दिगम्बर जैन समाज में प्रचलित आत्मानुशासन नामक महान ग्रंथ आचार्य श्री गुणभद्र स्वामी की अनुपम कृति है। यह ग्रंथ अपने नाम को सार्थक करता हुआ आत्मा पर अनुशासन करने की विद्या सिखाता है। व्यवहारिक जीवन में हम देखते हैं कि जो छात्र/छात्रा, पुत्र-पुत्री आदि अनुशासन में रहकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं, वे अपने जीवन में उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए इस लोक और परलोक में प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय बन जाते हैं फिर अपनी आत्मा पर अनुशासन करने वाले भव्यप्राणी निश्चित ही समस्त इच्छित पदार्थ की सिद्धि सहज में ही कर लिया करते हैं। परमपूज्य चारित्रश्रमणी आर्यिका श्री अभयमती माताजी ने इस महान ग्रंथ का हिन्दी पद्यान्तर करके अपनी विशिष्ट प्रतिभाशैली का परिचय प्रदान किया है। आज के इस भौतिकवादी युग में संस्कृत भाषा के पठन-पाठन की रुचि प्राय: समाप्त होती जा रही है, ऐसे समय में पूज्य आर्यिका श्री द्वारा इस ग्रंथ का सरल, सरस भाषा में पद्यान्तर करना समय की बहुत बड़ी आवश्यकता है। इस गंथ के प्रत्येक श्लोक अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण हैं, जो भी व्यक्ति इस ग्रंथ को पढ़ता है उसे संसार-शरीर-भोगों से वैराग्य अवश्य उत्पन्न होता है। पूज्य माताजी ने सर्वप्रथम मंगलाचरणपूर्वक आत्मानुशासन ग्रंथ के कथन की प्रतिज्ञा करते हुए प्रथम श्लोक में लिखा है कि-
चौबीसों जिनदेव को, नमन करूँ शत बार।
वीतरागता प्रगट हो, होवे मम उद्धार।।
इन दो पंक्तियों में ही आर्यिकाश्री ने २४ तीर्थंकरों को नमन करके उनसे वीतराग अवस्था की कामना की है जो कि सभी संसारी अवस्थाओं का विनाश करके परम पद को दिलाने वाली है। क्रम-क्रम से एक-एक श्लोकों का पद्यानुवाद एवं गद्य में टीका करते हुए उन्होंने लिखा है कि यद्यपि इस ग्रंथ में कदाचित् कुछ शिक्षाएँ तत्कालिक कटु लगती हैं तो भी उनसे भयभीत न होवें-
यद्यपि इसमें कुछ इष्ट वचन, तत्कालिक कटुमय भास रहें।
फिर भी उसका परिणाम मधुर, हितकारक शिवसुख रूप लहे।।
इसलिए चेत रे चेतन! ज्यों, रोगी कटु औषधि से न डरे।
बस उसी तरह तू भी उससे, डरना न जभी सब दु:ख टरे।।
अर्थात् यद्यपि इस आत्मानुशासन ग्रंथ में प्रतिपादित सम्यग्दर्शनादि का उपदेश कदाचित् आचरण के समय कुछ कटु सा प्रतीत हो सकता है तो भी उसका फल मधुर (हितकारक) ही होगा अत: हे भव्यप्राणी! जिस प्रकार रोगी कड़ुवी औषधि से नहीं डरता है, उसी प्रकार तुम भी इससे मत डरो, तभी तुम्हारे सभी दु:ख टल जायेंगे। आगे आर्यिका श्री इस पंचमकाल की स्थिति के बारे में बताती हैं कि इस कलिकाल में नि:स्वार्थ दृष्टि से जगत का उद्धार करने वाले संत-साधु बड़े पुण्य से मिलते हैं अत: अच्छे कर्म करें ताकि उसका फल आगे अच्छा मिलेगा। पुन: आगे के श्लोकों में वक्ता, श्रोता का सुन्दर स्वरूप बताकर पाप और पुण्य के फल का प्रतिपादन करते हुए कहा कि जिस प्रकार पानी को मथने से मक्खन एवं बालू को पेरने से तेल नहीं निकलता बल्कि दही को मथने से मक्खन और तिल को पेरने से ही तेल निकलता है उसी प्रकार धर्म करने से पुण्य और अधर्म करने से पापफल की प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन का स्वरूप व उसके दशभेदों को बताते हुए सम्यग्दर्शन के बिना व्रत-तप की निरर्थकता को बताया है कि जिस प्रकार पत्थर की नाव समुद्र में डुबा देती है और लकड़ी की नाव पार लगा देती है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन भव्यप्राणी को संसारसमुद्र से पार करने में समर्थ है। आगे यह बहुत ही सुन्दर बात बताई गई है कि सुख व दु:ख दोनों ही अवस्थाओं में धर्म की आवश्यकता है, इस विषय में सुन्दर पंक्तियाँ देखें-
