सं. २००६ की आषाढ़ शुक्ला एकादशी के दिन क्षुल्लक दीक्षा एवं वि. सं. २००८ में पुâलेरा (राज.) के पंचकल्याणक महोत्सव के अवसर पर र्काितक शुक्ला चतुर्दशी के दिन मुनि दीक्षा ग्रहण की थी। आप दृढ़ श्रद्धानी, परम तपस्वी साधु थे। सं. २००९ में आचार्य संघ के साथ तीर्थराज सम्मेदशिखर की यात्रा को गये। तीर्थराज के दर्शन करने के बाद भादवा सुदी १५ के दिन पूर्ण संयम, नियम, उपवास द्वारा कर्मों को काटते हुए ईसरी में भौतिक शरीर का त्याग किया।
मुनिश्री श्रुतसागर जी महाराज
पूज्य मुनिश्री ने आचार्य वीरसागर जी महाराज से दीक्षा लेकर अपने आत्म—कल्याण के मार्ग पर लगाया था। दीक्षा लेने के कुछ समय पश्चात् ही आपका समाधिमरण हो गया। आप महान् तपस्वी साधु थे।
मुनि श्री जसयागर जी महाराज
आपका जन्म जयपुर (राज.) में हुआ था। पूर्व नाम श्री गुलाबचन्द जी लोंग्या था। सं. २००३ में आपने व्रती जीवन प्रारम्भ किया, आचार्य वीरसागर जी से व्रत स्वीकार किए। सं. २०१३ में मुनि दीक्षा जयपुर में ही ली। सं. २०२४ प्रतापगढ़ में आचार्य शिवसागर जी महाराज के सान्निध्य में आपकी समाधि हुई।
आर्यिका वीरमती जी
श्री १०५ आर्यिका वीरमती जी का गृहस्थावस्था का नाम चांदबाई था। आपका जन्म आज से लगभग ७० वर्ष पूर्व जयपुर (राजस्थान) में हुआ था, आपके पिता का नाम श्री जमुनालाल था तथा आपकी माता गुलाबबाई थी। आप खण्डेलवाल जाति की भूषण थी। आपकी लौकिक शिक्षा व र्धािमक शिक्षा साधारण हुई। आपका विवाह श्री कपूरचन्द्र जी के साथ हुआ।स्वयं के चारित्र व आचार्यश्री १०८ शान्तिसागर जी के आगमन से भावों में विशुद्धि हुई अत: सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्र में क्षुल्लिका की दीक्षा ली। विक्रम संवत् १९९५ में इन्दौर में १०८ आचार्य वीरसागर जी से आर्यिका की दीक्षा ली। आपको संस्कृत व हिन्दी पर विशेष अधिकार था। आपने खातेगाँव, उज्जैन, इन्दौर, झालरापाटन, जयपुर, ईसरी, कोटा, उदयपुर आदि स्थानों पर चतुर्मास कर धर्मवृद्धि की। आपने दूध के अलावा अन्य समस्त रसों का त्याग कर दिया था। आचार्यश्री धर्मसागर जी के संघ सानिध्य में सन् १९८५ में आपकी अच्छी समाधि हो चुकी है।
आर्यिका सुमतिमती जी
श्री १०५ आर्यिका सुमतिमती माताजी (खण्डेलवाल : बिलाला गोत्र) जयपुर की थी। आपने आचार्यश्री वीरसागर जी से जयपुर में आर्यिका दीक्षा ली। संघ का विहार मारवाड़, डेह, नागौर की ओर हुआ। नागौर में ही आप समाधि मरण—पूर्वक स्वर्ग वासिनी हुई। आपका अधिकांश समय विशेष धर्म ध्यान पूर्वक ही व्यतीत हुआ।
आर्यिका पार्श्वमती जी
आसौज वदी तृतीया विक्रम सं. १९५६ के दिन जयपुर के खेड़ा ग्राम में बोरा गोत्र में आपका जन्म हुआ था। जन्म के समय माता—पिता ने आपका नाम गेंदाबाई रखा। आपके पिता का नाम मोतीलाल जी एवं माता का नाम जड़ावबाई जी था। आप अपने तीन भाइयों के बीच अकेली लाड़ली बहिन थीं। समय का दुखदायी चक्र चला और आपके दो भाई असमय में ही इस नश्वर संसार से विदा हो गए। संसार की असारता को देखकर आपके छोटे भाई ब्रह्मचारी