आचार्य श्री अभिनंदनसागर जी महाराज की संक्षिप्त जीवन गाथा
बचपन जन्म- आचार्यश्री अभिनंदनसागर जी महाराज का व्यक्तित्व अत्यन्त सामान्य, उदार, भोला होने के साथ ही चर्या के प्रति दृढ़ता, सिद्धान्तों के प्रति निर्भीकता और धर्म के प्रति अहर्निश समर्पण से भरा-पूरा है। ऐसे आचार्य महाराज का जन्म राजस्थान प्रान्त में उदयपुर जिले के पूर्व में सलुम्बर तहसील से ईशान दिशा में १३ किमी. दूर ‘‘शेषपुर’’ नाम के गाँव में प्रथम ज्येष्ठ वदी पंचमी, दिन-मंगलवार, संवत् १९९९ को हुआ। तदनुसार ५ मई १९४२ को आचार्य महाराज का जन्म माँ श्रीमती रूपाबाई और पिता श्री अमरचंद जी के आंगन में हुआ। तभी अपार हर्ष-आनंद की अनुभूतिपूर्वक माता-पिता ने नवजात बालक की उज्ज्वलता को देखते हुए उसका नाम ‘‘धनराज’’ रखा।
संस्कार
प्रारंभ से ही धनराज को माँ अपने साथ जिनेन्द्र भगवान के दर्शन हेतु मंदिर ले जाती थीं और बचपन से ही कभी भी धनराज ने अपनी माँ को किसी भी धार्मिक क्रिया में बाधा उत्पन्न नहीं करके अपितु हर्षपूर्वक उस माँ का सहयोग ही किया। अर्थात् बचपन से ही धनराज के जीवन में धर्म के संस्कारों ने महत्वपूर्ण स्थान लिया और धनराज की अभिरुचि भी स्वत: ही धर्म के प्रति निष्ठावान बनती गई।
पाठशाला में धर्म अध्ययन
इसी शृँखला में धनराज जब मात्र ६ वर्ष के थे, तभी अपनी बाल सखा वेणीचंद्र, बृजलाल आदि के साथ ३ किमी. दूर ‘‘झल्लारा’’ में पैदल ही जैन पाठशाला जाते थे, जहाँ केशरिया जी वाले मोतीलाल जी मार्तण्ड एवं कुरावड़ के मोहनलाल जी पालीवाल सभी शिष्यों को अध्यापन कराते थे। धनराज ने भी २ वर्ष तक झल्लारा में जैनधर्म का अध्ययन किया। पश्चात् आपकी विशेष अभिरुचि देखकर शेषपुर समाज ने भी अपने गाँव में पाठशाला का शुभारंभ कर दिया और सेमारी वाले पं. उदयलाल जी भोजल को अध्यापन के लिए आमंत्रित करके गाँव में सभी बच्चों को स्वाध्याय के साथ ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों आदि के माध्यम से संस्कारित करने का महत्वपूर्ण उपक्रम किया। इसी का परिणाम रहा कि एक बार मैना-सुन्दरी के नाटक में धनराज जब मुनि का रोल करने के लिए मंच पर ध्यान में लीन हुए, तो वह ध्यान में ही बैठे रह गये अर्थात् नाटक का क्रम पूर्ण होने पर भी वे उठे नहीं और अन्य पात्रों ने उन्हें आवाज देकर वास्तविक ध्यान से उठाया, यह धनराज के मन में बचपन से ही पाठशाला के माध्यम से प्राप्त धार्मिक संस्कारों का पुण्यफल था। धनराज करावली में अपनी दो बहनें रतनबाई और मेवाबाई के यहाँ भी छोटी अवस्था से ही जाते थे और वहाँ भी पं. छगनलाल जी राठोड़ा वाले पाठशाला चलाते थे, जिसमें धनराज उत्साह के साथ धर्म अध्ययन करते थे।
लौकिक शिक्षा के साथ पूर्ण श्रावकचर्या
लौकिक शिक्षा के क्रम में भी आपने शेषपुर एवं झल्लारा में प्रारंभिक पाँचवीं कक्षा तक अध्ययन किया और आगे की पढ़ाई हेतु १३ किमी. दूर सलुम्बर में जाकर एक किराये का कमरा लेकर आठवीं कक्षा तक अध्ययन किया। इस प्रकार सलुम्बर पहुँचकर भी आपने सदैव ही नित्य देव-दर्शन, णमोकार मंत्र का जाप्य, भक्तामर पाठ आदि का वाचन आदि संस्कारों को प्राप्त किया और धर्म के प्रति सदैव ही आपका श्रद्धान एवं समर्पण बना रहा। आपके हृदय में पापभीरुता एवं जिनेन्द्र भगवान के प्रति अकाट्य श्रद्धान रहा, जिसको आइये एक उदाहरण