हे चेतन! तू चाहे सुख का, अनुभव अरु दु:ख का अनुभव कर।
पर सदा जगत में इन दोनों में, तू इक धर्म लहे निश्चल।।
हाँ, यदि तू सुख को भोग रहा, तो वही धर्म सुखवृद्धि करे।
अरु यदि दु:ख को तू भोग रहा, तो वही धर्म सब दु:ख हरे।।
धर्म बिना इस जीव का, कभी न हो कल्याण।
सुख-दु:ख दोनों में करे, भव्य धर्म का काम।।
बहुत ही सरल, सरस पंक्तियों में शिक्षास्पद बात कही गई है। वास्तव में यह धर्म इन्द्रियसुख के संरक्षण में भी आवश्यक है। आगे बताया है कि कल्पवृक्ष तो मांगने पर फल देते हैं परन्तु धर्म के द्वारा बिना मांगे ही इच्छित वस्तु प्राप्त हो जाती है अत: इस धर्म का कभी भी विघात नहीं करना चाहिए। आगे के श्लोकों में पूज्य माताजी ने बहुत ही मार्मिक शब्दों में शिकार, परनिंदा आदि को नहीं करने की प्रेरणा प्रदान करते हुए सुख-वैभव को पुण्य का कारण बताया है। यह सच है कि संसार में रत प्राणी की तृष्णा कभी शान्त नहीं होती है उसी को उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार मकड़ी स्वयं के बुुने हुए जाल में ही फंस जाती है
उसी प्रकार गार्हस्थ जीवन भी मकड़ी के जाल के समान है। आगे बताया है कि जो विवेकी प्राणी हैं वे पुण्य को इष्ट सामग्री का कारण मानकर अपने परभव को सुधारने का प्रयत्न करते हैं तथा जो विवेकहीन हैं वे विषयों के आधीन होकर अपनी बुद्धि को भ्रष्ट कर लेते हैं। जिस प्रकार हाथी स्नान करने के बाद पुन: अपने अंग पर धूल डाल लेता है उसी प्रकार विवेकशून्य गृहस्थाश्रम भी व्यर्थ है। श्लोक नं. ४२ में कहा है कि जिस प्रकार बालू से तेल तथा विष से जीने की वांछा करना व्यर्थ है, ठीक उसी प्रकार विषय-भोगों में सुख ढूंढ़ना व्यर्थ है। सच्चा सुख तो आत्मा के अनुभव से ही प्राप्त होगा। कहने का तात्पर्य यह है कि पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी ने इस ग्रंथ के पद्यानुवाद में बहुत परिश्रम किया है। आगे-आगे की गाथाओं में उन्होंने बताया है कि तृष्णा के कारण ही प्राणी संसार में दु:ख उठा रहा है तथा जो संत-साधु-तपस्वी हैं वे ही संसार में सुखी हैं, क्योंकि उन्होंने रागद्वेष का त्याग कर दिया है। आठों कर्मों में प्रधान मोहरूपी निद्रा के वशीभूत होकर प्राणी क्या-क्या सहन नहीं करता, मोही प्राणी का शरीर बंदीगृह के समान है, गृह, बंधु, स्त्री, पुत्र, धन आदि मोही प्राणी के लिए विपत्ति का कारण बन जाते हैं। आगे लक्ष्मी (धन) की चंचलता के बारे में बताया है कि इस लक्ष्मी के वशीभूत होकर प्राणी अपने भाई, पिता आदि को भी भूल जाता है अत: जो इन धन आदि से रहित हैं ऐसे तपस्वी, साधु आदि ही प्रशंसा के पात्र हैं। वास्तव में यह आत्मानुशासन ग्रंथ पढ़ते-पढ़ते संसार की अस्थिरता, असारता, क्षणभंगुरता का ज्ञान होता है। आज जब इस ग्रंथ को पढ़ना ही वैराग्यवर्धक प्रतीत होता है तो जब आर्यिका अभयमती माताजी ने इसका पद्यानुवाद किया होगा, तब अवश्य ही उनके भावों में अत्यधिक विशुद्धि रही होगी। इस प्रकार आगे-आगे के श्लोकों में संसारी प्राणियों के कर्तव्य-अकर्तव्य का भान करते हुए बहुत ही शिक्षास्पद बातें बताई हैं। पूरे गंथ के विस्तृतस्वरूप का कथन करने लगें तो एक अन्य ही पुस्तक तैयार हो सकती है। इतना अवश्य है कि प्रत्येक स्वाध्यायप्रेमी को कम से कम एक बार अपने जीवनकाल में आत्मानुशासन ग्रंथ का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए ताकि आत्मा पर अनुशासन करने की प्रक्रिया को सीखने में सफलता प्राप्त हो सके।