नगर/ग्राम के विकास में मंदिर की तथा घर में चैत्यालय की स्थिति का महत्वपूर्ण स्थान होता है। सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक तथा अध्यात्मिक विकास मंदिर/चैत्यालय की वास्तु संरचना तथा स्थिति पर निर्भर करता है। इस लेख में हम मंदिर स्थापना के स्थान चयन को प्रभावित करने वाले बिन्दुओं का अध्ययन करेंगे।
(१) ग्रंथ क्या कहते हैं? वास्तु ग्रंथ मयमतम् के अनुसार जिनालय की स्थापना भृंगराज वर्ग में करना चाहिए। भूखण्ड में विभिन्न देवताओं का निवास माना गया है। भृंगराज उन्हीं देवताओं में से एक हैं। यह स्थान निम्नांकित चित्र में दिखाया गया है। उत्तर ९ ८- ७ ६- पश्चिम ५- पूर्व ४- ३- २- १- १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ दक्षिण
(२) संबंध में वास्तु सिद्धांत कौन से हैं? अब हम तीन अन्य सिद्धांतों पर विचार करते हैं, ये हैं-
(अ) जिनदेव के सामने तथा दाहिनी ओर रहने वालों का सर्वांगीण विकास होता है। पीछे तथा बांयी ओर निवास नहीं करना चाहिये।
(ब) जिनदेव की स्थापना पूर्व या उत्तरमुखी ही करना चाहिए” दक्षिण, पश्चिम तथा विदिशाओं की तरफ भगवान की स्थापना नहीं करना चाहिये यह अशुभ फल देने वाला होता है।
(स) ईशान देवस्थान कैसे हैं ? यहाँ ईशान के देवस्थान होने का अर्थ इस स्थान को देवालय के समान स्वच्छ एवं पवित्र रखने से है। दुर्भाग्यवश इसका अर्थ ‘‘यहाँ मंदिर बनाना चाहिये’’ से लिया जा रहा है। ईशान में बच्चों का कमरा, अध्ययन कक्ष, बैठक कक्ष आदि बनाना चाहिये।
(३) ईशान में मंदिर/ चैत्यालय की चार संभावित स्थितियाँ दर्शायी गई हैं। इनमें स्थित घ् N एवं घ् E क्रमश: दक्षिण एवं पश्चिममुखी होने के कारण स्वीकार्य नहीं हैं स्थिति घ्ए में उत्तरमुखी स्थापना होना तो ठीक है लेकिन पूरा भूखण्ड पीछे या बांये तरफ आता है अत: यह भी त्याज्य है। स्थिति में आधा भूखण्ड पीछे आने के कारण स्थापना नहीं करना चाहिये। इस प्रकार हम देखते हैं कि ईशान में संभावित चारों स्थितियाँ मंदिर/ चैत्यालय निर्माण के लिये ठीक नही हैं। वायव्य ईशान पूर्वमुखी- उत्तरमुखी- नैऋत्य ए आग्नेय
(४) फिर मंदिर कहाँ बनेगा ? भूखण्ड में नैऋत्य एवं वायव्य ऐसे स्थान हैं जहाँ निर्मित मंदिर/ चैत्यालय समस्त वास्तु सिद्धातों के अनुकूल होते हैं। परिणाम स्वरूप भवन/नगर के निवासी सर्वांगीण विकास करते हैं। उक्त चित्र में वायव्य में पूर्वमुखी तथा नैऋत्य में उत्तरमुखी मंदिर। नैऋत्य की स्थिति दर्शायी गई है। इन दोनों स्थितियों में शेष भूखण्ड तथा दाहिनी ओर आ जाता है अत: श्रेष्ठ है। नवदेवताओं में से एक होने के कारण जिनालय की पीठ की उँचाई अन्य भवनों की पीठ से अधिक रखी जाती हैं। शिखर के कारण मंदिर की ऊँचाई अन्य भवनों की ऊँचाई से अधिक हो जाती है, अत: मंदिर नैऋत्य में बनाने से यह स्थान भारी एवं ऊँचा हो जाता है जो कि शुभ फल देने वाला है। वास्तु में स्वामी का स्थान नैऋत्य तथा बच्चों का ईशान कहा गया है, अत: तीनों लोकों के स्वामी की स्थापना भी नैऋत्य में ही होना चाहिए ताकि सम्पूर्ण नगर/गृह में निवास करने वाले लोग जिनेन्द्र भगवान द्वारा बताये हुए मार्ग का अनुसरण करें। ईशान में जिनदेव की स्थापना करने से जिनवाणी का उल्लंघन होता है, धर्म विरूद्ध कार्य होते हैं। निवासी अपने स्वयं के स्वार्थ के लिये धर्म का गलत इस्तेमाल करते हैं। इस प्रकार देखते हैं कि जिनालय निर्माण के लिये नैऋत्य तथा वायव्य श्रेष्ठ स्थान है। इसके अतिरिक्त दक्षिण तथा पश्चिम के मध्य में भी योग्य वास्तुविद् की सलाह से जिनालय स्थापित किया जा सकता है।