के माध्यम से जानते हैं। ‘‘जब एक बार शेषपुर में छुट्टी के दिन धनराज और उनके सखा वेणीचंद भगवान का अभिषेक कर रहे थे, तभी गलती से धनराज के द्वारा प्रक्षालन करने में भगवान पाश्र्वनाथ से युक्त पद्मावती माता की प्रतिमा गिरकर कुछ खंडित हो गयी, जिसका धनराज को अत्यन्त पश्चाताप हुआ और आँखों से अश्रुपात होने लगा, तभी उन्होंने अपने मित्र व परिवारजन के साथ सलाह करके पण्डित चाँदमल जी को बुलाया और शांति विधान तथा मंत्रजाप्य करके प्रतिमा को जल में विसर्जित करा दिया। इसके बाद पण्डित जी व सभी परिवारजन केशरिया जी में भट्टारक यशकीर्ति जी के पास गये, जहाँ भट्टारक जी ने पुन: नवीन प्रतिमा विराजमान करने की सलाह दी एवं प्रायश्चित्त हेतु शांति मंत्र आदि दिया, जिसको धनराज ने पूर्ण विशुद्धि एवं ईमानदारी के साथ पूर्ण भी किया।’’ यह एक छोटा सा कथानक है, जिसको एक बालक के मन में पापभीरुता का आदर्श उदाहरण माना जा सकता है। इसीलिए वर्तमान में भी बच्चों को पाठशालाओं में संस्कार देना तथा स्वाध्याय की शृँखला को सदैव प्रारंभ रखना आज की महत्वपूर्ण आवश्यकता प्रतीत होती है, क्योंकि बचपन में प्राप्त संस्कार एवं धार्मिक ज्ञान जीवन भर एक व्यक्ति के हृदय पटल पर उत्कीर्ण हो जाता है, जिसको चाहकर भी बदलना कठिन ही होता है अत: सच्चा मार्ग और सच्चा पंथ मिलने पर हमें अपने बच्चों और नवपीढ़ी को पाठशालाओं में संस्कारित करना और करवाना, यह हमारा नैतिक कर्तव्य है। कैसे पूर्ण हुई मुनि दर्शन की अभिलाषा ? सलुम्बर में पढ़ाई पूर्ण होने के उपरांत जब धनराज को ज्ञात हुआ कि झल्लारा में आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के शिष्य मुनि श्री देवेन्द्रकीर्ति जी महाराज आए हुए हैं, तो वे पैदल ही शेषपुर से अपने साथियों के साथ झल्लारा चले गये। मन में मुनि का दर्शन करके उनका आशीर्वाद पाने की विशेष उत्कंठा व्याप्त थी, लेकिन जब वहाँ पहुँचे, तो देखा महाराज जी उन्हीं को आशीर्वाद दे रहे हैं, जिन्होंने कोई मोटा धागा (जनेऊ) धारण किया हुआ है। फिर क्या था, धनराज को अपनी उत्कंठा तो पूर्ण करना ही था अत: उसने कहीं से मोटा धागा ढूंढ ही लिया और गले में डालकर मुनिराज के दर्शन और उनका आशीर्वाद तृप्ति के साथ प्राप्त किया। इस प्रकार युक्ति के साथ धनराज ने मुनि दर्शन के साथ उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का प्रयास सफल कर लिया। इसके साथ ही शेषपुर में भी जब क्षुल्लक श्री धर्मसागर जी महाराज (कुरावड़ वाले) पहुँचे, तो प्रतिदिन उनकी वैयावृत्ति, आहार, विहार आदि चर्या में रुचिपूर्वक हिस्सा लेना धनराज की विशेषता बन चुकी थी।
बचपन में ही त्याग और संयम की प्रवृत्ति
विशेषता यह है कि धनराज जब आठवीं कक्षा में पढ़ाई करते थे, तभी से उन्होंने विभिन्न नियमों को अपने जीवन में अंगीकार करना शुरू कर दिया था। यथा उन्होंंने छोटी उम्र में ही रात्रि भोजन त्याग, आलू-प्याज का त्याग, होटल में भोजन का त्याग तथा इसके साथ ही दशलक्षण पर्व व अष्टमी-चतुर्दशी आदि के अवसर पर आहार-अंतराय का पालन करते हुए एकाशन-उपवास करना आदि प्रारंभ कर दिया था।
माँ की ममता का सम्मान