मूलचन्द्र जी ने धर्म का आश्रय लिया। जीविकोपार्जन के उद्देश्य से आपके पिताश्री सपरिवार खेड़ा से जयपुर चले आये थे और मोदीखाने का व्यवसाय करने लगे थे। उस समय आपकी उम्र मात्र पांच वर्ष की थी। जब आपकी अवस्था आठ वर्ष की हुई तब आपके पिताश्री ने आपका पाणिग्रहण जयपुर निवासी श्रीमान् लक्ष्मीचन्द्र जी काला के साथ सम्पन्न कर दिया। आपके श्वसुर श्री सेठ दिबसुख जी अच्छे सम्पन्न प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। सात ग्राम की जमींदारी आपके हाथ थी। श्वसुर—घर के सभी व्यक्ति योग्य और सुशिक्षित थे, फलत: आपकी विशेष र्धािमक शिक्षा भी स्वसुर के घर पर ही हुई। इसके पूर्व आपकी स्कूली शिक्षा मात्र कक्षा तीन तक ही थी। आपके पति श्री लक्ष्मीचन्द्र जी काला एक होनहार और कर्तव्यशील व्यक्ति थे तथा अध्यापन का कार्य करते थे।
अध्यापन कार्य के साथ ही अध्ययन में भी उन्होंने उत्तरोत्तर वृद्धि की किन्तु बी. ए. पास करने के दो माह बाद ही दुर्देववश उनका अचानक असमय में स्वर्गवास हो गया। कर्म की इस दुखदायी गति के कारण यौवनावस्था में ही आपको वैधव्य धारण करना पड़ा। उस समय आपकी उम्र २४ वर्ष की थी। आपको अपने गृहस्थ जीवन की अल्प अवधि में सन्तान सुख प्राप्त न हो सका। संसार की इस दुखदायी असारता ने आपके अन्तर में वैराग्य की प्रबल ज्योति को जला दिया। आप उदासीन वृत्ति से घर में रहकर नियम व्रतों का कठोरता से पालन करने लगीं। आपकी आत्मा का कल्याण होना था अत: वैधव्य प्राप्त करने के ८—९ वर्ष बाद विक्रम सम्वत् १९९० में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर जी महाराज से जयपुर खानियां में ७वीं प्रतिमा के व्रत अंगीकार कर लिए। आपके परिणामों में निर्मलता आई और अन्तर में वैराग्य का उदय हुआ, फलत: विक्रम सम्वत् १९९७ में आचार्यवर श्री वीरसागर जी महाराज से क्षुल्लिका की दीक्षा ग्रहण कर ली। इस अवस्था में आकर आपने कठोर व्रतों का अभ्यास किया और ज्ञान चारित्र में उत्तरोत्तर वृद्धि की जिससे आपकी आत्मा में प्रबल वैराग्य की ज्योति जगमगा उठी, फलत: रविवार आसौज पूर्णमासी विक्रम संवत् २००२ में प्रात: समय झालरापाटन में अपार जन—समूह के बीच जय—ध्वनि के साथ आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज से आर्यिका की दीक्षा ग्रहण कर ली।इस प्रकार अपनी आत्मा को तप और साधना से उज्जवल करती हुई ज्ञान चारित्र के माध्यम से मुक्ति के मार्ग पर अग्रसर हुर्इं थी। लगभग सन् १९६७ में इनकी समाधि हुई है।
आर्यिका विमलमती जी
आपका जन्म ग्राम मुंगावली (मध्य प्रदेश) में परवार जातीय श्री रामचन्द्र जी के यहाँ वि. सं. १९६२ मिती चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को हुआ था। आपका विवाह श्री हीरालाल जी भोपाल (म. प्र.) निवासी के साथ बाल्यावस्था में हुआ, मगर दुर्देववश आपके पति का असमय में ही निधन हो गया। बारह वर्ष की अल्प आयु में आपका विधवा होना आपके लिए बड़ी भारी विपत्ति थी। बाद में आपने विद्याध्ययन बम्बई में