जैन परम्परा के अत्यन्त प्राचीन सिद्धान्त ग्रंथ षट्खण्डागम को अपने उपदेश द्वारा सृजित कराने वाले, अंग एवं पूर्व साहित्य के एकदेश ज्ञाता आचार्य धरसेन की एकमात्र कृति योनिप्राभृत (जोणिपाहुड़) हैं। प्रस्तुत आलेख में आचार्य धरसेन एवं उनकी इस कृति का संक्षिप्त परिचय प्रस्तु है। यह जैन समाज का दुर्भाग्य है कि १९०० वर्ष प्राचीन यह कृति अद्यतन अप्रकाशित उपेक्षित है। मुझे यह कृति पूज्य आचार्य श्री योगीन्द्रसागर जी महाराज से प्राप्त हुई है।
आचार्य धरसेन सौराष्ट्र (गुजरात—काठियावाड) देश के गिरिनगर (गिरनार) की चन्द्रगुफा के निवासी अष्टांग महानिमित्त के पारगामी विद्वान थे। उन्हें अंग और पूर्वों का एकदेश ज्ञान आचार्य परम्परा से प्राप्त हुआ था। आचार्य धरसेन आग्रायणी पूर्व स्थित पंचम् वस्तुगत चतुर्थ ‘महाकर्म प्रकृति’ प्राभृत के ज्ञाता थे।’ आपके द्वारा श्रुत विच्छेद के भय से महिमा नगरी (आंध्रप्रदेश) में एकत्रित दक्षिणापथ के आचार्यों को संदेश भेजकर सुबुद्धि एवं नरवाहन (परिर्वितत नाम पुष्पदन्त एवं भूतबलि) नामक २ पूज्य मुनिराजों को बुलाकर उन्हें सिद्धान्त की शिक्षा दी गई। फलत: षट्खण्डागम (महाबंध) सहित) की रचना हुई। इस ग्रंथ की महत्ता के कारण ही आ. कुन्दकुन्द (?), शामकुंड, तुम्बुलूर, समन्तभद्र, बप्पदेव एवं वीरसेन ने इसकी टीका रची। आचार्य वीरसेन की धवला टीका ही वर्तमान में उपलब्ध है। २०/२१वीं शताब्दी में गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने इस षट्खण्डागम पर सिद्धान्तचिन्तामणि टीका लिखी है। इतनी टीकाओं का सृजन ही इस ग्रंथ के रचनाकार आचार्य धरसेन के वैदुष्य को प्रमाणित करने हेतु पर्याप्त है।
नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली से यह ज्ञात होता है कि अर्हद्बलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि क्रमश: उत्तराधिकारी है। नन्दिसंघ की संस्कृत गुर्वावलि के अनुसार भी आचार्य धरसेन के गुरु आचार्य माघनन्दि थे। नेमिचन्द्र शास्त्री ने तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा में विस्तृत उहापोह, अभिलेखीय एवं साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर आपका काल ७३-१०६ ई. निश्चित किया है।
षट्खण्डागम की धवला टीका से प्राप्त तथ्यों के आधार पर आचार्य धरसेन मंत्र—तंत्र के प्रकाण्ड पंडित थे। षट्खण्डागम लेखन कथा में समागत मुनियों को अशुद्ध मंत्र देना एवं उसे शुद्ध कराना उनके एतद् विषयक पांडित्य का द्योतक है। इस परिप्रेक्ष्य में उनके द्वारा मंत्र शास्त्र विषयक ग्रंथ का सृजन सहज है। धवला टीका में हमें निम्न उल्लेख प्राप्त होता है।
जोणिपाहुड़े भणिद—मंत—तंत—सत्तीओ पोग्गलाणुभागोति घेत्तव्वो ।’
इससे स्पष्ट है कि जोणिपाहुड़ (योनि प्राभृत) ग्रंथ का सृजन आचार्य धरसेन द्वारा किया गया। जैन साहित्य का इतिहास लिखते समय अनेक पूर्ववर्ती विद्वानों ने इस कृति का उल्लेख किया है, जो निम्नवत् है— जोणिपाहुड़ (योनिप्राभृत) के उल्लेख—परमानन्द जैन, जैन धर्म के प्राचीन इतिहास में लिखते हैं’ आचार्य धरसेन की एक मात्र कृति योनिपाहुड़ है, जिसमें मंत्र—तंत्रादि शक्तियों का वर्णन है। यह ग्रंथ मेरे देखने में नहीं आया। कहा जाता है कि वह (भण्डारकर ओरियंटल) रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना के शास्त्र भण्डार में मौजूद है।’
