आत्मन् (आत्मा) शब्द आड्. उपसर्ग पूर्वक अत् धातु से मनिन् या अत् धातु से मनिण् प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है, जिसके प्रमुखया आत्मा, जीव, स्व एवं परमात्मा आदि अनेक अर्थ हैं। ये सभी एकार्थक भी हैं और क्वचित् भिन्नार्थक भी। द्रव्यसंग्रह की टीका में कहा गया है कि ‘अत’ धातु सतत गमन करने के रूप अर्थ में प्रयुक्त होती है। सभी गत्यर्थक धातुएँ ज्ञानार्थक भी होती हैं। अत: यहाँ पर गमन शब्द से ज्ञान कहा जाता है। फलत: जो यथासंभव ज्ञानादि गुणों में वर्तन करता है, वह आत्मा है। अथवा शुभ-अशुभ मन, वचन, काय की क्रिया के द्वारा यथासंभव तीव्र-मन्द आदि रूप से जो पूर्णतया वर्तन करता है, वह आत्मा है। अथवा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों धर्मों के द्वारा जो पूर्ण रूप से वर्तन करता है, वह आत्मा है।‘ अत् धातु: सातत्यगमनेऽर्थे बर्तते। गमनशब्देनात्र ज्ञानं भण्यते। सर्वे गत्यर्था: ज्ञानार्थ इति वचनात्। तेन करणनेय यथासंभवं ज्ञानसुखादिगुणेषु आसमन्तात् अतति वर्तते य: स आत्मा भण्यते।अथवा शुभाशुभमनोवचनकायव्यापासवसरैर्यथासंभवं तीव्रमन्दादिरूपणे। आसमन्ताद् अतति वर्तये य: स आत्मा। अथवा उत्पादव्ययध्रौव्यैरासमन्ताद् अतति वर्तते य: स आत्मा।द्रव्यसंगह, गाथा ५७ की टीका अत: कहा जा सकता है कि सब असंख्यात प्रदेशों के साथ जिसमें ज्ञान सतत प्रवाहित है, वह आत्मा है और जिसमें ज्ञान नहीं है वह आत्मा नहीं है। आत्मा का निरुक्तयर्थ स्पष्ट करते हुए श्री जिनसेनाचार्य ने लिखा है-
‘भूवेष्वतति सातत्यादेतीत्यामा निरुच्यते ।
सोऽन्तरात्माष्टकर्मान्तर्वर्तितादभिलप्यते ।।
स स्याज्ज्ञानगुणोपेतो ज्ञानी च तत एव स: ।’
आदि पुराण, अध्याय २४ श्लोक १०७-१०८
अर्थात् यह जीव नर-नारकादि पर्यायों में निरन्तर गमन करता रहता है, इसलिए आत्मा कहलाता है और ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के अन्तर्वर्ती होने से अन्तरात्मा भी कहलाता है। यह जीव ज्ञान गुण से सहित है इसलिए ज्ञानी कहलाता है और ज्ञ भी कहा जाता है।वही, अध्याय २४ श्लोक १०३ आचार्य जिनसेन ने जीव, प्राणी, जन्तु, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान्, आत्मा, अन्तरात्मा, ज्ञ और ज्ञानी- इन सबको पर्यायवाची माना है। आचार्यवर्य श्री गुणभद्रस्वामी द्वारा विचरित ग्रन्थ आत्मानुशासन का अभिधान ही ग्रन्थ का मुख्य प्रतिपाद्य आत्मा को बतलाना है। उनका ‘आत्मानुशासनमहं वक्ष्ये मोक्षाय भव्यानाम्’आत्मानुशासन, १ कथन ग्रन्थ में अत्यन्त अल्प उल्लिखित होने पर भी आत्मास्वरूपमीमांसा की प्रधानता को अभिव्यक्त करता है। अग्रिम श्लोक में आत्मन् सम्बोधन भी यह स्पष्ट करने में समर्थ है कि ग्रन्थ का प्रणयन आत्मा की सम्बुद्धि के लिए हुआ है। यथा –
‘दु:खाद्वभेषि नितरामभिवाञ्छसि सुखमतोऽहमप्यात्मन् ! दु:खापहारि सुखकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ।। वही, २
श्री गुणभद्राचार्य ने सब द्रव्यों का एक सामान्य लक्षण बतलाने के पश्चात् आत्मा के असाधरण लक्षण का कथन करते हुए लिखा है –