किया, १९ वर्ष की आयु के बाद आप अध्यापिका के पद पर नागौर (राजस्थान) में श्रीमान् सेठ मोहनलाल जी द्वारा कन्या पाठशाला में नियुक्त हुर्इं। संयोगवश पूज्य १०८ श्री चन्द्रसागर जी मुनि महाराज विहार करते हुए नागौर पहुँचे। उस समय पूज्य महाराज से आपने द्वितीय प्रतिमा का चारित्र ग्रहण किया। आठ वर्ष पाठशाला में पढ़ाने के बाद अध्यापिका पद से त्यागपत्र दे दिया और पूज्य चन्द्रसागर जी महाराज के संघ में विहार करने लगीं, तत्पश्चात् संवत् २००० के र्काितक कृष्णा ५ के दिन क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की। संवत् २००० फाल्गुन शुक्ला र्पूिणमा के दिन पूज्य श्री १०८ श्री चन्द्रसागर जी महाराज का बड़वानी क्षेत्र में स्वर्गवास हो गया, बाद में आपने पूज्य श्री १०८ वीरसागर जी महाराज से चैत्र शुक्ला त्रयोदशी सं. २००२ को आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। तत्पश्चात् आपने अनेक नगरों एवं ग्रामों में विहार एवं चातुर्मास किया। आपका शरीर वायु के प्रकोप से भारी होने के साथ—साथ कमजोर भी होने लगा। अत: संवत् २०२० के बाद आपने लम्बी दूरी का विहार करने में असमर्थ रहने के कारण नागौर के आसपास व खास नागौर में ही ज्यादा चातुर्मास किये। कुछ वर्ष पहले आपके गिर जाने से अचानक एक पैर की हड्डी में प्रैक्चर हो गया जिससे बहुत समय तक वेदना की असहृय पीड़ा रही। आपका दैनिक समय प्राय: स्वाध्याय में ही बीतता था। आपका मुख्य दैनिक स्वाध्याय पाठ आदि निम्न प्रकार चलते थे। तत्त्वार्थसूत्र, भक्तामर स्तोत्र, सहस्रनाम, कल्याणमन्दिर, एकीभाव, स्वरूप—सम्बोधन, समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, पार्श्वनाथ स्तोत्र, ऋषिमण्डल स्तोत्र, सरस्वती स्तोत्र, णमोकार मन्त्र का माहात्म्य, महावीराष्टक स्तोत्र, मंगलाष्टकम्, पंचभक्ति पाठ, प्रथमानुयोग व द्रव्यानुयोग का स्वाध्याय एवं प्रतिक्रमण आदि। आपके द्वारा अनेकों ग्रंथों का प्रकाशन हुआ जिनके मुख्य नाम ये हैं—कल्याणपाठ संग्रह, नित्य नियम पूजा, भक्तामर कथा (हिन्दी अनुवाद) शांति विधान (हिन्दी अनुवाद), देववन्दना, समाधि तन्त्र, इष्टोपदेश, स्वरूप सम्बोधन, जिनसहस्र स्तवन, द्वादश अनुप्रेक्षा, सूतक निर्णय व नवधा भक्ति, आराधना कथा कोष (संस्कृत) आदि। आराधना कथा कोष तीनों भाग भी हिन्दी व संस्कृत में छपकर प्रकाशित हो गये हैं। चरित्रनायिका श्री १०५ विमलमती आर्यिका जी सत्समाधि के साथ यही पर (नागौर में) अपने देह को बैशाख सुदी १, वि. सं. २०३४ में छोड़ चुकी हैं। अब तो र्धािमक जनों को उनके द्वारा उपदिष्ट मार्ग—उपदेश के अनुगामी होते हुए उनके द्वारा प्रचारित जिनवाणी के अध्ययन करते हुए अपना हित करते रहना चाहिये।
आर्यिका इन्दुमती जी
