आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की कतिपय अमूल्य शिक्षाएँ एवं विचार
हाथी का स्नान
मुनि श्री नेमिसागर जी जब गृहस्थ थे और व्यापार करते थे, तभी से आचार्यश्री के संपर्क में आ गये थे। गृहस्थी चलाते हुए ही उन्होंने कई कठोर नियम पाल रखे थे और विरक्ति मार्ग पर चलने के लिए अपने को तैयार कर रहे थे। उन्हें विश्वास था कि हमारा यह भक्ति-वैराग्य हमें सद्गति अवश्य प्रदान करेगा। परन्तु आचार्य महाराज ने एक ही उपमा से उनकी सारी चित्तवृत्ति को नयी ही दिशा में मोड़ दिया। महाराज ने एक बार नेमिसागर जी से कहा, ‘तुम्हारा यह भक्ति-वैराग्य हाथी के स्नान जैसा है’। बस, इस एक वाक्य का प्रभाव इतना गहरा एवं इतना व्यापक हुआ कि नेमिसागर जी ने गृहस्थी को त्यागकर त्यागमार्ग अपना लिया। पात्र जैसा हो, उपदेशक की बातों का स्वरूप और उनका लहजा भी वैसा ही होता है। नेमिसागर जी परिपक्व आत्मा थे, इस कारण आचार्यश्री ने उन्हें बहुत विस्तृत रूप से समझाना आवश्यक नहीं समझा। महाराज के उपदेश का विस्तृत अर्थ यह था-‘‘हाथी को जब नहलाया जाता है, तो उसके शरीर पर का मैल आसानी से छूटता नहीं। महावत र्इंट से रगड़-रगड़ कर उसके मोटे चमड़े को धोता है, तब कहीं जाकर उसका मैल उतरता है। परन्तु इतनी कठिनाई एवं परिश्रम से हाथी को नहलाने का लाभ ही क्या ? क्योंकि किनारे पर चढ़ते ही वह मिट्टी उठा-उठा अपने मस्तक पर तथा सारे शरीर पर डाल लेता है और फिर थोड़ी ही देर में मैले का मैला हो जाता है। ‘‘इसी प्रकार तुम भक्ति-वैराग्य करने के लिए मेरे पास आते हो और बड़े परिश्रम के साथ अपने मन का मैल धोते हो। फिर भी उससे लाभ क्या ? थोड़ी ही देर में तुम घर लौट जाते हो और फिर संसार भर के कर्ममलों से अपनी आत्मा को गंदा कर लेते हो। इस कारण तुम्हारा यह भक्ति-वैराग्य करना हाथी के स्नान जैसा है।’’ आचार्यश्री की उपमा का यह सारा तात्पर्य गृहस्थी नेमण्णा (नेमिसागर) के मन में समा गया और आचार्यश्री की यह उक्ति सुनते ही उनके मन की विरक्त भावना और प्रबल हो उठी तथा उनका संकेत समझकर उन्होंने त्यागी जीवन अपना लिया।’’
फूल व फल की उपमा
आचार्य श्री ने तर्क करने वालों को समझाने के लिए एक सुन्दर उपमा से काम लिया। उन्होंने कहा कि देव की पूजा पुष्प के समान है और आत्मदर्शन फल के समान। मनुष्य देव-आराधना के बिना आत्म दर्शन का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। ठीक उसी प्रकार, जैसे पूâलों के बिना फल नहीं हो सकता। देव-आराधना मुक्ति मार्ग की प्रथम सीढ़ी है। जब वह पूर्ण रूप से विकसित हो जाये, तभी सत्संग एवं गुरु कृपा के प्रभाव से सम्यक् दर्शन सिद्ध होता है। ठीक उसी प्रकार जैसे फूल के पूर्ण विकसित होकर पंखुड़ियाँ झड़ जाने के बाद ही फल होता है। जब आचार्यश्री ने यह उपमा दी तो किसी ने पूछा, ‘तो महाराज, आप अब तक देव-आराधना करते हैं। यह क्यों ? आचार्य श्री ने कहा, ‘‘मनुष्य ऊपर की मंजिल पर पहुँचने के लिए सीढ़ियों का सहारा लेता है। ऊपर पहुँचने के बाद उसे सीढ़ियों की आवश्यकता भले ही न हो, फिर भी वह यह तो नहीं भूल सकता कि इन्हीं सीढ़ियों के सहारे मैं ऊपर पहुँचा हूँ? अगर कोई मंजिल पर पहुँचते ही सीढ़ियों को लात मारकर गिरा दे, तो उसका वह व्यवहार क्या उचित कहा जा सकता है ? ‘‘और फिर हमारा काम केवल ऊपरी मंजिल पर स्वयं पहुँचना ही नहीं, बल्कि औरों को भी पहुँचाना है। यदि हम पूजा-विधि से विमुख हो जायें, तो और लोग वैâसे समझ सकते हैं कि मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी क्या है ? इसीलिए मैंने देव आराधना को नहीं छोड़ा है। सर्वव्यापी भगवान की जिस रूप में जहाँ भी आराधना की जाये, वह अनुचित या अनावश्यक नहीं हो सकती।’’ इन सुन्दर उपमायुक्त उक्तियों ने अधपढ़े तर्व-शिरोमणियों को अवाक् कर दिया और उन्होंने अपने विचार सुधार लिये।