अर्थात् आत्मा ज्ञानस्वभावी है और स्वभाव की प्राप्ति अविनाशी होती है इसलिए अविनाशी अवस्था को चाहने वाले विवेकी को ज्ञान की भावना भानी चाहिए। यह असंदिग्ध तथ्य है कि चार्वाकेतर सभी दार्शनिक मोक्ष को ही दर्शन का परम प्रयोज्य मानते हैं। श्री त्रैविध सोमदेवाचार्य ने स्पष्टतया प्रतिपादित किया है-
अर्थात् जिस प्रकार अनेक वर्णो वाली गायों का दूध एक ही वर्ण वाला होता है, उसी प्रकार छहों दर्शनों का प्रयोज्य मोक्षमार्ग है। मोक्ष आत्मा के कल्याण एवं दु:खों से छुटकारे की अवस्था है। इसलिए सभी दार्शनिकों ने आत्मा के स्वरूप की मीमांसा की है। किन्तु उनकी विवेचना में आत्मा का स्वरूप पृथक-पृथक् है। आत्मानुशासनकार ने आत्मा के स्वरूप को प्रदर्शित करने के लिए जो एक श्लोक दिया है, उसमें अन्य दार्शनिकों के मतों के खण्डन का भी संकेत है। यथा –
अर्थात् आत्मा न तो कभी मरता है। इसकी कोई आकृति नहीं है, यह अमूर्तिक है। यह व्यवहार नय की अपेक्षा कर्मों का कर्ता है तथा निश्चय नय की अपेक्षा अपने स्वभाव का कर्ता है। यह व्यवहार नय की अपेक्षा सुख-दु:ख का भोक्ता है तथा निश्चय नय की अपेक्षा अपने स्वभाव का भोक्ता है। व्यवहार नय की अपेक्षा यह आत्मा इन्द्रियजन्य सुखों से सुखी है तो निश्चय नय की अपेक्षा परमानन्दमयी है। यह आत्मा ज्ञानरूप है। व्यवहार नय की अपेक्षा यह आत्मा देहमात्र या स्वदेहपरिणामी है तथा निश्चय नय की अपेक्षा चेतनामात्र है। यह आत्मा कर्ममल से मुक्त होकर ऊपर जाकर लोकग्र पर अचल स्थित हो जाता है। यह आत्मा स्वयं प्रभु है, इसका कोई अन्य स्वामी नहीं है। इस श्लोक में आत्मा को अजात, अनश्वर, अमूर्त, कर्ता, भोक्ता, सुखी, ज्ञानी, देहप्रमाण, निर्मल होने पर लोकाग्र में स्थित अचल तथा प्रभु कहा गया है। इन विशेषताओं के कथन से किसी न किसी अन्य दार्शनिक या अन्य मतालम्बियों के एकान्त मतों का निरसन करना ग्रन्थकार को अभीष्ट है। कुमारकवि ने आत्मप्रबोध में आत्मा के स्वरूप का जो विवेचन किया है, उस पर आत्मानुशासन का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है यथा –
अर्थात् यह आत्मा नित्य, अविनाशी गुणो वाला, परिणामी, दर्शन एवं ज्ञानापयोगी, स्वशरीरपरिणामी, कर्ता स्वयं भोक्ता, अनन्त सुखी है। आत्मानुशासन में श्री गुणभद्राचार्य द्वारा वर्णित आत्मा के विविध विशेषणों का निहितार्थ महत्वपूर्ण है। प्रत्येक विशेषण के निहितार्थ को इस प्रकार देखा जा सकता है।
१. अजात – अनात्मवादी चार्वाक दार्शनिकों का कहना है कि आत्मा का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश- इन पञ्चभूतों के योग्य संयोग से उत्पन्न हुई शक्ति मात्र को जीव कहते हैं, अत: जीव उत्पन्न होता है। वे कहते हैं कि जैसे मधूक, गुड, जल आदि में मद्य शक्ति दृष्टिगोचर नहीं होती है, किन्तु जब वे पारस्परिक समीचीन संयोग को प्राप्त होते हैं, तो उनमें मद्य शक्ति उत्पन्न हो जाती है। इसी प्रकार पृथ्वी आदि पाँच भूतों के संयोग से जीव उत्पन्न हो जाता है। चार्वाकों की इस मान्यता को खण्डन करने के लिए आत्मा को अजात कहा गया है। आत्मा की उत्पत्ति माना जाना इसलिए भी अताकिक है, क्योकि आज तक ऐसा कोई फार्मूला नहीं है कि पंचभूतों के इतन-इतने संयोजन से आत्मा की उत्पत्ति हो सके।