आर्यिका श्री १०५ इन्दुमती जी का जन्म सन् १९०५ में हुआ था। मारवाड़ में डेह नामक ग्राम को आपकी जन्म भूमि बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आपके पिताश्री चन्दनमल जो पाटनी थे और माता जड़ावबाई थी। आपने दिगम्बर जैन खण्डेलवाल जाति को विभूषित किया था। चन्दनमल जी जहाँ कुशल व्यपारी थे, वहाँ धर्मात्मा भी थे और उनकी गृहिणी जड़वबाई तो उनसे दो कदम आगे थी। आपके चार पुत्र हुए—ऋद्धिकरण, गिरधारीलाल, केशरीमल, पूनमचन्द्र। आपके तीन पुत्रियाँ हुई—गोपीबाई, केशरीबाई, मोहनीबाई। मोहनीबाई का विवाह चम्पालाल जी सेठी के साथ हुआ तो सही पर छह माह के भीतर ही उनका स्वर्गवास हो गया। इससे दोनों परिवार दु:खी हुए। पिता की प्रेरणा पाकर मोहनीबाई जिनेन्द्र पूजन व स्वाध्याय में काफी समय बिताने लगीं। आपने परिवार के साथ तीर्थयात्रा की। जब श्री १०८ आचार्य शान्तिसागर जी का संघ सम्मेदशिखर जी की वन्दना के लिए आया तो उनके दर्शनों से आपके विचार और भी अधिक विराग की ओर बढ़े। चूंकि आप मुनिश्री के प्रवचन अपने हजार आवश्यक काम छोड़कर भी सुनती थी। इसलिए विषय वासनाओं से विरक्ति बढ़ती ही रही। उन दिनों, आचार विचार में मारवाड़ बहुत पिछड़ा था। पर जब १०८ मुनि श्री चन्द्रसागर जी विहार करते हुए सुजानगढ़ आये तब यहाँ के श्रावकों ने भी अपने को सुधार किया। जब मोहिनीबाई को उक्त मुनिश्री के आने और चातुर्मास की बात ज्ञात हुई तो मोहनीबाई भी अपनी माता के साथ दर्शन करने के लिए आई और माँ के साथ ही स्वयं भी दूसरी प्रतिमा स्वीकार कर ली। चातुर्मास के बाद मुनिश्री ने विहार किया तब मोहनीबाई भी उनके साथ अनेक नगरों में गयीं। वे आहारदान तथा धर्मश्रवण के कार्य करती थी। सन् १९३६ में आपने सातवीं प्रतिमा स्वीकार कर ली। आपके भाई (ऋद्धिकरण) और भाभी ने दूसरी प्रतिमा ली और माँ ने पांचवीं प्रतिमा के व्रत स्वीकार किये। यहीं आपका परिचय अध्यापिका मथुराबाई से हुआ। जब चद्रसागर जी ने कसाबखेड़ा (महाराष्ट्र) में चातुर्मास किया तब मोहनीबाई और मथुराबाई ने उनसे आर्यिका की दीक्षा वाबत निवेदन किया। मुनिश्री ने आगा पीछा सोचकर उन्हें सन् १९४२ में क्षुल्लिक दीक्षा दी। अब ब्रह्मचारिणी मोहनीबाई को इन्दुमती कहकर पुकारा गया। आप दोनों ने पीछी, कमण्डलु, श्वेत साड़ी व चादर के सिवाय सभी परिग्रह का त्याग कर दिया और ज्ञान तथा ध्यान की साधना करने में लगी। जब सुजानगढ़ निवासी चांदमल धन्नालाल पाटनी ने मुनिश्री चन्द्रसागर जी से बड़वानी की ओर विहार करने और स्वर्निमित मानस्तम्भ की प्रतिष्ठा में सम्मिलित होने के लिए प्रार्थना की तब इन्दुमती जी भी संघ के साथ चली। जब नागौर में मुनिराज आचार्यश्री वीरसागर जी का चातुर्मास हुआ तब आपने उनसे आर्यिका दीक्षा ली और अपनी साधना पूरी की। उनके संघ में रहकर आपने अनेक तीर्थों की यात्रा की। आपने भारतवर्ष के समस्त प्रान्तों में विहार कर धर्म प्रभावना की है। सन् १९८२ में तीर्थराज सम्मेदशिखर जी पर आपको अभिनन्दन ग्रंथ भेंट किया गया था। धन्य है आपका त्याग तथा िंसह वृत्ति जीवन। लगभग ८२ वर्ष की उम्र में आपने परम शान्त भाव से सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र पर समाधिपूर्वक औदारिक शरीर का त्याग किया है।
आर्यिका सिद्धमती जी