नंगी तलवार की उपमा
एक बार वकील साहब ने या किसी और सज्जन ने महाराज से पूछा-‘‘महाराज! कई तीर्थंकर ऐसे हुए हैं जो भोगमार्ग मे रहते हुए अचानक ही विरक्ति मार्ग अपना कर मुक्त हुए हैं और लोग भी ऐसा नहीं कर सकते क्या ?’’ महाराज ने जवाब दिया, ‘कल्पना कर लो दुधारू नंगी तलवारें मूठ के बल पर खड़ी की गई हैं, इन तलवारों की नोंक पर फल रखे हैं। एक तोता पास में है और लाखों चीटिंया भी हैं। तोता उड़ता हुआ आता है और झट एक फल को चोंच में लेकर खा जाता है। क्या, चीटिंयाँ भी ऐसा कर सकती है ?’’ प्रश्नकर्ता ने कहा, ‘यह कैसे हो सकता है ?’’ आचार्यश्री ने पूछा, ‘मान लो चूहा जैसा कोई भारी जानवर है। वह चिउंटियों की तरह तलवार की धार पर चलकर उस फल का रसास्वादन कर सकता है ?’’ प्रश्नकर्ता ने जरा सोचकर कहा, ‘नहीं। क्योंकि अपने ही भार के कारण चूहा कटकर मर जायेगा, तलवार की धार पर चलकर ऊपर चढ़ना चिउंटी जैसे हल्के जीवों ही के लिए संभव हो सकता है।’’ आचार्यश्री ने कहा, ‘बस तुम्हारे प्रश्न का यही उत्तर है। तीर्थंकर सम्राट लोग अवधिज्ञान-प्राप्त दिव्य जीव थे। भूत, भविष्य एवं वर्तमान का विपुल ज्ञान उन्हें प्राप्त था। वे अतुल्यवीर्य युक्त भी थे। ऐसे असाधारण जीव अंतिम घड़ी तक भोग में बिताने के बाद अचानक मुनिव्रत धारण करके मुक्त हो गये, तो उसका अर्थ यह थोड़े ही हो सकता है कि सब ऐसा कर सकते हैं ? ‘साधारण भोगी मनुष्य चूहे आदि भारी जानवरों के समान है। वह इस दुधारू तलवार की धार पर चलने की कल्पना तक नहीं कर सकता है। उसके लिए उसे त्यागमार्ग अपनाकर अपने कर्मों के बोझ को कठोर व्रत-नियमादि से अधिक से अधिक घटा लेना चाहिए। इस चींटी के समान हल्का हो जाने के बाद ही साधारण मनुष्य मुक्ति-पथ को तलवार की धार पर कदम रख सकता है, अन्यथा नहीं। ‘‘तीर्थंकर लोग तोतों के समान हैं। साधारण गृहस्थ चूहों के समान हैं और साधु लोग चिउंटियों के समान हैं। समझ गये न ?’’ प्रश्नकर्ता ने और अन्य सबने कहा, ‘‘हाँ महाराज! अच्छी तरह समझ गये।’’ महाराज ने पूछा, ‘‘कोई बात कहने की रह तो नहीं गई है ?’’ लोगों ने कहा, ‘‘नहीं तो महाराज!’’
प्रश्न का एक नया पहलू
महाराज ने कहा, तीर्थंकरों के विषय में एक बात रह गई है। भरत जैसे सार्वभौम सम्राट आये, अतुल्य सुख भोगे, अन्तिम घड़ी में विरक्त जीवन अपनाया और तत्काल मुक्त हो गये। परन्तु क्या, उनके साथ जो कुछ हुआ, वह इतना ही था ? उपरोक्त वर्णन तो उनके असंख्यात काल के जीवन का आखिरी पर्व मात्र था। उससे पहले कितने असंख्य जन्मों के सतत प्रयत्न के फलस्वरूप कर्मक्षय होकर वे सार्वभौम सम्राट् बनकर अवतरित हुए, यह भी तो हमें सोचना चािहए। अंत में उनको जो भाग्योदय हुआ, उसी को उनका सारा जीवन समझने ही से यह भूल होती है कि वे कुछ ही घड़ी विरक्त रहकर मुक्त हो गये। वास्तव में ऐसी बात नहीं है। ठीक है न ?’’ प्रश्न के इस नये पहलू पर महाराज के प्रकाश डालने के बाद दूसरों का ध्यान गया। इस वार्तालाप के गहन एवं व्यापक अर्थ पर विचार करते हुए सब लोग लौट गये।
दिगम्बर जैन साधु दिगम्बर क्यों ?