२. अनश्वर – अनश्वर विशेषण के द्वारा भी चार्वाकों का ही खण्डन किया गया प्रतीत होता है। क्योंकि जो पदार्थ उत्पन्न होता है, उसी का नाश सम्भव है। अजात या अनादि पदार्थ नियम से अनश्वर या अनन्त होता है। जिस प्रकार जीवन या आत्मा का आदि नहीं है, जन्म-मरण होते रहने पर भी समूल नाश न होने से आत्मा का अनश्वर होना सिद्ध है। मरण वस्तुत: देहान्तरप्राप्ति की प्रक्रिया का नाम है।
३. अमूर्त –जिस प्रकार चार्वाक दार्शनिक जीव को मूर्तिक पिण्ड मानते हैं, उसी प्रकार कुमारिल भट्ट के अनुयायी मीमांस दार्शनिक भी आत्मा को मूर्तिक स्वीकार करते हैं। जैनों की दृष्टि में भी यद्यपि कर्मबद्ध संसारी आत्मा मूर्तिक होता है तथापि आत्मा में पुद्गल के गुण रूप, रस, गन्ध और स्पर्श नहीं पाये जाते हैं, इसलिए आत्मा को अमूर्त कहा गया है। मूर्तता आत्मा का स्वाभाविक गुण नहीं है, वह तो वैभाविक गुण है। स्वाभाविक गुण तो आत्मा का अमूर्त होना ही है। श्रीमद्भगवत्कुन्कुन्दाचार्य ने भी कहा है –
अर्थात् जीव या आत्मा को अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, चेतना, गुणवान् अशब्द, किसी लिंग से अग्राह्य और किसी भी संस्थान (आकार) से रहित समझो।
४. कर्ता –सांख्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष ये दो मूल तत्व स्वीकार किये गये हैं। इनमें प्रकृति जड़ किन्तु क्रियायुक्त है जबकि पुरुष चेतन किन्तु निष्क्रिय है। उनकी दृष्टि में पुरुष (जीव या आत्मा) कर्ता नहीं है। प्रकृति में क्रिया होने से वही सुख-दु:ख आदि की कर्ता है। जैन दर्शन के अनुसार कर्मबद्ध आत्मा अपने शुभ-अशुभ या पुण्य-पाप रूप परिणामों का कर्ता है। सांख्य दार्शनिक जीव को सर्वथा निष्क्रिय कूटस्थ शुद्ध द्रव्य मानते हैं। वह वास्तव में बन्धन में भी नहीं पड़ता है। वे कहते हैं –
तस्मान्न बध्यतेऽद्धा न मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृति: ।। सांख्यकारिका, कारिका ६२
अर्थात् अपरिणामी होने से कोई भी पुरुष (आत्मा) न बन्धन को प्राप्त होता है, न मुक्त होता है और न संसरण करता है। प्रकृति ही संसरण करती है, बन्धन को प्राप्त होती है और मुक्त होती है। जैन दार्शनिकों की मान्यता है कि आत्मा निश्चय नय के अनुसार अपने भावों का और व्यवहार नय के अनुसार कर्मों का कर्ता है। यदि आत्मा को कर्मों का कर्ता नहीं माना जायेगा तो फिर वह बन्धन में नहीं पड़ेगा और बन्धन नहीं है तो मोक्ष कैसा ? क्योंकि बन्धन के नाश का नाम ही मोक्ष है। इसी कारण आत्मानुशासन में आत्मा को कर्ता कहा गया है।
५. भोक्ता – आत्मा को क्षणिक मानने के कारण बौद्धों में भोत्तृत्व संगत नहीं बन पाता हैं। क्योंकि जब क्रिया की गई तबका आत्मा अग्रिम क्षण में है ही नहीं। अत: उसमें कर्तापने एवं भोक्तापने की एकता संभव नहीं है। वह व्यवहार नय के अनुसार अपने कर्मफल रूप सुख-दु:ख आदि का तथा निश्चय नय के अनुसार चैतन्यरूप आनन्द को भोक्ता है। यदि आत्मा को अपने कार्मों का भोक्ता नहीं माना जायेगा तो पुण्य-पाप एवं पुनर्र्जन्म आदि की व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी। अत: आत्मविषयक बौद्ध मान्यता के निरसन के लिए आत्मा को भोक्ता कहा गया है।