दिल्ली में अग्रवाल िंसहल गोत्रोत्पन्न श्रीमान् लाला नन्दकिशोर जी के घर माताश्री कट्टोदेवी की कुक्षि से विक्रम सं. १९५० के आसौज में आपका जन्म हुआ। आपका नाम बत्तोदेवी था।आपके पिताश्री उदारहृदयी, होनहार और अच्छे कार्यकर्ता थे। घर की स्थिति सम्पन्न थी, तथा दिल्ली में काठ से तैयार किया हुआ सामान बेचते थे। जब आपकी वय ८ वर्ष की थी तब आपका विवाह दिल्ली में ही श्रीमान् लाला मौरिंसह जी के सुपुत्र श्री वजीरिंसह जी के साथ सम्पन्न हुआ था। आपके श्वसुर रेल विभाग में माल गोदाम के सबसे बड़े अधिकारी थे। विवाह के ५ वर्ष बाद ही जब आपकी उम्र १३ वर्ष की थी आपके ऊपर दु:ख के वङ्का का प्रहार हुआ और आपके पति का देहावसान हो गया। इस बालापन की अवस्था से ही आपको वैधव्य धारण करना पड़ा। इस घोर संकट के आ जाने से आपके पिता ने दिल्ली में एक विदुषी को आपकी शिक्षा के लिये निश्चित किया और उन्हीं के द्वारा आपकी लौकिक व र्धािमक शिक्षा हुई। जैसे—जैसे आपने यौवनावस्था में प्रवेश किया तदनुसार आप सुशिक्षित होती हुई धर्मपरायण होती गई। दैनिक गृहस्थी और कत्र्तव्यों के साथ र्धािमक कार्यों को प्राथमिकता देती हुई आत्मकल्याण की ओर उन्मुख हुर्इं। माता—पिता की इकलौती लाड़ली पुत्री होने और बालापन से विधवापन जैसे घोर संकट के आ जाने से आपकी माता को चिन्ता हुई कि इस गृहस्थी और अटूट सम्पत्ति को कौन सम्भालेगा। अत: आपकी माता ने आपसे आग्रह किया कि बेटी ! कोई बालक गोद ले लो जो हमारे बाद इस घर को सम्भाले रहे। आपकी प्रवृत्ति तो वैराग्य की ओर थी फिर भी माताजी की हठ के कारण आपको एक बालक (श्री अनूपचन्द्र) को गोद लेना पड़ा। इस समय आपकी अवस्था २३ वर्ष की थी। बाल अनूपचन्द्र अपनी धर्ममाता की गोद में आकर वैभव सम्पन्न होने लगा। बड़ा हुआ, शादी हुई और ५ पुत्ररत्नों के साथ ४ पुत्रियों का सौभाग्य मिला। आपकी आत्मा सांसारिक वैभवों के प्रति मोही के बजाय निर्मोही होती जा रही थी।
बालक अनूपचन्द्र को गोद लेने के २ वर्ष बाद ही आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज का संघ दिल्ली आया हुआ था। उस समय आपने शूद्र स्र्पिशत जल न पीने का नियम ग्रहण कर लिया। तीन माह बाद ही हस्तिनापुर में पुन: आचार्यश्री से सातवीं प्रतिमा तक के व्रत अंगीकार कर लिए। परिणामों में विशुद्धि आई और अन्तर में वैराग्य की ज्योति जलने लगी तथा ८ वर्ष के कठोर व्रताभ्यास के बाद सिद्धवरवूâट में आपने आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज से फाल्गुन सुदी पंचमी संवत् २००० में क्षुल्लिका की दीक्षा ले ली। तप, संयम और साधना के साथ ज्ञान और चारित्र में वृद्धि हुई जिससे आपके हृदय में शुद्ध वैराग्य की भावना का उदय हुआ और आसौज वदी एकादशी, रविवार, विक्रम सम्वत् २००६ में आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज से नागौर में आर्यिका की दीक्षा ग्रहण कर ली। निमित्त की बात है आपके छोटे देवर की शादी हुए दो माह ही व्यतीत हुए थे कि आपकी देवरानी को दुर्देव ने वैधव्य को धारण करा दिया, जिससे उसके अन्तर