एक बार जब धनराज एकाशन व्रत के दिन भोजन करने बैठे, तो उनकी पहली ग्रास में ही एक बड़ा बाल आ गया। माँ ने जब देखा, तो घबरा गई, उसने सोचा कि अब धनराज अंतराय कर देगा। तुरंत ही माँ ने बेटे को समझाना शुरू कर दिया और अपनी ममता के वशीभूत होकर उसको कहा कि बेटा इस पूरी थाली को तू छोड़ दे, मैं तेरे लिए दूसरी थाली लगा देती हूँ। जब धनराज ने देखा कि यदि मैंने अंतराय कर दिया, तो माँ अत्यन्त दु:खी हो जायेगी और इसकी ममता व करुणा को बहुत ठेस पहुँचेगी, अत: उन्होंने माँ की ममता का सम्मान करके, माँ की बात स्वीकार कर ली और दूसरी थाली में भोजन किया। यह धनराज के मन में मातृत्व के प्रति सम्मान का एक अनूठा एवं विवेकशील उदाहरण सभी के लिए अनुकरणीय है।
व्यवसाय, तीर्थयात्रा और ब्रह्मचर्य व्रत
धनराज आठवीं तक सलुम्बर में लौकिक शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत अपने बड़े भाई हीरालाल के पास अकोला (महा.) में चले गये। वहाँ भाई के साथ उनकी पान की दुकान पर हाथ बटाने लगे। लेकिन यहाँ भी स्वयं अपने हाथों से भोजन बनाना और नियम-व्रतों का पूर्ण पालन करना, धनराज की यह चर्या जारी रही। इसी मध्य धनराज के मन में मांगीतुंगी व मुक्तागिरी आदि तीर्थों की यात्रा का विचार आया और जब धनराज मुक्तागिरि सिद्धक्षेत्र का दर्शन कर मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र पहुँचे, तो वहाँ पर उन्हें एक मुनि संघ का दर्शन हुआ। बस, यहाँ से धनराज की वैराग्यमयी कहानी का शुभारंभ हुआ। मुनिराज ने धनराज को वैराग्य का उपदेश दिया तब तत्क्षण ही धनराज ने व्यवसाय तक को भी छोड़ने का मन बना लिया और मन ही मन में ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर लिया। इस प्रकार बहुत ही धार्मिक संस्कारों एवं संसार की असारता का चिंतन करते हुए पुन: आगे बड़वानी, अंदेश्वर आदि तीर्थक्षेत्रों का दर्शन करके धनराज शेषपुर में आ गये।
वैराग्य
गृहत्याग- अप्रैल सन् १९६६ में मुंगाणा (राज.) में २१ अप्रैल से २७ अप्रैल तक भगवान आदिनाथ जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव का आयोजन हुआ, जिसमें मुनि श्री वर्धमानसागर जी महाराज का सान्निध्य प्राप्त हुआ। यह समाचार जानकर धनराज भी शेषपुर से मुंगाणा के लिए प्रस्थान करने लगे। तब माँ ने उन्हें नई धोती-कमीज पहनने को दी और वे माँ की ममता और उनका आशीर्वाद समेटे घर से मुंगाणा प्रतिष्ठा महोत्सव में चले गये। यह बात कौन जानता था कि माँ ने अपने लाल को अंतिम बार नये वस्त्र पहनने को दिये थे। माँ की आँखों में तो वह लाल तारों की तरह ही टिमटिमा रहा था और सतत माँ अपने बेटे के लौटने का इंतजार कर रही थी। लेकिन धनराज तो गृहत्याग कर संसार के समस्त बंधनों से मुक्त हो गये थे।
इधर विवाह की तैयारी उधर क्षुल्लक दीक्षा
धनराज के हृदय पटल में तो संसार की असारता के बीज अंकुरित हो चुके थे और ज्यों ही धनराज मुंगाणा के प्रतिष्ठा महोत्सव में पहुँचे, त्यों ही उन्होंने आचार्यश्री महावीरकीर्ति जी के शिष्य मुनि श्री वर्धमानसागर जी महाराज से दीक्षा लेने की भावना अभिव्यक्त कर दी। मुनिश्री ने भी एक ही नजर में इस बालक का वैराग्यमन पढ़ लिया और कहा कि कल दीक्षाकल्याणक है, मैं तुम्हें दीक्षा दे दूूँगा। बस, इधर समाज में धनराज की दीक्षा का महोत्सव शुरू हो गया और ठाट-बाट के साथ हाथी पर धनराज की बिनौरी निकाली गयी। देखते ही देखते दूसरा दिन आ गया और वैशाख शुक्ला पंचमी, दिन-सोमवार, सम्वत् २०२२, तदनुसार