आजकल कुछ बुद्धिवादी लोग कहते हैं, ‘‘हम सब बातों को मानते हैं। पर साधु का दिगम्बर रहना हमें अनुचित एवं अनावश्यक प्रतीक होता है। दिगम्बरत्व तो केवल प्रतीकात्मक पारिभाषित शब्द है। उसका भावार्थ केवल इतना है कि पाँच महापापोंरूपी वस्त्रों के आवेष्टन से मुक्त हो जाना। इच्छा, द्वेष, लोभ, असत्यादि पापों को मन से दूर कर देना। वस्त्र पहनकर भी विरक्त लोग इन पापों से दूर रह सकते हैं। दिगम्बरत्व का वास्तविक अर्थ नग्नत्व नहीं है,’’ इत्यादि। परन्तु जरा व्यावहारिक दृष्टि से सोचा जाये, तो भी ऐसे तर्व का खोखलापन स्पष्ट हो जायेगा। दिगम्बर जैन मुनि को हर प्रकार की आवश्यकताओं-अपेक्षाओं से मुक्त एवं रहित होना चाहिए। अन्यथा वह सम्पूर्ण रूप से निस्पृह नहीं हो सकता। अपने खाने के लिए एक दाना भी वह रख नहीं सकता, न पीने के लिए जल। वह किसी भी प्रकार की याचना नहीं कर सकता, वह अयाचक होता है। जब वह आचारचर्या के लिए निकलता है तब मुँह से एक शब्द भी नहीं निकालता। सभी अन्तरायों से बचकर जब वह आहार ग्रहण नहीं करता है, तब भी वह स्वयं कह नहीं सकता कि अमुक वस्तु चाहिए, अमुक वस्तु नहीं। वह हर जगह पैदल ही चलता है। वाहनों का उपयोग उसके लिए निषिद्ध है।
सत्य-निष्ठा के लिए दिगम्बरत्व आवश्यक
ऐसी स्थिति में यदि वस्त्र धारण की छूट दी जाये तो साधु की विशुद्ध तपश्चर्या में ऐसी बाधाएँ उत्पन्न हो जायेंगी, जिनकी कि कल्पना नहीं की जा सकती। उसका त्यागी जीवन संग्रह जीवन मे परिवर्तित ही जायेगा। कल्पना करें, दिगम्बर जैन साधु को वस्त्र पहनने की आजादी दी जाती है। उसका अर्थ यह होगा कि गर्मियों में सूती कपड़ों और सर्दियों में गरम कपड़ों की प्राप्ति के लिए साधु तरह-तरह की चिन्ताएँ करने लगेगा। या तो उसे उसके लिए याचना करनी पड़ेगी या और तरह से संग्रह करना पड़ेगा। इससे जहाँ उसकी अयाचक वृत्ति नष्ट हो जायेगी, वहाँ उसमें अपरिग्रह भी नहीं रहेगा। साथ ही परीषह-सहन के कठोर नियम से भी वह मुक्त हो जायेगा। जहाँ ये तीनों प्रतिबंध-अयाचन, अपरिग्रह एवं परीषह-सहन हट गये, वहीं पाखण्डों-ढोंगियों के लिए खुली छूट मिल जायेगी। ऐसे लोग भी बेहिचक साधु बनने लगेंगे, जिन्होंने इन्द्रियदमन नहीं किया हो और लोभ का परित्याग नहीं किया हो। दिगम्बर जैन समाज की सबसे बड़ी महानता यही है कि धर्महानि के इस युग में भी उसमें ऐसे साधु हुए हैं और हो रहे हैं, जो कठोर तपस्या की अग्नि में स्वर्ण की भांति तपकर कुन्दन की तरह शुभ्रयश फैलाते हुए निकले और निकलते हैं। इसका एक मात्र कारण वही है जिसका मैं उत्तर विशद उल्लेख कर चुका हूँ-अर्थात् दिगम्बर जैन साधु को ऐसे कठोर नियमों का पालन करना पड़ता है और ऐसे दारूण परीषहों को सहन करना पड़ता है कि जिसने वासनाओं पर सम्पूर्ण विजय नहीं पायी हो और जो मन-वचन-कर्म से सम्पूर्ण विरक्त नहीं हो, वह दिगम्बर जैन साधु बनने का साहस ही नहीं कर सकता। यदि दिगम्बरत्व का एक नियम हट गया, तो दिगम्बर जैन साधुओं का यह निर्मल चरित तत्काल भ्रष्ट हो जायेगा। जितने भी विचारको से मैंने इस विषय पर गंभीर चर्चा की, उन सबका यही मत है कि दिगम्बरत्व ही वह बाँध है, जिसको लांघने का साहस पाखण्डियों में नहीं हो सकता। ज्यों ही यह बाँध टूटा, धर्म का वास्तविक निर्मल स्वरूप ही नष्ट हो जायेगा।
ब्रह्मचर्य की आवश्यकता
प्रश्न – मुक्तिमार्ग में ब्रह्मचर्य क्यों आवश्यक समझा गया है ? साधारण मनुष्य सीमित रूप में भी ब्रह्मचर्य के कठिन व्रत का पालन करना चाहें, तो उन्हें क्या करना चाहिए ?
