# हमने प्रतिज्ञा कर ली थी कि जिस घर में शास्त्रानुसार आहार प्राप्त होगा, वहीं करेंगे।
# भगवान की आज्ञा के प्रतिकूल जरा भी कार्य नहीं करेंगे, भले ही हमारे प्राण चले जावें।
# जिनवाणी सर्वज्ञदेव की वाणी है। वह पूर्ण सत्य है। उसके विरुद्ध यदि सारा संसार हो जाये तो भी हमें कोई डर नहीं।
# जैन मंत्रों में अचिन्त्य सामथ्र्य पाई जाती है।
# जिनेन्द्र का मंदिर नहीं होगा तो श्रावकों का धर्म भी नहीं रहेगा और श्रावकों के अभाव में मुनिधर्म कैसे रहेगा ? मुनिधर्म जब तक रहेगा, तभी तक जिनधर्म रहेगा। इस दृष्टि से धर्म के आधार-स्तंभ जिनमंदिरों की पवित्रता के रक्षण निमित्त हमें प्रयत्न करना पड़ा। यदि भगवान का स्थान नहीं रहा, तो हम भी नहीं रहेंगे। हमें भगवान की आज्ञा माननी चाहिए।
# भगवान की वाणी होने के कारण धवलादि ग्रन्थ सचमुच में हमारे जीवन हैं। आपने इनका रक्षण किया तो समझना चाहिए कि हमारे प्राणों की रक्षा कर ली।
# यह जिनवाणी हमारा प्राण है।
# शास्त्र जलधि (समुद्र है), जीव मछली है, उसमें जीव जितना घूमे और अवगाहन करे उतना ही थोड़ा है।
# जिनागम में जो बात नहीं कही गई है, उसे जिनागम का अंग बताना, श्रुत का अवर्णवाद है।
# चारित्र को उज्ज्वल रख कर कभी भी मर जाना अच्छा है। चारित्र को मलिन बना कर दीर्घजीवी बनना ठीक नहीं।
# मौन से मन की शांति बढ़ती है। मन आत्मा के ध्यान की ओर जाता है। वचनालाप में सत्य का कुछ न कुछ अतिक्रमण भी
होता है, मौन द्वारा सत्य का संरक्षण होता है। चित्तवृत्ति बाहरी पदार्थों की ओर नहीं दौड़ती है।
# उपवास द्वारा मोह की मन्दता होती है। उपवास करने पर शरीर शिथिल हो जाता है, जब शरीर की ही सुध नहीं रहती, तब शिष्य-प्रशिष्य, बाल-बच्चे और रुपया-पैसा की चिन्ता भी नहीं सताती है। मोह भाव मन्द हो जाने से आत्मा की शक्ति जाग्रत हो जाती है। जब अपने शरीर की ही चिन्ता छूट जाती है, तब दूसरों की क्या चिन्ता रहेगी।
# जैनधर्म के मुख्य अंग जैन मंदिर हैं।
# आहारदान देने के पूर्व जो नवधाभक्ति की जाती है, वह अभिमान पोषण हेतु नहीं है। वह धर्मरक्षण के लिए है। उससे दाता की परीक्षा हो जाती है कि यह जैन है।
# आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज उनके यहाँ आहार नहीं करते थे जिनके यहाँ विधवा विवाह होता था। आपका उपदेश था कि विधवा विवाह करने से पात्रशुद्धि का अभाव हो जायेगा और उससे मोक्षमार्ग का ही अभाव हो जायेगा।
# हमने जीवन भर किसका आश्रय लिया ? एकमेव धर्म का रत्नत्रयरूप तत्त्वों का, वह रत्नत्रय स्वरूप धर्म ही सभी को अभय देने वाला और दु:खों से मुक्त करने वाला है। इसलिए समाज भी उसी रत्नत्रयरूप धर्म का आश्रय ले।
# सम्यक्त्व प्राप्त करने के लिए दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय किसी भी हालत में करना ही चाहिए। दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय आत्मचिंतन से ही होता है। कर्म की निर्जरा तो आत्मचिंतन से ही होती है। दान, पूजन आदि करने से पुण्यबंध अवश्य होता है, परन्तु केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए अनन्त कर्मों की निर्जरा आवश्यक है और वह साध्य होगी केवल आत्मचिंतन से…..।
# चारित्र मोहनीय कर्म का क्षय करने के लिए संयम धारण करना चाहिए, क्योंकि संयम के बिना चारित्र मोहनीय कर्म का क्षय होता ही नहीं इसलिए हर एक जीव को संयम धारण करना ही चाहिए। डरो मत। संयम धारण करने से डरो मत……।
# इस जीवन का कोई नहीं है…….कोई नहीं है। जीव अकेला ही है, अकेला ही भ्रमण करता है और अकेला ही मोक्ष जाने वाला है।
# उच्च संहनन वाले मुनि जंगल में रहते थे। इस काल में हीन संहनन होने के कारण मंदिर, धर्मशाला तथा शून्यगृह में रहना कहा है। आहार के लिए दीक्षा मत लो। दीक्षा के बाद आहार मिलेगा।
# पाप के त्याग से मनुष्य पुण्य की ओर जाता है और पुण्य के त्याग से शुद्ध तत्व (शुद्ध परिणति) की ओर जाता है। पाप पुण्य दोनों के त्याग से मुक्ति मिलती है।
# जिस कुएँ में चमड़े की मोट चलती है उस में मोट बंद होने के दो घंटे बाद पानी लेंवे। व्रत से नहीं घबड़ाना चाहिए। चक्रवर्ति तक ने बारह व्रत पाले हैं। व्रती सावद्य दोष त्यागकर दो बार सामायिक करें। उसका जघन्य काल दो घड़ी है। उसमें भगवान का जाप करें तथा एकदेश आत्मचिंतन करें। जघन्य प्रोषधोपवास में छह रस रहित आहार लेना उत्कृष्ट है।
# जब तक धर्मध्यान रहे तब तक उपवास करना चाहिए। आर्त ध्यान, रौद्र ध्यान उत्पन्न होने पर उपवास करना हितप्रद नहीं है।
# उपवास करने से इंद्रिय और मन की मस्ती दूर हो जाती है और वे पाप पथ से दूर हो आत्मा के आदेशानुसार कल्याण की ओर प्रवृत्ति करते है।
# नग्नता महत्वपूर्ण नहीं है, बन्दर भी नग्न है, पशु भी नग्न है। मनुष्य में नग्नता के साथ विशेष गुण पाये जाते हैं, इसलिए उसका दिगम्बरत्व पूज्यनीय होता है।