६. सुखी – अनेक विचारक सुख को जीव का गुण नहीं मानते हैं। उनका कहना है कर्मफलमुक्त जीव में सुखादि विद्यमान नहीं रहते हैं। बौद्धों का निर्वाण दीपक के बुझने के समान अनुभूतिहीन दशा है। नैयायिक आदि में भी ऐसी मान्यता दृष्टिगत होती है। जबकि जैन दर्शन के अनुसार सुख आत्मा का विशेष गुण है। आलापपद्धति में कहा गया है कि जीव में ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनत्व और अमूर्तत्व- ये छह गुण हैं।‘जीवस्य ज्ञानदर्शनसुखवीर्याणि चेततनत्वामूर्तत्वमिति षट्’। – आलापपद्धति, २पञ्चाध्यायीकार चारित्र, दर्शन, सुख, ज्ञान एवं वीर्य इन पाँच को आत्मा का विशेष गुण मानते हैं। सुख रूप विशेष गुणता के कारण श्रीगुणभद्राचार्य ने आत्मा को सुखी कहा है।
७. ज्ञानी –आत्मा के चैतन्य गुण के अनुविधायी परिणाम का नाम उपयोग है और यह उपयोग जीव का लक्षण है।तद्यथायथं जीवस्य चारित्रं दर्शनं सुखम्। ज्ञानं सम्यक्त्वमित्येते स्युर्विशेषगुणा: स्फुटम् ।।’’ पञ्चाध्यायी, श्लोक ९४५उपयोग दो प्रकार का होता है – ज्ञानापयोग और दर्शनापयोग। दर्शनोेपयोग निराकार है और ज्ञानोपयोग साकार। चतुर्विध दर्शन और अष्टविध ज्ञान आत्मा का सामान्य व्यावहारिक लक्षण है। शुद्ध रूप में जीव केवल दर्शन और केवल ज्ञानमय है। सांख्य एवं नैयायिक आत्मा को ज्ञान रहित मानते हैं। नैयायिको का कहना है कि ज्ञान आत्मा का स्वभाव नहीं है, बाहर से आया है। सांख्य ज्ञान को प्रकृति की विकृति मानते हैं। उनके अनुसार बुद्धि ही ज्ञान है और वह प्रकृति का विकार है। जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है, जैसे अग्नि का उष्णता। जो जीव है वह ज्ञानवान् है और जो ज्ञानवान् है वह जीव (आत्मा) है। यह जीव मात्र में पाया जाता है। अत: सांख्यों एवं नैयायिकों की ज्ञानहीन आत्मास्वरूपता का खण्डन करने के लिए आत्मानुशासन में आत्मा को बुध (ज्ञानी) कहा गया है।‘उपयोगो लक्षणम् ।’-तत्वार्थसूत्र, २/८ ८. देहमात्र (देहपरिणाम) – आत्मा की आयतनिक स्थिति के विषय में विविध दार्शनिकों में पर्याप्त मतभिन्नता है। सांख्य, न्याय एवं वैशेषिक दर्शन अमूर्त होने के कारण आत्मा को आकाश की तरह सर्वव्यापक मानते हैं। श्रीमदभगवत्गीता में भी इसी मान्यता का प्रतिपादन है।श्रीमद्भगवद्गीता, २/२० किन्तु माधवाचार्य आदि कतिपय वेदान्ती आत्मा को अंगुष्ठमात्र या अणु रूप में स्वीकार करते हैं।द्रष्टव्य- भारतीय दर्शन (डॉ. राधाकृष्णान्) भाग २, पृ.६५२ १७. ‘प्रदेशसंहार विसर्पाभ्यां प्रदीपव् ।’ – तत्वार्थसूत्र ५/१६ सभी जैन दार्शनिक आत्मा को स्वदेहपरिमाण स्वीकार करते हैं। शरीर के आकार के अनुसार दीपक की तरह आत्मप्रदेशों में संकोचन या विस्तार होता रहता है।’प्रदेशसंहार विसर्पाभ्यं प्रदिपव’ तत्वार्थसूत्र 5/16 आत्मा सर्वव्यापी नहीं है, न ही शरीर के एकदेश में रहने वाली है, अपितु शरीरव्यापी है। इस अभिप्राय को अभिव्यक्त करने तथा सांख्यादि दार्शनिकों की मान्यता से असहमति दिखाने के लिए आत्मानुशासन में आत्मा को देहमात्र कहा गया है। ९. निर्मल (मलैमुक्त:) – आत्मा के २ रूप हैं -स्वाभाविक एवं वैभाविक। स्वाभाविक रूप स्वाधीन होता है, जबकि वैभाविक रूप परनिमित्ताधीन होता है। स्वाभाविक रूप से आत्मा निर्मल है, जबकि वैभाविक