उत्तर – स्त्री एवं धन धर्म के मार्ग में बाधक माने गये हैं। माता-पिता, भ्राता, पुत्र ये सब मुक्तिमार्ग में उस तरह बाधा नहीं डाल सकते, जिस तरह स्त्री बाधा डाल सकती है। इसी कारण जैनधर्म में मुक्तिमार्ग के लिए स्त्री का त्याग आवश्यक माना गया है। भोग का परित्याग एवं त्याग का अनुसरण मुक्तिमार्ग के लिए अनिवार्य है। परन्तु गृहस्थ के लिए स्त्री का सम्पूर्ण त्याग न संभव है, न उचित ही। धर्मकार्य को निरन्तर चालू रखने के लिए सन्तान की आवश्यकता तो होती ही है। सभी ब्रह्मचारी रह जायें, तो धर्म का कार्य चले कैसे ? इस कारण गृहस्थ को सन्तान-प्राप्ति की इच्छा से अपनी विवाहिता पत्नी के साथ संभोग करना चाहिए। आवश्यक संतानों के जन्म के बाद स्वस्त्री गमन भी छोड़ देना चाहिए। परस्त्री गमन तो गृहस्थ को किसी हालत में नहीं करना चाहिए। जो इस तरह नियम-निष्ठा का पालन करे, वह गृहस्थ भी ब्रह्मचारी के ही समान होता है।
नैतिक पतन के कारण
प्रश्न – बहुत से लोगो का विश्वास है, संसार-विशेषकर भारत के लोगों का नैतिक स्तर इस समय इतना गिर गया है कि जितना पहले कभी नहीं था। क्या, आपका भी यही विश्वास है ? आपकी राय में इस पतन के क्या कारण हैं ?
उत्तर –मेरा भी विश्वास है कि लोगों का नैतिक स्तर अब बहुत गिर गया है। मेरे बचपन में लोगों में जितना चरित्रबल एवं सच्चाई पाई जाती थी, इसका लेशमात्र भी अब नहीं पाया जाता है। इस नैतिक पतन का कारण यह है कि लोग सन्मार्ग को छोड़कर कुमार्ग पर चलने लग गये। सन्मार्ग क्या है ? पंच-महापापों का त्याग। पंच-महापाप ये हैं-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और अतिलोभ। इन पाँचों पापों को न त्यागने से ही लोग गिर गये।
प्रश्न – इस स्थिति को कैसे सुधारा जा सकता है ?
उत्तर –सन्मार्ग को पुन: अपनाने से। यह इने-गिने व्यक्तियों से नहीं हो सकता। स्वयं सरकार को इस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। यथा राजा तथा प्रजा। यदि सरकार कानूनन पंच-महापापों का त्याग अनिवार्य कर दे और स्वयं शासकगण सन्मार्ग ग्रहण करें, तो साधारण जनता भी कुमार्ग छोड़कर सन्मार्ग में प्रवृत्त हो जायेगी। यदि सरकार ऐसा करे, तो मेरा दृढ़ विश्वास है कि देश के सभी कष्ट दूर हो जायेंगे। बरसात का न होना, अन्न की कमी, प्राकृतिक उत्पात आदि कोई भी संकट नहीं रहेगा और समस्त प्रजा का कल्याण होगा।
स्त्री-शिक्षा का समर्थन
प्रश्न – स्त्री शिक्षा आवश्यक है कि नहीं ? स्त्रियां भी जीविकोपार्जन के कार्यों एवं राजकीय कार्यों में भाग ले सकती है ?
