आर्यिकाएँ परस्पर में अनुकूल रहें, ईष्र्या आदि से दूर रहें। उपर्युक्त मूलगुणों का और दश प्रकार के समाचार गुणों का पालन करें। आर्यिकाओं के लिए वृक्षमूल, आतापन आदि योग का निषेध है, बाकी सभी क्रियाएँ मुनियों के समान ही हैं। आर्यिकाएँ ग्राम से न अधिक दूर, न निकट, ऐसी वसतिका में मिलकर वात्सल्य से रहती हैं। यतियों के स्थान से दूर रहें। ये गणिनी की आज्ञा लेकर ही आहार आदि के लिए गमन करें। गुरुओं के दर्शनार्थ या प्रायश्चित्त आदि लेने के लिए गणिनी को साथ लेकर ही जावें। साधुपद के अयोग्य रोना, गाना, सोना, आरंभ आदिरूप कोई भी क्रियाएँ न करें। विशेष-आर्यिकाएँ दो साड़ी रखती हैं और बैठकर ही करपात्र में आहार ग्रहण करती हैं। इतना ही मुनियों से इनमें अंतर है। इनके पंच महाव्रत उपचार से कहे जाते हैं इसलिए इनके संयमरूप छठा गुणस्थान नहीं होता है। फिर भी ऐलक की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं। एक लंगोटीमात्र ऐलक द्वारा भी वंदनीय हैं। कहा भी है-‘‘ग्यारहवीं प्रतिमाधारी ऐलक लंगोटी में ममत्व सहित होने से उपचार महाव्रत के योग्य भी नहीं है किन्तु आर्यिका एक साड़ी मात्र धारण करने पर भी ममत्व रहित होने से उपचार महाव्रत के योग्य हैं।’’
संघ के पाँच आधार – जिस संघ में आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर ये पाँच आधार रहते हैं, उस संघ में ही विद्याध्ययन आदि सुचारू रहते हैं।
आचार्य – शिष्यों के ऊपर अनुग्रह में कुशल, पंचाचार का स्वयं पालन करने और शिष्यों को कराने वाले, प्रायश्चित्त आदि देने वाले आचार्य होते हैं।
उपाध्याय – जो शिष्यों को श्रुत पढ़ाते हैं।
संघ प्रवर्तक – जो चार प्रकार के मुनियों को चर्यादि में प्रवृत्ति कराते हैं।
स्थविर (मर्यादोपदेशक) –जो बाल, वृद्ध मुनियों को उपदेश देकर सन्मार्ग का पालन करते हैं। आज इस पंचमकाल में मिथ्यादृष्टियों की बहुलता होने से एवं हीन संहनन आदि होने से मुनियों को संघ में ही रहना चाहिए, एकलविहारी नहीं बनना चाहिए।