पीड़ा से उत्पन्न हुए ध्यान को आर्तध्यान कहते हैं। इसके चार भेद हैं-विष, वंटक, शत्रु आदि अप्रिय पदार्थों का संयोग हो जाने पर ‘वे कैसे दूर हों’ इस प्रकार चिन्ता करना प्रथम अनिष्ट-संयोगज आर्तध्यान है। अपने इष्ट-पुत्र, स्त्री और धनादिक के वियोग हो जाने पर उसकी प्राप्ति के लिए निरन्तर चिन्ता करना द्वितीय इष्टवियोगज आर्तध्यान है। वेदना के होने पर उसे दूर करने के लिए सतत चिन्ता करना तीसरा वेदनाजन्य आर्तध्यान है। आगामी काल में विषयों की प्राप्ति के लिए निरन्तर चिन्ता करना चौथा निदानज आर्तध्यान है। यह आर्तध्यान छठे गुणस्थान तक हो सकता है। छठे में निदान नाम का आर्तध्यान नहीं हो सकता है।