उत्तर –स्त्री को विद्याग्रहण करने का अधिकार है। स्त्री-शिक्षा आवश्यक है। पर वह शिक्षा मुक्तिमार्ग में आगे बढ़ने में सहायक हो, इस उद्देश्य से स्त्री को विद्याध्ययन करना चाहिए। अपने निर्वाह के लिए स्त्री, डाक्टरी, अध्यापिका जैसे कार्य कर सकती है। पर उस अवस्था में भी उसे अपने पति के आश्रय में रहना चाहिए।
युद्ध का खतरा, कुविद्या का फल
प्रश्न – आधुनिक विज्ञान की प्रगति के फलस्वरूप ऐसे शस्त्रास्त्र बन गये हैं, जिनके प्रयोग से सारी मानव जाति को नष्ट किया जा सकता है। साथ ही हिंसावृत्ति भी लोगों में बढ़ती जा रही है। ऐसी दशा में मानव जाति की रक्षा एवं सुधार कैसे किया जा सकता है ?
उत्तर – यह सब कुविद्या है-चोर बुद्धि है। एक बम से अचानक हजारों लोगों के प्राण लेना कोई वीरता तो नहीं है, यह तो कायरता है। पहले भी हमारे राजा लोग युद्ध करते थे। पर उनमें कुछ नियमों का पालन किया जाता था। निश्चित समय पर, समान शक्ति के विपक्षियों के साथ आमने-सामने का युद्ध होता था। वह वीरों का ढंग था। आजकल की प्रणाली कायरों की प्रणाली है। पंच-महापाप ही इस कुविद्या के मूल हैं। अत: इन पांचों पापों का त्याग ही मानव जाति की रक्षा का एकमात्र मार्ग है। यदि कोई एक राष्ट्र इन पंच महापापों का त्याग कर दे, तो वह स्वयं इस कुविद्या के प्रपंच से बच जायेगा। इसके अलावा, संसार भर के बम भी उस पापहीन राष्ट्र को हानि नहीं पहुँचा सकते हैं।
कर्म सिद्धान्त
प्रश्न – आपके मतानुसार कर्म-सिद्धान्त की व्याख्या क्या है ? क्या, जीव स्वयत्न से कर्म से उन्मुक्त हो सकता है ?
उत्तर –हाँ, जीव स्वयत्न से कर्मबंधन से मुक्त हो सकता है। कर्म मन-वचन-काय योग से आते हैं। कषाय से कर्म बंध पड़ता है। कषाय २५ प्रकार की होती हैं। कर्मबंध होने पर, आत्मध्यान से कर्म-निर्जरा होती है। विश्वधर्म
प्रश्न – इस समय संसार में कई धर्म प्रचलित हैं। प्रत्येक धर्मावलम्बी अपने ही धर्म को सर्वोच्च मानता है और विशुद्ध सत्य भी। इससे पारस्परिक भेद-भाव बढ़ता है, जो कलह का कारण बनता है। ऐसी दशा में एक ऐसे धर्म का प्रचार उचित नहीं होगा, जिसमें सभी धर्मों का सारतत्व विद्यमान हो और जो सर्वमान्य हो सके ?
उत्तर – संसार में छ: प्रधान धर्म और ३६३ उपधर्म प्रचलित हैं। यह बात सही है कि प्रत्येक धर्मावलम्बी अपने ही धर्म को सर्वोच्च मानता है। ऐसी दशा मे सर्व-मान्य धर्म का प्रचार करने का यही उपाय है कि प्रत्येक धर्म को सच्चाई की कसौटी पर रखकर उसी तरह परखा जाये, जैसे सुनार चोखे सोने व नकली सोने को परखता है। प्रश्न यह है कि इस तरह परखने की कसौटी क्या हो सकती है ? वीतराग, सर्वज्ञ एवं हितोपदेशी, ये तीनों गुण जिसमें हो, वही भगवान है और उसी की वाणी सत्यवाणी है। ये तीनों गुण जिसमें हों, उसे चाहे अर्हन्त कहो चाहे शंकर, बुद्ध कहो चाहे विष्णु, वह पूज्य है, वन्दनीय है, वह भगवान है। इन गुणों की कसौटी पर जो भी धर्म खरा उतरे, वही सर्वमान्य विश्वधर्म हो सकता है। हमारे मतानुसार जैनधर्म ऐसा ही धर्म है।
क्या समाज में यतियों का प्रवास उचित है ?
प्रश्न – क्या, यति को समाज से एकदम अलग हो जाना चाहिए ? यह संभव है और उचित है ?
