हे भगवन् ! मैं निःसंग हो, जिनगृह की प्रदक्षिणा करके।
भक्ती से प्रभु सन्मुख आकर, करकुड्मल शिर नत करके।।
निंदारहित दुरितहर अक्षय, इंद्रवंद्य श्री आप्त जिनेश।
सदा करूँ संस्तवन मोहतमहर! तव ज्ञानभानु परमेश।।१।।
जिनमंदिर श्रीयुत पावन, अकलंक अनंतकल्प सच में।
स्वयं हुए अकृत्रिम सब, मंगलयुत प्रथम तीर्थ जग में।।
नित्य महोत्सव सहित मणीमय, जिनवर चैत्यालय उत्तम।
तीन लोक के भूषण उनकी, शरण लिया मैं हे भगवन्।।२।।
स्याद्वादमय अमोघ शासन, श्रीमत् सदा परम गंभीर।
त्रिभुवनपति शासन जिनशासन, सदा रहे जयशील सुधीर।।३।।
श्रीमुख के अवलोकन से, श्रीमुख का अवलोकन होता।
अवलोकन से रहित जनों को, वह सुख प्राप्त कहाँ होता।।४।।
हे भगवन् ! मम नेत्र युगल शुचि, सफल हुए हैं आज अहो।
तव चरणांबुज का दर्शन कर, जन्म सफल है आज अहो।।
हे त्रैलोक्य तिलक जिन! तव, दर्शन से प्रतिभासित होता।
यह संसार वार्धि चुल्लुक, जलसम हो गया अहो ऐसा।।५।।
आज पवित्र हुआ तनु मेरा, नेत्र युगल भी विमल हुए।
धर्मतीर्थ में मैं स्नान, किया जिनवर! तव दर्श किए।।६।।
नमो नमो हे सत्त्वहितंकर! भव्यकमलभास्कर हे ईश।
अनंत लोकपति सुर अर्चित जिन, नमूँ सुराधिप देव हमेश।।७।।
नमूँ सुरों से अर्चित जिनवर, दोषरहित गुणसिंधु तुम्हें।
हे देवाधिदेव जिन शिवपथ, प्रतिबोधक मैं नमूँ तुम्हें।।८।।
हे देवाधिदेव! परमेश्वर!, वीतराग! सर्वज्ञ जिनेश।
तीर्थंकर जिन! सिद्ध! महानुभाव! त्रिजग के नाथ महेश।।
हे जिनपुंगव! वर्धमान स्वामिन् ! तव चरणाम्बुज युग की।
शरण लिया मैं भक्ति भाव से रक्षा करो प्रभो! झटिती।।९।।
मद अरु हर्ष द्वेष के विजयी, मोह परीषह के विजयी।
महा कषाय भटों के विजयी, भव कारण के अतःजयी।।
जन्म-मरण रोगों को जीता, मात्सर्यादिक दोषजयी।
सबको जीत कहाए तुम ‘जिन’, अतः रहो जयशील सही।।१०।।
त्रिभुवन हितकर धर्मचक्र, नीरज बंधो! हे सूर्य जिनेश।
हे जिन वर्धमान! तव जय हो, धर्मकीर्तिवर्धित भुवनेश।।
सुरपतिमुकुट प्रभामय भास्कर, चूड़ामणि की किरणों से।
रंजित अरुणचरणयुग जिनके, ऐसे प्रभु जयशील रहें।।११।।
जय जय जय त्रैलोक्यकाण्ड के, शोभित चूड़ामणि जिनवर।
मन के तम को हरो हरो, मम हरो जगत पंकज भास्कर।।
स्वामिन् ! शक्ति अनन्ती मुझको, करो करो झट करो सदा।
नहिं नहिं नहिं लोकैकमित्र प्रभु, तुम सम अन्य कोई सुखदा।।१२।।
मन में भक्ति धरें मुख से, संस्तुती करें अति भक्ति भरें।
शिर से नमन करें करद्वय, कुड्मल पंकज अंजुली करें।।
इस विधि देव! तुम्हारी जो, भक्ति स्तुति नतिअंजुली करें।
धन्य वही हैं जीव जगत में, धन्य जन्म निज सफल करें।।१३।।
जन्म विनाशी चरण कमल तव, यदि नहिं मिले किसी जन को।
तो भी वह दुर्देव न सेवे, चाहे स्वैर रहे भी वो।।
सुलभ प्राप्त अन्नादि भखे, यदि अन्न कभी दुर्लभ होवे।
क्षुधा नाश के हेतु बुभुक्षू, कालकूट विष क्या पीवे?।।१४।।
सुन्दररूप उपाधि रहित तव, देख इंद्र भी अति हर्षित।
नेत्र हजार किये दर्शक, कौतुक कर भगवन् ! भक्तीवश।।
गद्गद वाणी पुलकित तनु, नेत्रों से आनंदाश्रु झरें।
मस्तक झुका हाथ युग जोड़ें, मन भी तुष्टी हर्ष धरे।।१५।।
त्रसित शत्रुगण त्रिभुवनवेदी, तीन लोक त्राता तुम ही।
श्रेय जन्मदाता श्री की निधि, सुरगण में हो श्रेष्ठ तुम्हीं।।
शरण कुशल! तव शरणे आया, छोड़ उपेक्षा रक्ष करो।
हे जिन! गुप्त प्रगट क्या करना? क्षेमस्थान प्रदान करो।।१६।।
तीनलोक राजेन्द्र मुकुट, तटमणि की आभा से चुंबित।
जिनके चरण सरोरुह उत्तम, कांतिमान् चमके संतत।।
जिनने है जड़मूल उखाड़ा, कर्मवृक्ष ऐसे प्रभु जो।
जिनवर चन्द्र तुम्हें मैं प्रणमूं, भक्ति भाव से शिरनत हो।।१७।।
हाथ-पैर तनु से विघात से, चलते जीवों का जो घात।
किया सदा प्रमाद से मैंने, उसको मिथ्या करने काज।।
उन दोषों को दूर करन को, भव भयभीत हुआ हूँ मैं।
ईर्यापथ को तज कर अब, ईर्यापथ शुद्धी करता मैं।।१८।।