में इस संसार की असारता का नग्न चित्र अंकित हुआ, और उन्होंने भी गृह—त्याग, क्षुल्लिका की दीक्षा ग्रहण कर कठोर व्रतों का पालन कर शरीर को तपाभ्यासी बनाते हुए अपनी आत्मा को निर्मल बनाया। इसका निमित्त आपकी प्रबल वैराग्य भावना को मानना पड़ेगा। इस प्रकार आप धर्म–मर्यादा को अक्षुण्ण बनाए हुए जीव मात्र के कल्याण की भावना के साथ अपनी आत्मा को कर्म मल से रहित उज्जवल बनाती थीं। आपके चरणों में सविनय नमन।
आर्यिका कुंथुमती जी
आपने आचार्य वीरसागर जी महाराज से सं. २००३ में आर्यिका दीक्षा ली। ८० वर्ष की लगभग आयु में आपने सम्मेदशिखरजी में आत्म—साधना करते हुए समाधिमरण को प्राप्त किया है।
आर्यिका शान्तिमती जी
श्री १०५ आर्यिका शान्तिमती जी का गृहस्थ अवस्था का नाम कुन्दनबाई था। आपका जन्म आज से लगभग पचपन वर्ष पूर्व नसीराबाद (राज.) में हुआ था। आपके पिता श्री रोडमल जी थे तथा माताजी बसन्तीबाई थीं। आप खण्डेलवाल जाति की भूषण थीं। आपका जन्म गंगवाल परिवार में हुआ था। विवाह बम्ब गोत्र में हुआ था। आपके पिरवार में दो भाई हैं। आपकी लौकिक शिक्षा साधारण हुई। आपके पति हीरा—जवाहरात का व्यवसाय करते थे। नागौर में श्री १०८ आचार्य वीरसागर जी से आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली। आपके चातुर्मास पद्मपुरी, सुजनागड़, नागौर, अजमेर आदि स्थानों पर हुए। आपने दूध के अलावा पाँचों रसों का त्याग कर दिया था। आप संयमी और विवेकशील थी। देश और समाज को सन्मति के सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती थीं।
आर्यिका वासुमतिजी
श्री १०५ आर्यिका वासुमती जी के बपचन का नाम लाड़बाई था। आपका जन्म आज से ७५ वर्ष पूर्व जयपुर (राज.) में खण्डेलवाल परिवार में हुआ था। आपके पिता का नाम चान्दूलाल जी था जो सब्जी का व्यापार किया करते थे। आपकी र्धािमक एवं लौकिक शिक्षा साधारण हुई। आप बड़जात्या गोत्रज हैं। आपका विवाह श्री चिरंजीलाल जी के साथ हुआ था। नगर में मुनिश्री १०८ शांतिसागर जी के आगम से आपमें वैराग्य वृत्ति जाग उठी। आपने विक्रम संवत् २०११ में आचार्यश्री १०८ वीरसागरजी से खानियाँ में आर्यिका दीक्षा ले ली। आपने खानियाँ, अजमेर, सुजानगढ़, सीकर, दिल्ली, कोटा, उदयपुर,लाडनूं इत्यादि स्थानों पर चातुर्मास कर धर्मवृद्धि की। सन् १९७१ के अजमेर चातुर्मास में सोलहकारण उपवास के मध्य आ. श्री धर्मसागर जी महाराज के संघ सान्निध्य में आपकी समाधि हुई है।
गुरु सबसे अधिक उपकारी हैं।
न विना यानपात्रेन तरितुं शक्यतेऽर्णव।
नर्ते गुरुपदेशाच्च सुतरोऽयं भवार्णव:।।
जिस प्रकार जहाज के बिना समुद्र नहीं तिरा जा सकता है उसी प्रकार गुरु के उपदेश बिना यह संसाररूपी समुद्र नहीं तिरा जा सकता है।—
भगवज्जिनसेनाचार्य-ने कहा हैं |
परानुग्रहबुद्धया तु केवलं मार्गदेशनाम्।
कुर्वतेऽमीप्रगत्यापिनिसर्गोऽयं महात्मनाम्।।
ये मुनिजन केवल परोपकार की बुद्धि से ही भव्यों के पास जा जाकर मोक्षमार्ग का उपदेश दिया करते हैं। वास्तव में यह महापुरुषों का स्वभाव ही है।