उत्तर – यह आवश्यक नहीं कि यति बाह्य समाज को छोड़कर एकदम अलग हो जाये, समाज में श्रावकों के साथ रहना उसके लिए निषिद्ध नहीं। पर वह कहीं पर भी रहे, एकाकी नहीं रह सकता। कुछ अन्य साधुओं के साथ ही उसे रहना चाहिए। अन्यथा उसके ब्रह्मचर्य के नष्ट होने का खतरा रहता है। इसी प्रकार साध्वियाँ (आर्यिकाएं) भी अकेली नहीं रह सकतीं। उनको दो-तीन या अधिक का दल बनाकर साथ-साथ रहना चाहिए। समाज से अलग रहने की साधु या साध्वी को कोई आवश्यकता नहीं है। श्रावकों में धर्म की प्रभावना बढ़ाना साधु का कर्तव्य होता है।
पापी पर उपदेश का प्रभाव
प्रश्न – उपदेशों से किसी पापी या पतित को सुधारना संभव हो सकता है ?
उत्तर –उसका भाग्योदय हो तो सुधारा जा सकता है, अन्यथा नहीं। यह बात उपदेशक की कुशलता या वाक्चातुरी पर निर्भर नहीं, बल्कि सुनने वाले के भाग्योदय पर निर्भर है। पानी तो समान रूप से बरसता है, पर सीप में पड़कर जहाँ वह मोती बन जाता है, साँप के मुँह में जाकर वही विष बन जाता है। यह जल का दोष तो नहीं।
दूध निर्दोष है
एक बार एक अन्य सम्प्रदाय के विद्वान् ने महाराज से पूछा था-‘‘आप चमड़े के पात्र का पानी नहीं लेते ? चमड़े के बर्तन का घी नहीं लेते, तब दूध को क्यों लेते हैं ? उसमें भी तो माँस का दूषण है।’’ महाराज ने कहा था-‘‘आप लोग अनेक नदियों के जल को अत्यन्त पवित्र मानते हैं, किन्तु यह तो सोचिये कि वह जल कहाँ तक शुद्ध है, जिसमें कि जलचर जीव मल-मूत्र त्यागते हैं और जिसमें उनकी मृत्यु भी होती है ? अनेक दोषों के होते हुए भी यदि जल शुद्ध है तो, दूध क्यों नहीं ? एक बात ओर है, दूध की थैली गाय के शरीर में अलग होती है। जब गाय घास खाती है, तब पहिले उसका रस भाग बनता है। इसके बाद खून बनता है, इसलिए दूध में कोई दोष नहीं है।’’ महाराज गृहस्थों से कहते थे-तुम्हारी भक्ति, पूजा, अर्चा आदि कार्य गज के स्नानतुल्य हैं। पूजा आदि सत्कार्यों के द्वारा तुमने निर्मलता प्राप्त की, यह तो स्नान हुआ। इसके पश्चात् तुमने अपने ऊपर फिर से मिट्टी डाल दी। ऐसा गृहस्थ का जीवन होता है। भविष्य का क्या भरोसा। यह जीव आगे दु:खी न हो, इससे प्रत्येक व्यक्ति को थोड़ा-थोड़ा व्रत-उपवास करना ही चाहिए। व्रत करने से शक्ति बढ़ती है, प्रमाद कम होता है। व्रतिक बनकर देव पर्याय नियम से मिलेगी और तब तुम विदेह क्षेत्र में जाकर भगवान सीमंधर स्वामी आदि तीर्थंकरों की दिव्य ध्वनि सुन सकोगे तथा नन्दीश्वर द्वीप में बावन चैत्यालयों के अकृत्रिम जिनबिम्बों के दर्शन कर पाओगे। नरकों में सागरों पर्यन्त जीव को अन्न-जल कुछ भी सुलभ नहीं होता है, तब थोड़े से उपवास व्रत करने से भय क्यों ? व्रत करो, अवश्य पलेगा। व्रत में त्रुटि आवे तो प्रायश्चित्त ले लेना चाहिए। महाराज ने ३२ वर्ष की गृहस्थ अवस्था में ही श्री सम्मेदशिखर जी वंदना के प्रसादस्वरूप घी व तेल का जीवन पर्यन्त त्याग कर दिया था। बाद में उन्होंने नमक, शक्कर, छाछ, फलों का रस भी छोड़ दिया।
चिन्तामुक्त शांत मन