नेमिचन्द्र शास्त्री ‘तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा’ में लिखते हैं—‘धरसेन के एक जोणिपाहुड़ ग्रंथ का उल्लेख वृहत् टिप्पणी नामक सूची में आया है। इस ग्रंथ का निर्माण वी. नि. सं. ६०० के पश्चात् माना गया है। इसी ग्रंथ की एक पाण्डुलिपि भण्डारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना में है। इस प्रति में ग्रंथ का नाम तो योनि प्राभृत ही लिखा है किन्तु कर्ता का नाम पण्हसवण मुनि बताया गया है। इन महामुनि ने कुसुमाण्डिनी देवी से इस ग्रंथ के ज्ञान को प्राप्त किया था और इसे अपने शिष्य पुष्पदन्त एवं भूतबलि के लिए लिखा था। इस कथन से ग्रंथ के धरसेन रचित होने की सम्भावना व्यक्त होती है। प्रज्ञाश्रमणत्व एक ऋद्धि का नाम है। सम्भवतया धरसेनाचार्य इस ऋद्धि के धारी थे।
आपने पुन: लिखा है कि ‘धरसेनाचार्य मंत्र—तंत्र के ज्ञाता थे। अत: उनका मंत्र शास्त्र संबंधी योनिप्राभृत ग्रंथ अवश्य रहा होगा। बलभद्र जैन ‘जैन धर्म का सरल परिचय’ में आचार्य धरसेन का परिचय देते हुए लिखते हैं कि ‘आपकी एक मात्र रचना योनिपाहुड़ है जो अप्राप्य है।१० इसकी एक प्रति राजाराम जैन के पास है। मेरे द्वारा आचार्य श्री योगीन्द्रसागरजी महाराज के पास से प्राप्त पाण्डुलिपि की छायाप्रति भेजने पर आपने लिखा है ‘मेरे लिये आपने यह एक अमृतकलश ही भेज दिया हैं। जिससे मैं उर्जस्वित हो उठा हूँ।’ आपके द्वारा प्रेषित पाण्डुलिपि प्राय: वही है, जो पूना की फोटो प्रति। अन्तर केवल यही है कि आपकी प्रति के पृष्ठ क्रमबद्ध सुव्यवस्थित है जबकि पूना प्रति अतिव्यवस्थित। जिसे व्यवस्थित करने के लिये मुझे काफी माथापच्ची करनी पड़ी है। उसके लिये उस पर वैंची चलाकर कुल कलम घिसाई भी करनी पड़ी है। आपकी प्रति को दीमक ने यत्र—तत्र कम ही खाया है जबकि पूना प्रति में तो उसने अति ही कर दी थी। अपनी सद्य: प्रकाशित कृति प्राकृत रत्नाकर१२ में प्रेमसुमन जैन लिखते हैं ‘जोणिपाहुड निमित्त शास्त्र का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ था।
इसके कर्ता धरसेन आचार्य का काल ईसवी सन् की प्रथम और द्वितीय शताब्दी का मध्य है। वे प्रज्ञाश्रमण कहलाते थे। वि. सं. १५५६ में लिखी हुई बृहत् टिप्पणिका नाम की ग्रंथसूची के अनुसार वीर निर्वाण के ६०० वर्ष पश्चात् धरसेन ने इस ग्रंथ की रचना की थी। ग्रंथ को कूष्मांडिनी देवी से प्राप्त कर धरसेन ने पुष्पदंत और भूतबलि नाम के अपने शिष्यों के लिये लिखा था। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी इस ग्रंथ का उतना ही आदर था जितना दिगम्बर सम्प्रदाय में। धवलाटीका के अनुसार इसमें मंत्र—तंत्र की शक्ति का वर्णन है और इसके द्वारा पुद्गलानुभाग जाना जा सकता है। निशीथविशेषर्चूिण (४.१८०४ पृ. २८१) के कथानुसार आचार्य सिद्धसेन ने जोणिपाहुड़ के आधार से अश्व बनाये थे, इनके बल से महिषों को अचेतन किया जा सकता था और धन पैदा कर सकते थे। प्रभावकचरित (५.११५-१२७) में इस ग्रंथ के बल से मछली और सिंह उत्पन्न करने की तथा विशेषावश्यकभाष्य (गाथा १७७५) की हेमचन्द्रसूरि कृत टीका में अनेक विजातीय द्रव्यों के संयोग से सर्प, सिंह आदि प्राणी और मणि सुवर्ण आदि अचेतन पदार्थों के पैदा करने का उल्लेख मिलता है। कुवलयमालाकर के कथनानुसार जोणिपाहुड़ में कही हुई बात कभी असत्य नहीं होती।