रूप में आत्मा अशुद्ध या कर्ममल से संयुक्त है। आत्मा को निर्मल कहना शुद्ध स्वाभाविक आत्मदशा का कथन है। सदाशिव मत के अनुसार जीव सदाशिव स्वरूप है। वह कभी संसारी नहीं होता है। कर्मों का उस पर कोई असर नहीं पड़ता है। अद्वैत वेदान्ती ब्रह्म को एक मात्र यथार्थ मानकर जीव को उसका विवर्त मानते हैं। जैन दर्शन के अनुसार जीव अनादि से कर्ममलयुक्त संसारी है। संसारी दशा में वह अशुद्ध है। वह पुरूषार्थ के बल से कर्मों को नष्ट कर निर्मल या शुद्ध दशा को प्राप्त हो जाता है। निश्चय नय की अपेक्षा आत्मा को निर्मल कहा गया है। इससे उन विचारकों की मान्यताओं का खण्डन किया गया प्रतीत होता है, जो एकान्तत: आत्मा को निर्मल ही मानते हैं या आत्मा का कभी भी निर्मल हो पाना स्वीकार नहीं करते हैं। १०. अचल – जैन दर्शन के अनुसार आत्मा ऊध्र्वगतिस्वभावी है। आत्मा जब कर्ममलों से मुक्त हो जाता है, तो दीपक की निर्वात शिखा की तरह ऊध्र्व गमन करता है। उसकी इस गति में धर्मद्रव्य निमित्त बनता है। यत: लोकाकाश के आगे अलोकाकाश में धर्म द्रव्य की सत्ता नहीं पाई जाती है, अत: लोकाकाश तक ही वह गमन कर पाता है।‘धर्मास्तिकायाभावात् ।’ -वही १०/८ वह लोक के अग्र भाग पर अचल दशा में स्थित हो जाता है। माण्डलिक मतानुयायी जीव को निरन्तर गतिशील मानते हैं।द्रव्यसंग्रह गाथा २ की टीका उनकी मान्यता में जीव सतत गतिशील ही बना रहता है, वह कभी भी अचल नहीं होता है। जैन दर्शन में जीव को ऊध्र्वगमनस्वभावी मानते हुए धर्मद्रव्य के अभाव में लोकाग्र में स्थित अचल माना गया है। आत्मा के अचल विशेषण से उन माण्डलिक मतानुयायियों का खण्डन किया गया है, जो जीव को सदा गतिशील मानते हैं। ११. प्रभु – अद्वैत वेदान्ती जीव को ब्रह्म का अंश मानकर उसकी स्वतन्त्र सत्ता का निषेध करते हैं। जैन दार्शनिक अद्वैतवेदान्तियों की इस मान्यता से सहमत नहीं है। यत: सभी जीवात्माओं की प्रवृत्तियाँ समान नहीं है, आत्मा या जीव एक या एक के अंश नहीं है, अपितु अनेक हैं। श्री भावसेन का कहना है कि यदि आत्मा एक होती हो एक समय में वह तत्वज्ञ और मिथ्याज्ञानी, आसक्त और निरासक्त विरुद्ध व्यवहार वाला न होता। अत: आत्मा एक नहीं है।विश्वतत्वप्रकाश, पृष्ठ १७४ सांख्य दार्शनिकों ने बड़े ही ताकिक ढंग से एकात्मवाद का खण्डन तथा अनेकात्मावाद की स्थापना की है –‘जनममरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत्पवृत्तेश्च । पुरुषबहुत्वं सिद्धं त्रैगुण्यविपर्ययाच्चैव’ ।।सांख्यकारिका, कारिका १८अर्थात जन्म, मरण और करण (अन्त:करण और ब्रह्यकरण) की प्रत्येक शरीर में पृथक-पृथक स्थिति दृष्टिाोचर होने से, सब जीवात्माओं की किसी क्रिया में एक साथ प्रवृत्ति न होने से तथा तीनों गुणों की भिन्न-भिन्न आत्मा में विपरीतता देखे जाने से प्रत्येक आत्मा की भिन्नता एवं उनकी अनेकता सिद्ध हो जाती है। सांख्य दार्शिनिकों के समान नैयायिक, वैशेषिक एवं मीमांसक भी आतमा की अनेकता स्वीकार करते हैं। जैन दार्शनिकों को आत्मा की अनेकता के साथ उनकी स्वयंप्रभुता भी अभीष्ट है। अतएव आत्मा को प्रभु कहा गया है।
डॉ. जय कुमार जैन पूर्व संस्कृत विभागाध्यक्ष एस.डी. पी.जी. कालेज, मुजफरनगर (उ०प्र०)