एक बार पं. सुमेरचंद जी दिवाकर नो महाराज से पूछा, ‘‘महाराज! आप निरंतर शास्त्र स्वाध्याय आदि कार्य करते हैं। क्या इसका लक्ष्य मनरूपी बंदर को बांधकर रखना है ? जिससे वह चंचलता न दिखावें ?’’ महाराज बोले, ‘‘हमारा मन चंचल नहीं है। लेकिन पूछा गया, ‘‘महाराज! मन की स्थिति वैâसे स्थिर रह सकती है? वह तो चंचलता उत्पन्न करती है ? महाराज ने कहा, ‘‘हमारे पास चंचलता के कारण नहीं है। जिसके पास परिग्रह की उपाधि रहती है, उनको चिंता होती है। उनके मन में चंचलता होती है। हमारे मन में चंचलता नहीं है। हमारा मन चंचल होकर कहाँ जाएगा ? एक तोता जहाज के ध्वज के भाले पर बैठ गया, जहाज मध्य समुद्र में चला गया। उस समय वह उड़कर तोता बाहर जाना चाहे तो कहाँ जायेगा? उसके पास ठहरने का स्थल भी तो चाहिए। इसीलिए वह एक ही जगह पर बैठा रहता है। इसी प्रकार घर-परिवार का त्याग करने के कारण हमारा मन चंचल होकर कहाँ जायेगा। अन्यत्र आश्रय न होने से अपने आप आत्मा की ओर आकर टिकता है। हम तो कहीं भी आत्मा का ध्यान कर सकते हैं। क्योंकि बाहर विश्राम करने का स्थान ही नहीं है।
शास्त्रशुद्ध व्यापक दृष्टिकोण
उचित चर्या के साथ उत्तम श्रावकों को संस्था संचालन की आज्ञा ईसवी सन् १९३३ का चातुर्मास आचार्य संघ का ब्यावर (राज.) में था। महाराज जी का अपना दृष्टिकोण हर समस्या को सुलझाने के लिए मूल में व्यापक ही रहता था। योगायोग की घटना है इसी चौमासे में कारंजा गुरुकुल आदि संस्थाओं के संस्थापक और अधिकारी पूज्य ब्र. देवचंद जी दर्शनार्थ ब्यावर पहुँचे। पूज्य आचार्यश्री ने क्षुल्लक दीक्षा के लिए पुन: प्रेरणा की। ब्रह्मचारी जी का स्वयं विकल्प था ही। वे तो इसीलिए ब्यावर पहुँचे थे। साथ में और एक प्रशस्त विकल्प था कि ‘‘यदि संस्था-संचालन होते हुए क्षुल्लक प्रतिमा का दान आचार्यश्री देने को तैयार हों, तो हमारी लेने की तैयारी है।’’ इस प्रकार अपना हार्दिक आशय ब्रह्मचारी जी ने प्रगट किया। ५-६ दिन तक उपस्थित पंडितों में काफी बहस हुई। पंडितों का कहना था क्षुल्लक प्रतिमा के व्रतधारी संस्था संचालन नहीं कर सकते जबकि आचार्यश्री का कहना था कि पूर्व में मुनि संघ में ऐसे मुनि भी रहा करते थे जो जिम्मेवारी के साथ छात्रों का प्रबंध करते थे और ज्ञानदानादि देते थे। यह तो क्षुल्लक प्रतिमा के व्रत श्रावक के व्रत हैं। अंत में आचार्य महाराज जी ने शास्त्रों के आधार से अपना निर्णय सिद्ध किया। फलत: ब्र. श्री देवचंद जी ने क्षुल्लक पद के व्रतों को पूर्ण उत्साह के साथ स्वीकार किया। आचार्य श्री ने स्वयं अपनी आन्तरिक भावनाओं को प्रकट करते हुए दीक्षा के समय ‘‘समंतभद्र’’ इस भव्य नाम से क्षुल्लकजी को नामांकित किया और पूर्व के समंतभद्र आचार्य की तरह आपके द्वारा धर्म की व्यापक प्रभावना हो, इस प्रकार के शुभाशीर्वादों की वर्षा की। कहाँ तो बाल की खाल निकालकर छोटी-छोटी सी बातों को जटिल समस्या बनाने की प्रवृत्ति और कहाँ आचार्यश्री की प्रहरी के समान सजग दिव्य दूर-दृष्टिता?