जिनेश्वरसूरि ने अपने कथाकोषप्रकरण में भी इस शास्त्र का उल्लेख किया है। इस ग्रंथ में ८०० गाथाएं हैं। कुलमण्डन द्वारा विक्रम संवत् १४७३ (ईसवी सन् १४१७) में रचित विचारामृतसंग्रह (पृष्ठ ९ आ) में योनिप्राभृत की पूर्वश्रुत से चला आता हुआ स्वीकार किया गया है। इस ग्रंथ की पाण्डुलिपियों की खोज जारी है।’ ग्रंथ की विषयवस्तु पर प्रकाश डालते हुए वे आगे लिखते हैं ‘जोणिपाहुड़ (योनिप्राभृत) निमित्तशास्त्र का अति महत्वपूर्ण ग्रंथ है। दिगम्बर आचार्य धरसेन ने इसकी प्राकृत में रचना की है। वे प्रज्ञाश्रमण नाम से भी विख्यात थे। वि. सं. १५५६ में लिखी गई एवं वृहत् ट्टिप्पणिका नामक ग्रंथ सूची के अनुसार वीर—निर्वाण के ६०० वर्ष पश्चात् धरसेनाचार्य ने इस ग्रंथ की रचना की थी। कूष्मांडी देवी द्वारा उपदिष्ट इस पद्यात्मक कृति की रचना आचार्य धरसेन ने अपने शिष्य पुष्पदंत और भूतबलि के लिये की। इसके विधान में ज्वर, भूत, शाकिनी आदि दूर किये जा सकते हैं। यह समस्त निमित्तशास्त्र का उद्गमस्वरूप है। समस्त विद्याओं और धातुवाद के विधान का मूलभूत कारण है। आयुर्वेद का साररूप है। इस कृति को जानने वाला कलिकालसर्वज्ञ और चतुर्वर्ग का अधिष्ठाता बन सकता है। बुद्धिशाली लोग इसे सुनते हैं तब मंत्र—तंत्रवादी मिथ्यादृष्टियों का तेज निष्प्रभ हो जाता है। इस प्रकार कृति का प्रभाव वर्णित है। इसमें एक जगह उल्लेख है कि प्रज्ञाश्रमण मुनि ने बालतंत्र संक्षेप में कहा है।
अग्गेणिपुव्वनिग्गयपाहुडसत्थस्स मज्झायारम्मि।
किंचि उद्देसदेसं धरसेणों वज्जियं भणई।।
गिरिउज्जिंतछिएण पच्छिमदेसे सुरट्ठगि रिनयरे।
बुड्डंतं उद्धरियं दूसमकालप्पयावम्मि।।
प्रथम खण्ड अट्ठावीस सहस्सा गाहाणं जत्थ वन्निया सत्थे।
अग्गेणिपुव्वमज्झे संखेवं वित्थरे मत्तुं।।
चतुर्थ खण्ड इस कथन से ज्ञात होता है कि अग्रायणीय पूर्व का कुछ अंश लेकर धरसेनाचार्य ने इस ग्रंथ का उद्धार किया। इससे पहले अट्ठाइस हजार गाथाएं थी, उन्हीं को संक्षिप्त करके योनिप्राभृत में रखा है। उपर्युक्त उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि इस कृति के बारे में विद्वानों को जानकारी थी किन्तु उसके संकलन, संरक्षण, अनुवाद एवं प्रकाशन के व्यवस्थित प्रयास नहीं हुए। आचार्य श्री योगीन्द्रसागरजी महाराज ने ६ मार्च २०११ को गणिनी ज्ञानमती शोधपीठ, इंदौर में पधारने के समय दिये गये अपने आशीर्वादात्मक संबोधान में इस कृति का उल्लेख किया तथा मुझे इसकी छाया प्रति उपलब्ध कराई। उन्हें अज्ञात स्रोत से यह छायाप्रति मिली थी जिस पर उन्होंने काफी कार्य किया है। इसकी मूलप्रति / प्राचीन पाण्डुलिपि की खोज के क्रम में मुझे निम्न संदर्भ जिनरत्न कोश१४ में प्राप्त हुए।
योनिप्राभृत : द्वारा प्रश्नश्रवणमुनि या प्रज्ञाश्रवणमुनि देखें अनेकान्त— पृ. ४८७ (उद्धरण), ६६८68 Jesal—(A List containing 1943 mss. of the Bada Bhandar of Jesalmir, It is prepared by Mr. Hiralal Hamsraj for the Jain Swetambera Conference of Bombay. Some of these Mss. are noticed by C. D. Dalal in his catalouge.) vebyej 1726 Pet-I, and Pet I and Pet IA (These are the Mss. listed and described in the first report of Peterson the collection is presentded at the Bhandarkar Institute and is Known as the collection A of 1982-83) veb. 266 ” योनिप्राभृत : वीर संवत् ६०० में मंत्र एवं तंत्र पर धरसेनाचार्य द्वारा लिखी। Bt-(Brhattipanika, an old list of Jain works with their dates and extent prepared by some unknown Jain monk and publised in the Sahitya Samsodhak I, 1925, Puna) vebyej-22 J. G. (Jain Granthavali, A list of Jain works prepared under, the : auspices of the Jaina svetambara conference and published by the same body at Bombay, paydhoni, 1909) he=. 66 “” योनिप्राभृत : हरिसेण द्वारा लिखी गई, देखें अनेकांत पृ. ६६६।१५ उक्त तीन संदर्भों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि—