दिनाँक २५ अप्रैल १९६६ को धनराज की मध्यान्ह १ बजे हजारों भक्तों की भीड़ के मध्य मुनि श्री के करकमलों से जैनेश्वरी ‘‘क्षुल्लक दीक्षा’’ सम्पन्न हुई और दीक्षार्थी धनराज के नये नाम ‘‘क्षुल्लक ऋषभकीर्ति’’ की समूचे पाण्डाल में जय-जयकार गूंज उठी। सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि धनराज की दीक्षा हो गई, लेकिन दीक्षा का समाचार भी शेषपुरवासियों अर्थात् गृहस्थ माता-पिता आदि परिवारजनों को नहीं प्राप्त हुआ, वे तो धनराज के विवाह की तैयारियाँ कर रहे थे, क्योंकि धनराज का विवाह नयागाँव (तह.-सलुम्बर) में तय भी हो चुका था। लेकिन जब ऐसी परिस्थितियों में धनराज की दीक्षा का जैसे ही समाचार प्राप्त हुआ, मानो परिवारजनों पर तो वङ्कापात ही हो गया। दीक्षा का समाचार सुनते ही धनराज के बड़े भाई हीरालाल मुंगाणा आए और उन्होंने दीक्षा का विरोध किया। लेकिन सन्मार्ग में कोई कितना विरोधी बन सकता है, बस मन को यूँ ही शाँत कर हीरालाल अपनी आँखों के आँसू आँखों में ही सुखाकर पुन: लौट आये। इधर वधूपक्ष ने भी निराश होकर उस कन्या का अन्यत्र विवाह कर दिया।
क्षुल्लक से ऐलक
अब क्षुल्लक ऋषभकीर्ति जी अपनी चर्याओं का पालन करते हुए मोक्षमार्ग में अग्रसर थे और उन्होंने अपना प्रथम चातुर्मास निठाऊआ गामडी में किया। पश्चात् सन् १९६७ का द्वितीय चातुर्मास घाटोल में सम्पन्न किया। इसके बाद जब क्षुल्लक जी का विहार करावली गाँव में हुआ, जहाँ पर आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज का ४० पिच्छियोें सहित विशाल संघ आया हुआ था। चूँकि करावली क्षुल्लक ऋषभकीर्ति जी की दो बहनों की नगरी थी, जहाँ वे बचपन से ही आया-जाया करते थे, अत: इस क्षुल्लक वेष में उनका स्वागत पूरे नगर में भव्यता के साथ किया। इस बात की जानकारी आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज को भी प्राप्त हुई और आचार्यश्री के संघस्थ आचार्यकल्प मुनि श्री श्रुतसागर जी महाराज ने क्षुल्लक ऋषभकीर्ति जी की प्रतिभा और चर्या को देखते हुए उन्हें संघ में रहने के लिए प्रेरित किया और क्षुल्लक ऋषभकीर्ति जी ने सहर्ष उनके वात्सल्य को स्वीकार करते हुए आचार्य संघ में प्रवेश कर लिया। इसके पश्चात् जब संघ का विहार बांसवाड़ा में हुआ और आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज के करकमलों से क्षुल्लक ऋषभकीर्ति जी की ऐलक दीक्षा हुई और उनका नाम ऐलक अभिनंदनसागर रखा गया। ये शिवसागर जी महाराज बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की पट्ट परम्परा में प्रथम पट्टाचार्य श्री वीरसागर जी महाराज से दीक्षित उनके शिष्य थे, जो इस परम्परा के द्वितीय पट्टाचार्य हुए हैं।
ऐलक अभिनंदनसागर जी की मुनिदीक्षा
सन् १९६९ में फाल्गनु कृ. अमावस्या के दिन महावीर जी (राज.) में आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज की एक-दो दिन की बीमारी से अचानक समाधि हो गई। तभी उनके आचार्य पट्ट पर सर्वसम्मति के साथ फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को मुनि श्री धर्मसागर जी महाराज को तृतीय पट्टाचार्य घोषित किया गया। इस आचार्य पदारोहण की क्रिया सम्पन्न होते ही महावीर जी में आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज के करकमलों द्वारा ११ भव्य आत्माओं को जैनेश्वरी दीक्षा प्राप्त हुई। उसी में ऐलक अभिनंदनसागर जी महाराज ने भी फाल्गुन शुक्ला अष्टमी, २४ फरवरी सन् १९६९ को महावीर जी (राज.) में मुनिदीक्षा ग्रहण कर ‘‘मुनि श्री अभिनंदनसागर’’ यह नाम प्राप्त किया था। आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज का यह अनूठा उदाहरण है, जब किसी मुनि ने पट्टाचार्य पद पर आसीन होते ही इतनी भव्य जैनेश्वरी दीक्षाएँ प्रदान की हों। पश्चात् संघ का प्रथम चातुर्मास सन् १९६९ में जयपुर (राज.) में हुआ, जिसमें मुनि श्री अभिनंदनसागर जी, मुनि श्री संभवसागर जी आदि सहित सम्पूर्ण साधु-संघ ने गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी से जैनागम का अध्ययन करके वर्षायोग को सार्थक किया।
उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठापन
पाड़वा (राज.) में सन् १९८८ में १४ अप्रैल से २१ अप्रैल तक समाज द्वारा भव्य पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव का आयोजन किया गया। इस प्रतिष्ठा महोत्सव में मुनि श्री अभिनंदनसागर जी महाराज का सान्निध्य प्राप्त हुआ। प्रतिष्ठा महोत्सव का निर्देशन प्रतिष्ठाचार्य पं. मोतीलाल जी मार्तण्ड कर रहे थे। तभी प्रतिष्ठा महोत्सव के मध्य ही सकल समाज ने मुनि श्री अभिनंदनसागर जी महाराज को उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठापित करने का विचार किया, जिसकी संघस्थ साधुओं ने भी अनुशंसा कर दी। लेकिन मुनिश्री के मना कर देने पर समस्त समाज के लोग इस परम्परा के चतुर्थ पट्टाचार्य आचार्यश्री अजितसागर जी महाराज के समीप भीण्डर (राज.) गये और उनसे आज्ञा व आदेश लेकर आ गये। अब मुनिश्री गुरु आज्ञा के उपरांत उपाध्याय पद के लिए मना न कर सके और समस्त समाज की ओर से प्रतिष्ठाचार्य पं. मोतीलाल मार्तण्ड ने प्रतिष्ठा महोत्सव के मध्य केवलज्ञानकल्याणक के अवसर पर दिनाँक २० अप्रैल १९८८ को मुनि श्री अभिनंदनसागर जी महाराज को उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठापित करके हर्ष-उल्लास की अनुभूति की।
आचार्य पदारोहण
बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की पट्ट परम्परा में पंचम पट्टाचार्य श्री श्रेयांससागर जी महाराज की मार्च १९९२ में बांसवाड़ा (राज.) में समाधि होने के उपरांत उस समय संघ के सबसे वरिष्ठ ब्रह्मचारी ब्र. सूरजमल जी परम्परा और संघ से जुड़े अनेक साधुओं के पास गये और आगामी आचार्य पट्ट के लिए सलाह की और सभी साधुओं द्वारा आचार्य श्री अभिनंदनसागर जी महाराज को इस परम्परा का पट्टाचार्य बनाने की स्वीकृति प्राप्त हुई। तभी ८ मार्च १९९२ को शुभ मुहूर्त में ४२ पिच्छीधारी साधु-साध्वियों एवं जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के शिष्य ब्र. रवीन्द्र कुमार जी (वर्तमान पीठाधीश स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी) व ब्र. सूरजमल जी आदि त्यागी-वृतियों की उपस्थिति में उपाध्याय श्री अभिनंदनसागर जी महाराज को इस परम्परा का छठा पट्टाचार्य घोषित किया गया। तभी से लेकर आज तक इस परम्परा का उन्नयन आचार्य श्री अभिनंदनसागर जी महाराज कुशलता के साथ कर रहे हैं। इस आचार्य पदारोहण समारोह में हजारों की संख्या में श्रद्धालु भक्तों ने पधारकर जय-जयकार के साथ अपनी अनुमोदना भी प्रस्तुत की थी।