एक प्रशस्त विकल्प
‘‘आवश्यकतानुरूप एक स्थान पर प्रवास कर तीर्थोद्धार करना उचित है’’ वर्षों से एक प्रशस्त संकल्प चित्त में था। जैसे माँ के पेट में बच्चा हो, वह करुणा कोमल चित्त की उद्भट चेतना थी। महाराष्ट्र की जैन जनता प्राय: किस्तकार (किसान) है। धर्म-विषयक अज्ञान की भी उनमें बहुलता है। आचार्यश्री का समाज के मानस का गहरा अध्ययन तो अनुभूति पर आधारित था ही। ‘शास्त्रज्ञान’ और ‘तत्त्वविचार’ की ओर इनका मुड़ना बहुत ही कठिन है। प्रथमानुयोगी जनमानस के लिए एक भगवान का दर्शन ही अच्छा निमित्त हो सकता है। इसी उद्देश्य को लेकर किसी अच्छे स्थान पर विशालकाय श्री बाहुबली भगवान की विशालमूर्ति कम से कम २५ फीट की खड़ी कराने का प्रशस्त विकल्प जहाँ कहीं भी आचार्यश्री पहुँचते थे, प्रकट करते थे परन्तु सिलसिला बैठा नहीं। ‘भावावश्यं भवेदेव न हि केनापि रुध्यते’। होनहार होकर ही रहती है। योगायोग से इसी समय अतिशयक्षेत्र बाहुबली (वुंभोज) में वार्षिकोत्सव होने वाला था। ‘संभव है सत्य संकल्प की पूर्ति हो जाये’ इसी सदाशय से आचार्यश्री के चरण बाहुबली की ओर यकायक बढ़े। १८ मील का विहार वृद्धावस्था में पूरा करते हुए नांद्रे से महाराज श्री क्षेत्र पर संध्या में पहुँचे। पवित्र आनन्दोल्लास का वातावरण पैदा हुआ। संस्था के मंत्री श्री सेठ बालचंद देवचंद जी और मुनि श्री समंतभद्र जी से संबोधन करते हुए भरी सभा में आचार्यश्री का निम्न प्रकार समयोचित और समुचित वक्तव्य हुआ। जो आचार्यश्री की पारगामी दृष्टि-सम्पन्नता का पूरा सूचक था। ‘तुमची इच्छा येथे हजारो विद्याथ्र्यांनी राहावे शिकावे अशी पवित्र आहे हे मी ओळखतो, हा कल्पवृक्ष उभा करून जाते। भगवंताचे दिव्य अधिष्ठान सर्व घडवून आणील। मिळेल तितका मोठा पाषाण मिळवा व लवकर हे पूर्ण करा।मुनिश्री समंतभद्राकडे वळून म्हणाले, ‘तुझी प्रकृति ओळखतो, हे तीर्थक्षेत्र आहे। मुनींनी विहार करावयास पाहिजे असा सर्वसामान्य नियम असला तरी विहार करूनही जे करावयाचे ते येथेच एके ठिकाणी राहून करणे। क्षेत्र आहे। एके ठिकाणी राहाण्यास काहीच हरकत नाही, विकल्प करू नको,काम लवकर पूर्ण करून घे। काम पूर्ण होईल! निश्चित होईल!! हा तुम्हा सर्वांना आशीर्वाद आहे।’ आपकी आंतरिक पवित्र इच्छा है कि यहाँ पर हजारों विद्यार्थी धर्माध्ययन करते रहें इसका मुझे परिचय है। यह कल्पवृक्ष खड़ा करके जा रहा हूँ। भगवान का दिव्य अधिष्ठान सब काम पूरा कराने में समर्थ है। यथासंभव बड़े पाषाण को प्राप्त कर इस कार्य को पूरा कर लीजिये।’’ मुनि श्री समंतभद्र जी की ओर दृष्टि कर संकेत किया-‘‘आपकी प्रकृति (स्वभाव) को बराबर जानता हूँ। यह तीर्थभूमि है। मुनियों को विहार करते रहना चाहिए, इस प्रकार सर्वसामान्य नियम है। फिर भी विहार करते हुए जिस प्रयोजन की पूर्ति करनी है, उसे एक स्थान में यहीं पर रहकर कर लो। यह तीर्थक्षेत्र है एक जगह पर रहने के लिए कोई बाधा नहीं है। विकल्प की कोई आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार से कार्य शीघ्र पूरा हो सके पूरा प्रयत्न करना। कार्य अवश्य ही पूरा होगा। सुनिश्चित पूरा होगा। आप सबको हमारा शुभाशीर्वाद है।’’ पूर्णिमा का शुभ मंगल दिन था। शुभ संकेत के रूप में पच्चीस हजार रुपयों की स्वीकृति भी तत्काल हुई। काम लाखों का था। यथाकाल सब कामपूर्ण हुआ। ‘‘पयसा कमलं कमलेन पय: पयसा कमलेन विभाति सर:।’’ पानी से कमल, कमल से पानी और दोनों से सरोवर की शोभा बढ़ती है। ठीक इस कहावत के अनुसार भगवान् की मूर्ति से संस्था का अध्यात्म वैभव बढ़ा ही है। अतिशय क्षेत्र की अतिशयता में अच्छी वृद्धि ही हुई। अब तो मूर्ति के प्रांगण में और सिद्धक्षेत्रों की प्रतिकृतियाँ बनने से यथार्थ में अतिशयता या विशेषता आयी है। महाराज का आशीर्वाद ऐसे फलित हुआ।