१. जैसलमेर के बड़ा भण्डार में इसकी एक प्रति है। जिसका क्रामंक १७२६ है।
२. भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना के भण्डार के २६६ पर संवत् १५८२ में लिखी इसकी प्रतिलिपि सुरक्षित है।
३. आचार्य श्री योगीन्द्रसागरजी से प्राप्त छायाप्रति संभवत: किसी अन्य भण्डार की प्रति की छायाप्रति है। जो संभवत: काफी पहले फोटोकॉपी कराई गई है। पूना भण्डार की प्रति का एक पृष्ठ निम्नांकित है। पूना एवं जैसलमेर भण्डार की पाण्डुलिपियों का तत्काल डिजिटाइजेशन कराया जाना चाहिये एवं इसकी प्रतियाँ संरक्षित की जानी चाहिये। आचार्य धरसेन द्वारा प्रणीत होने के कारण जैन समाज के लिये जोणिपाहुड़ अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
१. धवला (मूल षट्खण्डागम की टीका), आचार्य वीरसेन, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, द्वितीय संस्करण, २००० ई., पुस्तक—१, पृ. ६८ ‘सोरट्ठ—विसव—गिरिणयर—पट्टण—चंदगुहा—ठिएण अट्ठंग—महानिमित्त—पारएण गंथ—वोच्छोदो हो हदित्ति जातं—भएण पवयण— वच्छलेण दक्खिणवहाइरियाणं महिमाए मिलिमाणं लेहो पेसिदो। लेहट्ठिय—धरसेण—वयणमवधारिय ते हि वि आईरिएहि वे साहू गहण—धारण—समत्था धवलामलबहुविह—विणय—बहूविह— विणय—विहूसियंगा सीलमालाहरा गुरु पेसणासण—तित्ता देस—कुल— जाइ—सुद्धा सयलकला—पारसा तिक्खुत्ता बुच्छियाइरिया अंध विसय—वेणायडादो पेसिदा।
२. धवल, पृ.—१, प्रस्तावना—पृ. १५—१६ ३. गणिनी ज्ञानमती, षट्खण्डागम सिद्धान्तचिन्तामणि टीका सहित, दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर, १९९८ आदि।
४. नेमिचन्द्र शास्त्री तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग—२, अ. भा. दि. जैन विद्वत् परिषद् सागर, १९७४, पृ. ४२-४८ ५. धवला, पुस्तक—१, प्रस्तावना, पृ. २६ ६. परमानन्द जैन, जैन धर्म का प्राचीन इतिहास, भाग—२, गजेन्द्र पब्लिकेशन, दिल्ली पृ. ७० ७. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग—३, अ. भा. दि. जैन विद्वत् परिषद् १९९२, पृ. ४५ ८. योनि प्राभृतं वीरात् ६०० धरसेनम् , जैन साहित्य संशोधक, १,२, परिशिष्ट द्वारा संदर्भ—६ एवं संदर्भ—७ ९. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग—२, पृ. ४९. १०. जैन धर्म का सरल परिचय, कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर, १९९६, पृ. २१९ ११. प्रो. राजाराम जैन का पत्र, दिनांक १९-०६-२०१२ १२. प्राकृत रत्नाकर, प्रो. प्रेमसुमन जैन, राष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन एवं संशोधन संस्थान, श्रीधवल तीर्थ, श्रवणबेलगोल, — ५७३१३५ २०१२, पृ. १२१, १२२ १३. वही, पृ. १२२, १२३ १४. जिनरत्नकोश: प्रथम भाग, ग्रंथ विभाग, भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना, १९४४, पृ. ३२५ १५.
नाथूराम प्रेमी ‘योनिप्राभृत और प्रयोगमाला’
(दिल्ली), अनेकान्त वर्ष—२,
किरण—१२, पृ. ६६६ अर्हत् वचन अक्टूबर—दिसम्बर—२०१२