प्रात:काल की मंगल बेला है, १७-१८ साल की एक बालिका भारती स्नानादि से निवृत्त होकर अपनी सहेली ऋद्धि के घर पहुँच जाती है। ऋद्धि भी मंदिर जाने के लिए तैयार हो रही है, साथ में कुछ गुनगुना भी रही है।)
भारती-ऋद्धि! तुम अभी तक तैयार नही हुई ? और तुम तो आज बहुत खुश नजर आ रही हो क्या तुमने कोई नई फिल्म देखी है क्या ?
ऋद्धि-नहीं भारती! इस समय दशलक्षण पर्व चल रहे हैं, मैंने दस दिनों के लिए फिल्म देखने का त्याग कर दिया है। आजआकिंचन धर्म है न! मैं उसी के बारे में सोच रही थी।
भारती-अरे हाँ! मैं तो भूल ही गई थी।
ऋद्धि-आकिंचन्य का मतलब क्या होता है, क्या तुम जानती हो ?
भारती-ज्यादा तो नहीं, हाँ! इतना जानती हूँ कि मेरा कुछ नहीं है, ऐसी भावना करना आकिंचन धर्म है। दोनों मंदिर के लिए चल पड़ती हैं और रास्ते में बातें भी कर रही हैं।
ऋद्धि-इस बार तो जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से पंडित जी आए हैं, बहुत अच्छा प्रवचन करते हैं।
भारती-हाँ ऋद्धि! यहाँ के समाज वालों ने रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी से निवेदन किया था, तो पंडित जी आए हैं। इस बार तो मंदिर जी में रात्रि में बड़ा आनंद आता है। बातें करते-करते दोनों मंदिर जी में पहुँच जाती हैं, वहाँ दर्शन-आरती करके सभा में बैठ जाती हैं। (पंडित जी अपना वक्तव्य प्रारंभ करते हैं)।
श्रावक १ (खड़े होकर)-पंडित जी! इस आकिंचन धर्म का पूर्ण पालन कौन करते हैं।
पंडित जी-नग्न दिगम्बर मुनिराज पूर्णरूप से इस धर्म का पालन करते हैं। आप देखते हैं, उनके पास रंचमात्र भी परिग्रह नहीं होता।
श्रावक २-क्या हम लोग भी इस धर्म को धारण कर सकते हैं ?
पंडित जी-हाँ-हाँ क्यों नहीं ?
श्रावक ३-लेकिन हम लोगों के पास तो बहुत परिग्रह रहता है।
पंडित जी-उस बहुत परिग्रह में से जितने परिग्रह की आवश्यकता नहीं है, उसका त्याग कर देने से भी इस धर्म का आंशिक पालन हो जाता है।
श्रावक ४-पंडित जी! वह कैसे हो सकता है ?
पंडित जी-सुनो! मैं बताता हूँ आप श्रावकों के लिए आचार्यों ने ५ अणुव्रत बताएं हैं-अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, परिग्रहपरिमाण, अणुव्रत!
श्रावक ५-इनका क्या मतलब होता है, पण्डित जी!
पंडित जी-हम पाँचों पापों का पूर्ण त्याग नहीं कर सकते हैं, तो उनका आंशिक त्याग करना हमारे लिए आवश्यक है।
देखिए-संकल्पपूर्वक किसी जीव को नहीं मारना अहिंसाणुव्रत है।
महिला १-लेकिन पंडित जी! घर में चींटी आदि इतना परेशान करती हैं, तो लक्ष्मण रेखा तो खींचनी ही पड़ती है।
पंडित जी-नही! लक्ष्मण रेखा खींचना संकल्पी हिंसा में आता है, आप अच्छी तरह सफाई करके कपूर का छिड़काव करें, चीटीं नहीं आएगी। (कुछ क्षण रुककर पंडित जी पुन: बोलने लगते है।) इसी प्रकार झूठ, चोरी, कुशील का त्याग करें और अपने परिग्रह का प्रमाण करें।
महिला २-पण्डित जी! परिग्रह का प्रमाण कैसे कर सकते हैं ?
पंडित जी-सोना, चांदी, जमीन, जायदाद आपको अधिक से अधिक जितना रखना हो, उसकी सीमा कर लें, जिससे तीनलोक की अथाह सम्पत्ति के पाप से आप बच जायेंगे।
श्रावक १-यह तो पंडित जी! आपने बहुत अच्छी बात बताई है।
पंडित जी-हाँ! इस महानव्रत को धारण करने से बहुत उत्तम फल की प्राप्ति होती है।
श्रावक २-इसका कोई उदाहरण भी है पंडित जी।
पंडित जी-हाँ है ना! आज से लगभग ७०-८० साल पहले की बात है, इस युग के प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज अपने संघ सहित दक्षिण भारत में विराजमान थे। उनके पास मुम्बई के सेठ पूनमचंद घासीलाल जी ने अणुव्रत ग्रहण किए। उस समय उन्होंने १ लाख रुपये का प्रमाण कर लिया।
श्रावक ३-बस एक लाख रुपये ?
पंडित जी-हाँ उस समय १ लाख रुपये की बहुत कीमत थी ?
श्रावक ४-फिर क्या हुआ पंडित जी ?
पंडित जी-व्रत के प्रभाव से उनका धन बढ़ता चला गया और प्रमाण से अधिक हो गया।
श्रावक ५-तो उन्होंने उस धन को अपने बच्चों के नाम कर दिया होगा?
पंडित जी-नहीं उन्होंने ऐसा नहीं किया वे फिर महाराज जी के पास गए उनको सारी बात बताई। यह निर्णय हुआ कि इस धन से महाराज जी के संघ को सम्मेदशिखर की यात्रा कराई जाए। उन्होंने ऐसा ही किया और इसके कारण उन्होंने महान पुण्य संचित कर लिया। आज जब आचार्यश्री की महिमा गाई जाती है, तब उनके संघपति के रूप में पूनमचंद घासीलाल का नाम अवश्य लिया जाता है।
महिला १-हाँ! मैंने पारस चैनल के माध्यम से पूज्य ज्ञानमती माताजी के मुख से कई बार उनका नाम सुना है।
पंडित जी-हाँ भाई! इसलिए आज सभी को अपने जीवन में अणुव्रत ग्रहण करने की भावना अवश्य करना है, इसी के प्रभाव से हम आगे एक दिन पूर्ण आकिंचन अर्थात् मुनि बनकर अपनी आत्मा का कल्याण कर सकेंगे।
महिला २-वाह पंडित जी,आकिंचन धर्म की महिमा सुनकर तो आज मन प्रसन्न हो गया।
पंडित जी-जय बोलो! उत्तमआकिंचन धर्म की जय। सामूहिक स्वर-सभी लोग एक भजन गुनगुनाते हैं।
तर्ज-अरे रे मेरी जान है………. अरे दशधर्म है आया,
पर्व दशलक्षण लाया कर ले धरम तू भव्य प्राणी रे-२
उत्तम क्षमादि है इनका नाम। इनका नाम लेने से कटते हैं पाप।।
कुछ भी मेरा नहिं ये आकिंचन्य धरम है। इसके पालन से मिलता स्वर्ग मोक्ष है।।
अरे दश……………………… श्रावक पंचाणुव्रत ग्रहण करते।
और पाँच पाप से भी है बचते।।
मुनि पंच पाप का पूर्ण त्याग करते। सभी उनके चरणों में नमन करते।।